Friday 29 June 2018

क्या हम अपनी आत्मा को जानते हैं?”


हम मनुष्य हैं। हमारा जन्म माता-पिता से हुआ है। माता-पिता से मनुष्य के जन्म की प्रक्रिया सृष्टि के आरम्भ काल में मैथुनी सृष्टि आरम्भ होने के साथ आरम्भ हुई। वर्तमान में भी यह विद्यमान है और सृष्टि की प्रलय होने तक यह प्रथा इसी प्रकार से चलती रहेगी। माता-पिता से सन्तान का जन्म होने का सिद्धान्त व प्रक्रिया परमात्मा की देन है। यदि परमात्मा न होता और वह इस सृष्टि को बना कर संचालित न करता तो मनुष्यों की उत्पत्ति होना असम्भव था। सृष्टि की रचना व पालन, मनुष्य आदि प्राणियों की विधि विधान पूर्वक उत्पत्ति व जन्म मरण तथा सुख दुख की व्यवस्था देख कर ईश्वर की सत्ता का ज्ञान व अनुभव होता है। मनुष्य में हम दो प्रकार के पदार्थ वा पदार्थों का अस्तित्व देखते हैं। एक जड़ पदार्थ है और दूसरा चेतन पदार्थ है। मनुष्य का शरीर जब मृत्यु को प्राप्त होता है तो वह मृत्यु होने पर निर्जीव व आत्मा विहिन होने से पूर्णतया जड़ व अचेतन हो जाता है। उसे कोई कांटा चुभाये, अंगों को काटे या फिर अग्नि को समर्पित कर दे, उसे किंचित पीड़ा नहीं होती जबकि उसके जीवनकाल में एक छोटा सा कांटा चुभने पर भी मनुष्य तड़फ उठता है। यह जो तड़फ व पीड़ा होती है यह मनुष्य शरीर में चेतन तत्व की विद्यमानता है। जब तक आत्मा शरीर में रहती है शरीर सुख व दुःख, भूख, प्यास, रोग व शोक आदि का अनुभव करता है और जब आत्मा निकल जाती है तो उसे ही मृत्यु कहते हैं। उसके बाद जो जड़ शरीर बचता है उसे किसी प्रकार की संवेदना वा सुख, दुःख की अनुभूति नहीं होती है।

