Monday 19 February 2018

कहॉं जाएँ


शब्दार्थ- वे सुपर्णाः-शोभनपतनशील वयः= पक्षी प्रियमेधाः= जिन्हें मेध ;संगमन: प्रिय है और ऋषयः=जो ज्ञान लाने वाले हैं इन्द्रम्= इन्द्र के पास नाधमानाः= यह प्रार्थना करते हुए उपसेदुः=आ बैठे हैं कि  ‘‘ध्वान्तम्=हमारे अन्धकार का अप ऊर्णुहि= निवारण कर दोऋ चक्षुः पूर्धि= हमारी ऑंखे भर दो या हमें ऑंखें दे दो और हम जो निधया इव= मानो पाशां। से बॅंधे पड़े हैं अस्मान्= हमें मुमुग्धि= छुड़ा दो।’’ 
वयः सुपर्णा उप सेदुरिन्द्रं प्रियमेधा षयो नाधमानाः।
अप ध्वान्तमूणुंहि पूर्धि चक्षुर्मुमुग्ध्यस्मान्निधयेव ब(ान्।। -ऋषि 10/73/11ऋ साम. पू. 1/4/1/3/7
षिः-गौरिवीतिः।। देवता-इन्द्रः।। छन्दः-निचृत्त्रिष्टुप्।।
विनय - हमारे शरीर में पॉंच इन्द्रियॉं रहती हैं। ये पक्षियों की तरह बाहर उड़ती-फिरती हैं। ये ऋषि -इन्द्रियॉं हैं, ज्ञान लाने वाली ज्ञानेन्द्रियॉं हैं। इन्हें अपने रूप-रसादि विषयों से संगमन करना बड़ा प्रिय है। इनका उड़ना ;पतन करनाद्ध बड़ा सुन्दर है। बाहर से बड़े सुन्दर-सुन्दर रूपों को, रसों को, गन्धों को ये कैसी विलक्षणता से ले-आती है! इनमें क्या ही अद्भुत गुण है। ऑंख खोलो, तो सब विविध जगत् दीखने लगता है, ऑंख बन्द करने पर कुछ नहीं। ऑंख में क्या विलक्षण शक्ति है। इसी प्रकार कान को देखो, जीभ को देखो, इनमें क्या विचित्र जादू है कि वे हमारे लिए बड़ी ही आनन्ददायक अनुभूतियों को उत्पन्न करती हैं।
परन्तु एक समय आता है जब ये इतनी अद्भुत इन्द्रियॉं हमारी ज्ञानपिपासा को तृप्त नहीं कर सकतीं। ये बाहर से जो प्रकाश लाती हैं वह सब तुच्छ लगने लगता है। यह तब होता है जब छठी इन्द्रिय ;मनद्ध द्वारा अन्दर के प्रकाश की ओर हमारा ध्यान जाता है, प्रत्याहार शुरू होता है और इन्द्रियों का उड़ना बन्द हो जाता है। सब इन्द्रियॉं मन के प्रकाश के मुकाबले में बैठकर अपने अन्धकार को और अपनी परिमितता के बन्धन को अनुभव करती हैं। ओह! इन्द्रियॉं कितना थोड़ा ज्ञान दे ेसकती हैं और वह ज्ञान भी कितना बंधा हुआ है। अन्दर-बाहर की थोड़ी-सी बाधा से उनका ज्ञान-ग्रहण रुक जाता है। ऑंख अतिदूर, अतिसमीप नहीं देख सकती, अतिसूक्ष्म को नहीं देख सकती, ओट में पार नहीं देख सकती। यह अॅंधेरा और यह बन्धन तब अनुभव होता है जब मनुष्य को अन्दर के महान्, सब-कुछ जान सकने वाले प्रकाश का पता लगता है। यह इन्द्र का, आत्मा का प्रकाश है। इस प्रकाश-पिपासा से व्याकुल होकर इन्द्रियॉं आत्मा से उस प्रकाश को पाने के लिए गिड़गिड़ाने लगती हैं, प्रार्थना करने लगती हैं कि ‘‘हमारे अन्धकार का पर्दा उठा दो, हमारी ऑंखें प्रकाश से भर दो, हम अन्धे हैं, हमें ऑंखें दे दो, हम अपने-अपने तनिक-से क्षेत्र में बंधी पड़ी हैं, हमें देशकालाव्यवहित दर्शन की शक्ति दे दो, हमारे बन्धन काट दो, हम जिस देश और जिस काल में जिस वस्तु को देखना चाहें तुम्हारे इस प्रकाश में ;प्रज्ञालोक मेंद्ध देख सकें।
इन्द्रियॉं अपने शक्ति-स्रोत इन्द्र की शरण में न जाएँ तो और कहॉं जाएँ

परमात्मा का दर्शन क्यों नहीं होता?


