Monday 23 January 2017

कलियुग में भगवानों का जुलुस

 कलियुग में एक बार सभी भगवानों का जुलुस निकला। भगवानों के जुलुस में उनके साथ उनके श्रदालु, सेवक अपने अपने इष्ट देव के गुण गान करते हुए निकल रहे थे। दर्शकगण बड़े उत्साह से जुलुस देखने निकले। सबसे आगे परम पिता परमात्मा परमेश्वर थे जिनके साथ बमुश्किल 1-2 श्रद्धालु थे। एक दर्शक ने पूछा भाई आप के साथ इतने कम लोग क्यों है। एक चतुर पास खड़ा था। वह बोला की मैं बताऊ? सभी के हाँ कहने पर बोला की आज कलियुग है। पहले आप की बहुत प्रतिष्ठा थी या यह कहे की इनका एकछत्र राज्य था। सम्पूर्ण संसार एक सर्वव्यापक निराकार ईश्वर की उपासना करता था। अब समय बदल गया है। 1 -2 व्यक्तियों को छोड़कर सभी साकार अवतारों की, गुरुओं की पूजा करने लग गए है। अब न लोग परमेश्वर के गुण, कर्म और स्वाभाव से परिचित है और न ही उन्हें जानने का प्रयास करते है।

परमेश्वर के पीछे श्री राम जी का जुलुस निकला। भीड़ कुछ कुछ थी परन्तु विशेष उत्साह नहीं दिखा। एक दर्शक ने पूछा भाई आप के साथ इतने कम लोग क्यों है। चतुर से फिर उत्तर मिला आप की सतयुग में बड़ी प्रतिष्ठा थी। लोग आपको आदर्श एवं मर्यादावान मानते थे। कालांतर में आप के चरित्र के स्थान पर चित्र की पूजा होने लगी। फिर आप के नाम से विशेष मंदिर और मूर्तियां बनने लग गई। पहले आपके जीवन चरित्र रामायण की अमर गाथा में आये संदेशों का पालन कर लोग अपने आपको मोक्षपथ का पथिक बनाते थे फिर इनके जीवन चरित्र रामायण की अमर गाथा को सुनने भर से मोक्ष प्राप्ति मानने लग गए है। अब तो बस आपका प्रभाव रामनवमी और दशहरा-दिवाली तक ही सीमित है। इन दिनों में लोग यदा-कदा आप का स्मरण करते है। इसलिए विशेष उत्साह नहीं दीखता है।

श्री राम जी के पीछे श्री कृष्ण जी का जुलुस निकला। कुछ लोग उछलते-कूदते नज़र आये। मगर विशेष उत्साह अभी भी नहीं दिखा। एक दर्शक ने पूछा भाई आप के साथ इतने कम लोग क्यों है। चतुर से उत्तर मिला आप की द्वापर युग में बड़ी प्रतिष्ठा थी। लोग आपको नीतिनिपुण एवं योगिराज मानते थे। आप के नाम से भी विशेष मंदिर और मूर्तियां बनने लग गई। कालांतर में आप के चरित्र के साथ ऐसा खिलवाड़ हुआ की आप के असली चरित्र को ही लोग भूल गए। पहले आप की एक ही पत्नी रुक्मणी थी जिनके साथ आप ने 12 वर्ष तक विवाह के पश्चात ब्रह्मचर्य आश्रम का पालन किया था बाद में आप की प्रेमिका राधा बना दी गई, एक नहीं दो नहीं 16000 गोपियों के साथ आप का सम्बन्ध बना दिया गया। कोई रणछोड़ कहने लगा, कोई माखनचोर कहने लगा, कोई राधावल्लभ कहने लगा तो कोई रसिया कहने लगा । कुल मिलाकर आप की इज्जत का फलूदा आप ही के भक्तों ने बना डाला। अब लोग लड़कियां छेड़ने के लिए बहाने बनाने में आप का नाम लेते है और अपने अनैतिक कर्मों को रासलीला कहते है। अब तो बस आप का प्रभाव जन्माष्ठमी तक सीमित हैं। इन दिनों में लोग यदा-कदा इन्हें स्मरण करते है। इसलिए विशेष उत्साह नहीं दीखता है।

