Sunday 27 May 2018

प्रजा से ही राजा को शक्ति मिलती है


         वेद का यह स्पष्ट आदेश है कि जो गुण राजा के लिए बताए गए हैं,  उन गुणों की जांच परख प्रजा द्वारा करने पर ही पक्ष- विपक्ष का मतदान किया जाना चाहिए, अन्यथा अनर्थ हो जावेगा. इसके साथ ही कहा गया है कि प्रजा ही राजा के लिए शक्ति का स्रोत होती है. राजा तब तक ही राजा होता है, जब तक प्रजा का हाथ उस पर होता है. प्रजा के विमुख होते ही वह राजा के आसन से अलग कर दिया जाता है. इस का भाव यह है कि जिस प्रकार प्रजा अपने राजा का चुनाव करती है, उस प्रकार प्रजा के पास राजा को पदच्युत करने की शक्ति भी होती है. वह राजा को किसी भी समय हटा भी सकती है. जिस प्रकार प्रजा राजा को शक्ति देती है, उस प्रकार वह उसकी शक्ति को छीन भी सकती है. यह ही कारण है कि राजा का चुनाव करते समय प्रजा उसके गुणों को अच्छी प्रकार जांचती है, परखती है. जिस प्रतिनिधि में वेद मन्त्र के अनुसार अधिकतम गुण होते हैं, वह अपना मत उसी के ही पक्ष में देकर उसको राजा स्वरूप चुन लेती है.
इस बात को यजुर्वेद अध्याय १० का यह २८ वां मन्त्र इस प्रकार प्रकट कर रहा है :-



         अभिभूरस्येतास्ते पञच दिश: कल्पन्ता̇ ब्रह्मँसत्व̇ ब्रह्मासि सवितासि
         सत्याप्रसवो वरुणोसि सत्यौजौइन्द्रोसि विशौजा रुद्रोसि सुशेव:
         बहुकार श्रेयस्कर भुयस्करेन्द्रस्य वज्रोसि तेन में राध्य         ||यजुर्वेद १०.२८ ||
          मन्त्र उपदेश करते हुए कह रहा है कि हे राजन्! तेरे अन्दर इतनी शक्ति है,  इतना शौर्य है,  इतना साहस है तथा इतनी वीरता है कि तूं बड़ी सरलता से अभिनव दुष्टों का अभिनव कर सकता है. तूं दुष्टों का पतन कर सकता है, उनका हनन कर सकता है, उन्हें पराजित कर सकता है, मार सकता है. तूं इन सब दुष्टों को, शत्रुओं को युद्ध में परास्त कर सकता है, हरा सकता है,  उनपर विजय पा सकता है. इसलिए यह सब दिशाएं तेरे लिए मंगलकारी हों. दिशाएं चार मानी गई हैं. इसलिए मन्त्र उपदेश करता है कि चारों दिशाओं में तेरी विजय पताका फहरावे. चारों दिशाओं से तेरे लिए शुभ समाचार, मंगल समाचार प्राप्त हों. सब ओर से तेरी सेनाएं विजयी हों. किसी दिशा में भी दुर्बलता दिखाई न दे. सब और से तेरी शक्ति के, तेरी विजयी सेना की स्तुति में गीत सुनाई दें, तेरा यशोगान हो.
      मन्त्र आगे कहता है कि हे राजन्! तूं ब्रह्मा बन अर्थात् तूं विद्या में इतना संपन्न हो, इतनी अधिक विद्या ग्रहण कर कि चार वेद  का समग्र ज्ञान रूप में जाना जावे, चार वेद का पूरा ज्ञान तूं प्राप्त कर ले द्य तेरे अन्दर विद्या इतना स्थान ग्रहण करे कि चार वेद  के विद्वान् स्वरूप ब्रह्मज्ञानी के नाम से पुकारा जावे द्य इस प्रकार तूं ब्रह्मविद्या से संपन्न बन.
     हे राजन्! तूं सविता बनकर सब प्रकार के ऐश्वर्यों का स्वामी बन. सब प्रकार के ऐश्वर्यों का उत्पादन तेरे द्वारा हो. तूं एशवर्यों के उत्पादन की शक्ति तो रखता है किन्तु इस एश्वर्य के साथ ही साथ अपने जीवन में और अपने राज्य में सत्य के व्यवहार से एशवर्य कमाने वाला बन. तेरे व्यवहार में कभी और कहीं असत्य का स्थान न हो द्य तूं जो धन, सम्पति तथा एश्वर्य का सृजन कर रहा है, वह सब भी तेरे सत्य व्यवहार से ही हो. असत्य व्यवहारों से सदा दूर रह.
      इतना ही नहीं मन्त्र के अनुसार हे राजन्! तूं वरुण भी है, इस कारण तूं श्रेष्ठ भी है. वरुण एक ऐसे मित्र को कहा जाता है, जिस में इतनी शक्ति होती है कि वह अपने मित्र को गलत मार्ग से रोकने के लिए अपनी मित्र शक्ति का प्रयोग करने का भी अधिकारी होता है तथा वह अपने मित्र को सुपथगामी बनाने के लिए कुछ क्रोध भी दिखा सकता है. इसलिए मन्त्र ने राजा को वरुण कहा है. भाव यह है कि राजा अपनी प्रजा से न केवल पिता के समान व्यवहार करता है बल्कि वह अपनी प्रजा का अन्तरंग मित्र भी होता है. जब प्रजा उसके उत्तम उपदेश को आदेश को नहीं मानती तो एक उत्तम मित्र के समान वह अपनी प्रजा को दंड देते हुए सुमार्ग पर लाता है.
      राजन्! सत्य आचरण के कारण, सत्य मार्ग व सत्य व्यवहार के कारण तूं सत्योजा बन गया है अर्थात् तूं सब प्रकार के सत्यों को अपने अन्दर समेटे हुए है तथा तेरा आचरण भी सब सत्यों पर ही आधारित होता है. इस प्रकार तूं सत्य के बल से संपन्न हो गया है. तूं इंद्र है, तूं सुधरता है और तूं विशौजा है. तेरे पराक्रम का कारण तेरी उत्तम प्रजा है, क्योंकि तेरी शक्ति का मूल प्रजा है. इस प्रजा से ही तुझे शक्ति प्राप्त हुई है. प्रजा की शक्ति के आधार पर ही तेरे अन्दर इतनी शक्ति आ गई है कि तूं दुष्टों को, शत्रुओं को, कुमार्ग गामियों को रुलाने वाला बन सका है. प्रजा से प्राप्त शक्ति ही के कारण तेरे अन्दर यह भावना आई है तूं उत्तम व सुख दायक इस प्रकार के कार्य करे कि जिससे न केवल स्वयं ही सुखी रहे अपितु तेरी प्रजा भी सब प्रकार के सुखों को पाने की अधिकारी बने.
       अंत में मन्त्र कह रहा है कि तेरे पुरुषार्थ के कारण बहुत से सुखों का सृजन हो, उत्पादन हो, बहुत से सुखों का तूं कारण हो. तेरे पराक्रम से सब शत्रु दहल जावें अर्थात् तूं दुष्टों और शत्रुओं को रुलाने वाला बने. सब प्रकार के शत्रुओं का नाश करने वाला हो. तेरे भय से भयभीत कोई भी शत्रु तेरे राज्य क्षेत्र के आस पास भी न आ पावे. तेरे राज्य में, तेरे पुरुषार्थ के कारण सर्वत्र कल्याण ही कल्याण दिखाई दे, सुख ही सुख दिखाई दे. तूं  सब कल्याणों का कारण रूप स्रोत हो. तूं एक बार नहीं जनकल्याण के लिए बार बार उत्तम कर्म करता रह. इस प्रकार उत्तम कार्य करते हुए तूं अपने राज्य में अत्यधिक धन एश्वर्य की खेती करते हुए इसे बढ़ा .इस प्रकार तूं अपनी सता में सब प्रकार के यश और सब प्रकार की कीर्ति को प्राप्त कर.
डा. अशोक आर्य