शब्दार्थ- हे मनुष्यो! तं न विदाथ= तुम उसे नहीं जानते य इमा जजान= जिसने कि इन सब ;भुवनोंद्ध को बनाया है। अन्यत्=तुम अन्य प्रकार के हो गये हो और युष्माकं अन्तरं बभूव=तुम्हारा उससे बहुत अन्तर हो गया है। नीहारेण=अज्ञान के कोहरे से प्रावृताः=ढके हुए और जल्प्या च= अनृत और निरर्थक शब्दजाल से ढके हुए हम मनुष्य असुतृपः= प्राणतृप्ति में लगे हुए होकर या उक्थशासः=आडम्बरवाले बहुभाषी होकर चरन्ति=भटकते हैं।
न तं विदाथ य इमा जजान अन्यद् युष्माकं अन्तरं बभूव।
नीहारेण प्रावृता जल्प्या चासुतृप उक्थशासश्चरन्ति।। -). 10/82/7ऋ यजुः. 17/31
ऋषि -विश्वकर्मा भौवनः।। देवता-विश्वकर्मा।। छन्दः-पादनिचृत्त्रिष्टुप्।।
विनय - हे मनुष्यो! तुम उसे नहीं जानते जिसने कि ये सब भुवन बनाये हैं। यह कितने आश्चर्य की बात है! तुम्हारा वह पिता है, परन्त तुम अपने पिता से जुदा ;अन्यत्द्ध हो गये हो, तुम्हारा उससे बहुत अन्तर पड़ गया है। ओह! कितना भारी अन्तर हो गया है! मनुष्य का तो उसके प्रभु के साथ अन्तर नहीं होना चाहिए। वह प्रभु तो हम मनुष्यों की आत्मा की भी आत्मा है। उससे अधिक निकटतम वस्तु तो हमसे और कोई है ही नहीं, हो ही नहीं सकती। सचमुच वे परम-आत्मा हमारी आत्मा में भी व्यापक हैं। उनसे निकट हमारे और कोई नहीं है। फिर वे हमसे दूर क्यों हैं? इसका कारण यह है कि हमारे और उनके बीच में प्रकृत का पर्दा आ गया है। हम दो प्रकार के पर्दों से ढके हुए हैं, जिससे कि वह इतना निकटस्थ भी हमसे इतना दूर हो गया है। एक प्रकार के ;तमोगुण-बहुलद्ध लोग तो नीहार’=अज्ञान से ढके हुए हैं। जिसकी धुन्ध में इतने पास में भी उन्हें नहीं देख पातेऋ दूसरे ;रजोगुण-बहुतद्ध लोगों ने जल्पि’’ से, विद्या के शब्दाडम्बर से, पढ़ी-लिखी मूर्खता से निरर्थक जल्पना के पर्दे  से अपने-आपको ढक लिया है। ये दोनां प्रकार के मनुष्य अपनी-अपनी दिशा में इतनी दूर बढ़ते गये हैं कि प्रभु से दिनों-दिन दूर होते गये हैं। नीहारावृत लोग तो संसार में ‘‘असुतृप्’’ होकर विचर रहे हैं। वे खते-पीते मौज करते हुए निरन्तर अपने प्राणों के तर्पण करने में ही लगे हुए हैं। कामनाओं-इच्छाओं का निवास मनुष्य के सूक्ष्म प्राण में ही है। ये ज्यों-ज्यों अपनी बढ़ती जाती हुई अनगिनत कामनाओं को तृप्त कर अपनी इन कामनाओं को पुष्ट करते जाते हैं, त्यों-त्यों ये प्रभु से दूर होते जाते हैं। इसी तरह दूसरे जल्पावृत लोग ‘‘उक्थशास्’’ होते हैं, अर्थात् संसार में बड़े-बड़े शास्त्र पढ़कर, वादविवाद-वितण्डा में चतुर होकर, दूसरों को जोरदार व्याख्यान देते फिरते हैं, परन्तु अपने-आपको नहीं पहचानते। ये जितने भारी वक्ता, लेखक और शास्त्रार्थकर्त्ता होते जाते हैं उतने ही ये  बाह्य शब्दजाल में ऐसे उलझते जाते हैं कि अन्दर के देखने के अयोग्य होते जाते हैं, अतः अन्दर के आत्मस्थ प्रभु से दूर होते जाते हैं।
इसलियए आओ, हम लौटें। अपने अन्दर की ओर लौटें और अपने उस आत्मा के आत्मा को पा लेवें जिसके साथ हमें निरन्तर जुड़ा रहना चाहिए।
साभारः वैदिक विनय