हमारा व अन्य प्राणियों का यह आत्मा का स्वरूप कैसा है? इसका उत्तर है कि शरीर से सर्वथा भिन्न जीवात्मा एक चेतन तत्व व पदार्थ है। मेरे शरीर में जो चेतन पदार्थ है वही मैं हूं। मनुष्य जब बोलता है कि मैं हूं, तो इसका अर्थ यह नहीं होता कि वह कह रहा है कि मैं मेरा शरीर हूं। शरीर के साथ मेरा शब्द का प्रयोग ही यह बता रहा है कि आत्मा शरीर से भिन्न है, शरीर स्वयं में वह मनुष्य नहीं है जिसके लिए मैं शब्द का प्रयोग करते हैं। बोलचाल में भी हम यह कहते हैं मेरा शरीर, मेरा हाथ, मेरी आंख आदि। यह सब प्रयोग वैसे ही होते हैं जैसे हम कहते हैं कि मेरा पुत्र, मेरा भाई, मेरे माता-पिता, मेरा घर, मेरी साईकिल व स्कूटर, मेरे मित्र, मेरी पुस्तक आदि। जिनके साथ मेरा शब्द लगता है वह मैं व मुझ से पृथक सत्ता का संकेत करता है। अतः शरीर मैं नहीं हूं अपितु यह शरीर मैं का अर्थात् मेरी आत्मा का है। हमारी आत्मा की सत्ता है। सत्तावान होने से आत्मा सत्य कहलाती है। इस आत्मा की उत्पत्ति कैसे होती है? इस प्रश्न पर विचार करते हैं तो हमें ज्ञात होता है कि यदि हम यह कहते हैं कि आत्मा किसी जड़ व चेतन से उत्पन्न हुई तो फिर प्रश्न होगा कि वह पदार्थ, जिनसे आत्मा उत्पन्न हई, किससे उत्पन्न हुए? इस प्रकार विचार करते करते अनवस्था दोष उत्पन्न होगा। वेद एवं ऋषियों ने इस प्रश्न का समाधान किया है। उनके अनुसार ईश्वर, जीव व प्रकृति अनादि तत्व हैं। अनादि तत्व का अर्थ है कि उनकी कभी किसी अन्य पदार्थ से उत्पत्ति नहीं हुई। कारण या तो कारण रूप में ही रहता है या फिर वह कार्य में परिणत होता है। ईश्वर व जीव यह दो ऐसे पदार्थ हैं है जिनका कारण कोई नहीं और न यह किसी अन्य पदार्थ के कारण हैं। यह सदैव अपनी अवस्था में ही रहते हैं। ईश्वर से न कोई नया पदार्थ बनता है और न ही आत्मा से कुछ बनता है। अतः आत्मा व जीवात्मा अनादि, अनुत्पन्न, अविनाशी वा अमर पदार्थ हैं। गीता में बहुत सुन्दर रुप में कहा गया है नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः। न चैन क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः।।अर्थात् आत्मा ऐसा तत्व है जिसको शस्त्र काट नहीं सकते हैं, अग्नि आत्मा को जला नहीं सकती, जल इसे गीला नहीं कर सकता और वायु इसे सुखा नहीं सकती। परीक्षणों व विश्लेषण से आत्मा का यही स्वरूप सत्य सिद्ध होता है।
जीवात्मा मनुष्य शरीर में हो या अन्य प्राणियों के शरीर में हो, यह सर्वत्र एकदेशी व अल्पज्ञ है। एकदेशी का अर्थ परिमित स्थान में रहने वाला सूक्ष्म पदार्थ है। आत्मा की लम्बाई व चौडाई को न तो मिलीमीटर व उसके अंशों में व्यक्त किया जा सकता। इसकी लम्बाई, चौड़ाई व गोलाई को गणित की रीति से इसलिये व्यक्त नहीं किया जा सकता कि हम जितनी भी कल्पना करेंगे यह उससे भी सूक्ष्म है। हां, ईश्वर की सूक्ष्मता की दृष्टि से ईश्वर जीवात्मा से अधिक सूक्ष्म है और आत्मा के भीतर व्यापक रहता है। आत्मा ससीम है अर्थात् परिमित है। आत्मा का गुण कहें या स्वभाव यह जन्म व मरण धर्मा है और कर्मानुसार उनके सुख-दुःख रूपी फलों का भोगता है। आत्मा का अनेक प्राणियों योनियों में कर्मानुसार जन्म होता है। वहां यह पलता व बढ़ता है। इसमें शैशव, बाल, किशोर, युवा, प्रौढ़ व वृद्धावस्थायें आती हैं और फिर इसकी मृत्यु हो जाती है। मृत्यु के बाद इसका पुनः उसके कर्मों के अनुसार जन्म होता है। हमारा वर्तमान जन्म से पूर्व भी जन्म था, उससे पूर्व मृत्यु और उससे भी पूर्वजन्म था। इस क्रम व श्रृंखला का न तो आरम्भ है और न अन्त। यह सदा से चला आ रहा है और सदैव इसी प्रकार चलता रहेगा। आत्मा अनादि, नित्य, अमर व अविनाशी पदार्थ है। यह न कभी उत्पन्न होता है और न नष्ट होता है।
हमारी आत्मा एक अत्यन्त सूक्ष्म चेतन पदार्थ हैं। यही हम है और हमारा शरीर हमारा साधन है जिससे हमें अपने जीवन के उद्देश्य को प्राप्त करना है। उद्देश्य है धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष। मोक्ष अन्तिम लक्ष्य है। यह सभी लक्ष्य मनुष्य शरीर रुपी साधन से प्राप्त होते हैं। इन साधनों का उल्लेख वेद और दर्शन आदि ग्रन्थों सहित ऋषि दयानन्द कृत ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश आदि में है। मत-मतान्तरों के ग्रन्थ अविद्या से युक्त होने के कारण न उनसे जीवन के लक्ष्य को जाना जा सकता है और न उसकी प्राप्ति के साधनों को ही। अतः आत्मा को जानकर हमें हमें अपने उद्देश्य व लक्ष्य को जानने व उसे प्राप्त करने के लिए प्रयत्न करना है। लक्ष्य की प्राप्ति के लिए हमें मोक्ष के साधनों को करना होगा। दर्शन ग्रन्थ सहित इसे हम सत्यार्थप्रकाश के नवम् समुल्लास को पढ़कर भी जान सकते हैं। हमारे सभी ऋषि व सच्चे योगी इन साधनों का उपयोग करते थे। ऋषि दयानन्द जी ने भी अपने जीवन में ईश्वर, जीवात्मा का ज्ञान प्राप्त कर उसके अनुसार अपने कर्तव्यों को पूरा किया। अनुमान से हम कह सकते हैं कि वह मोक्ष को प्राप्त हो गये होंगे। मोक्ष मिलना या न मिलना ईश्वर के अधीन है और वह हमारे कर्मों, विद्या व आचरण पर आधारित है। हम यह जानते हैं कि हमारे प्रत्येक कर्म का फल हमें मिलना है। अतः यदि हमने शुभ कर्मों को किया है तो निश्चय ही उनका परिणाम शुभ ही होगा।
जिस प्रकार मनुष्य को मार्जन कर स्वच्छता व पवित्रता को प्राप्त करना होता है उसी प्रकार हमें यह भी देखना है कि हमारे चारों ओर का वातावरण पवित्र हो। यदि नहीं है तो हमें उसके लिए प्राणपण से पुरुषार्थ करना है। हो सकता है कि यह कार्य जानलेवा भी हो सकता है। ऋषि के सम्मुख भी हर क्षण प्राण जाने के संकट रहते थे परन्तु वह अपने कर्तव्य पालन में डटे रहते थे। विद्वानों का अनुमान है कि ऋषि को लगभग 17 बार विष देकर जान से मारने के प्रयत्न किये गये परन्तु फिर भी वह ईश्वर विश्वास के आधार पर मनुष्यों के कल्याण करने के कार्य से कभी च्युत नहीं हुए। हमें भी अपने कर्तव्य का पालन करना है और दूसरों को भी प्रेरित करना है। वेद की भी यही आज्ञा है। हमें समाज से अज्ञान, अभाव, अन्याय, हिंसा, क्रोध, लोभ, अनाचार, दुराचार, अभद्रता, शोषण आदि से मुक्त करना है। आत्मरक्षा करना प्रत्येक मनुष्य का पहला कर्तव्य है जिसे शारीरिक उन्नति के नाम से आर्यसमाज के नियमों में प्रथम स्थान पर रखा गया है। ऐसा करके ही समाज सुधार हो सकता है। ऐसा नहीं करेंगे तो कालान्तर में यह हमें ऐसी चोट कर सकता है कि इसका विकल्प भी हमारे पास तब न होगा। अतः भविष्य के प्रति सचेत रहते हुए हमें वेद एवं स्मृति पर आधारित अपने कर्तव्यों के प्रति सजग रहना है और समाज को स्वच्छ व पवित्र बनाना है। ऋषि दयानन्द ने शास्त्रों के आधार पर कहा है कि हिंसा वह होती है जो निर्दोषों के प्रति की जाती है। हिंसक व्यक्ति संसार में अनेक सज्जनों को कष्ट व दुःख देता है। अतः ऐसे लोगों को हिंसा से पृथक करने के सभी साम, दाम, दण्ड व भेद उपाय अपनाने उचित होते हैं। इससे समाज व सज्जन लोगों को सुख पहुंचता है। अतः हमें अपने कर्तव्यों को जानना व उस पर दृण रहना है।
आत्मा को जाने बिना हम अपना जीवन भली प्रकार से व्यतीत नहीं कर सकते। यदि आत्मा और परमात्मा को नहीं जानेंगे तो हमसे अधिक मात्रा में पाप भी हो सकते हैं। अतः वेद और सत्यार्थप्रकाश आदि का निरन्तर स्वाध्याय कर अपनी आत्मा व परमात्मा को जानें और अपने सभी कर्तव्यों का ईश्वर को साक्षी व फलप्रदाता मानकर पूरी निष्ठा से पालन करें। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य


