Tuesday 28 August 2018

सत्यार्थ प्रकाश का हिन्दी में लिखा जाना एक अत्यन्त महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटना


सत्यार्थप्रकाश कोई सामान्य ग्रन्थ न होकर वैदिक धर्मियों का धर्मग्रन्थ है जिसका आधार वेद और वेद की निर्भ्रान्त सत्य मान्यतायें एवं सिद्धान्त हैं। हम सत्यार्थप्रकाश को धर्म ग्रन्थ इस लिये कह रहे हैं कि सामान्य व्यक्ति वेदों का अध्ययन कर उससे वह लाभ नहीं उठा सकता जो सत्यार्थप्रकाश से प्राप्त होता है। सत्यार्थप्रकाश में वेदों के प्रायः सभी सिद्धान्तों एवं मान्यताओं को सरल व सुबोध आर्य-हिन्दी-भाषा में ऋषि दयानन्द जी ने प्रस्तुत किया है। यदि किसी जिज्ञासु को इस संसार के उत्पत्ति-कर्ता ईश्वर का ज्ञान प्राप्त करना हो तो वह सत्यार्थप्रकाश के प्रथम व सप्तम समुल्लास को पढ़कर प्राप्त कर सकता है। जीवात्मा और सृष्टि की उत्पत्ति विषयक सिद्धान्त व जानकारी भी सत्यार्थप्रकाश के सातवें व आठवें समुल्लास को पढ़कर हो जाती है। सत्यार्थप्रकाश की विशेषयता यह भी प्रतीत होती है कि इसमें वेद सहित 6 दर्शनों एवं अन्य ऋषियों के वेदानुकूल सिद्धान्तों वा प्रमाणों को प्रसंगानुसार प्रस्तुत किया गया है जिससे पूरा विषय कम समय में हृदयंगम हो जाता है और पढ़े गये विषय के बारे में किसी प्रकार की शंका व भ्रम नहीं होता। ईश्वर व जीवात्मा का जितना शुद्ध व गम्भीर ज्ञान सत्यार्थप्रकाश में उपलब्ध होता है, हमारा अनुमान है कि वैसा व उतना संसार के किसी मत व पन्थ के धर्म ग्रन्थ में उपलब्ध नहीं होता। सत्यार्थप्रकाश की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि विश्व के साहित्य में दुर्लभ आध्यात्मिक व सामाजिक ज्ञान एक ही ग्रन्थ में हिन्दी भाषा में उपलब्ध हो जाता है। आर्यभाषा हिन्दी का महत्व इस कारण से है कि यह आज करोड़ों लोगों की बोलचाल की भाषा है। यह सभी लोग इसी भाषा में सोचते हैं व परस्पर बोलचाल का व्यवहार करते हैं। सत्यार्थप्रकाश से पूर्व सत्यार्थप्रकाश में वर्णित विषयों का ज्ञान किसी एक ग्रन्थ को पढ़कर प्राप्त नहीं होता था। यह वैदिक साहित्य के अनेक ग्रन्थों में बिखरा हुआ था जिसे ऋषि दयानन्द ने आधुनिक काल की आवश्यकता के अनुरूप संकलित कर प्रश्नोत्तर वा वाद-विवाद शैली में उपलब्ध कराया है। इसके अतिरिक्त भी ऋषि दयानन्द ने बहुत सी ऐसी बातें सत्यार्थप्रकाश में प्रस्तुत की है जो उनकी अपनी खोज व विचार शक्ति से हमें उपलब्ध होती हैं। यदि वह यह ग्रन्थ न लिखते तो आज हम इस प्रामाणिक ज्ञान से वंचित होते और लोग स्वयं भ्रमित होकर हमें भी भ्रम में रखकर हमारा शोषण और दोहन करते और हमें वह आत्मिक सुख व शान्ति न मिलती जो सत्य ज्ञान को प्राप्त कर होती है। यह भी जान लें कि सत्यार्थप्रकाश के उत्तरार्ध के चार समुल्लास आर्यावर्तीय मतों, चारवाक-बौद्ध-जैन मत सहित ईसाई व मुस्लिम मत की समीक्षा विषयक हैं जो जिज्ञासु को सत्य मत का निर्णय करने में सहायक एवं ज्ञानवर्धक हैं।

