Thursday 12 July 2018

वेद में प्रसन्नता के उपाय


मानव सुखी तब ही रह सकता है, जब उसका मन उत्तम हो , जब वह प्रसन्न रहे, सुखों की उस पर सदा वर्षा होती रहे. इसके लिए यह आवश्यक है कि वह भौतिक सुखों की और न भाग कर वास्तविक सुख के साधनों को ग्रहण करने का संयोजन का प्रयत्न करता रहे. इस सम्बन्ध में ऋग्वेद का यह मन्त्र खुले स्वर से हमारा मार्गदर्शन करते हुए उपदेश कर रहा है कि-   
 विश्वदानीं सुमनस: स्याम पश्येम नु  सूर्यमुच्चरन्तम̖ |
     तथा करद्वसुपतिर्वसूनां  देवाँ ओहानौवसागमिष्ठ ||ऋग्वेद ६.५२.५ ||

       मन्त्र उपदेश करते हुए हमारा मार्गदर्शन कर रहा है और कह रहा है कि हम सदा उत्तम मन वाले हों तथा सदा प्रसन्न रहने वाले हों. यहाँ मन्त्र कह रहा है कि प्रसन्न रहने की औषध है उत्तम मन. जिसका मन उत्तम है, भौतिक क्रियाओं से बचा हुआ है, कभी किसी का बुरा करने का सोचता नहीं है, बुराइयों से बचा हुआ है, उसे कभी कोई कष्ट क्लेश नहीं घेर सकता.  इसलिए इस प्रकार का व्यक्ति सुखी
होता है प्रसन्न होता है द्य निराशा कभी उत्तम मन वाले प्राणी को कभी छू भी नहीं सकती द्य इस लिए हे मानव ! तूं उत्तम मन वाला बन कर सदा प्रसन्न रह.
          मन्त्र आगे कहता है कि हम ज्ञान रूपी सूर्य को सदा उदित
होते हुए देखें. हम जानते हैं कि सब क्रियाओं का मूल ज्ञान है और मन्त्र इस ज्ञान को सदा अपने अन्दर उदय होने का उपदेश कर रहा है. जब हम वेद रूपी ज्ञान का सूर्य अपने अन्दर उदय कर पाने में सक्षम होंगे तो हम उत्तम प्रसन्न रह सकेंगे प्रसन्न रह सकेंगे.
         मन्त्र हमें परमपिता परमात्मा की सदा प्रार्थना करने का उपदेश दे रहा है और कह रहा है कि वह प्रभु सब प्रकार के एश्वर्यों का स्वामी है. पृथिवी आदि जितनी भी वस्तुएं हमें दिखाई दे रही हैं, ओंअ सब का आधार भी वह प्रभु ही है. इस कारण ही हमारा अस्तित्व है. यदि यह न हो तो हमारा अस्तित्व ही संभव नहीं है. इस सब के होने से ही हमारी प्रसन्नता संभव हो पाती है. इस लिए हम सदा उस प्रभु की सेवा में ही रहें.
          हम उस सर्वशक्तिमान प्रभु से यह भी प्रार्थना करें कि हे पिता! आप दिव्य गुणों की वर्षा करने वाले हैं. एसी कृपा करें कि हम भी इन दिव्य गुणों को ग्रहण कर पावें. इतना ही नहीं आप हमें सदा       
विद्वान लोगों का सत्संग भी कराते रहें ताकि हम उनसे भी ज्ञान प्राप्त कर सकें. आप सब के रक्षक हो, आप के चरणों में रहते हुए हम भी सदा आप से रक्षित होते रहें.
         इस प्रकार सार रूप में उपदेश देते हुए यह मन्त्र एक स्पष्ट तथा बड़ा ही सरल सन्देश दे रहा है कि-         
१.हम अपने मन में सदा उत्तम विचार रखें 
२.हम सदा प्रसन्न रहें