जन्म व पुनर्जन्म का आधार हमारे पूर्व जन्मों व वर्तमान जन्म के शुभाशुभ कर्म”


हम प्रतिदिन संसार में नये बच्चों के जन्म के समाचार सुनते रहते हैं। इसी प्रकार पशु व पक्षियों आदि के बच्चे भी जन्म लेते हैं। मनुष्य व पशु आदि प्राणियों के जन्म का आधार क्या है? इसका उत्तर न विज्ञान के पास है और न अधिकांश मत-मतान्तरों के पास है। इसका तर्क एवं युक्ति संगत सत्य उत्तर वेद व वैदिक साहित्य में मिलता है। वेद एवं वैदिक साहित्य का अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि मनुष्य जन्म का आधार हमारे पूर्व जन्म में किये गये वह शुभ व अशुभ कर्म हैं जिनका हम भोग नहीं कर पाये हैं। उन बचे हुए कर्मों के भोग के लिए ही ईश्वर ने हमें यह जन्म दिया है। योग दर्शन के एक सूत्र के अनुसार हमारे पूर्वजन्म के बचे हुए शुभ व अशुभ कर्मों के आधार पर परमात्मा हमारी योनि अथवा जाति, आयु और सुख-दुख रूपी भोगों को निर्धारित करते हैं और उसके अनुसार ही हमारा जन्म हो जाता है।
पूर्व जन्म के कर्म संचय को ही प्रारब्ध कहते हैं। उसी के आधार पर हमारी मनुष्य योनि व मनुष्य जाति परमात्मा ने तय की थी। हमारी जो आयु होती है उसका आधार भी हमारा प्रारब्ध ही होता है। 

इसी कारण कोई कम आयु में तो कोई अधिक आयु में मृत्यु को प्राप्त होते हैं। ऋषि दयानन्द सरस्वती (1825-1883) ने कहा है कि पुरुषार्थ प्रारब्ध से बड़ा होता है। इसका तात्पर्य यह है कि मनुष्य वर्तमान जीवन में जो पुरुषार्थ करता है उससे प्रारब्ध से मिलने वाले सुख व दुःखों वा ज्ञान प्राप्ति आदि उपलब्धियों को सुधारा वा प्रभावित किया जा सकता है। इस जन्म में हमने जो शिक्षा प्राप्त की है वह हमें प्रत्यक्ष रूप से पुरुषार्थ से प्राप्त होती है। यदि हम विद्याध्ययन में पुरुषार्थ न करते तो हमें विद्या प्राप्त न होती। यदि हम स्वास्थ्य के नियमों का पालन न करते तो हमारा स्वाध्याय भी अच्छा न होता है। बहुत से लोगों का स्वास्थ्य खराब होता है। वह रोगी होते हैं और अल्पायु में ही उनकी मृत्यु हो जाती है। इसका कारण इस जन्म में स्वास्थ्य के नियमों का पालन न करना अर्थात् उचित पुरुषार्थ न करना ही होता है। यह रोग व अस्वस्थता पूर्वजन्म के कर्मों व प्रारब्ध के अनुसार नहीं होती अपितु इसमें इस जन्म के कर्मों का भी महत्व होता है। अतः पुरुषार्थ से हम अपनी जाति तो नहीं बदल सकते परन्तु आयु और सुख व दुःख रूपी भोगों में एक सीमा तक सुधार व बिगाड़ तो कर ही सकते हैं।