सृष्टि के आरम्भ से लेकर महाभारत काल व उसके सैकड़ों वर्षों तक विश्व वा आर्यावर्त में सर्वत्र वेदों का ही प्रचार प्रसार था और वैदिक मान्यतायें एवं सिद्धान्तों का आचरण ही लोगों का धर्म होता था। इस लम्बी अवधि में विश्व की भाषा संस्कृत थी। किसी भी भाषा के उद्भव का इतिहास जानना हो तो यह उस भाषा की सबसे प्राचीन उपलब्ध पुस्तक के आधार पर जाना जा सकता है। विश्व की सबसे पुरानी पुस्तक वेद है जिसकी भाषा संस्कृत है। वेद सृष्टि के आरम्भ में तिब्बत में उत्पन्न हुए थे। उन दिनों तिब्बत में ही मानवीय सृष्टि थी। पृथिवी का शेष भाग उन दिनों मानव सृष्टि से रहित था। बाद में तिब्बत से चलकर आर्यों ने सारी सृष्टि को बसाया है। इसका प्रमाण संसार की प्रायः सभी भाषाओं में संस्कृत से मिलते जुलते शब्दों का पाया जाना है। वेद, सृष्टि व मनुष्य परम्परा 1,96,08,53,118 वर्ष पुरानी है। इससे यह ज्ञात होता है कि संस्कृत भाषा की परम्परा भी इतनी ही पुरानी है। संसार की जितनी भी भाषायें हैं, उन भाषाओं के प्राचीनतम ग्रन्थों को देखकर उन-उन भाषाओं का आरम्भ व इतिहास का अनुमान कर सकते हैं। हमारा अनुमान है कि किसी भाषा के प्राचीनतम ग्रन्थ से कुछ सौ वर्ष पूर्व ही उस भाषा का प्रचलन होना आरम्भ होता है। जो भाषा प्रचलन में आती है वह उससे पूर्व की भाषा का किंचित विकार व परिवर्तित रूप होता है। महाभारत काल के बाद संस्कृत का प्रयोग कम होने लगा था और उसके स्थान पर संस्कृत के शब्दों पर आधारित अनेक बोलियों व भाषाओं का जन्म हुआ। वर्तमान समय में जो भी भाषा व भाषायें हैं वह पहले बोलियां रही होंगी जिन्हें बाद में उन उन भाषा के विद्वानों द्वारा उस भाषा का संशोधित स्वरूप दिया गया होगा। अपने समय में प्रचलित किसी अन्य भाषा जिसे प्रयोगकर्ताओं के लिये क्लिष्ट कह सकते हैं, उससे उत्पन्न नवीन भाषा पूर्व भाषा का विकार व संशोधित रूप होती है। कालान्तर में वह पूर्व प्रचलित मुख्य भाषा गौण हो जाती है और वह परिवर्तित बोली उन्नति करके भाषा बन जाती है। भारत की जितनी भी भाषायें हैं वह सभी संस्कृत से आविर्भूत व उत्पन्न हैं। सभी भाषाओं में संस्कृत शब्दों की प्रचुरता है। कुछ भारतीय भाषाओं में पहले संस्कृत के प्रचुर मात्रा में शब्द होते थे परन्तु उस भाषा के लोगों ने संस्कृत के प्रति अपने द्वेष आदि के कारण उन भाषाओं से संस्कृत के शब्दों को शनैः शनैः हटाया है। मनुष्य का स्वभाव ही ऐसा है कि अल्पज्ञ होने के कारण यह अज्ञान व भ्रम से ग्रस्त हो जाता है और अनेक अविवेकपूर्ण निर्णय भी लिया करता है।

ज्ञान को सामान्य व्यक्ति तक पहुंचाना विद्वानों का काम होता है। इसके लिये सामान्य व्यक्ति की भाषा को ध्यान में रखना आवश्यक है। यदि हमारे पास उन भाषाओं में उच्च कोटि का ज्ञान हो जिसे हम जानते नहीं है, तो उससे हम कोई लाभ नहीं उठा सकते। विद्वान हमें जो ज्ञान देते हैं वह क्षणिक व कुछ समय के लिए होता है। उसको स्थिर करने के लिये हमें पुस्तकों के माध्यम से पुनरावृत्ति करनी होती है। महाभारत के बाद वेद ज्ञान के अप्रचलित होने व उसमें अज्ञान व अधंविश्वास आ जाने का एक कारण यह भी था कि संस्कृत के जानने वाले लोग कम होते गये। वेदों के अर्थ लौकिक संस्कृत में सम्भव नहीं हैं। इसका कारण है कि वेदों के शब्द रूढ़ न होकर योग रूढ़, यौगिक वा धातुज हैं। अतः वेदों के रूढ़ अर्थों से यदि संस्कृत का विद्वान काम लेगा तो अर्थ का अनर्थ हो सकता है। ऐसा ही सायण व महीधर के साथ हुआ। वह वेद मन्त्रों के शब्दों के रूढ़ अर्थोंं को ग्रहण करने के कारण यथार्थ अभिप्राय को जान नहीं सके और मिथ्या अर्थ करके वेदों की महत्ता को समाप्त करने का काम किया। ऋषि दयानन्द ने वेदों के सत्यार्थ जानने के लिये अनेक विद्वानों व ज्ञानियों से सम्पर्क किया। अन्त में उन्हें प्रज्ञाचक्षु गुरु स्वामी विरजानन्द सरस्वती, मथुरा का शिष्यत्व वा सान्निध्य प्राप्त हुआ। उन्होंने लगभग तीन वर्ष उनके सान्निध्य में रहकर वैदिक संस्कृत भाषा का अभ्यास किया और अपने योग बल का उपयोग करते हुए वह वेदों के सरल व यथार्थ अर्थ करने में सफल हुए। आज वेदों का सत्यार्थ लोगों को उपलब्ध है जिससे लोगों के ईश्वर, जीव व प्रकृति से सम्बन्धित सभी भ्रम व शंकायें दूर हुईं हैं। ऋषि दयानन्द ने वेदों की मान्यताओं वा सिद्धान्तों को सत्यार्थप्रकाश व ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में प्रस्तुत कर उसे जन-जन तक पहुंचाने का कार्य किया है। यह ऋषि दयानन्द का भूतो न भविष्यतिके समान कार्य है। आज कक्षा 5 तक हिन्दी पढ़ा हुआ व्यक्ति भी वेद पढ़कर उसके सत्यार्थ को जान सकता है। यह ऋषि दयानन्द की बहुत बड़ी देन है। यदि ऋषि दयानन्द सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका सहित वेदों का भाष्य हिन्दी में न करते तो आज देश भर में वेदों के सहस्रों नहीं अपितु लाखों की संख्या में जो विद्वान हैं, वह कदापि न होते और समाज में अज्ञान, अन्धविश्वास, पांखण्ड और रूढ़िवाद की स्थिति की हम कल्पना भी नहीं कर सकते। यह अत्यन्त वृद्धि को प्राप्त होतीं। ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश को लिखकर इसके पाठक को वैदिक धर्म की श्रेष्ठता का परिचय दिया है और उसे विधर्मियों के धर्मान्तरण के षडयन्त्र से भी बचाया है। अब आवश्यकता सत्यार्थप्रकाश के जन जन तक प्रचार की है जिससे सभी आर्य व हिन्दू सत्यार्थप्रकाश पढ़कर अपने धर्म में आरूढ़ रहकर दूसरों को वैदिक धर्म की विशेषता बताकर उन्हें वेद ज्ञान को स्वीकार करने के लिए प्रेरित कर सकें।