प्रभो! हमारे बन्धनों को शिथिल कर


उदुत्तमं वरुण पाशमस्मदवाधमं वि मध्यमं श्रथाय।
अथा वयमादित्य व्रते तवानागसो अदितये स्याम।।-). 12425ऋ यजुः. 1212ऋ साम. पू. 63104ऋ अथर्व. 7833
षिः-शुनःशेपो देवरातः।। देवता-वरुणः।। छन्दः-त्रिष्टुप्।।
विनय-हे पापनिवारक देव! तूने हमें तीन बन्धनों से बाँध रखा है। उत्तम बन्धन हमारे सिर में हैं, जिससे हमारा आनन्द और बु( बँधे हुए हैं, ढके हुए हैं, रुके हुए हैं। यह सत्त्वगुण का ;कारणशरीर काद्ध बन्धन कहा जा सकता है। हृदयस्थ मध्यम बन्धन से हमारा मन और सूक्ष्म प्राण बँधे हुए हैं। यह रज और सूक्ष्म शरीर का बंधन है। नाभि से नीचे तमोगुण और स्थूल शरीर का अधम बंधन है, जिससे हमारा स्थूल प्राण और स्थूल शरीर बंॅधा हुआ है। हे वरुण! इनसे बँधे रहने के कारण हमसे तेरे नियमों का भÂ होता रहता है और हम पापी बनते रहते हैं। उत्तम बन्धन द्वारा, सच्चा ज्ञान न मिलने सेऋ मध्यम द्वारा राग-द्वेष, काम-क्रोध आदि के वशीभूत होने सेऋ और अधम द्वारा, शरीर से त्रुटियुक्त कार्य करने से हम पापी बनते हैं। हे देव! तू हमारा उत्तम पाश ऊपर की ओर खोल दे, जिससे कि मेरी बुद्धि का द्युलोक के साथ सम्बन्ध स्थापित हो जाए और मुझमें सत्य-ज्ञान का प्रवेश होने लगे। मध्यम पाश को बीच से खोल दे जिससे अन्तरिक्षलोक के समुद्र में मेरे मन के प्रविष्ट हो जाने से इसके राग-द्वेषादि मल धुल जाएँ तथा मेरा मन सम हो जाए और अधम पाश को नीचे गिरा दे जिससे मेरे पार्थिव शरीर के सब कलुषित परमाणु पृथिवीतत्त्व में लीन हो जाएँ और हमारा शरीर नीरोग, स्वस्थ तथा निर्देष होकर प्रभु के कार्य कर सके। हे प्रकाशमय बन्धनरहित देव! इन बन्धनों के टूट जाने पर हम तेरे व्रत में रह सकेंगे, हमसे तेरे नियमों का भÂ होना बन्द हो जाएगा। अन्त में मैं अदिति’ ;मुक्तिद्ध के ऐसा योग्य हो जाऊँगा कि एक दिन आयेगा जबकि मेरा आत्मा स्थूलशरीररूपी बन्धन को नीचे पृथिवी पर छोड़कर और मानसिक सूक्ष्मशरीर को अन्तरिक्ष में लीन करके अपने ऊपरी बन्धन के भी टूट जाने से ऊपर-द्युलोक-को प्राप्त हो जाएगा। बिना इन तीन बन्धनों के ढीले हुए मैं मुक्ति की ओर कैसे जा सकता हूँ? इसलिए, हे वरुण! इन बन्धनों को एक बार खोल दो-तनिक ढीला कर दो-जिससे कि मेरा मार्ग साफ हो जाए और मैं यत्न करता हुआ तेरे व्रत में रहनेवाला निष्पाप, मोक्षाधिकारी हो जाऊँ।
शब्दार्थ-वरुण=हे पापनिवारक देव! तू अस्मत्=हमारे उत्तमं पाशं उत्=उत्तम बन्धन को ऊपर की ओर और मध्यमं वि=मध्यम बन्धन को बीच में तथा अधमं अव=अधम बन्धन को नीचे की ओर श्रथाय=ढीला कर दे अथ=जिससे, इन बन्धनों के टूटने से आदित्य=हे प्रकाशमय बन्धनरहित देव! वयं तव व्रते=हम तेरे नियमों में रहते हुए अनागसः=पापरहित होकर अदितये=बन्धन-राहित्य, स्वतन्त्रता, मुक्ति के लिए योग्य स्याम=हो जाएँ।