मानव जीवन का श्रेष्ट कला है धर्म


सृष्टि कर्ता ने धरती पर विचरण करने वाले जितने भी प्राणी हैं उन सब में मानव को एक विशेष मर्यादा दिया है, की वह मानव है और मानव वह इसलिए भी है की ज्ञान, विवेक, बुद्धि, गंभीरता नीर, अकल, इस प्रकार के जितने जो कुछ भी हैं वह अन्य किसी और प्राणी को विधाता ने नहीं दिया, सिर्फ और सिर्फ यह मानव को मिला है.  मानव भी अपने किये कर्मों के अनुसार ही बना है, जन्म जन्मान्तरों के कर्मों के अनुसार ही मानव योनी को प्राप्त किया है.

इसी मानवता के आधार पर हम सबका नाम मानव पड़ा, अब सारे कर्तव्यों का दायित्व मानवों पर ही है अगर कोई उन कर्तव्यों को जानकर, समझकर पालन करता है तभी वह मानव कहला सकता है. अगर कोई उन कर्तव्यों का पालन नहीं करता है तो वह कदापि मानव कहलाने का अधिकारी नहीं बन सकता.  शास्त्रों में यही बताया गया जो धर्म को छोड़ देता है वह पशु के समान है.  अर्थात मानवों में और पशुओं में यही मात्र भेद है, अंतर है की हम धर्म पर आचरण करने के कारण हमारा नाम मानव है और पशुओं के लिए धर्म नहीं है इसी लिए उसका नाम पशु है.
इससे बात स्पष्ट हो गई की मानव मात्र के साथ जुड़ा है धर्म, जो मानवों को छोड़ अन्य किसी और प्राणी को यह सौभाग्य प्राप्त ही नहीं हुवा  जिसके लिए धर्म हो.  धर्म एक है जो मानव मात्र के लिए है.  और मत, पन्थ, सम्प्रदाय, अनेक हैं जो किसी व्यक्ति द्वारा मत पन्थ का जन्म होता है. मत, पन्थ को धर्म नहीं कहा जाता और ना कहा जा सकता है, कारण मत पंथ बनते हैं व्यक्ति के द्वारा, और धर्म बनता है ईश्वर द्वारा . धर्म उसी के बनाये हुए हैं जो इस ब्रह्माण्ड का बनाने वाला है. यह आकाश, पाताल, धर्ती, सागर, सूरज, चाँद, सितारा, ग्रह, उपग्रह, रात, दिन जो कुछ भी है सब उसी के बनाये हुए हैं, और सब के लिए बनाया है | किसी जाति वर्ग सम्प्रदाय के लिए नहीं है और ना तो किसी मुल्क वालों के लिए हैं.  
अगर यह सभी किसी व्यक्ति के बनाये होते तो मात्र वह अपने लोगों को देते दूसरों को नहीं देते, दूसरों के लिए नहीं होता. इससे इस बात का भी पता लगा की जब परमात्मा ने मानव को बनाया और मानव मात्र के लिए धर्म को बनाया, तो उस धर्म को मानव कहाँ से जान पाएंगे वही जानकारी जहाँ दी गयी उसी का नाम ज्ञान है, जिसे वेद कहा जाता है.  धरती पर जब मानव आया उसे धरती पर चलने के लिए ज्ञान चाहिए उसके बिना कर्म का करना संभव नहीं इसलिए विधाता ने मानव मात्र को जो ज्ञान दिया है उसे ही वेद के नाम से जाना जाता है.  जो मानव बनने के साथ साथ परमात्मा ने आदेश और निषेद दोनों का उपदेश ऋषियों के माध्यम से मानव मात्र को दिया है.
यही कारण है मानव मात्र की भाषा संस्कृत में परमात्मा ने ज्ञान दिया, किसी मुल्क वालों की भाषा में ज्ञान देने पर परमात्मा पर पक्षपात का दोष लगता.  यही कारण है की धरती पर मानव जन्म लेते जुबान खुलते ही स्वर निकलती है. और यह स्वर केवल संस्कृत में है अन्य किसी भी भाषा में स्वर नहीं है. यह अकाट्य प्रमाण है मानव मात्र को समझने के लिए, अगर कोई कहे हिब्रू भाषा में परमात्मा ने ज्ञान दिया, अथवा अरबी जुबान में अपना ज्ञान दिया.  तो कभी भीं संभव नहीं, इस लिए नहीं की यह सभी भाषाएँ मात्र देश या मुल्क विशेष के लिए है.  दूसरी बात है की धरती पर जन्म लेकर कोई भी बच्चा हिब्रू में अथवा अरबी में नहीं रोयेगा.  धरती पर आने वाले सभी की आवाज एक ही होती है स्वर =अई-उही निकलती है,दूसरी कोई और आवाज़ नहीं निकलती.
यह सभी प्रमाण मिलने के बाद भी कोई कहे, परमात्मा का दिया ज्ञान हिब्रू भाषा में है, या  फिर अरबी भाषा में है यह बात तर्क की कसौटी पर खरा उतरने वाली नहीं है. मानव उसी ज्ञान को अपनाते हुए अपना जीवन को बनाता है.  सृष्टि का निर्माण मनुष्य के हाथ नहीं है, और न जन्म और मृत्यु मनुष्य के हाथ में है.  इसका निर्माण एवं संचालन सृष्टि की उन अज्ञात शक्तियों द्वारा हो रहा है जिसे जानकर मनुष्य अपने जीवन की कार्य योजना बनाता है तथा उसी के अनुकूल चलकर मानव अपने जीवन को सुखी, संपन्न, समृद्ध, एवं विकासुन्मुख बनाता हुआ अपनी यात्रा तय करता है.  

