Sunday 30 July 2017

श्रावणी हमें क्या चिन्तन देती है -महात्मा चैतन्य स्वामी

अविवेक ही व्यक्ति के समस्त दुःखों को कारण माना गया है इसलिए जो भी जीवन में सुख चाहता हे उसे विवेकशीय होना अनिवार्य है। विवेकी बनने के लिए वेद ही सर्वोत्तत ग्रन्थ है क्योंकि वेद स्वयं परमात्मा का दिया हुआ ज्ञान है। जिस प्रकार सूर्य के अभाव में अन्धकार में डूबकर व्यक्ति ठोकरें खाता है ठीक इसी प्रकार वेद ज्ञान के अभाव में व्यक्ति भटक जाता है। महर्षि पत´जलि जी ने अविद्या, अस्मिता, राम द्वेष और अभिनिवेश को क्लेश माना है तथा महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने अविद्या को ही अन्य क्लेशों का भी जनक माना है। उनके अनुसार अविद्या ही समस्त दुःखों को कारण है। व्यक्ति, समाज, परिवार या राष्ट्र वेदानुयायी बनकर ही सुख, शान्ति और समृ( को प्राप्त हो सकता है। इसलिए महर्षि दयानन्द जी ने अपना कोई अलग सम्प्रदाय न चलाकर लोगों को एक ही सत् परामर्श दिया कि वेदों की ओर लौटो। वेद स्वयं ही ज्ञान का पर्याय है अतः अज्ञानान्धकार का निराकरण करने के लिए वेदों का स्वाध्याय नितान्त अनिवार्य है। वेद का मनन-चिन्तन करने के लिए प्राचीन काल से ही जन साधारण का वेद के मनीषियों के यहां जाकर ज्ञान प्राप्त करने की परम्परा रही है जो कालान्तर में लुप्त प्राय होती चली गई मगर आर्य समाज जैसी उत्कृष्ठ संस्था द्वारा आज भी वेद स्वाध्याय के प्रति जनसाधारण में जागरूकता पैदा करने के लिए वेद सप्ताह अर्थात् श्रावणी पर्व का आयोजन किया जाता है। आर्य समाज संस्था की यह विषेषता है कि यह किसी मत-महजब को लेकर व्यक्तियों को बांटने का कार्य नहीं करती बल्कि परमात्मा के ज्ञान वेद को लेकर समूची मानवता को एकता के सूत्र में बान्धकर तथा वैदिक धर्म के प्रचार-प्रसार द्वारा व्यक्ति के चतुर्दिक विकास का मार्ग प्रशस्त करती है। श्रावणी पर्व के अवसर पर वेद स्वाध्याय के प्रति लोगों में न केवल रूचि पैदा की जाती है बल्कि इस अवसर पर बड़े-बड़े पारायण यज्ञों का भी आयोजन किया जाता है। यह एक अत्यधिक स्तुत्य प्रयास है अन्यथा आज प्राचीन संस्कृति को लोग भूते चले जा रहे हैं और अनेक प्रकार के सम्प्रदायों में बंटकर वातावरण को स्वाथ्रमय तथा विषाक्त बनाते चले जा रहे हैं।
इस त्रासदी से आज अधिकतर लोग रूबरू हो रहे हैं। ऐसे ही लोगों को सम्बोधित करते हुए वेद कहता है-
अन्ति सन्तं न जहाति अन्ति सन्तं न पश्यति। देवस्य पश्य काव्यं न ममार न जीर्यति।। ;अथर्व. 10/8/32द्ध
अर्थात् पास बैठे हुए को छोड़ता नहीं, पास बैठे हुए को देखता नहीं। अरे उस परम पिता परमात्मा के काव्य वेद को देख जो न कभी मरता है और न कभी पुराना होता है।
इस मंत्र के भावों का यदि गहराई से ममन करें तो हमारे जीवन का कांटा ही बदल सकता है। संक्षिप्तता से इसका भाव हम इस प्रकार समझ सकते हैं कि परमात्मा के काव्य अर्थात् प्रकृति और वेद ज्ञान के सम्यक अध्ययन से हम इस तथ्य को जान लें कि इस प्रकृति में सुख तो है मगर आनन्द नहीं है। यदि वास्तविक आनन्द का पान करना है तो शारीरिक एवं भौतिक सृष्टि में उसकी तलाश छोड़कर उसे आध्यात्मिकता में खोजना होगा। आत्मा को उसकी वास्तविक खुराक मिलने पर ही तृप्ति मिल सकती है। इसलिए वेद मंत्र हमें चेतावनी देते हुए कह रहा हे कि यदि तुम सुख और आनन्द चाहते हो तो परमात्मा के शाश्वत् नियमों का अवलोकन करक आत्मा रूपी रथी के इस रथ को परमात्मा की ओर मोड़ना होगा। परमात्मा के सान्निध्य में जाकर ही तुझे परम शान्ति और तृप्ति मिल सकती है।