ऋषि दयानन्द ने सन् 1874 के उत्तरार्ध में सत्यार्थप्रकाश की रचना की थी। इसका दूसरा संशोधित संस्करण उन्होंने सन् 1883 में तैयार किया था। आजकल सत्यार्थप्रकाश का संशोधित संस्करण ही प्रचलित है। इस सत्यार्थप्रकाश की देश को आधुनिक रूप देने में बहुत बड़ी भूमिका है। सत्यार्थप्रकाश में ईश्वर, जीव व प्रकृति का सत्य स्वरूप विद्यमान है और वेदाध्ययन की प्रेरणा करने सहित ईश्वरोपासना और अग्निहोत्र यज्ञ करने की प्रेरणा भी विद्यमान है। अज्ञान व पाखण्डों का नाश करने में भी सत्यार्थप्रकाश की मुख्य भूमिका है। देश को आजाद करने की सबसे पहले स्पष्ट प्रेरणा भी सत्यार्थप्रकाश ने ही की थी। सत्यार्थप्रकाश ब्रह्मचर्यपूर्वक वैदिक गुरुकुलीय शिक्षा सहित आधुनिक शिक्षा का भी प्रेरक है। वह सबको शिक्षा का समान अधिकार देता है। शिक्षा सबके लिये अनिवार्य व निःशुल्क सुविधाओं वाली होनी चाहिये। कोई भी निर्णय बहुमत से नहीं अपितु विद्या व गुण-दोष के आधार पर लिये जाने चाहिये। देश में एक समान आचार संहिता होनी चाहिये। धर्म का पालन निजी तौर पर किया जाना चाहिये। उसका देश व नागरिकों पर बुरा प्रभाव नहीं होना चाहिये। देश को जनसंख्या की नीति भी बनानी चाहिये जिससे भविष्य में भुखमरी व अव्यवस्था के साथ हिंसा आदि उत्पन्न न हो। मत-मतान्तरों के अनुयायियों की जनसंख्या भी समान दर से ही बढ़नी चाहिये, किसी वर्ग व समुदाय की कम व किसी की अधिक नहीं होनी चाहिये। देश में जनसंख्या वृद्धि से साधनों का अभाव होने सहित अनेक प्रश्न जुड़े हुए हैं। इसे स्थिर रखने के प्रयत्न किये जाने चाहियें। सत्यार्थप्रकाश की सत्य व अकाट्य बातों को सबको स्वीकार करना चाहिये। सत्यार्थप्रकाश को पढ़ने से मनुष्यों की बुद्धि का विकास होता है। सत्यार्थप्रकाश पढ़कर मनुष्य की विश्लेषण क्षमता में वृद्धि होती है। वह देश व समाज के हित-अहित के कारणों को जानने में समर्थ होता है। सत्यार्थप्रकाश मानव मात्र का सम्पूर्ण धर्मग्रन्थ है। हिन्दी में होने से हम इसे पूर्ण रूप से जानने में समर्थ होते हैं। सभी को सत्यार्थप्रकाश को अपना कर अपने दोनों लोकों का सुधार करना चाहिये। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य