वेदों में ईश्वर के एक होने के प्रमाण



लेखक-पंडित धर्मदेव विद्यामार्तण्ड

वेदों में ईश्वर के एक होने (Monotheism) का वर्णन है जबकि पश्चिमी विद्वानों द्वारा वेदों में अनेक ईश्वर (Polytheism) होना बताया गया है। स्वामी दयानंद द्वारा वेद विषयक वैचारिक क्रान्ति का मैक्समूलर पर इतना प्रभाव हुआ कि कालान्तर में मैक्समूलर भी वेदों में एकेश्वरवाद की धारणा का समर्थन करने पर विवश हो गये। इस सन्दर्भ में वेदों के प्रकाण्ड विद्वान् पण्डित धर्मदेव विद्यामार्तण्ड जी द्वारा लिखित यह अलभ्य लेख "वैदिक ईश्वरवाद" हमारी शंका का समाधान करने के साथ-साथ अत्यन्त रोचक और विचारणीय है।

(१) कई विद्वान 'वेद असभ्य जंगली लोगों द्वारा बनाये गये और उनमें इष्ट की प्राप्ति और अनिष्ट के परिहार के लिये अग्नि, वायु, सूर्य, नदी, समुद्र, पर्वत आदि की पूजा का इन्द्र, मित्र, वरुण, मरुत आदि देवों के नाम से उपदेश है' ऐसा बताते हैं।

(२) अन्य कई विद्वान् वेदों में अनेकेश्वरवाद का जिसे अंग्रेजी में (Polytheism) कहते हैं विधान नहीं किन्तु Henotheism वा हीनदेवतावाद का प्रतिपादन है ऐसा कहते हैं। जिसका अभिप्राय यह है कि जब कोई भक्त अग्नि की स्तुति करने लगता है तो वह उसी को सर्वोत्तम, सबका उत्पादक और सर्वशक्तिमान् मानकर उसकी पूजा करता है और दूसरे सब देवताओं को उसकी अपेक्षा हीन मानता है। जब वही कवि इन्द्र की स्तुति करने लगता है तो उसे ही सबका स्वामी, सबका पिता और सर्वशक्तिमान् मानता और अन्य सब देवों को उसकी अपेक्षा हीन बताता है। इसी प्रकार वरुण, सविता आदि के विषय में भी समझना चाहिए। सुप्रसिद्ध जर्मन विद्वान् प्रो० मैक्समूलर ने बहुत देर तक इसी मत का समर्थन किया था यद्यपि अपने अंतिम ग्रन्थ "Six Systems Of Philosophy" के लिखने के समय में उसके विचारों में परिवर्तन हो चुका था ऐसा स्पष्ट प्रतीत होता है।

(३) अन्य कई विकासवादी और ऐतिहासिक यह कहते हैं कि वैदिक कवि लोग पहले अनेकेश्वरवाद वा बहुदेवतावाद (Poly-theism) को ही मानते थे फिर वे हीनदेवतावाद को मानने लगे गये। क्रम से जब उनकी बुद्धि विकसित होती गई तो विशुद्ध एकेश्वरवाद (Pure monotheism) की कल्पना उनके मन में उत्पन्न हुई। इस प्रकार विकासवाद की दृष्टि से एकेश्वरवाद का प्रतिपादन करने वाले मन्त्र नवीन हैं।

(४) अन्य विद्वान ऐसा मानते हैं कि वेद ईश्वरीय ज्ञान रूप है। ऋषि मन्त्रों के कर्त्ता नहीं किन्तु "ऋषयो मन्त्र द्रष्टार" "ऋषिर्दर्शनान् सहीमान् ददर्शेति" "तद् यदेनास्तपस्यमानान् ब्रह्म स्वम्भ्य भ्यानर्शत् तदृषीणामृषित्वमिति विज्ञायते" (निरुक्तम्)।

इत्यादि प्रमाणों से वे मन्त्रों के द्रष्टा अर्थात् वेदों के गूढ़ अर्थ को समझ कर उनका प्रचार करने वाले थे। परमदयालु सर्वज्ञ भगवान् द्वारा प्राणिमात्र के उपकार के लिये सृष्टि के शुरू में प्रकट किये जाने के कारण वेद विशुद्ध रूप में एकेश्वरवाद का ही प्रतिपादन करते हैं न कि अनेकेश्वरवाद का। यह अन्तिम पक्ष ही हमको मान्य है। उसके समर्थक कुछ स्पष्ट प्रमाणों का यहां उल्लेख करके दूसरे विचारों की आलोचना की जायगी। निम्नलिखित वेद मन्त्र एकेश्वरवाद का अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में प्रतिपादन करते हैं।

(१) इंद्र मित्रं वरुणमग्निमाहुरथो दिव्य: स सुपर्णो गरुत्मान्। एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्त्यग्निं यमं मातरिश्वानमाहु:।। ऋ० १/१६४/४६

इस मन्त्र में यह स्पष्टतया बताया गया है कि परमेश्वर एक ही है किन्तु विद्वान् उसके अनन्त गुणों को सूचित करने के लिए इन्द्र मित्र वरुण आदि नामों से पुकारते हैं। इस प्रकार इन्द्र मित्र वरुणादि शब्द मुख्यतया ईश्वर-वाचक हैं यह स्पष्ट सिद्ध होता है। परमात्मा परमैश्वर्य सम्पन्न होने से इन्द्र, सबका मित्र तथा प्रेममय होने से मित्र, सबसे उत्तम और वरणीय तथा अविद्यादि दोष निवारक होने से वरुण, ज्ञान स्वरूप और अग्रणी सबसे श्रेष्ठ होने से अग्नि पद से उसे कहा जाता है। ब्रह्मा, विष्णु, शिव, महेश्वर, महादेव, बृहस्पति इत्यादि शब्द प्रधानतया उसी एक परमेश्वर को सूचित करते हैं। यह निम्न मन्त्रों से सिद्ध होता है।