वेद सप्ताह मनाने का उद्देश्य भी यही होना चाहिए कि हम जीवन की पगडण्डी पर चलते-चलते अचानक जिन झाड़-झंखाड़ों में उलझ गए हैं उससे निकलने के लिए वेद ज्ञान को व्यवहारिकता में लाएं। आज समाज, राष्ट्र और समूचा विश्व आतंक और भय के वातावरण से गुजर रहा है। कुछ वर्ष पूर्व जो सौहार्द और प्रेम का वातावरण था वह लुप्तप्राय ही हो गया है। मानव इतना हृदयहीन हो गया है कि जहां उसे दूसरों का उपकार करने से प्रसन्नता होती थी आज वह अपकार करके प्रसन्न होने लगा है। अलगाववाद, मज़हबबाद, जातिवाद, क्षेत्रवाद और सम्प्रदायवाद कगे काले बादल हमारे चारों ओर मण्डरा रहे हैं। राष्ट्र के सामूहिक विकास की किसी को चिन्ता नहीं है। तुष्टिकरण और वोट की राजनीति ने ऐसी दीवारें खड़ी कर दी हैं जो दिन-प्रतिदिन और भी अधिक ऊंची होती चली जा रही हैं। चाहे व्यक्तिगत हों, परिवार और समाज तथा देश की हो सभी समस्याओं का समाधान हमें वेद में मिल सकता है क्योंकि वेद सब विद्याओं का पुस्तक है। सत्य एक ऐसी रामबाण औषधि है जिससे सभी रोग समाप्त हो सकते हैं। वेद हमें सत्य की कसौटी पर रहकर जीना सिखाता है। हमारे साथ समस्या यही ं कि हमने झूठ का सहारा ले रखा है तथा एक झूठ यको सही ठहराने के लिए हम एक और झूठ का सहारा ले रहे हैं। इस प्रकार इन झूठां के अम्बार तले हम दब गए हैं। हमें इस बात को गांठ बांध लेना चाहिए कि झूठ के सहारे हमारा किसी भी क्षेत्र में उत्थान नहीं हो सकता। यह ठीक है कि जैसे रोगी को कड़वी दवाई खाने में तो अच्छी नहीं लगती मगर उसका परिणाम सुखद है, ठीक इसी प्रकार वेद के सत्य पर चलना हमें पहले तो बहुत अटपटा और अव्यवहारिक लग सकता है क्योंकि हमें अपने-अपने स्वार्थ के दायरों में सिमट कर जीने की आदत पड़ गई है मगर वास्तवकता यह है हें अपने-अपने संकुचित दायरों से बाहर निकलकर सत्यता को स्वीकार करना होगा क्योंकि सत्य की सोच ही अन्ततः ठीक होती है। वेद हमें सत्य के साथ जुड़ने की ही प्रेरणा देता है।
हम चिन्तन करें कि आखिर मानव-माव के भीतर ये दूरियां क्यों बढ़ती चली जा रही है। होता यह है कि अपने तप, त्याग और साधना से कोई भी व्यक्ति जब उच्चतम स्तरों को छू लेता है तो उसके बहुत से अनुयायी भी बन जाते हैं, ये अनुयायी उन आदर्शों पर तो चल नहीं पाते हैं मगर मात्र लकीर के फकीर बन जाते हैं। उस महापुरुष ने जिस तप और त्याग से जीवन की ऊंचाईयों को छुआ था उस प्रक्रिया को नजर अन्दाज करके उस महापुरुष की ही पूजा-अर्चना शुरू कर दी जाती है। आज हामरे समाज में ऐसे पैगम्बरों, अवतारों और गुरुओं की मानों बाढ़ सी आ गई है। गुरु होना तो बुरी बात नहीं मगर गुरुडम प्रथा ने इस समाज का बहुत अहित किया है। इससे मानवीय एकता को बहुत बड़ा धक्का लगा है तथा परमात्मा के स्थान पर व्यक्तियों की पूजा होने लगी है। इस व्यक्ति पूजा ने अन्य अनेक प्रकार की कुरीतियों को भी जन्म दिया है। इसी के आधार पर व्यक्तियों द्वारा बनाए गए अलग-अलग ग्रन्थों और उपदेशों को प्रमाण मानने की अज्ञानता का भी जन्म हुआ है। अलग-अलग नामों और पूजा प(तियों ने एक मानव धर्म को अनेक सम्प्रदायों में बांट दिया है। यह एक अटल सत्य है कि कोई भी महापुरुष परमात्मा नहीं बन सकता है और अल्प ज्ञानी होने के कारण न ही उसके द्वारा दिया गया ज्ञान निर्भ्रान्त और पूर्णतय सत्य हो सकता है। मगर आज जैसे मानों अन्धे ही अन्धों को रास्ता दिखा रहे हैं इसलिए अज्ञानता के गढ्ढे में गिरकर चतुर्दिक विनाश हो रहा है। तथाकथित इन भगवानों की भीड़ में परमात्मा कहीं खो गया लगता हे और मत-मज़हब एवं सम्प्रदायों की अज्ञानता में मानवीय गुणों का ह्ास हुआ है। एक सामूहिक सोच जिससे हमारी चतुर्दिक उन्नति का मार्ग प्रशस्त होना था, विलुप्त हो गई है। अतः आज इस बात की परम आवश्यकता है कि मानव मूल्यों की पुनः स्थापना करने के लिए एक सामूहिक सोच का विकास किया जाए जो वेद के आधार पर ही हो सकती है क्योंकि एकमात्र वेद पूणॅतः सार्वभौमिक ओर परमात्मा की सत्य वाणी है।
-महर्षि दयानन्द धाम, महादेव , सुन्दर नगर, मण्डी (हि.प्र.)