खगोल विज्ञान का स्रोत वेद


वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। सब सत्य विद्या और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं, उन सबका आदिमूल परमेश्वर है। आर्यसमाज के इन नियमों के माध्यम से स्वामी दयानंद न केवल वेदों को सब सत्य विद्या का कोष होने का सन्देश देते हैं अपितु उसे परमेश्वर द्वारा प्रदत भी मानते हैं। स्वामी जी के अनुसार वेदों में मानव कल्याण के लिए विज्ञान बीजरूप में वर्णित है। वेदों में विज्ञान के अनेक प्रारूपों में से एक खगोल विद्या को इस लेख के माध्यम से जानने का प्रयास करेंगे। विश्व इतिहास में सूर्य, पृथ्वी, चन्द्रमा आदि को लेकर अनेक मतमतांतर में अनेक भ्रांतियां प्रसिद्ध हैं जो न केवल विज्ञान विरूद्ध है अपितु कल्पित भी है जैसे पृथ्वी चपटी है, सूर्य का पृथ्वी के चारों ओर घूमना, सूरज का कीचड़ में डूब जाना, चाँद के दो टुकड़े होना, पृथ्वी का शेषनाग के सर पर अथवा बैल के सींग पर अटका होना आदि। इन मान्यताओं की समीक्षा के स्थान पर वेद वर्णित खगोल विद्या को लिखना इस लेख का मुख्य उद्देश्य रहेगा।

वेदों में विश्व को तीन भागों में विभाजित किया गया हैं- पृथ्वी, अंतरिक्ष (आकाश) एवं द्यौ । आकाश का सम्बन्ध बादल, विद्युत और वायु से हैं, धुलोक का सम्बन्ध सूर्य, चन्द्रमा,गृह और तारों से हैं। पृथ्वी गोल है ।
ऋग्वेद 1/33/8 में पृथ्वी को आलंकारिक भाषा में गोल बताया गया है। इस मंत्र में सूर्य पृथ्वी को चारों ओर से अपनी किरणों द्वारा घेरकर सुख का संपादन (जीवन प्रदान) करने वाला बताया गया है। पृथ्वी अगर गोल होगी तभी उसे चारों और से सूर्य प्रकाश डाल सकता है ।
अब कुछ लोग यह शंका कर सकते है कि पृथ्वी अगर चतुर्भुज होगी तो भी तो उसे चारों दिशा से सूर्य प्रकाशित कर सकता है।
इस शंका का समाधान यजुर्वेद 23/61-62 मंत्र में वेदों पृथ्वी को अलंकारिक भाषा में गोल सिद्ध करते है।
यजुर्वेद 23/61 में लिखा है कि इस पृथ्वी का अंत क्या है? इस भुवन का मध्य क्या है? यजुर्वेद 23/62 में इसका उत्तर इस प्रकार से लिखा है कि यह यज्ञवेदी ही पृथ्वी की अंतिम सीमा है। यह यज्ञ ही भुवन का मध्य है। अर्थात जहाँ खड़े हो वही पृथ्वी का अंत है तथा यही स्थान भुवन का मध्य है। किसी भी गोल पदार्थ का प्रत्येक बिंदु (स्थान) ही उसका अंत होता है और वही उसका मध्य होता है। पृथ्वी और भुवन दोनों गोल हैं।
ऋग्वेद 10/22/14 मंत्र में भी पृथ्वी को बिना हाथ-पैर वाला कहा गया है। बिना हाथ पैर का अलंकारिक अर्थ गोल ही बनता है। इसी प्रकार से ऋग्वेद 1/185/2 में भी अंतरिक्ष और पृथ्वी को बिना पैर वाला कहा गया है।
पृथ्वी के भ्रमण का प्रमाण
पृथ्वी को गोल सिद्ध करने के पश्चात प्रश्न यह है कि पृथ्वी स्थिर है अथवा गतिवान है। वेद पृथ्वी को सदा गतिवान मानते है।
ऋग्वेद 1/185/1 मंत्र में प्रश्न-उत्तर शैली में प्रश्न पूछा गया है कि पृथ्वी और धुलोक में कौन आगे हैं और कौन पीछे हैं अथवा कौन ऊपर हैं और कौन नीचे हैं? उत्तर में कहा गया कि जैसे दिन के पश्चात रात्रि और रात्रि के पश्चात दिन आता ही रहता है, जैसे रथ का चक्र ऊपर नीचे होता रहता है वैसे ही धु और पृथ्वी एक दूसरे के ऊपर नीचे हो रहे हैं अर्थात पृथ्वी सदा गतिमान है।
अथर्ववेद 12/1/52 में लिखा है वार्षिक गति से (वर्ष भर) पृथ्वी सूर्य के चारों ओर चक्र काटकर लौट आती है।
पृथ्वी आदि गृह सूर्य के आकर्षण से बंधे हुए हैं
ऋग्वेद 10/149/1 मंत्र का देवता सविता है। यहाँ पर ईश्वर द्वारा पृथ्वी आदि ग्रहों को निराधार आकाश में आकर्षण से बांधना लिखा है।
ऋग्वेद 1/35/2 मंत्र में ईश्वर द्वारा अपनी आकर्षण शक्ति से सूर्य, पृथ्वी आदि लोकों को धारण करना लिखा है।
ऋग्वेद 1/35/9 मंत्र में सूर्य को धुलोक और पृथ्वी को अपने आकर्षण से स्थित रखने वाला बताया गया है।
ऋग्वेद 1/164/13 में सूर्य को एक चक्र के मध्य में आधार रूप में बताया गया है एवं पृथ्वी आदि को उस चक्र के चारों ओर स्थित बताया गया है। वह चक्र स्वयं घूम रहा है एवं बहुत भार वाला अर्थात जिसके ऊपर सम्पूर्ण भुवन स्थित है , सनातन अर्थात कभी न टूटने वाला बताया गया है।
चन्द्रमा में प्रकाश का स्रोत्र
ऋग्वेद 1/84/15 में सूर्य द्वारा पृथ्वी और चन्द्रमा को अपने प्रकाश से प्रकाशित करने वाला बताया गया है।
दिन और रात कैसे होती हैं
ऋग्वेद 1/35/7 में प्रश्नोत्तर शैली में प्रश्न आया है कि यह सूर्य रात्रि में किधर चला जाता है तो उत्तर मिलता है पृथ्वी के पृष्ठ भाग में चला जाता है। दिन और रात्रि के होने का यही कारण है।
ऋग्वेद 10/190/2 में लिखा है ईश्वर सूर्य द्वारा दिन और रात को बनाता हैं।
अथर्ववेद 10/8/23 में लिखा है नित्य ईश्वर के समान दिन और रात्रि नित्य उत्पन्न होते हैं।
वेद में काल विभाग
अथर्ववेद 9/9/12 में लिखा है वर्ष को बारह महीनों वाला कहा गया है।
अथर्ववेद 10/8/4 में लिखा है ईश्वर द्वारा प्रयोजन के लिए एक वर्ष को बारह मास, ऋतुओं और दिनों में विभाजित किया गया है।
अथर्ववेद 12/1/36 में वर्ष को 6 ऋतुओं में विभाजित किया गया है।
इस प्रकार से वेदों के अनेक मन्त्रों में खगोल विज्ञान के दर्शन होते है। वेदों में विज्ञान विषय पर शोध करने की आवश्यकता है।
लेख-नवीन केवली