(२) त्वमग्न इन्द्रो वृषभ: सतामसि त्वं विष्णुरुरुगायो नमस्य:। त्वं ब्रह्मा रयिविद्ब्रह्मणस्पते त्वं विधर्त: सचसे पुरंध्या।। ऋ० २/१/३

(३) त्वमग्ने राजा वरुणो धृतव्रतस्त्वं मित्रो भवसि दस्म ईड्य:। त्वमर्यमा सत्पतिर्यस्य सम्भुजं त्वमंशो विदथे देव भाजयु:।। ऋ० २/१/४

(४) त्वमग्ने रुद्रो असुरो महो दिवस्त्वं शर्धो मारुतं पृक्ष ईशिषे। त्वं वातैररुणैर्यासि शंगयस्त्वं पूषा विधत: पासि नु त्मना।। ऋ० २/१/६

(५) सोऽर्यमा स वरुण: स रुद्र: स महादेव:।
सो अग्नि: स उ सूर्य: स उ एव महायम:। अथर्व० १३/४/४, ५

(६) त्वमिन्द्रस्त्वम्महेन्द्रस्त्वं लोकस्त्वं प्रजापति:। तुभ्यं यज्ञो वि तायते तुभ्यं जुह्वति जुह्वतस्तवेद्विष्णो बहुधा वीर्याणि।। अथर्व० १७/१/१८

इन मन्त्रों पर यदि निष्पक्ष विचार किया जाये तो स्पष्ट ज्ञात होता है कि एक ही परमात्मा के ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, इन्द्र, वृषभ, बृहस्पति, अग्नि, प्रजापति, वरुण, मित्र, अर्यमा, पूषा आदि नाम हैं और इस प्रकार वेदों में अनेकेश्वरवाद के भ्रम का कोई स्थान नहीं रहता। सत्य ग्रहण करने में उद्यत और पाश्चात्य विद्वानों की मानसिक दासता को स्वीकार करने वाले विद्वानों को इन मन्त्रों का अच्छी प्रकार मनन करना चाहिए तब उनका वैदिक एकेश्वरवाद में दृढ़ विश्वास हो जायेगा, इसमें सन्देह नहीं। इन मन्त्रों पर विचार करने से हीन देवतावाद का भी खण्डन हो जाता है।

(७) तदेवाग्निस्तदादित्यस्तद्वायुस्तदु चन्द्रमा:।
तदेव शुक्रं तद् ब्रह्म ताऽआप: स प्रजापति:।। यजु० ३२/१

यह मन्त्र भी एकेश्वरवाद का प्रतिपादन करते हुए उसी परमेश्वर के अग्नि, आदित्य, वायु, चन्द्रादि नाम हैं, इस बात को स्पष्ट घोषित करता है। ऐसे मन्त्रों के भाव को लेकर ही कैवल्योपनिषद् में-

सब्रह्मा सविष्णु सरुद्र: सशिव: सोऽक्षर:।
स परम:स्वराट्। स इन्द्र: स कालाग्नि: स चन्द्रमा:।।

ऐसे कहा है।

भगवान् मनु ने भी-

प्रशासितारं सर्वेषां अणीयांसं अणोरपि।
रुक्माभं स्वप्नधीगम्यं विद्यात्तं पुरुषं परम्।।
एतं एके वदन्त्यग्निं मनुं अन्ये प्रजापतिम्।
इन्द्रं एके परे प्राणं अपरे ब्रह्म शाश्वतम्।। मनु० १२/१२१-१२३

इत्यादि श्लोकों द्वारा उसी वैदिक भाव का समर्थन किया है।

(८) यो नः पिता जनिता यो विधाता धामानि वेद भुवनानि विश्वा। यो देवानां नामध एक एव तं सम्प्रश्नं भुवना यन्त्यन्या।। ऋ० १०/८२/३

इस मन्त्र में भी परमात्मा एक ही है जो देवों के नाम अग्नि, मित्र, वरुणादि को धारण करनेवाला है। ऐसा साफ कहा है। यही मन्त्र अथर्ववेद के २/१/३ में थोड़े पाठ भेद के साथ इस प्रकार पाया जाता है-

"स नः पिता जनिता स उत बन्धुर्धामानि वेद भुवनानि विश्वा। यो देवानां नामध एक एव तं सम्प्रश्नं भुवना यन्ति सर्वा।।"

इन दोनों मन्त्रों में प्रयुक्त "यो देवानां नामध एक एव" यह अंश विशेष मननीय है जो वेदों में अनेकेश्वर वाद विषय के भ्रम को दूर करने को पर्याप्त है।

(९) परमात्मा एक ही है जो सर्वदा और सर्वशक्तिमान होने से एक मात्र स्तुति करने योग्य है ऐसा निम्नलिखित ऋग्वेदीय मन्त्र में उपदेश किया गया है।

"य एक इत्तमु ष्टुहि कृष्टीनां विचर्षणि:। पतिर्जज्ञे वृषक्रतु:।।" ऋ० ६/४५/१६

इस मन्त्र में अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में एकेश्वरवाद का प्रतिपादन है। ऐसी अवस्था में वेद अनेकेश्वरवाद वा हीन-देवतावाद का समर्थन करते हैं, ऐसा कहना कितना अशुद्ध तथा पक्षपात सूचक है यह बुद्धिमान स्वयं निश्चय कर सकते हैं।