कौन थे आर्य


आर्यों की जिन कहानियों को, जिनकी तस्वीरों को अबतक हम इतिहास की किताबों में देखते आए। वैसे 2200 शुद्ध आर्यन आज भी जिंदा हैं। इंसानों की एक ऐसी नस्ल, जिनसे होने वाले बच्चों की ख्वाहिश में न जाने कितनी विदेशी महिलाएं हर साल उन बस्तियों में जाती हैं। ऐसी ख्वाहिश रखने वाले एक महिला के मुताबिक मैं अपना नाम नहीं बताना चाहती। मैं जर्मनी के म्यूनिख से हूं। मैं यहां एक बच्चे की ख्वाहिश में आई हूं। शायद आप इसकी अहमियत समझते होंगे। 


महिला ने बताया क्योंकि सिर्फ यही एक जगह है जहां आपको असली आर्यन मिलते हैं। यही आर्यन का असली खून हैं। ये लोग बहुत सामान्य हैं। मैं ऐसा करने वाली पहली या आखिरी महिला नहीं हूं। इसके पीछे एक पूरा सिस्टम है, मैं जो कर रही हूं उसमें गलत क्या है? मैं जो चाहती हूं, उसके लिए पैसे दे रही हूं।

बता दें कि आर्यन हिंदुस्तानियों की सबसे पहली नस्ल है। आर्यन सबसे बाहुबली, सबसे बुद्धिमान, सबसे खूबसूरत और सबसे शुद्ध होते हैं। जिनकी ख्वाहिश में हर साल सैकड़ों विदेशी महिलाएं हिंदुस्तान की एक रहस्यमय बस्ती में आती हैं ताकि उनके होने वाले बच्चे की रगों में भी एक आर्यन की लहू दौड़े।




आर्यन की वो दुनिया हिंदुस्तान के एक ठंडे रेगिस्तान में बसी है और उसी दुनिया को पहली बार टीवी कैमरे पर कैद करने, आईबीएन7 की टीम भी एक लंबे सफर पर निकल पड़ी। आईबीएन7 की टीम की पहली मंजिल है दिल्ली के करीब 1200 किलोमीटर दूर लेह, जहां आर्यंस की वो पीढ़ी आज भी जिंदा है।