क्या मन की पवित्रता से लोक-कल्याण होता है ?


सम्पूर्ण वेद के अनेक स्थलों में यह निर्देश किया गया है कि हमें अपने मन को शुद्ध-पवित्र बनाना चाहिये । हम प्रायः यह कहते हैं कि हमें समाज सुधार का कार्य करना है । हमें थोडा विचार करना चाहिए कि यह समाज-सुधार होता क्या है ? सबसे पहले तो हमें यह ध्यान में रखना आवश्यक है कि समाज भी बनता है तो व्यक्ति-व्यक्ति से ही । इसका तात्पर्य यह हुआ कि यदि हम समाज सुधार करना चाहते हैं तो पहले एक-एक व्यक्ति का सुधार करना आवश्यक है। व्यक्ति सुधार की प्रक्रिया यही है कि एक व्यक्ति के जीवन में उसका शारीरिक विकास, मानसिक विकास, बौद्धिक विकास और आत्मिक विकास अर्थात् सर्वांगीण विकास का होना अत्यन्त आवश्यक है । इस प्रकार जब एक-एक व्यक्ति का विकास होकर पूरे परिवार का और फिर पूरे समाज का विकास होता है ।
वेद का कथन है कि यदि वास्तविक उन्नति-प्रगति करना चाहते हैं तो अपने अन्दर स्थित सभी दुर्गुणों और दुर्विचारों, दुर्व्यसनों को दूर करना चाहिये जिससे हमारा मन शुद्ध-पवित्र हो जाये । इन्द्र अर्थात् जीवात्मा वृत्र अर्थात् पाप-भावनाओं को, दुर्विचारों को अपने आत्मबल से नष्ट करता है । जब व्यक्ति अपना सुधार कर लेता है तो समझना चाहिए कि वह समाज का ही सुधार कर रहा है क्योंकि वह भी समाज का ही एक अंग है । व्यक्ति रूप अंग से ही तो समाज रूपी अंगी का निर्माण होता है और एक अंग का सुधार अर्थात् आंशिक रूप में समाज का ही सुधार समझना चाहिए ।
हमारे द्वारा जो भी कार्य होता है, वह सबसे पहले मन में ही उत्पन्न होता है । मानसिक रूप में जब यह साकार रूप ले लेता उसके पश्चात् ही वह जाकर फिर वाणीगत रूप में साकारता को प्राप्त होता है और इससे आगे वह शारीरिक रूप में क्रियात्मक रूप में प्रकटीकरण होता है । "पवमानस्य ते वयं पवित्रं अभ्युन्दतः । सखित्वं आ वृणीमहे ।" वेद में ईश्वर से प्रार्थना की गयी है कि हे परमेश्वर ! हम अपने मन को सर्व प्रथम शुद्ध-पवित्र बनाते हुए फिर आगे जाकर आपकी आज्ञाओं का पालन रूप भक्ति करके अपने जीवन को विकसित करके प्रगति की और ले जाते हुए आपके साथ हम मित्रता को प्राप्त होना चाहते हैं । हम अपने जीवन को ईश्वर के गुण-कर्म-स्वभावों के अनुरूप ही बनाना चाहते हैं । ईश्वर सबसे महान है और कुछ आंशिक रूप में भी यदि हमारा जीवन ईश्वर के गुणों के अनुरूप बन पाए तो हमारा जीवन सार्थक माना जायेगा ।
जब व्यक्ति ईश्वरीय गुणों को धारण करेगा तो स्वाभाविक है कि वह बुरे कर्मों से अपने आप बच जाता है और उसके जीवन में दिव्यता, भव्यता का आगमन हो जाता है । उस व्यक्ति के व्यवहार को देख कर दुसरे लोग भी प्रेरित हो जाते हैं और उनके जीवन में भी परिवर्तन हो जाता है । इस प्रकार एक व्यक्ति के सुधार से सम्पूर्ण समाज का सुधार हो जाता है और यही प्रक्रिया ही वास्तविक प्रक्रिया है समाज सुधार या लोक कल्याण करने की, इसके अतिरिक्त जो भी सामाजिक कार्य किये जाते हैं वे सब उतने अधिक लाभकारी नहीं हैं । अतः यदि लोक कल्याण ही करना हो तो हमें स्वयं से ही प्रारम्भ करना चाहिये । हमें अपना सुधार, अपनी व्यक्तिगत उन्नति, आत्मिक उन्नति को ही प्राथमिकता देनी चाहिए, उसके पश्चात् दूसरों की उन्नति स्वयमेव होती जायेगी । इस लोक कल्याण रूप महान कार्य की शुरुवात हमें अपने मन से ही करनी चाहिए क्योंकि मन की पवित्रता से ही निश्चित् लोक कल्याण सिद्ध है ।
यदि एक व्यक्ति शान्त चित्त होकर केवल अपने सुधार में ही लगा हुआ है और अपने मन को शुद्ध-पवित्र बनाने में साधना रत है तो समझना चाहिए कि वह अपनी उन्नति के साथ-साथ लोक-कल्याण का कार्य ही कर रहा है ।
लेख - आचार्य नवीन केवली