(१०) ऋग्वेद ८/१/१ साम-द ३/१/१० में पाया जाने वाला निम्न मन्त्र इन्द्र पद से परमात्मा का बोध कराते हुए अनेकेश्वरवाद का खण्डन और एकेश्वरवाद का प्रबल समर्थन करता है।

"मा चिदन्यद्वि शंसत सखायो मा रिषण्यत। इन्द्रमित्स्तोता वृषणं सचा सुते मुहुरुक्था च शंसत।।"

अर्थ- हे मित्रो! केवल सर्वैश्वर्य सम्पन्न परमात्मा की स्तुति करो अन्य किसी की नहीं। इस प्रकार अन्यों की स्तुति करके दुःखी न होओ। बार-बार यज्ञादि सब शुभ कर्मों में समस्त सुखवर्षक भगवान् की ही स्तुति करते रहो।

(११) वही एक इन्द्रादि पद वाच्य परमात्मा ही पूजा करने योग्य है अन्य नहीं, यह भाव निम्न मन्त्र में भी स्पष्टतया पाया जाता है।

"य एक इद्धव्यश्चर्षणीनामिन्द्रं तं गीर्भिरभ्यर्च आभि:। य: पत्यते वृषभो वृष्ण्यावान्त्सत्य: सत्वा पुरुमाय: सहस्वान्।।" ऋ० ६/२२/१

'चर्षणी' शब्द का अर्थ निघण्टु में मनुष्य दिया ही है अतः वह एक परमेश्वर ही सब मनुष्यों का पूजनीय है यह मन्त्रार्थ है।

(१२) प्रजापति (सारी प्रजा का पालक) परमात्मा एक ही है और वही सर्व व्यापक, सर्वशक्तिमान् और सर्वज्ञ होने से पूजनीय है, यह हिरण्यगर्भ सूक्त में अनेकेश्वरवाद का निराकरण करते हुए इस प्रकार स्पष्ट बताया गया है।

"प्रजापते न त्वदेतान्यन्यो विश्वा जातानि परिता बभूव। यत्कामास्ते जुहुमस्तन्नो अस्तु वयं स्याम पतयो रयीणाम्।।"

इसी सुप्रसिद्ध हिरण्यगर्भ सूक्त के "हिरण्यगर्भ: समवर्तताग्रे"। इसी प्रथम मन्त्र को पहले उद्धत किया ही जा चुका है। उसी सूक्त में।

"यो देवेष्वधिदेव एक आसीत कस्मै देवाय हविषा विधेम।।" यही मन्त्र परमात्मा को देवाधिदेव बताते हुए उसी की पूजनीयता का प्रतिपादन करता है। इस सूक्त के बारे में प्रो० मैक्समूलर ने "History of the Sanskrit Literature" पृ० ५६८ में इस प्रकार लिखा है।

"I add only one more hymn (RIG 10.121) in which the idea of one God is expressed with such power and decision, that it will make us hesitate before we deny to the Aryan nature an instinctive monotheism."

अर्थात् मैं एक और सूक्त ऋ० १०/१२१ को उद्धृत करता हूं जिसमें एकेश्वरवाद का इतने स्पष्ट तथा प्रबल शब्दों में प्रतिपादन है कि हमें आर्य जाति में स्वाभाविक एकेश्वरवाद से इन्कार करने में बहुत ही संकुचित होना पड़ेगा।

(१३) अथर्व वेद के १३ काण्ड में भी अनेकेश्वर का निराकरण करते हुए एकेश्वरवाद का इन स्पष्ट शब्दों में प्रतिपादन है।

"न द्वितीयो न तृतीयश्चतुर्थो नाप्युच्यते न पञ्चमो न षष्ठ: सप्तमो नाप्युच्यते। नाष्टमो न नवमो दशमो नाप्युच्यते स एष एक एक वृदेक एव।।" अथर्व० १३/४/१६-२१

यहां एक (वृत् का अर्थ एक सन् वृणोति- व्याप्नोति सर्वे जगत्) इस व्युत्पत्ति से सर्वव्यापक है। क्या इनसे साफ एकेश्वरवाद का प्रतिपादन हो सकता है? ऐसा होने पर भी जो महानुभाव वेदों को अनेकेश्वरवाद प्रतिपादक बताते हैं उनका विकासवादादि विषय में पक्षपात ही सूचित होता है न कि सत्य ग्रहण करने की इच्छा।

(१४) वह एक परमेश्वर ही सारे संसार का स्वामी और पूजनीय है इस विषय को निम्नलिखित दो अथर्ववेद के मन्त्र भी स्पष्टतया बताते हैं।

"दिव्यो गन्धर्वो भुवनस्य यस्पतिरेक एव नमस्यो विक्ष्वीड्य:। तं त्वा यौमि ब्रह्मणा दिव्य देव नमस्ते अस्तु दिवि ते सधस्थम्।।" अथर्व० २/२/१

(१५) मृडाद्गन्धर्वो भुवनस्य यस्पतिरेक एव नमस्य: सुशेवा:।। अथर्व० २/२/२

यहां गन्धर्व: का अर्थ (गा वाणी सूर्य भूमि वा धरतीति गन्धर्व) इस व्युत्पत्ति के अनुसार वाणी सूर्य वा भूमि का धारण करने वाला और सुशेवा का उत्तम, सुखदायक है। इस मन्त्र में प्रयुक्त 'एक एव नमस्य' वह एक परमेश्वर ही पूजा करने योग्य है ये शब्द वेदों में अनेकेश्वरवाद विषयक भ्रम को दूर करने के लिये पर्याप्त हैं यदि इन पर निष्पक्ष होकर विचार किया जाए। और भी सैकड़ों प्रमाण वेदों के विशुद्ध एकेश्वरवाद को सिद्ध करने के लिये दिये जा सकते हैं किन्तु विस्तारभय से इस विषय को यहीं समाप्त किया जाता है। भिन्न २ वेदों और स्थलों से उद्धृत ये मन्त्र स्पष्ट सिद्ध करते हैं कि वेदों में एकेश्वरवाद ओत प्रोत है। अनेकेश्वरवाद हीनदेवतावाद (Henotheism) वा विकासवाद (Evolution theory) के द्वारा इन मन्त्रों की किसी प्रकार भी व्याख्या नहीं की जा सकती। इसलिये निष्पक्ष अनेक प्रसिद्ध पाश्चात्य विद्वान् भी अब वेदों में एकेश्वरवाद का प्रतिपादन है इस बात को मानने लगे गये हैं- जैसा कि निम्न उद्धरणों से प्रमाणित होता है।