छोटे तिब्बत के नाम से मशहूर इस शहर में बौद्ध लामाओं की एक अद्भुत दुनिया बसती है, लेकिन इन्हीं वादियों में कहीं, कुछ ऐसे लोग भी है, जिन्होंने आजतक खुद को दुनिया की नजर से महफूज रखा। कुछ ऐसे शुद्ध आर्यन, जिनकी पीढ़ियों के करीब 2200 लोग आज भी जिंदा है।

दिल्ली से तकरीबन डेढ़ घंटें के हवाई सफर के बाद आईबीएन7 की टीम लद्दाख के लेह शहर पहुंच चुके हैं। यहां से आईबीएन7 की टीम की मंजिल 163 किलोमीटर है, जहां इंसानों की एक अजीबोगरीब दुनिया बसती है। कुदरत ने इस इलाके को बेपनाह खूबसूरती बख्शी है। लेकिन, इन वादियों के बीच हजारों सवाल भी इन फिजाओं में तैर रहे थे।

क्या हम उन्हीं आर्यन को देखने जा रहे हैं, जिनके पूर्वजों ने ही 5000 साल पहले हिंदुस्तान में कदम रखा, क्या ये वही लोग हैं, जिन्होंने इंसानों की पहली सभ्यता शुरु की? अगर ये वही हैं, तो दिखते कैसे होंगे, उनका रंग रूप कैसे होगा, उनकी कद-काठी कैसे होगी और क्या वैसी है, जैसी इतिहास की कहानियों में बताई गई?

लेह आकर आईबीएन7 की टीम को पता लगा, कि वाकई यहां आर्यन की एक गुमनाम दुनिया मौजूद है, लेकिन उनसे मिलने की इजाजत देश के किसी आम आदमी को नहीं, खुद उस गुमनाम बस्ती की गुजारिश पर सेना उन्हें बाहरी दुनिया से महफूज रखती है। इसलिए, उस रहस्यमय दुनिया में दाखिल होने के लिए हमें सरकारी इजाजत लेनी पड़ी।

आर्यों कौन थे, कहां से आए? इसे लेकर इतिहास में कई दावे होते हैं। पहला दावा ये, कि आर्यों की उत्पति तुर्की के अनातोलिया से हुई। दूसरे दावे में माना गया कि आर्य यूरोप के यूराल पर्वतों से आए थे और तीसरा दावा ये, कि आर्यों की शुरुआत हिंदुस्तान के हिमालय से हुई।

भारतीय संस्कृति में आर्यों का पहला जिक्र ऋग्वेद में मिलता है, जिसमें लिखा गया है कि अहं भूमिमददामार्याय यानी मैं यही भूमि आर्यों को देता हूं। वेदों के अलावा मनुस्मृतियों में भी आर्यों का जिक्र बार-बार हुआ, जिसमें उनकी शारीरिक रचनाओं का वर्णन किया गया। वाल्मिकी रामायण में कई बार भगवान राम को आर्य कहकर संबोधित किया गया, जबकि महाभारत में श्रीकृष्ण और गीता में अर्जुन के लिए आर्य शब्द का इस्तेमाल हुआ है। इतिहास के पन्नों को खंगालें, तो आर्य इंसानों की सबसे शुद्ध, सबसे श्रेष्ठ नस्ल थी, जिन्होंने पहली बार खेती की तकनीक विकसित की और दुनिया को पाषाण युग से बाहर ले आए।

पूरी दुनिया में आर्यों को लेकर एक लड़ाई हमेशा चलती रही। ये माना गया, कि आर्य योद्धाओं के दम पर ही सिकंदर ने विश्व विजय हासिल की और खुद को आर्यन साबित करने के लिए ही हिटलर ने दूसरे विश्व युद्ध में पूरी दुनिया से बगावत कर दी। लेह की वादियों में ये तलाश उन्हीं सच्चे आर्यंस की थी।

आईबीएन7 की टीम को आर्यों की जिस सबसे शुद्ध पीढ़ी की तलाश थी। उन लोगों की कोई तस्वीर न इंटरनेट पर थी, न किताबी-किस्सों में, लेकिन हमें बताया गया, कि उनकी वेश-भूषा, उनकी नीली आंखे, उनकी कद-काठी ही उनकी पहचान है क्योंकि लेह के इस इलाके में सामान्य लोगों की लंबाई पांच फीट के आसपास होती है, लेकिन आर्यों की उस गुमनाम बस्ती का हर शख्स छह फीट से भी लंबा होगा।