तेरी लीला


अनुत्तमा ते मघवन्नकिर्नु न त्वावाँ अस्ति देवता विदानः।
न जायमानो नशते न जातो यानि करिष्या कृणुहि प्रवृ(।।-). 11659
ऋषि -अगरत्यः।। देवता-इन्द्रः।। छन्दः-त्रिष्टुप्।।
विनय-हे सर्वैश्वर्यशालिन्! मैं आज देख रहा हूँ कि इस विश्व का सब-कुछ-छोटे-से-छोटा और बड़े-से-बड़ा-तेरे हिलाये हिल रहा है। ऐसी कोई भी वस्तु नहीं है जो तेरी प्रेरणा से प्रेरित नहीं हो रही हो। इस ब्रह्माण्ड-सागर की क्षुद्र और महान्-से-महान् सब लहरें तू ही पैदा कर रहा है। जगत् के अनन्त परमाणुओं में जो एक-एक परमाणु प्रतिक्षण गतिशील है, चींटी से कुंजर तक जो सब प्राणी चेष्टा कर रहे हैं, मनुष्य के वैयक्तिक जीवन और मनुष्य-संघ के समष्टि जीवन में जो नित्य छोटे-बड़े परिवर्तन हो रहे हैं, भूकम्प, वर्षा, वायु, अग्नि, )तु आदि रूप से जो आधिदैविक जगत् निरन्तर बदल रहा है-यह एक जगत् क्या, ऐसे-ऐसे जो कोटि-कोटि अनन्त जगत्, जो असंख्यात सूर्य और पृथिवियाँ, इस महाकाश में चक्कर लगा रहे हैं-ये सब-के-सब, तेरी ही दी हुई गति से, तेरी ही प्रेरणा से चल रहे हैं। तू अपनी पूर्ण ज्ञानमयी ठीक-ठीक गति देकर इस सब संसार को नचा रहा है। हम मनुष्य क्या, बड़े-से बड़े ज्ञानी देव भी तेरे असीम ज्ञान का पार नहीं पा सकते। ये सब तेरे ज्ञान को असीम-अनन्त कह-कहकर अपनी अज्ञानता को ही प्रकाशित करते हैं। ज्यों-ज्यों हमारा ज्ञान बढ़ता जाता है त्यों-ज्यों पता लगता जाता है कि तू कितना-कितना महान् है! हे महान्! हे परम महान्!! तेरी महत्ता के आकाश का अन्त हमारा कल्पनापक्षी अपनी ऊँची-से-ऊँची उड़ान से भी नहीं पा सकताऋ वह हार मानकर, थक-थकाकर, शान्त हो जाता है। तब हम तेरी महत्ता को अनन्त मानकर और तेरी लीला को अगम्य कहकर चुप हो जाते हैं। इतना ही कह सकते हैं कि इस जगत् में जो कुछ पैदा हुआ है, हो रहा है या होगा, उनमें से किसी में भी ऐसी शक्ति नहीं है जो तेरी लीला को समझ सके, जो तेरे द्वारा की जानेवाली या की जा रही लीला के किसी ओर-छोर को पा सके। जो तेरी लीला की अधिक-से-अधिक सच्ची, नजदीकी और पूरी खबर लाता है तो वह यही खबर लाता है कि तेरी लीला अगम्य है, तेरी लीला अगम्य है। 
शब्दार्थ-आ=अहो, सच है कि मघवन्=हे सर्वैश्वर्ययुक्त! नु ते अनुत्तम्1 न किः=निःसन्देह ऐसी कोई वस्तु नहीं है जोकि तुझसे अप्रेरित है-जो तुझसे प्रेरित नहीं है, त्वावान् विदानः देवता न अस्ति=तेरे समान ज्ञानवाला कोई देवता भी नहीं है, प्रवृ(=हे परम महान् न जायमानः न जातः=न तो कोई उत्पन्न होनेवाली और न कोई उत्पन्न हुई वस्तु है ;तानिद्ध नशते=जो तेरे उन कर्मों तक पहुँचती है यानि करिष्या, कृणुहि=जिन कर्मों को तू करेगा या कर रहा है।