उन्नति का एक मात्र उपाय अभ्यास


किसी सामान्य व्यक्ति को महान् बनने के लिए निरतंर अभ्यासकरते रहना चाहिए। किसी भी काम को लगातार करते रहने से उस काम में दक्षता हासिल हो जाती है । इस दोहे से समझ सकते हैं अभ्यास का महत्व कितना है । करत-करत अभ्यास के जडमति होत सुजान, रसरी आवत जात, सिल पर पडत निशान । इस दोहे का अर्थ यह है कि जब सामान्य रस्सी को भी बार-बार किसी पत्थर पर रगड़ने से निशान पड़ सकता है तो निरंतर अभ्यास से मूर्ख व्यक्ति भी बुद्धिमान बन सकता है। लगातार अभ्यास करने के लिए आलस्य को छोड़ना पड़ेगा और अज्ञान को दूर करने के लिए पूरी एकाग्रता से मेहनत करनी होगी ।

किसी स्थिति को प्राप्त करने के लिए जो प्रयत्न किया जाता है उसी का नाम ही अभ्यास होता है । योगशास्त्र में भी अभ्यास को बहुत ही महत्व दिया गया है । योगाभ्यास के दो प्रमुख साधनों में से अभ्यास भी एक साधन है । मन को एकाग्र या निरुद्ध करने हेतु अभ्यास की बहुत ही आवश्यकता है । अभ्यास भी किस प्रकार करना चाहिए वह भी योगशास्त्र में लिखा है कि दीर्घकाल तक, निरन्तरता पूर्वक, तपस्या पूर्वक, ब्रह्मचर्य पूर्वक, विद्या पूर्वक तथा श्रद्धा पूर्वक किया गया प्रयत्न अर्थात् अभ्यास ही दृढ़ता को प्राप्त होता है और व्यक्ति को सफलता को प्राप्त कराता है ।
अभ्यास का किसी भी मनुष्य के जीवन में बहुत महत्व होता है। अभ्यास करने से विद्या प्राप्त होती है और अनभ्यास से विद्या समाप्त हो जाती है। अभ्यास की कोई सीमा नहीं होती जब व्यक्ति निरंतर अभ्यास करता है तो वह कुछ भी प्राप्त कर सकता है। अभ्यास के बल पर कठिन से कठिन काम को भी सरलता से किया जा सकता है। यह अभ्यास व्यक्ति को सफलता या उन्नति के ऊँचे शिखर तक ले जाता है। अभ्यास करने से ही व्यक्ति किसी भी क्षेत्र में कुशल बनता है और कुशल व्यक्ति अपने साथ-साथ अपने कार्यों को भी पूर्णता प्रदान करता है। इस संसार में कोई भी जन्म से बुद्धिमान या महान नहीं होता है वह अभ्यास से ही बुद्धिमान और महान बनता है। हम जिस किसी को भी देखते हैं कि वह सफल है, महान है तो उसने कभी न कभी पुरुषार्थ किया होगा और उस क्षेत्र में अभ्यास किया होगा तब जाकर वह उस स्थिति को प्राप्त कर पाया होगा ।
प्रत्येक व्यक्ति चाहता है कि वह किसी ऊँचे पद को प्राप्त करे, कामयाबी को हासिल करले परन्तु यह भी याद रखना चाहिए कि उस सफलता को, उस पद को प्राप्त करने के लिए बहुत ही अभ्यास व परिश्रम करना पड़ता है ।