श्री कृष्ण जी के पीछे हनुमान जी का जुलुस निकला। आप के साथ भी कुछ भगत थे। । एक दर्शक ने पूछा भाई आप के साथ इतने कम लोग क्यों है। चतुर से उत्तर मिला आप की पहले बड़ी प्रतिष्ठा थी। लोग आपको बल,शक्ति और ब्रह्मचर्य मानते थे। आप के नाम से भी विशेष मंदिर और मूर्तियां बनने लग गई। हनुमान जी चारों वेदों के ज्ञाता, महाविद्वान एवं परमबलशाली थे। कालांतर में आपको बन्दर के रूप में चित्रित कर दिया गया। अब लोग भीख मांगने के लिए आपके जैसा वेश धारण करते हैं। आप के चरित्र और गुणों से कोई शायद ही प्रेरणा लेता हैं। अब तो बस आप का प्रभाव मंगलवार तक सीमित हैं। इसलिए विशेष उत्साह नहीं दीखता है।

हनुमान जी के पीछे महात्मा बुद्ध का जुलुस निकला। आप के जुलुस के साथ भी नाम लेवा लोग थे। एक दर्शक ने पूछा भाई आपके साथ इतने कम लोग क्यों है। उत्तर मिला आपकी पहले बड़ी प्रतिष्ठा थी। आप महान समाज सुधारक थे। आपने यज्ञों में पशुबलि एवं छुआछूत के विरुद्ध जीवनभर प्रयास किया एवं महान सफलता पाई। कालांतर में आपके बहुत से भगत हुए। मगर दया, संयम, क्षमा, दम, अस्तेय के आपके सन्देश के स्थान पर माँसाहार, तांत्रिक पूजा, उन्मुक्त सम्बन्ध, हिंसा आदि आपके नाम से स्थापित विहारों में ज्यादा प्रचलित रहा। कुछ छदम भगत जो अपने आपको नव-बुद्ध मानते है आपकी समता की शिक्षाओं का प्रयोग जातिवाद एवं राजनैतिक रोटियां सेकने के लिए करते हैं मगर आपका सच्चा भगत तो कोई विरला ही मिलता है। अब तो आपका प्रभाव बुद्ध पूर्णिमा तक सीमित है। उस दिन लोग यदा-कदा इन्हें स्मरण करते है। इसलिए विशेष उत्साह नहीं दीखता है।

महात्मा बुद्ध के पीछे शंकराचार्य का जुलुस निकला। आप के जुलुस के साथ भी नाम लेवा लोग थे। एक दर्शक ने पूछा भाई आपके साथ इतने कम लोग क्यों है। चतुर से उत्तर मिला इनकी पहले बड़ी प्रतिष्ठा थी। आप महान समाज सुधारक थे। आपने नास्तिक मतों के विरुद्ध संघर्ष किया एवं लोप हो रहे वेद विद्या के ज्ञान का पुनरुद्धार किया। आपके महान तप से वेदों को खोई हुई प्रतिष्ठा मिली। आपने भारत देश की चारों दिशाओं में धर्म रक्षा के लिए मठों की स्थापना करी और संस्कृत एवं विद्या की रक्षा के लिए अखाड़ों को स्थापित किया। जहाँ पर शस्त्र एवं शास्त्र दोनों का सम्मान था। आपको पहले शिव का अवतार एवं तत्पश्चात ईश्वर ही कहा जाने लगा। आपने अपनी पुस्तक परापूजा में मूर्ति पूजा का विरोध लिखा उसके विपरीत आप ही की मूर्तियां बनाकर उन्हें पूजा जाने लगा। आपके बनाये मठों में धन-संपत्ति पर बैठकर उनके संचालक निश्चेतना की प्रगाढ़ निंद्रा में सो गए है और अखाड़ें में बैठे नागा साधु नशे की निंद्रा में सो गए है। अब तो बस आपका प्रभाव मठों और अखाड़ों तक ही सीमित है। इसलिए विशेष उत्साह नहीं दीखता है।