पुनर्जन्म का आधार हमारे पूर्वजन्म के शुभ व अशुभ कर्म हैं। सब जीवात्माओं के इस जन्म के कर्म एक समान नहीं होते। अतः जिन जिन जीवात्माओं का जन्म हमारे आसपास होता है उनके पूर्व जन्म के कर्मों में समानता न होने अथवा विविधता होने से उनके माता, पिता, परिवेश आदि अलग अलग होते हैं। बच्चों की विद्याग्रहण करने की सामर्थ्य व शारीरिक बल आदि भी भिन्न भिन्न होने का कारण पूर्वजन्म के कर्मों मुख्य होते हैं। इसके साथ ही माता-पिता द्वारा जिस सन्तान को जन्म दिया जाता है, उसका गर्भकाल में पालन भी विशेष महत्व रखता है। जन्म व पुनर्जन्म का आधार यदि मनुष्य आदि प्राणियों के पूर्वकृत कर्म न होते तो सभी मनुष्यों की आकृति व परिवेश, शारीरिक सामर्थ्य एवं बुद्धि आदि एक समान होनी चाहिये थी। सभी मनुष्यों के गुण, कर्म, स्वभाव, सामर्थ्य, प्रवृत्ति आदि में समानता न होने का मुख्य कारण उनके पूर्वजन्म के कर्म व संस्कारों की भिन्नता ही निश्चित होती है।

कर्मों के विषय में जब विचार करते हैं तो हमें यह ज्ञात होता है कि बहुत से मनुष्य शुभ कर्म करते हैं और बहुत लोग अपने स्वभाव व प्रवृत्ति से अशुभ व अवैदिक कर्म करते हैं जो कि उन्हें नहीं करने चाहिये। यह इस जन्म के कर्म होते हैं जिनका उसे वर्तमान व भविष्य में भोग करना होगा। इसके अतिरिक्त उसने पूर्व के जो कर्म किये होते हैं उसे भी उसे भोगना होता है। सामान्य जीवन में हम देखते हैं कि यदि हम किसी से ऋण लें तो हमें पहले पुराना ऋण व बकाया धन का भुगतान चुकता करना होता है। उसके बाद हमें नया ऋण मिलता है। परमात्मा को भी जीवों के पुराने कर्मों का भोग कराना है और वर्तमान जीवन में भी अशुभ व शुभ कर्म संग्रहीत हो रहे हैं। उचित प्रतीत होता है कि पहले पुराने बचे हुए कर्मों का भोग कराया जाये। शायद यही कारण है कि मनुष्य जब इस जन्म में अशुभ कर्म करता है तो उसे उसी समय उनका फल मिलता हुआ न देख कर लोग कर्म फल सिद्धान्त को स्वीकार नहीं करते। उन्हें विचार करना चाहिये कि अशुभ कर्म करने वाले मनुष्य ने पूर्व जन्मों व जीवन के आरम्भ में भी जो शुभ व अशुभ कर्म किये हैं, उनका भी उसे भोग करना है। 

इसी कारण से कई अशुभ कर्मों की प्रवृत्ति वाले मनुष्यों को सुखी व सम्पन्न देखा जाता है। जब वह सुखी होते हैं तो इसका अर्थ यह लगता है कि वह पूर्व किये हुए अपने शुभ कर्मों का भोग कर रहे हैं। इस जन्म में वर्तमान समय में वह जो अशुभ कर्म कर रहा है वह उसे अपने जीवन में आगे अथवा मृत्यु के बाद पुनर्जन्म में भोगने होंगे। समस्त वैदिक साहित्य जो कि हमारे साक्षात्कृतधर्मा ऋषियों ने प्रदान किया है, उसके अनुसार जीवात्मा को अपने किये हुए शुभ व अशुभ सभी कर्मों के सुख व दुःखीरूपी फलों को अवश्य ही भोगना होता है। कोई भी मनुष्य अपने किसी भी कर्म का फल भोगे बिना नहीं छूट सकता। अतः ईश्वर व वैदिक कर्म फल सिद्धान्त में विश्वास रखना चाहिये। हम जो वैदिक शुभ कर्म, सन्ध्या, यज्ञ, मात-पिता-आचार्यों की सेवा, परोपकार, दान आदि कर रहे हैं, उसके कर्म भी हमें यथासमय ईश्वरीय व्यवस्था से मिलेंगे।

हम मनुष्यों के आचरणों पर भी विचार कर सकते हैं जो सदैव वेद सम्मत शुभ वा पुण्य कर्म ही करते हैं। उन्हें पुनर्जन्म में मनुष्य योनि प्राप्त होने के साथ ऐसे परिवार में उनको जन्म मिलने की सम्भावना होती है जहां सभी लोग धार्मिक एवं वेदाचरण व सदाचरण करने वाले होते हों। इसके विपरीत अधिकांश में अशुभ व दुराचरण आदि कर्म करने वालों का आगामी जन्म मनुष्यादि श्रेष्ठ योनि में न होकर पशु, पक्षी आदि नीच योनियों में होने की सम्भावना होती है। यदि ऐसा न हो तो फिर इस जन्म में लोग सद्कर्म क्यों करेंगे? शायद कोई भी सद्कर्म नहीं करेगा। कोई भी व्यवस्था लम्बी अवधि तक सफलता के साथ तभी चल सकती है जिसमें सद्गुणों की प्रशंसा तथा दुगुर्णों की भर्त्सना की जाती हो। यजुर्वेद का 40/2 मन्त्र कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतम् समःभी सकेंत कर रहा है कि मनुष्य वेद विहित कर्म करके स्वस्थ रहते हुए सौ वर्ष की आयु तक सुखपूर्वक जीवित रहने की इच्छा करे। इसका सीधा अर्थ यह है कि वेद विहित सद्कर्मों को करने से हमारा यह जीवन सुख, समृद्धि से युक्त होकर दीर्घायु को प्राप्त होता है। जब सद्कर्मों का प्रभाव इस जन्म में होता है तो निश्चय ही पुनर्जन्म में भी भोग न किये जा सके कर्मों से हमें सुख व ज्ञान आदि का लाभ होगा।