यह अभ्यास ही एक मात्र ऐसा साधन है जिससे कि व्यक्ति की सर्वांगीण उन्नति हो सकती है । कुछ लोग केवल सोच लेते हैं कि हमें इस उच्चतम लक्ष्य को प्राप्त करना है परन्तु उस स्तर के परिश्रम नहीं कर पाते तो उन्हें यह याद रखना चाहिए कि "न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः' । अर्थात् बिना परिश्रम के कोई सफलता हाथ नहीं लगती, यहाँ तक कि बिना प्रयत्न के शेर के मुंह में भी कोई शिकार आकर प्रविष्ट नहीं हो जाता । अभ्यास को आत्म-विकास का सर्वोत्तम साधन माना जाता है। यदि मनुष्य एक बार जीवन में असफल भी हो जाता है तो इसका मतलब यह नहीं होता है कि वह कभी भी सफल नहीं हो पायेगा। यदि वह बार-बार अभ्यास करे तो उसे सफलता अवश्य प्राप्त होगी। जिस प्रकार कोई बच्चा गिर-गिरकर चलना सीखता है वह उसका अभ्यास होता है। जब कोई मनुष्य गलती करके सीखता है वह भी उसका अभ्यास होता है। कोई बच्चा तुतला-तुतला कर साफ बोलना सीखता है। जिस प्रकार हमारे शरीर का कोई अंग काम करने से बलवान हो जाता है और जिस अंग से काम नहीं लिया जाता है वह कमजोर हो जाता है उसी तरह से अभ्यास के बिना मनुष्य आलसी हो जाता है। जब मनुष्य एक बार किसी भी काम में असफल हो जाता है तो उसे बार-बार उस काम में श्रम और साधना करनी चाहिए। शरीर का विकास प्रकृति द्वारा दी गयीं शक्तियों का सदुपयोग करने से होता है।
विद्यार्थी जीवन में अभ्यास का बहुत अधिक महत्व होता है। विद्यार्थी जीवन अभ्यास करने की पहली सीढी होती है। विद्यार्थी जीवन से ही मनुष्य अभ्यास का आरंभ करता है। जब विद्यार्थी एक बार परीक्षा में असफल हो जाता है तो बार-बार अभ्यास करके वह परीक्षा में विजय प्राप्त करता है। शिक्षा को कोई भी विद्यार्थी एक दिन में प्राप्त नहीं कर सकता है। शिक्षा को प्राप्त करने के लिए लगातार कई वर्षों तक परिश्रम ,अभ्यास और लगन की जरूरत पडती है। अगर किसी विद्यार्थी को विद्वान् बनना हो अथवा किसी उत्तम नौकरी प्राप्त करना हो तो भी दिन रात अभ्यास की आवश्यकता है ।
कभी-कभी विद्यार्थी अपने रास्ते से भटक जाते हैं इसी वजह से उनसे लगातार परिश्रम और अभ्यास करवाया जाता है जिससे वे अपने रास्ते से भटकें नहीं। पुराने समय में विद्यार्थियों को अपने घरों से दूर रहकर शिक्षा प्राप्त करनी पडती थी जिससे वे सांसरिक सुखों से दूर रक सकें और उनका ध्यान भी न भटके।
किसी भी व्यक्ति के लिए अभ्यास की बहुत आवश्यकता होती है। अगर किसी मनुष्य को शिक्षा के साथ-साथ अन्य क्षेत्रों में भी सफलता प्राप्त करनी है तो अभ्यास बहुत ही आवश्यक है। किसी भी कार्य का अभ्यास करने से उसमे दक्षता आती है। उसकी कठिनाईयां भी आसान हो जाती हैं। ऐसा करने से समय की भी बचत होती है। अभ्यास करने से अनुभ बढ़ता है।
जब कोई व्यक्ति एक काम को बार-बार करता है तो उसके लिए मुश्किल काम भी आसान हो जाता है। उसे काम के छोटे से छोटे गुण-दोषों के बारे में पता चल जाता है। जिस काम को अभ्यासी आधे घंटे में पूरा कर लेता है उसी काम को कोई और व्यक्ति आठ घंटे में भी बहुत मुश्किल से कर पाता है। बार-बार अभ्यास करने से वह उस काम में निपुण हो जाता है और वह अपनी ही कला का विशेषज्ञ बन जाता है। फिर विश्व की सभी विभूतियाँ उसके कदम चूमती हैं।
लेख-नवीन केवली