आईबीएन7 की टीम लेह की इन पहाड़ियों पर भटक ही रही थी, कि हमारे लिए एक स्थानीय शख्स उम्मीद बनकर सामने आया। आर्यों की उन रहस्यमय बस्ती की तरफ हमारा सफर शुरू हो गया। कुछ देर चलने के बाद ही हमें वो ऐतिहासिक सिंधु नदी भी दिखी, जिसका इतिहास ये कहता है कि इसी के इर्द-गिर्द ही आर्यों ने सिंधु घाटी सभ्यता विकसित की थी यानी आर्यों की उस पीढ़ी का यहां होना, कोई ताज्जुब की बात नहीं थी। हैरानी बस इतनी थी, कि आजतक आर्यों की वो दुनिया गुमनाम क्यों थी?

कहते हैं इसी सिंधु नदी के तट पर सिकंदर ने अपना अभियान खत्म किया था।एक मान्यता के मुताबिक इंसानों की जिस खास नस्ल की बात हम कर रहे हैं वो सिकंदर की सेना के सैनिकों के ही वंशज माने जाते हैं। कुछ ही देर के सफर के बाद हमें एक सरकारी बोर्ड दिखा, जो लेह में शुद्ध आर्यों की एक रहस्यमय दुनिया का प्रमाण बनकर सामने था। आईबीएन7 की टीम लेह से करीब 160 किलोमीटर दूर थी।

हमें बताया गया, कि इन पहाड़ों के ऊपर आर्यों के दो गांव हैं, जिनमें आज भी दो हजार से ज्यादा आर्यन जिंदा है। हम अपनी मंजिल के पहले पड़ाव यानि दाह गांव पहुंच चुके हैं, जहां के बाशिंदों के बारे में फिजाओं में अगर कुछ तैरती हैं तो वो हैं किस्से और कहानियां। बस कुछ ही देर के इंतजार के बाद वो किस्से-कहानियों, जैसे फिर जिंदा होने वाले थे।

दाह गांव में आबादी के पहले निशान। पुरानी और खास शैली में बना ये मकान इस बात की गवाही दे रहा है कि हम इंसानी आबादी के बेहद करीब हैं। दाह गांव चारों तक खूबसूरत पहाड़ो से घिरा था और हर तरफ फूलों से लदे खुरमानी के पेड़ नजर आ रहे थे। दाह गांव में आपको फूलों से लदे खुरमानी के पेड़ जगह-जगह नजर आ जाएंगे। खुरमानी यहां की अर्थव्यवस्था की रीढ़ है। खुरमानी दो तरह की होती है। मीठा खुरमानी और खट्टा खुरमानी।

आर्यों की उस रहस्यमय दुनिया में दाखिल होने की बेकरारी बढ़ती जा रही थी। चंद कदमों के बाद ही हमें उस गुमनाम दुनिया के कुछ चेहरे दिखाई दिए। एक अजीब मकान से बाहर निकलता एक शख्स, उसकी वेश-भूषा जैसे इतिहास के पुराने किरदारों की याद दिला रही थी कुछ और आगे बढ़े। तो लोक नृत्य की एक अजीब सी तस्वीर सामने थी। शायद ये आर्यन ही थे, जिनकी नीली आंखों में इतिहास का एक बहुत बड़ा समंदर दिखाई दे रहा था।

बेहद दिलचस्प था ये सबकुछ क्योंकि हमारे ही मुल्क में कुछ ऐसे लोग पहली बार हमारे सामने थे, जिनकी विरासत के लिए एक बहुत बड़ी लड़ाई लड़ी गई, जिनकी पहचान के लिए दुनिया के कई मुल्क आज भी बेताब हैं। कुछ ऐसे इंसान, जो सही मायनों में पहले हिंदुस्तानी थे। पहले आर्यपुत्र थे। बारी अब उनकी रहस्यमय दुनिया में झांकने की थी। ताकि पहली बार ये देश आर्यन की संस्कृति, आर्यन के संसार को करीब से देख पाए।))
साभार आईबीएन7...