मनुष्य का आत्मा अनादि व अमर है। ईश्वर अनादि व अमर है। प्रकृति भी अनादि व नाश रहित है। हमारी यह सृष्टि ईश्वर द्वारा मूल प्रकृति से ही बनी है। दर्शन का सिद्धान्त है कि यह सृष्टि उत्पत्ति व प्रलय को प्राप्त होती है और यह कार्य जगत वा सृष्टि प्रवाह से अनादि है। ईश्वर, जीव व प्रकृति के अनादि व अमर होने से भी यह निश्चित होता है कि यह सृष्टि अनादि काल से बनती व प्रलय को प्राप्त होती आ रही है और भविष्य में भी ऐसा ही होगा। जैसे रात्रि के बाद दिन और दिन के बाद रात्रि आती व जाती रहती हैं इसी प्रकार से सृष्टि की उत्पत्ति व प्रलय सदैव से होती आयीं हैं और सदैव होती रहेंगी। हम इस जन्म में मनुष्य हैं और विचार करने पर निश्चित होता है कि असंख्य बार हमारे अनेक व प्रायः सभी योनियों में जन्म हो चुके हैं। सृष्टि के प्रवाह से अनादि होने से यह भी निश्चित होता है कि हम अनेक बार मोक्ष भी रहे हो सकते हैं। सृष्टि में हम जितनी भी प्राणी योनियां देखते हैं उनमें प्रायः हम सभी योनियों में अनेक अनेक बार जन्म ले चुकें हैं। अतः इन तथ्यों व को जानकर मनुष्य को वेदों का अध्ययन कर उनकी शिक्षाओं के अनुसार ही जीवनयापन करना चाहिये। इसी मार्ग पर चलने से हमें इस जीवन व परजन्म में अधिकाधिक सुख, श्रेष्ठ जीवन व योनि सहित मोक्ष सुख भी प्राप्त हो सकता है।

हमारा यह मनुष्य जीवन हमारे पूर्व जन्मों के कर्मों वा प्रारब्ध का परिणाम है। ईश्वर ने हमें वा हमारी आत्मा को सुख प्रदान करने के लिए ही यह जीवन दिया है। ईश्वर अर्यमा अर्थात् न्यायाधीश है। वह पक्षपात रहित होकर जीव के प्रत्येक कर्म बिना भूले न्याय करता है। जो मनुष्य पाप कर्म करते हैं ईश्वर उनके लिए रुद्र वा रूलाने वाला होता है। यह व्यवस्था हम संसार में देख रहे हैं। अतः हमें कर्म फल सिद्धान्त को अधिकाधिक जानकर उसे व्यवहारिक रूप में अपने जीवन में स्थान देना चाहिये। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य

कल्याण का मार्ग


यजुर्वेद के प्रथम अध्याय में कुल ३१ मन्त्र हैं. इन मन्त्रों की व्याख्या कर इसे पुस्तक रूप दिया गया और इस पुस्तक का नाम किया गया कल्याण का मार्ग प्रथम अध्याय के मन्त्रों में मानव मात्र को आकर्षक जीवन जीने के लिए प्रेरित किया गया है. जीवन को आकर्षक बनाने के लिए जो उपाय बताये गए है, उनमें प्रमुख रूप से खुली हवा में घूमने के लिए प्रेरित किया गया है. खुली वायु हमारे कल्याण का कारण होती है क्योंकि यह वायु हमारे सब प्रकार के रोगों को दूर करने का कारण होती है. इसके साथ ही साथ धूप का सेवन करने की प्रेरणा भी की गई है. सब जानते हैं कि धूप का मानव जीवन में विशेष महत्व होता है. यह वायु से भी कहीं अधिक तीव्र गति से हमारे शरीर में स्थान पा गए रोगाणुओं को शीघ्र ही नष्ट करती है तथा हमें विटामिन डी भी विपुल मात्रा में देती है. जब हम धूप नहीं ले पाते तो चिकित्सक के पास जाना पड़ता है तथा वह हमें अनेक प्रकार की औषध का सेवन करने की सलाह देने के साथ ही कहता है कि धूप का सेवन ही यह कमीं दूर कर सकता है तथा हमारी हड्डियों को शक्ति दे सकता है.