         वेद ने हमें यह आदेश क्यों दिया है ? स्पष्ट है कि उत्तम विचारों वाला मन ही सुख, शांति तथा धन एश्वर्य की प्राप्ति का साधन है. यही प्रसन्नता का साधन है. एक प्रसन्न मानवाला व्यक्ति कभी दुखी नहीं हो सकता. जब मन के अन्दर असत्य, ईर्ष्या, द्वेष, छल कपट सरीखे विचार जब टाक मन में रहेंगे तब तक वह लड़ाई झगडा, कलह व कलेश में उलझा रहेगा द्य मन में कभी शान्ति न आ पावेगी. अशांत मन कभी भी उत्तम नहीं हो सकता. जब मन में बुराइयां भर राखी हैं तो वहां अच्छे विचारों के लिए स्थान ही नहीं रहता. इसलिए मन से यह बुराइयां निकाल कर उत्तम विचारों के लिए स्थान खाली करें और अपने मन को उत्तमता की और लगा कर उत्तम विचारों का प्रवेश करावें.
        एक प्रसन्नता एसी भी होती है जिसे हम आज्ञान मूलक कह सकते हैं. इस प्रसन्नता का कारण हमारा अज्ञान होता है. जैसे अफीम, भंग, चरस, गांजा, शराब आदि अभक्ष्य पदार्थों आदि के सेवन से मानव कुछ समय के लिए अपनी चिंताओं से मुक्त हो जाता है किन्तु तो भी वह सच्ची प्रसन्नता नहीं पा सकते क्योंकि कुछ समय के पश्चात ही इन वस्तुओं का सेवन न केवल परिवार में बल्कि गली मोहल्ले में भी लड़ाई , झगड़े का कारण बन जाता है. अत: इस से प्रसन्नता के स्थान पर उसे कष्ट ही मिलता है, जब कि वेद तो ज्ञान मूलक प्रसन्नता प्राप्ति का उपदेश करता है. मन्त्र में कहा भी है कि ज्ञान के सूर्य को हम प्रतिदिन उदय होते हुए देखें अर्थात हम प्रातरू बिस्तर छोड़ने से लेकर रात्रि को बिस्तर में आने तक निरंतर अपने ज्ञान को बढाने का प्रयास करते हुए सच्चे अर्थों में प्रसन्नता प्राप्त करने के प्रयास में रहें. सूर्य परम पिता के विशेषनात्मक नामों में से एक है.
         इससे इस मंत्रांश का यह भी भाव बनता है कि जो पिता सब का प्रकाशक है, हम उस परमपिता परमात्मा को अपने हृदय के आकाश में सब स्थानों पर अनुभव करें, उसकी सच्चे ह्रदय से प्रार्थना करते हुए आशा करें कि चाहे हम दुख में हों या सुख में ,हानि  हो रही हो अथवा लाभ,  विजयी हो रहे हों या पराजित ,  प्रत्येक अवस्था में हमारी यह प्रसन्नता बनी रहे. 
          वह प्रभु मंगलमय है, वह प्रभु आनंद देने वाला है, वह प्रभु सुख दायक है. उस प्रभु की कृपा को पाने के लिए, उस प्रभु की दया को पाने के लिए हमें सदा निरंतर अभ्यास करने की आवश्यकता होती है. निरंतर अभ्यास से, प्रभु के दिए गये वेद ज्ञान के निरंतर स्वाध्याय के बिना हम कुछ भी प्राप्त नहीं कर सकते इस लिए हमें निरंतर ,विशेष रूप से प्रतिदिन शुभ मुहूर्त से उठें तथा प्रभु के श्री चरणों में बैठ कर उसकी वाणी वेद का सदा स्वाध्याय करें द्य इससे ही हम विषाद रहित होकर प्रसन्न होंगे, सुखी होंगे.
डा. अशोक आर्य                  

No comments:

Post a Comment