पाश्चात्य विद्वान और वैदिक एकेश्वरवाद

(१) प्रो० मैक्समूलर के History of the Sanskrit Literature से एक उद्धरण पहिले दिया जा चुका है। निम्न उद्धरण उनके अन्तिम ग्रन्थ "Six Systems Of Philosophy" से दिया जाता है जिसमें उन्होंने स्पष्टतया स्वीकार किया है कि इन्द्र, अग्नि, मातरिश्वा, प्रजापति आदि नामों से वेदों में वस्तुतः एक ईश्वर का ही प्रतिपादन है।

“Whatever is the age when the collection of our Rigveda Sanhita was finished, it was before that age that the conception had been formed that there is but one, One Being, neither male nor female, a Being raised high above all the conditions and limitations of personality and nevertheless the Being that was really meant by all such names as Indra, Agni, Matarishva and by the name of Praja Pati- Lord of creatures. In fact, the Vedic Poets had arrived at a conception of Godhood which was reached once more by some of the Christian Philosophers of Alexandria, but which even at present is beyond the reach of many who call themselves Christians."

(२) मि० चार्ल्स कोलमैन (Charles Coleman) नामक सुप्रसिद्ध पाश्चात्य विद्वान् ने वैदिक ईश्वरवाद के विषय में अपना अभिप्राय इन शब्दों में प्रकट किया है।

“The Almighty, Infinite, Eternal, Incomprehensible, Self-existent, Being, He who sees everything though never seen is Brahma, the One Unknown True Being, the Creator, the Preserver and Destroyer of the Universe. Under such and innumerable other definitions is the Deity acknowledged in the Vedas.”
(Mythology of the Hindus)

भावार्थ यह है कि वेदों में परमात्मा को एक सर्वशक्तिमान्, सर्वव्यापक, अनन्त, नित्य, अविक्षेय, स्वयम्भू, सर्व द्रष्टा, जगत् का कर्ता, धर्ता और संहर्ता आदि रूप से बताया गया है।

(३) कौन्ट जार्न्स जर्ना नामक प्रसिद्ध विद्वान् ने 'Theogony of the Hindus' नामक पुस्तक में वेद मन्त्रों के प्रमाण देते हुए लिखा है-

“These truly sublime ideas can not fail to convince us that the Vedas recognise only one God, which is Almighty, Infinite, Eternal, Self-existent, the Light and Lord of the Universe.”

अर्थात इन उदाहरणों से हमें यह विश्वास हुए बिना नहीं रह सकता कि वेद एक ही परमात्मा को स्वीकार करते और उसका प्रतिपादन करते हैं जो सर्वशक्तिमान, अनन्त, नित्य, स्वयम्भू, जगत का प्रकाशक और स्वामी है।

(४) कोलब्रूक (Colebrook) नामक प्रसिद्ध अंग्रेज विद्वान ने प्राचीन हिन्दू धर्म के विषय में इस प्रकार लिखा है-

“The ancient Hindu Religion as founded on the hindu scriptures (Vedas) recognise but one God.”
(Asiatic Researches Vol III P 385)

सारांश यह है कि हिन्दू धर्म ग्रन्थों (वेदादि शास्त्रों) पर आश्रित हिन्दू धर्म एकेश्वरवाद का ही प्रतिपादन करता है।

(५) अर्नेस्ट वुड (Ernest Wood) नामक सुप्रसिद्ध अंग्रेज विद्वान ने "An English man defends mother Indra" नामक पुस्तक में ईश्वरवाद के विषय में यों लिखा-

In the eyes of the Hindus, there is but one, Supreme God. This was stated long ago in the Rigveda in the following words “एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति” Which may be translated, “The sages name the One Being variously.”
(Page 128.)

अर्थात् हिन्दुओं की दृष्टि में एक ही परमात्मा है। इसका प्रतिपादन बहुत प्राचीन समय में ऋग्वेद में 'एकं  सद्विप्रा बहुधा वदन्ति' इत्यादि शब्दों द्वारा किया गया था जिसका अर्थ है कि विद्वान् लोग एक ही परमेश्वर को अनेक नामों से पुकारते हैं।


अन्य भी अनेक उद्धरण पाश्चात्य विद्वानों के ग्रन्थों से वैदिक एकेश्वरवाद के समर्थन में दिये जा सकते हैं किन्तु विस्तार के भय से अभी इतने ही पर्याप्त समझकर देवों के विषय में विचार प्रारम्भ किया जाता है।

क्या वेद में काल्पनिक जन्नत है?