       कहा गया है कि इस प्रकार खुली वायु व खुली धूप का सेवन करने वाला ही तेजस्वी होता है. वह सदा क्रियाशील रहता है. उसकी काया सदा निरोग होती है. जिसकी काया निरोग होती है, उसके शरीर में शक्ति का भी अपार भण्डार होता है तथा उसकी बुद्धि भी तीव्र हो जाती है. इस प्रकार की विशेषताएं जिस व्यक्ति के पास होती हैं,  उसका स्वभाव नम्र हो जाता है. नम्र व्यक्ति को देवता लोग बहुत पसंद करते हैं. इस कारण वह देवताओं का भी प्रिय हो जाता है. जब देवातागण उसे प्रिय समझते हैं तो निश्चय ही वह अनेक प्रकार के यज्ञों को करने वाला बनता है, प्रतिदिन अग्निहोत्र कर न केवल अपने आसपास का वातावरण ही शुद्ध करता है अपितु अपने बड़े लोगों का यथा मातादृपिता आदि का आशीर्वाद पाकर गौरवान्वित भी होता है.
जो मानव इस प्रकार का पवित्र जीवन व्यतीत करता है, वास्तव में उसका जीवन ही जीवन होता है. अन्य तो मात्र मांस का लोथड़ा बनकर केवल सांस ही लेते हैं. पेट को संग्रहालय बनाकर दिन भर कुछ न कुछ इस में डालते रहते हैं, करते कुछ भी नहीं द्य परिणाम स्वरूप अनेक प्रकार के रोग उन्हें आकर घेर लेते हैं.
      जब हम प्रथम अध्याय के मन्त्रों के अनुसार अपने जीवन को बना लेते हैं तो वास्तव में हमारा जीवन तब ही जीवन बन पाता है. सब प्रकार के सुखों की हमारे ऊपर वर्षा होने लगती है. सब प्रकार की शान्ति हमें मिलती है. सुख- समृद्धि के हम भंडारी बन जाते हैं. शान्ति हमारे जीवन का भाग बन जाती है. बड़े लोगों के साथ ही साथ प्रभु का भी हमें आशीर्वाद हमें मिलता है. विभिन्न यज्ञ करते हुए हम अनेक लोगों के सहायक तथा अनेक लोगों के मार्गदर्शक बनते हैं तो जिन लोगों के सुखों में वृद्धि का हम कारण बनते हैं, वह भी हमें अनेक प्रकार की उन्नति पाने के लिए शुभकामनाएं देते हैं. इस सब से हमारे जीवन में स्वर्गिक आनंद का प्रसार होता है.
       इस प्रकार से दूसरों की सहायता करने वाला, दूसरों के सुखों को बढाने वाला मानव जब अपनी गली से निकलता है तो हजारों हाथ उसकी सहायता पाने के लिए आगे आते हैं, हजारों आँखें अपनी पलकें उसके मार्ग पर बिछा देती है. सब लोग उसके उन्नत्त होने की, उसके शुभ के लिए लालायित हो उठते हैं. उसके कष्ट को सब लोग अपना कष्ट मानने लगते हैं. उसके जीवन का किंचित सा भी क्लेश सब का क्लेश बन जाता है तथा इस क्लेश को दूर करने के लिए हजारों हाथ पूर्ण शक्ति से आगे बढ़ते हैं, हजारों पाँव उसकी सहायता के लिए तत्पर हो जाते हैं.
       बस इस का नाम ही सुख है. इस अवस्था का नाम ही कल्याण है. इस प्रकार का कल्याण का मार्ग पाने के लिए प्रत्येक प्राणी सदा लालायित रहता है किन्तु जीवन के स्वार्थ, मोह आदि बंधनों में बंधा होने के कारण वह कल्याण के मार्ग पर न चलकर सदा विनाश का मार्ग ही पकड़ता है और इस मार्ग पर चल कर अपने आप को नष्ट कर लेता है.
इस उलटे मार्ग से बचने की प्रेरणा ही हमें यजुर्वेद के प्रथम अध्याय में दी गई है तथा उपदेश किया गया है कि हम कुटिलता को त्यागें तथा प्रेय मार्ग पर चलें, प्रभु से प्रेम करें तथा मानव मात्र के कल्याण के कार्य करें तो हमारा कल्याण स्वयमेव ही हो जावेगा. कल्याण का मार्ग की चर्चा को ही यजुर्वेद के द्वितीय अध्याय में ३४ मन्त्रों के माध्यम से आगे बढाया गया है. हमारा कर्तव्य है कि परमपिता परमात्मा के आदेशों का पालन करते हुए हम प्रथम अध्याय की छाया में ही इस द्वितीय अध्याय का भी वाचन करते हुए इसे भी अपने जीवन का अंग बनावें.
डा. अशोक आर्य


Monday 21 May 2018

वैदिक ज्ञान से प्राणियों की रक्षा


जब हम लोकहित की कामना से कोई कार्य करते हैं तो इसके लिए ज्ञान का होना आवश्यक है. भुवपति शास्त्र तथा भुवनपति शास्त्र, दोनों प्रकार के ज्ञान में, पदार्थ में तथा इसके प्रयोग में हम निपुण होकर जीव मात्र के रक्षक बनें. यजुर्वेद का यह दूसरे अध्याय का दूसरा मंत्र इस पर ही उपदेश करते हुए कह रहा है कि :-