इस प्रकार से अनेक देवी देवताओं का जुलुस निकला उनका भी यही हाल था। उनके पीछे अनेक गुरुओं का भी जुलुस निकला। चतुर ने बताया की सभी गुरुओं के चेले अपने अपने गुरु को भगवान बता रहे थे। गुरु की सेवा, गुरु के नाम स्मरण, गुरु की कृपा से मोक्ष प्राप्ति बता रहे थे। उनके लिए इस बात से कोई अंतर नहीं पड़ता था की उनके गुरु चाहे बलात्कार के आरोप में जेल में बंद हो, चाहे अनेक रोगों से पीड़ित होकर रोग शैया पर पड़े हो, चाहे वृद्धावस्था के कारण देखने, सुनने और चलने में अशक्त हो। उनके लिए तो जीवन के सभी दुखों से, सभी असफलताओं से, सभी समस्यायों से बचाने की अगर कोई शक्ति रखता था तो वो केवल और केवल गुरु था क्यूंकि गुरु के बिना कलियुग में कोई भी ईश्वर की प्राप्ति नहीं करा सकता, कोई मोक्ष नहीं दिला सकता था। गुरुओं के ठाठ देख कर यही लगा की इनके चेले अंधे है और अंधे ही रहेंगे। सभी गुरुओं के पीछे कुछ भीड़ थी मगर दर्शकों को लगा की ये सभी मानसिक गुलाम हैं न की सत्य अन्वेषक है। इस प्रकार से विभिन्न गुरुओं के जुलुस भी निकल गए।