नास्तिक अंबेडकरवादी और मुसलमान आदि लोग वेदों पर काल्पनिक जन्नत होने का आक्षेप करते हैं। राकेश नाथ अपनी पुस्तक "कितने खरे हमारे आदर्श" और सुरेंद्रकुमार अज्ञात "क्या बालू की भीत पर खड़ा है हिंदू धर्म" में आक्षेप करते हैं कि वेदों में काल्पनिक स्वर्ग का वर्णन है, इसी के लालच में हिंदू लोग ईश्वर,आत्मा,वेद आदि का पाखंड करते थे। अर्थात् हिंदुओं का धर्म-कर्म केवल ये स्वर्ग पाना ही है।

हम अथर्ववेद कांड ४ सूक्त ३४ का प्रमाण देते हैं, जहां पर गृहस्थाश्रम को ही स्वर्ग कहा गया है। दरअसल सुखविशेष को वेद स्वर्ग कहते हैं। कोई दूसरा ग्रह नहीं है, अपितु सुखद गृहस्थलोक को ही स्वर्ग कहा गया है। अवलोकन कीजिये:-

मंत्र-१ में ब्रह्मचर्य को (तपसः अधि) कहा गया है,यानी गृहस्थाश्रम में आने से पहले का तप।यहां गृहस्थाश्रम को विष्टारी कहा गया है, अर्थात् संतानोत्पत्ति द्वारा विस्तार करने वाला।

इसके अगले मंत्र में मुसलमान और नास्तिक लोग वेद में इस्लाम की जन्नत जैसा वर्णन होना बताते हैं। मंत्र इस तरह है:-

अनस्थाः पूताः पवनेन शुद्धाः शुचयः शुचिमपि यन्ति लोकम् ।
नैषां शिश्नं प्र दहति जातवेदाः स्वर्गे लोके बहु स्त्रैणमेषास्वामी।।२।।

"जो अस्थिपंजर नहीं है,अपितु मांसल और हृष्ट-पुष्ट है,आचार से पवित्र है, पवित्र वायु द्वारा शुद्ध है।विचारों द्वारा शुचि है,वे ही (शुचिम् लोकम्) शुचि-गृहस्थलोक में प्रविष्ट होते हैं। प्रज्ञानी ईश्वर (एषाम्)इनकी (शिश्नम्) प्रजनन-इंद्रिय को (न प्र दहति) प्रदग्ध नहीं करता,(स्वर्गे लोके) स्वर्ग रूप गृहस्थ लोक में इनके (बहु स्त्रैण) बहुत स्त्री समूह होते हुये भी।।२।।

लोकम्=गृहस्थलोक यथा " अदुर्मंगली पतिलोकमा विशेमं शं नो भव द्विपदे शं चतुष्पदे"( अथर्ववेद १४/२/४०)। यहां यह भाव है कि जो व्यक्ति ब्रह्मचर्याश्रम में रहकर संयम-नियम से जीता है, गृस्थलोक में अनेक स्त्रियों के होते हुये भी केवल अपनी पत्नी से समागम करता है। परमेश्वर उसे कर्मफल देकर उसके शिश्नेंद्रिय को दाहरूपी दुष्फल यानी निर्वीर्य होना,सा अन्य घृणित रोग नहीं होने देता। 
यहां कुछ मौलाना लोग अर्थ लगाते हैं कि यहां पर किसी काल्पनिक स्वर्ग लोक में हूरों की तरह शिश्न से भोग किया जायेगा। पर ये धारणा बिलकुल गलत है। स्वर्ग केवल सुख का नाम है। स्वर्ग के और स्वरूप देखें अथर्ववेद ६/१२२/२ में।

इसी सूक्त के ४थे मंत्र में स्वर्ग को भूलोक वाला कहा है:-

विष्टारिणमोदनं ये पचन्ति नैनान् यमः परि मुष्णाति रेतः ।
रथी ह भूत्वा रथयान ईयते पक्षी ह भूत्वाति दिवः समेति ॥४॥

यहां कहा है कि वीर्यवान गृहस्थी (रथी भूत्वा) रथ स्वामी होकर (रथयाने) रथ द्वारा जाने योग्य भूलोक में (ईयते)संचार करता है, और (ह) निश्चय से पक्षी होकर अंतरिक्ष प्रभृति ऊपप के लोकों को अतिक्रांत करके तत्रस्थ निवासियों के संग को प्राप्त करता है।।४।।
यहां पर 'रथयाने ईयते'- इसकी व्याख्या सायणाचार्य ने 'भूलोके' की है। इससे ज्ञात हुआ कि मंत्र २ में स्वर्ग लोक भूलोक में ही है, नाकि किसी काल्पनिक जन्नत का यहां वर्णन है।

मंत्र ६ में कुछ वामपंथी व मुसलमान इस्लामी जन्नत की तरह "शराब व शहद की नहरें" ढूंढ़ते हैं।

घृतह्रदा मधुकूलाः सुरोदकाः क्षीरेण पूर्णा उदकेन दध्ना ।
एतास्त्वा धारा उप यन्तु सर्वाः स्वर्गे लोके मधुमत्पिन्वमाना उप त्वा तिष्ठन्तु पुष्करिणीः समन्ताः ॥६॥

यहां पर (घृतह्रदाः) घृत के तालाब सदृश महाकाय मटके (मधुकूलाः) मधु द्वारा किनारे तक भरे हुये मटको(सुरोदकाः) आयुर्वैदिक अरिष्ट व आसववाले मटके (क्षीरेण) तथा,दूध द्वारा,उदक द्वारा, दधि द्वारा भरपूर भरे मटके, ये सब गृस्थलोकस्थ व्यक्ति को प्राप्त हो, ऐसा कहा गया है।।६।।

यहां पर सुरोदकाः= "सुरा उदकनाम" (निघंटु १/१२) अर्थात् संधानविधि द्वारा शुद्ध किया जल-यह अभिप्राय निघंटु से प्रतीत होता है। साथ ही, सुरा सोमलता का भी अर्थ देता है। अतः यहां "सुरा" का तात्पर्य शराब की नहरें न होकर आयुर्वैदिक अरिष्ट व आसव हैं।
( अथर्ववेद भाष्य, पं विश्वनाथ विद्यालंकारकृत, ४/३४)

इस तरह से पता चला कि वेद में सुखद गृहस्थाश्रम को ही स्वर्ग कहा गया है। यही सुखद गृहस्थ दूध,घी,शहद आदि वाला होता है। अतः नास्तिकों व मुस्लिमों के आक्षेप मिथ्या हैं।

संदर्भ ग्रंथ एवं पुस्तकें:-
अथर्ववेद भाष्य- पं विश्वनाथ विद्यालंकार