शिष्य के गुण और कर्तव्य


जो कोई भी विद्यार्थी विद्या प्राप्ति की इच्छा से किसी गुरु के सानिद्ध्य में रहता हुआ नियम-अनुशासन का अनुकरण करके गुरु जनों की आज्ञाओं का पालन करता है और अनेक प्रकार की विद्याओं को प्राप्त करता है और जीवन को आदर्शमय बनता है, वास्तव में वह शिष्य कहलाने योग्य है । वैसे तो अनेक प्रकार के धर्म-शास्त्रों में नीति-शास्त्रों में शिष्यों के लिए कर्तव्याकर्तव्य का निर्देश किये गए हैं परन्तु इस प्रकार वेदों में भी अनेक प्रकार के निर्देश प्राप्त होते हैं और जो कुछ भी अन्य शास्त्रों में उपलब्ध होते हैं उन सबका मूल वेदों से ही समझना चाहिये । अब हम कुछ उदहारण के रूप में विद्यार्थियों के लिए या शिष्यों के लिए आवश्यक कर्तव्यों का निर्देश उपस्थापित करने का प्रयत्न करते हैं । जैसे कि -

ऋग्वेद और अथर्ववेद आदि में शिष्य के कुछ गुणों का उल्लेख किया गया है । इन गुणों से युक्त विद्यार्थी ही शिक्षा प्राप्ति के अधिकारी होते थे ।

प्रवेश परीक्षा - अथर्ववेद में उल्लेख है कि "आचार्य उपनयमानो ब्रह्मचारिणं इच्छते ...तं रात्रिस्तिस्र उदरे बिभर्ति...।" आचार्य प्रवेश से पूर्व विद्यार्थी को तीन दिन परिक्षण में रखता था । जो विद्यार्थी उस कठोर परीक्षण में उत्तीर्ण होते थे, उन्हें ही प्रवेश दिया जाता था और उनका उपनयन संस्कार किया जाता था । मन्त्र में तीन दिन के लिए तीन रात्रि का प्रयोग आया है।

छात्र जिज्ञासु हो - ऋग्वेद का कथन है कि "तान् उशतो वि बोधय..।" अर्थात् जो व्यक्ति जिज्ञासु होते हैं और वेदादि का ज्ञान प्राप्त करना चाहते हैं, उन्हें ही शिक्षा देनी चाहिये ।
शिष्य कर्मठ हो - "अप्नस्वती मम धीरस्तु ।" विद्यार्थी या शिष्य को कर्मठ होना आवश्यक है । शिष्य तीव्र बुद्धि वाला हो - जिसकी बुद्धि जितनी तीव्र व सक्रिय होती है वही ज्ञान का अधिकारी होता है, वही ज्ञान ग्रहण करने में समर्थ हो पाता है अतः ऋग्वेद का कथन है कि "शिक्षेयमस्मै दित्सेयम्...।" अर्थात् गुरु उसी विद्यार्थी को उच्च शिक्षा प्रदान करना चाहता है जिसकी बुद्धि तीव्र हो ।

इसके अतिरिक्त विद्यार्थी को गुरु जी के अनुशासन में रहते हुए गुरूजी के आज्ञाकारी होना चाहिये । गुरूजी के आज्ञा के विपरीत या गुरु जी का कोई अप्रिय आचरण कभी भी न करे । गुरु जी के प्रति सदा श्रद्धा भाव रखने वाला तथा अन्तर्मन से गुरु जी की सेवा करने वाला होना चाहिये ।

इस प्रकार विद्यार्थी के कुछ कर्तव्य भी होते हैं जो कि वेदों में विस्तृत रूप में वर्णित है । विद्यार्थी अपने जीवन को वेदानुकुल ही बनाने का प्रयत्न करे । अथर्ववेद का निर्देश है कि विद्यार्थी वेदों के आदेशों के अनुसार ही अपना जीवन व्यतीत करे । ऐसा कोई भी कार्य न करे जो कि वेदों में निषेध किया गया हो ।

ऋग्वेद में बताया गया है कि "विश्वान देवान उषर्बुध.." अर्थात् विद्यार्थी का कर्तव्य है कि उस को प्रातःकाल ब्रह्म मुहूर्त में ही शय्यात्याग करना चाहिये । जो प्रातःकाल शीघ्र ही उठता है वह स्वस्थ, बलवान, दीर्घायु होता है ।

विद्यार्थी को चाहिए कि उसको कभी भी आलस्य, प्रमाद और वाचालता आदि से युक्त न होना चाहिये । उसको सदा संयमी और सदाचारी होना चाहिए । इस प्रकार जब हम वेदों का अध्ययन करते हैं तो प्रत्येक व्यक्ति के लिए क्या कर्तव्य है और क्या अकर्तव्य है, किन-किन गुणों से युक्त होना चाहिए और किन-किन गुणों से रहित होना चाहिए यह सब बातें विस्तृत रूप में वर्णित है । अतः हमारा कर्तव्य है कि इन ईश्वर प्रदत्त निर्देशों का अच्छी प्रकार अनुसरण करके अपने जीवन को सुख-शान्ति से युक्त करें और एक आदर्श व्यक्ति बनने का प्रयत्न करें ।
लेख - आचार्य नवीन केवली