दर्शकों को अभी भारी भीड़ वाले जुलुस की प्रतीक्षा थी और भारी भरकम भीड़ वाले जुलुस की प्रतीक्षा समाप्त हुई। चारों और नरमुंड ही नरमुंड। पाँव रखने तक का स्थान नहीं था। दर्शकों को यह उत्सुकता हुई की यह किसका जुलुस था। मगर कोई व्यक्ति नहीं दिखा। चतुर ने बताया की देखों मध्य में कोई पत्थर लिए जा रहे हैं। और पता करने पर पता चला की यह अजमेर वाले ख्वाजा ग़रीब नवाज़ की कब्र थी। ये सभी चेले अपने आपको सेक्युलर मानते है और हिन्दू-मुस्लिम एकता की स्थापना के लिए मुसलमानों की कब्रों पर सर पटकने को अपना धर्म मानते है। चतुर से पूछा गया की हिन्दुओं का ग़रीब नवाज़ से क्या सम्बन्ध है। तो वह बोला की हमारे देश के अंतिम हिन्दू सम्राट पृथ्वीराज चौहान को हराने वाले मुहम्मद गौरी का गरीब नवाज मार्गदर्शक था। उसने सबसे पहले इस्लामिक तलवार की काफिर हिन्दू राजा पर विजय की दुआ करी थी। उसने पुष्कर धर्मनगरी के पवित्र घाटों पर मांस पकाकर खाया था एवं पृथ्वीराज के सेना की गुप्त खबरे गौरी तक पहुंचाई थी। सुनकर दर्शकों के मुंह खुले के खुले रह गए। उन्हें यह समझ में नहीं आया की ये लाखों लोगों की भीड़ गरीब नवाज का अनुसरण क्यों कर रही है। गरीब नवाज ने हिन्दू समाज का कैसा अहित किया है उसके बारे में जानने के पश्चात तो कोई मुर्ख हिन्दू उसके जुलुस में शामिल होगा। चतुर ने एक जुलुस में शामिल बन्दे को गरीब नवाज की हकीकत बताई तो वह बोला की भगत तो अँधा होता है। हमें यह नहीं देखना चाहिए की हम किसकी भक्ति कर रहे है। बस भक्ति करनी चाहिए। चतुर और अन्य दर्शक सर खुजला कर रह गए मगर अक्ल के अंधे आँख के अंधों से भी ज्यादा अंधे निकले।
अंत में आखिरी जुलुस दिखने लगा। ऐसे भीड़ किसी भी भगवान के जुलुस में अभी तक देखी नहीं गई। दर्शकों की उत्सुकता यह जानने के लिए बढ़ गई की यह कौन सा भगवान है जिसके साथ सबसे अधिक भीड़ है। पास आने पर स्पष्ट हुआ की यह शिरडी के साईं बाबा है। सबसे अधिक चेले, भगत अगर आज किसी के है तो वह शिरडी के साईं के है।सबसे अधिक भीड़ देखकर सभी दर्शक आपस में वार्तालाप करने लगे की इससे तो यही सिद्ध हुआ की कलियुग में सबसे बड़े भगवान अगर कोई है तो शिरडी के साई बाबा है। चतुर पास ही खड़ा सुन रहा था वह बोला क्या आप जानते है की वह शिरडी के साईं बाबा कौन थे ? दर्शकों की उत्सुकता जानने की हुई और वे बोले जी अवश्य जानना चाहेंगे। चतुर ने बताया की आपका असली नाम चाँद मुहम्मद था, आप मस्जिद में रहते थे, पांच टाइम के नमाज़ी थे, मांस मिश्रित बिरयानी का शोक रखते थे और सबका मालिक एक कहते थे। आपका समाज पर उपकार का विश्लेषण करे तो आपके बारे में केवल यही प्रसिद्द हैं की आप कुछ चमत्कार करने की काबिलियत रखते थे और वे सभी चमत्कार और आपकी ख्याति महाराष्ट्र के एक छोटे से गाँव तक ही सीमित रही थी। यद्यपि जिस काल में आप इस देश में रहे उस काल में देश में अंग्रेजों का क्रूर राज्य रहा, भूकम्प, प्लेग, बाढ़ और अकाल से लाखों मौतें हुई पर आपने कोई चमत्कार न दिखाया जिससे देश और उसके निर्धन निवासियों का कुछ भला होता। आपकी ख्याति 100 साल तक केवल एक गाँव तक सीमित क्यों रही इसका कारण भी मालूम नहीं चलता। पर अब तक आपके चेलों ने आपके गुड़ की शक्कर ही बना दी है। आपको न केवल सबसे बड़ा भगवान बना दिया है अपितु आपको देश के 90 % मंदिरों में स्थान दे दिया है। और स्थान भी कोई ऐसा वैसा नहीं बल्कि सबसे बड़ी मूर्ति, सबसे भव्य मूर्ति, सबसे मध्य में आपकी बनाई गई है जिसके आगे बाकि सभी भगवानों की मूर्तियां बौनी लगे।

विडंबना यह है की हिन्दू समाज को यह भी नहीं मालूम की साईं बाबा की पूजा वे लोग क्यों कर रहे है। धनी इसलिए कर रहे है क्यूंकि वे समझते है की उनका धन कहीं चला न जाये और निर्धन इसलिए कर रहे है की उनके पास धन आ जाये। सभी चमत्कार में विश्वास रखते है। धर्म शास्त्र जैसे वेद, गीता आदि में वर्णित कर्म-फल का सिद्धांत उन्हें देर से परिणाम देने वाला और अप्राप्य प्रतीत होता है और चमत्कार अधिक प्रभावशाली एवं शीघ्रता से परिणाम देने वाला प्रतीत होता है । जबकि वह यह नहीं जानते की प्रतिष्ठता, स्वार्थ आदि की पूर्ति के लिए मनुष्यों की अविद्या, अज्ञानता एवं असमर्थता का लाभ उठाने के प्रपंच का नाम चमत्कार है।चमत्कार अन्धविश्वास के अतिरिक्त कुछ भी नहीं हैं और मुर्ख लोग ही इसमें विश्वास करते है।