    आदित्यै व्यूंदनमसि विष्णो स्टुपो$स्युर्णमरदसन् त्वा स्तुणामि त्वासस्थां
    देवेभ्यो भुवपतये स्वाहा भुवनपतये स्वाहा भूतानां पतये स्वाहा ||यजुर्वेद २.२ ||
महर्षि दयानंद भाष्य
          परमेश्वर सब मनुष्यों के लिए उपदेश करता है कि हे मनुष्यो! तुमको वेदी आदि यज्ञ के साधनों का सम्पादन करके सब प्राणियों के सुख तथा परमेश्वर की प्रसन्नता के लिए अच्छी प्रकार क्रिया युक्त यज्ञ करना और सदा सत्य ही बोलना चाहिए और जैसे मैं न्याय से सब विश्व का पालन करता हूँ वैसे ही तुम लोगों को भी पक्षपात छोड़कर सब प्राणियों के पालन से सुख सम्पादन करना चाहिए.
          इस आलोक में मन्त्र की विस्तृत व्याख्या इस प्रकार की जाती है :-
१. ज्ञानाग्नि से हम ज्ञान स्रवण बनें
            हम जानते हैं कि प्रजापति अग्नि को प्रचंड करने के लिए, ज्ञान की अग्नि को प्रचंड करने के लिए हमें ज्ञान स्रवण स्वरूप अर्थात् ज्ञान का चम्मच, जिस से ज्ञान रूपी यज्ञ में हम ज्ञान रूपी घी डाल सकें, एसा स्रवण बनना होता है. इसके बिना ज्ञान की अग्नि जल ही नहीं सकती. यह व्यक्ति इस ज्ञान स्रवण के कार्य में क्यों तत्पर हुआ है, क्यों लगा है? यह एक एसा प्रश्न है जिस का उत्तर यह मंत्र देते हुए उपदेश करता है कि :-
२. हमारा स्वास्थ्य उत्तम हो -
         उत्तम स्वास्थ्य से ही मानव जीवन के सब कार्य सिद्ध होते हैं. यदि हम स्वस्थ नहीं तो बिस्तर पर पड़े -पड़े रोते, कराहते रहते हैं, कुछ कर नहीं सकते. अकर्मण्य से हो जाते हैं, असहाय से हो जाते हैं.  इसलिए मंत्र कहता है कि हमने स्वास्थ्य के लिए अदीन देवमाता की स्तुति करना है. भाव यह है कि हे जीव! तेरे अन्दर दूसरों को स्वस्थ रखने वाला ज्ञान हो. दूसरों को स्वस्थ रखने के लिए ज्ञान रूपि एक विशेष प्रकार के जल से तू प्राणी मात्र को भिगोने वाला बन, ज्ञान रूपि जल से प्राणी मात्र को नहला दे, उसे ज्ञान का स्नान कराने वाला है. इस प्रकार तू अन्य लोगों को स्वस्थ, अदीन बनाने के साथ ही साथ दिव्य गुणों से संपन्न करने वाला बन.  यह सब करने के लिए ज्ञान - रूपी विशेष जल से इन्हें भिगो दे. जब तू ज्ञान का प्रसार करता है तो सब लोगों के जीवन स्वस्थ बनते चले जाते हैं क्योंकि इससे अन्य लोग भी ज्ञान के भंडारी बन जाते हैं तथा इस ज्ञान के प्रयोग से वह भी अपने अंदर के सब क्लुश धोने में सफल होते है तथा क्लुश धुल जाने से उनके भी रोगाणु नष्ट हो जाते हैं और स्वस्थ रहने के योग्य बन जाते हैं . इससे ही उनमें आदीनता की श्रेष्ठ भावना का उदय होता है तथा उनके जीवन में देवीय सम्पत्ती का आगमन होता है.
३. लोकहित के कार्य कर :-
         हे जीव! तू ही इस ज्ञान का शिखर है, इस शिखर के लिए यज्ञ की छत है. तू ही उन लोगों का मूर्धन्य है, जिनका जीवन यज्ञमय होता है.  इसलिए तेरा यह जीवन सदा ही लोकहित के कार्यों के, जन हित के कार्यों के, अन्यों के उत्तम के लिए लगा रहे. इस कारण तू अपने प्रत्येक कार्य में पहले हित-अहित का परीक्षण करता है तथा वह कार्य ही करना उत्तम समझता है, जिस में दूसरों का हित हो. परहित का ही सदा धयान रखता है. इस प्रकार तू व्यक्तिगत स्वार्थ से ऊपर उठ गया है.
४.  दूसरे के सहायक के प्रभु सहायक होते हैं :-
          हे जीव!  तू निरंतर जन-हित का, लोक दृ हित का ध्यान रखने वाला है. तू मूर्धन्य हो कर औरों के जीवनों को ऊपर ले जाने वाला, ऊपर उठाने वाला है. सब की प्रगति की भावना तेरे में है. तू केवल अपनी ही उन्नति नहीं चाहता बल्कि सबकी उन्नति में ही अपनी उन्नति देखता है. तू किसी का भी बुरा नहीं चाहता बल्कि सबका हित चाहता है, सब को आच्छादित करता है. तू मृदु स्वभाव वाला है, सदा मधुर ही मधुर, मीठा ही मीठा बोलने वाला है. इसलिए मैं तुझे अपनी शरण में लेता हूं, अपनी छत्रछाया में रखता हूँ.
         जिस प्रकार हमारे घरों की छत सर्दी, गर्मी तथा वर्षा आदि से हमारी रक्षा करती है, उस प्रकार ही मैं तुझे अपनी छत दे रहा हूँ ताकि तू आसुरी आक्रमणों से,राक्षसी प्रवृतियों से बचा रह सके, आसुरी प्रवृतियों का तेरे ऊपर हमला न हो सके, इन से तेरी निरन्तर रक्षा हो सके. इस प्रकार परमपिता परमात्मा की शरण में आने से हम सुरक्षित हो जाते हैं. जो प्रचार का कार्य हम करते हैं. इस प्रचार के कार्य को करते हुए अनेक जन ऐसे होते हैं, जो दूसरों को जो उपदेश देते हैं , उस उपदेश को दूसरों के लिए ही समझते हैं द्य  अपने पर अपने ही उपदेश को लागू नहीं करते. इस प्रकार के उपदेश करने वाले तो अनेक मिल जाते हैं किन्तु अपने पर लागू करने वाले बहुत कम मिलते हैं.
५.  लोक हितकारी को प्रभु दिव्य गुण देता है :-
         परमपिता परमात्मा कहते हैं कि हे जीव! तेरे लिए यह ही आशीर्वाद है कि मैं तुझे दिव्यगुण देता हूं. इन दिव्यगुणों के लिए मैं तुझे यह उत्तम आश्रय स्थल बनाता हूं. तू ने दूसरों को आगे बढाना है. इस कार्य के लिए तेरे पास अनेक प्रकार के दिव्य गुणों का होना आवश्यक है, वह सब दिव्य गुण मैं तुझे देता हूं.
६.  लोक हित के कारण तूं स्वाहा का अधिकारी है :-
          परमपिता परमात्मा इस मंत्र के माध्यम से हमें उपदेश कर रहे हैं कि हम उपदेश करते समय केवल दूसरों की कमियां निकालने में ही न लगे रहें. मीठे शब्दों में प्रचार का कार्य करना चाहिये.
 मीठी भाषा से, मीठे शब्दों में सब कुछ समझाना चाहिये, सब ज्ञान देना चाहिये.  जो ज्ञान के प्रसारक इस प्रकार से प्रचार करते हैं, प्रभु उनकी रक्षा करते हैं अपितु उन्हें उत्तम बनाने के लिए अत्यंत मृदुभाषी बनाते हैं.
          तेरा यह शास्त्रीय ज्ञान केवल शास्त्रीय ही नहीं है अपितु यह एक क्रियात्मक, एक व्यवहारिक तथा एक प्रयोगात्मक ज्ञान है. तेरे इस ज्ञान की वाणी लोगों को अत्यधिक प्रभावित करने वाली है क्योंकि इस में आगम तथा प्रयोग, दोनों प्रकार के ज्ञानों की निपुणता स्पष्ट दिखाई पड़ती है. इस कारण ही हे सब प्रकार के ज्ञानों के स्वामी मानव! तेरी यह कल्याणकारी ज्ञान से भरपूर वाणी अत्यन्त प्रभावोत्पादक हैं. इससे दूसरों को अत्यधिक लाभ हो रहा है. इसलिए तू स्वाहा शब्द का अधिकारी हो गया है. अत: मैं तुझ सब प्राणियों की रक्षा करने वाले को स्वाहा जैसे शुभ शब्दों का उच्चारण करने का अधिकारी बनाता हूं. इस शुभ शब्द से तू सब का उपकार करने में सफल होगा.
          हे लोक हितकारी मानव! तू सदा दूसरों के कल्याण की, हित की, शुभ की ही बातें सोचता है, इन सब का हित ही चाहता है. इसलिए तेरे पास कुछ दिव्य शक्तियों का होना आवश्यक होता है. तू दूसरों के हित के लिए अपने हित की भी चिन्ता नहीं करता. इसलिए तुझ चिन्तनशील को जो स्वाहा जैसे उत्तम शब्द का चिन्तन मनन किया जाता है, उच्चारण किया जाता है, यह सब लोक पदार्थों के पतिभूत होते हैं. इसलिए यह स्वाहा शब्द तेरे लिए प्रशंसात्मक शब्द है. इन का उच्चारण तेरे लिए ही किया जाता है. तू ने अत्यधिक चिन्तन किया है, तू ने अत्यधिक मनन किया है. इस प्रकार तू शास्त्रीय ज्ञान के पति अर्थात् स्वामी बन गया है इसके साथ ही साथ इस शास्त्रीय ज्ञान के विषयभूत पदार्थों का भी तू पति है, स्वामी है, मालिक है.