Thursday 15 February 2018

पापी और झूठे प्रभु के बन्धन में पड़ते हैं


न वा उ सोमो वृजिनं हिनोति न क्षत्रियं मिथुया धारयन्तम्।
हन्ति रक्षो हन्त्यासद् वदन्तं उभाविन्द्रस्य प्रसितौ शयातै।। -). 710413ऋ अ. 8413
ऋषि -वसिष्ठः।। देवता- सोमः।। छन्दः-निचृत्त्रिष्टुप्।।
विनय-जगदीश्वर सोमरूप से सब जगत् का पालन-पोषण कर रहे हैं। सोम-प्रभु के जीवनदायी रस को पाकर ही सब संसार बढ़ रहा है, पुष्ट हो रहा है, परन्तु ये भगवान् पाप को कभी नहीं बढ़ाते. इनका यह सोमरस पाप को कभी नहीं पहुँचता और सब पापों का स्त्रोत-मूल, जो असत्यता है, उसे तो परमेश्वर का जीवनरस मिलता ही नहीं है।
जब मनुष्य सदा इस प्रकार वर्त्तमान सत्के विरुद्ध अपने अन्दर कुछ असत् की रचना करता है, असत्-पर-असत्-दुहरी बातों को अपने अन्दर धारण करता है, तो यह मिथुया धारयन्मनुष्य अपने इस दूसरे असत् द्वारा अपने-आपको आच्छादित कर लेता है और एवं, सत्य की सोम-धारा से अपने को वि´चत कर लेता है। प्रत्येक पाप का करना भी क्रिया से सत्य-विरुद्ध  कर्म ;पाप-वृजिनद्ध करता है, त्योंही उसका सत्स्वरूप जीवनरसदायी सोम से सम्बन्ध विच्छिन्न हो जाता है, वह ईश्वरीय जगत् से पृथक् हो जाता है, मानो वह परमेश्वर के बन्धनागार में पड़ जाता है, अपने असत् द्वारा ही वह ढक जाता है, वह बँध जाता है। जहाँ परमेश्वर सोमरूप से सब ठीक चलनेवालों को जीवन देकर बढ़ा रहे हैं, वहाँ इन्द्र के ;‘इदं दारयिताद्ध रूप से ये ही परमेश्वर विपरीतगामी को पृथक् करके बाँधनेवाले भी हैं। इस प्रकार असत्य बोलनेवाला या पाप करनेवाला जीवन-रस से वि´चत होकर, सूखकर नष्ट हो जाता है। इसीलिए वर्जनीय होने से पाप का नाम वृजिनहै तथा पाप ही रक्षः’  कहलाता है, चूँकि इससे अपने-आपको सदा रक्षित1 रखना चाहिए। इस वृजिन को, ‘रक्षःको, वह परमेश्वर नष्ट ही कर देता है, कभी बढ़ाता नहीं है।
मनुष्य यदि इस सत्य को समझे, इसमें उसे तनिक भी सन्देह न हो, तो वह पाप करते हुए घबराये और असत्य बोलते हुए उसका कलेजा काँपे। संसार में यद्यपि हमें दीखता है कि परमेश्वर भी पाप को ही मदद दे रहा है और झूठे को बढ़ा रहा है, परन्तु यह हम क्षुद्र बु(वाले अल्पज्ञों का भ्रम है। हम अल्पज्ञ नहीं देख सकते कि किस पाप का फल कब और कैसे मिलता है?
शब्दार्थ-सोमः=सोमरूप परमेश्वर वै=निःसन्देह न उ=न तो वृजिनम्=वर्जनीय पाप को हिनोति=बढ़ाता है, समर्थन करता है और न=न ही मिथुया धारयन्तम्=दुहरी बात को-झूठ को-धारण करनेवाले क्षत्रियम्=बलवान् को ही बढ़ाता है, किन्तु वह तो रक्षः=पापराक्षस का हन्ति=हनन करता है और असद् वदन्तम्=असत्य बोलनेवाले का हन्ति=हनन करता है. ये उभौ=दोनों ही इन्द्रस्य=इन्द्र रूप परमेश्वर के प्रसितौ=बन्धन में शयाते=पड़ते हैं।
1. रक्षितव्यं यस्मात्। -निरुक्त 432