डा.अशोक आर्य

Wednesday 16 May 2018

स्थायी शासक ही प्रजा के लिए उत्तम


लेख के प्रथम भाग में स्पष्ट किया गया है कि ऋग्वेद के मन्त्र संख्या १०.१७३.१ ने  वेदानुसार प्रजातंत्र ही सर्वोत्तम शासन पद्धति है. राजा का चुनाव प्रजा के द्वारा हो तथा वह ही नहीं बल्कि उसका पूरे का पूरा मंत्री मंडल तब तक ही सत्ता का सुख प्राप्त कर सकता है, जब तक प्रजा का विश्वास उस पर बना हुआ है, ज्यों ही वह प्रजा के विश्वास का पात्र नहीं रहता, त्यों ही उसे सत्ता से अलग हो जाना चाहिए अन्यथा प्रजा में इतनी शक्ति होनी चाहिए कि वह उसे सत्ता से च्युत कर सके. इस बात को ही ऋग्वेद के १०.१७३.२ मन्त्र इस प्रकार उपदेश किया गया है:-
             इहैवैधि  मापं च्योष्ठा पर्वत इवाविचाचलि:||
            इंद्र  इवेह ध्रुवस्तिष्ठेह  राष्ट्र्मुधारय ||ऋग्वेद १०.१७३.२||
        मन्त्र उपदेश कर रहा है कि एक स्थिर राजा ही उत्तम शासन दे सकता है. स्थायी शासक ही प्रजा के लिए उत्तम व्यवस्था कर सकता है. स्थायी राजा के बिना प्रजा को सुख के दर्शन नहीं हो सकते. प्रजा के कल्याण के लिए राजा का स्थिर होना आवश्यक है.
राजा लम्बे समय तक पदासीन हो
       इस तथ्य को मध्य दृष्टि रखते हुए मन्त्र कह रहा है कि हे राजन्! तूं इस प्रकार के प्रयास कर, तूं इस प्रकार का यत्न कर कि तूं अधिक व लम्बे समय तक अपने आप को सत्ता का उपभोग करने के लिए बनाए रख सके. यह सब करने के लिए अधिकाधिक जन-कल्याण के कार्य कर ताकि तूं इस पद पर स्थित रह सके. जनता में यह इच्छा पैदा हो कि तूं उसके लिए एक उत्तम शासक है. जब तूं जनता की दृष्टि में उत्तम होगा तो जनता कभी तुझे पदच्युत करने का सोचेगी भी नहीं.
अटल हिमालय की भाँती स्थिर रह
          मन्त्र कहता है कि हे राजन् !  तूं न केवल अपने पद पर स्थित रह बल्कि अपने कर्तव्यों का अधिभार इस प्रकार संभाल, अपने कर्तव्यों की पूर्ति के लिए इस प्रकार अडिग रह, जिस प्रकार पर्वत स्थित रहता है, अडिग रहता है. चाहे कितने भी आंधी या तूफान आयें किन्तु तूं किसी भी झंझावात में घबराना नहीं, डिगना नहीं अटल हिमालय की भाँती स्थिर रहना द्य अपने कर्तव्य मार्ग से कभी विमुख मत होना, अपने कर्तव्य मार्ग से कभी भागना नहीं, कभी विचलित नहीं होना.
      इतना ही नहीं मन्त्र आगे कहता है कि हे राजन्! जन कल्याण के कार्य करते हुए अपने अन्दर इतना तेज पैदा कर जितना कि सूर्य में होता है. इसलिए तूं सूर्य के सामान तेजस्वी बन. जिस प्रकार सूर्य का प्रकाश सब प्रकार के मालों को धो देता है, सब प्रकार के कीटाणुओं का नाश कर वातावरण को स्वच्छ बना देता है. ठीक इस प्रकार ही तूं अपने अंदर अपनी अपार शक्ति से इस प्रकार का तेर पैदा कर कि तेरे क्षेत्र में किसी प्रकार का कलुष रह ही न पावे. कोई भी शत्रु तेरे क्षेत्र में आ कर गड़े कार्य न कर सके. तेरे राज्य में आ कर शत्रु कांपने लगे, थरथराने लगे, उसका साहस टूट जावे. इस प्रकार की शक्ति, इस प्रकार का तेज तथा इस प्रकार का प्रकाश अपने अन्दर पैदा कर.
      मन्त्र आगे कहा रहा है कि हे राजन्! तूं छोटी छोटी समस्या को लेकर कभी इच्लित न होना क्योंकि विचलित होने से तेरे अन्दर का धैर्य नष्ट हो जावेगा. इसलिए सब प्रकार की समस्याओं का सामना बड़े धैर्य से कर, हिम्मत से कर, साहस से कर. जब तक तेरे अन्दर धैर्य है, तब तक तेरे अन्दर असीमित शक्ति बने रहे गी, तब तक तेरे अन्दर साहस रहे गा, तब तक तेरे अन्दर हिम्मत रहेगी द्य ज्यों ही तेरे अन्दर से धैर्य निकल जावेगा, त्यों ही तेरी बुद्धि, तेरा साहस, तेरी हम्मत तेरा साथ छोड़ जावेगी, जो कि तेरे विनाश का कारण बनेगी. इस प्रकार धैर्य के साथ अपने पद पर आसीन रहने के लिए तूं धैर्य को बनाए रख. इन अवस्थाओं में रहते हुए तूं अपने राज्य की प्रजा की निश्चय पूर्वक सेवा कर तथा अपने इस राज्य को, इस राष्ट्र को निश्चय पूर्वक धारण कर.
      मन्त्र कहता है कि हे राजन्! तूं कभी अपने इस पद से कभी च्युत न होना बल्कि पर्वत के सामान स्थर रूप से स्थित रहना, कभी डगमगा न होना. तूं तब तक ही राजा के इस पद पर रह सकता है, जब तक तू पर्वत सामान स्थिर रहते हुए अपने कर्तव्यों को पूर्ण करता रहेगा. तु इस पद पर तब तक ही रह सकेगा, जब तक कि जनता के हित के  प्रजा के कल्याण के कार्य करता रहेगा. जनता का हित करना ही तेरा एकमात्र उत्तेश्य है, यही तेरा एक मात्र कार्य है, जब तक तुन इस प्रकार की सेवा करता रहेगा तब तक तूं पर्वत के सामान स्थिर है, ज्यों ही जनहित के कार्यों से विमुख होगा त्यों ही तेरा अन्ता आ जावेगा, तेरी स्थिरता का नाश हो जावेगा.
जनहित के कार्यों से ही स्थिरता
       जो उपदेश ऋग्वेद के अध्याय १०.१७३ के मन्त्र संख्या एक में दिया गया था कुछ इस प्रकार का ही उपदेश इस १०.१७३.२ में दिया गया है तथा कहा गया है कि राजा को अपनी सत्ता को स्थिर बनाने के लिए जनहित के कार्य करने होंगे जितने अधिक जनहित के कार्य वह करेगा उतना ही अधिक उसकी सत्ता स्थिरता को प्राप्त होगी. इसा लिए प्रजा तांत्रिक व्यवस्था में राजा के लिए यह आवश्यक होता है कि वहाधिक से अधिक जनहित के कार्य करे द्य इस तथ्य की पुष्टि यजुर्वेद इस प्रकार करता है कि :
           विशि राजा प्रतिष्ठित: ||यजुर्वेद २०.९ ||
राजा के यश और कीर्ति का कारण उसकी प्रजा
          यजुर्वेद के बीसवें अध्याय का यह नवम मन्त्र उपदेश करता है कि राजा की स्थिरता तथा राजा की प्रतिष्ठा प्रजा पर ही निर्भर करती है. राजा-प्रजा की भलाई करके उसका मन जीतता है तो प्रजा भी उस का आदर करती है, उसका सम्मान करती है तथा दीर्घ काल तक उसे उसके पद पर स्थिर बनाए रखती है. यदि राजा प्रजा के हितों की रक्षा न कर प्रजा की हानि के कार्य करता है तो अवसर मिलते ही प्रजा उसे पद से च्युत कर देती है, उसे पद से हटा देती है. इसलिए मन्त्र कहता है कि राजा के यश और कीर्ति का कारण उसकी प्रजा ही होती है, जिससे राजा का सम्मान बढ़ता है तथा राजा के विनाश का कारण भी जनता ही होती है. अपने शासन को दीर्घजीवी व स्थिर बनाने के लिए राजा को चाहिए कि वह अधिकाधिक् प्रजा के लिए उत्तम कार्य करे.     
         इस सब से यह स्पष्ट होता है कि राजा की स्थिरता प्रजा के हितों पर, प्रह्जा की इच्छा तक ही निर्भर है. प्रजातंत्र का शासक यह जानता है कि उसकी स्थिरता, उसका सम्मान तब तक ही स्थिर है, जब तक प्रजा उसके पक्ष में है. प्रजा के पास उसे पद से हटाने का अधिकार है, चाहे वह आज हटा दे या चुनाव के समय उसे अपना मत न देकर उसे पद से हटा देवे. इस लिए अधिक से अधिक समय तक सत्ता का सुख भोगने के लिए राजा सदा इस प्रयत्न में रहेगा कि प्रजा की दया उस पर बनी रहे. प्रजा का यह आशीर्वाद पाने के लिए वह प्रजा के हितों का अधिक से अधिक ध्यान रखेगा. वह्प्रजा के कल्याण के लिए, प्रजा के सुखों के बढाने के लिए सदा यत्न करता रहेगा. कभी कोई इस प्रकार का कार्य नहीं करेगा कि जिससे प्रजा को कष्ट हो, दू:ख हो, उसका कल्याण न हो क्योंकि वह जानता है कि किसी प्रकार के कार्यक्रम के वह अपनी चिता में स्वयं अग्नि प्रवाहित कर रहा है. इसलिए वह अपने राज्य को स्थायी व सुरक्षित बनाए रखने के लिए प्रजा के लिए सदा उत्तम कार्य करता रहता है.            

डा.अशोक आर्य