चतुर की बात सुनकर दर्शक सोच विचार में लग गए और उनसे पूछने लगे की भाई जी यह तो बताये की ईश्वर की सत्य परिभाषा क्या है एवं ईश्वर क्या कर्म करते हैं। इस पर चतुर ने उत्तर दिया की ईश्वर सच्चिदानंदस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनंत, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वांतर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है और उसी की उपासना करने योग्य है। समाज में जितने भी भगवान अवतार के नाम पर प्रचलित है जिनके नाम पर अनेक मंदिर, अनेक मूर्तियां बनाई गई है सभी मनुष्य की कल्पना है। श्री राम और कृष्ण जी महाराज हमारे महान पूर्वज थे जिनके जीवन से मर्यादा और चरित्र का पवित्र सन्देश हमें प्रेरणा देता है परन्तु वे भी उसी वैदिक ईश्वर के ही उपासक थे। आज समाज में सभी प्रकार के अन्धविश्वास एक ही क्षण में समाप्त हो सकते है अगर सर्वव्यापक और निराकार ईश्वर की सत्ता को हर व्यक्ति स्वीकार करने लगे। वैदिक ईश्वर को जानने वाला व्यक्ति कभी पाप कर्म नहीं और आत्मिक उन्नति करता हुआ परम सुख मोक्ष को धारण करता है। और जो लोग इस सुख की प्राप्ति करने के लिए विभिन्न प्रकार के प्रपंचों का सहारा लेते है वे अज्ञानता के सागर में डूबकर जन्म-जन्मान्तर तक ऐसे ही भटकते रहते है। इसलिए भ्रम से बाहर निकलिये और यथार्थ को स्वीकार करते हुए वेद पथ के गामी बनिए।


आप सभी पाठकों में से कौन कौन चतुर है, कौन कौन दर्शक है और कौन कौन जुलुस में शामिल है आप स्वयं निर्णय कीजिये।। वैदिक धर्म के सम्बन्ध में सैद्धांतिक जानकारी के लिए फेसबुक पर इस पेज को ज्वाइन कीजिये facebook.com/arya. samaj को like कीजिये.......डॉ विवेक आर्य

Wednesday 18 January 2017

ओउम प्रभु हमें अक्षीण आयु तथा उत्तम सन्तान रुपी धन दे (मण्डल ७ का सम्पूर्ण वर्णन )

आर्य परमपिता परमात्मा ने वेद के इस सूक्त में उपदेश किया है कि हे पिता हमें वह धन दे जो हमे आक्षीण आयु वाला तथा उत्तम सन्तानों वाला बनावें । वह धन कौन सा है ?, इस की चर्चा इस सूक्त के इन पन्द्रह मन्त्रों में बडे ही सुन्दर ढंग से की गयी है, जो कि इस प्रकार है - यज्ञ की अग्नि से घर की रक्षा होती है हम प्रतिदिन दो काल यज्ञ करें। यज्ञ भी एसे करें कि इस के लिए आग को दो अरणियों से रगड़ कर पैदा किया जावे। इस प्रकार की अग्नि से किया गया यज्ञ , इस प्रकार की प्रशस्त अग्नि से किया गया यज्ञ घर की रक्षा करता है । इस तथ्य का वर्णन ऋग्वेद के सप्तम मंडल के प्रथम सूक्त के प्रथम मंत्र में इस प्रकार मिलता है

 अग्निंनरोदीधितिभिररण्योर्हस्तच्युतीजनयन्तप्रशस्तम्। दूरेदृशंगृहपतिमथर्युम्॥ ऋ07.1.1 मनुष्य सदा उन्नति को ही देखना चाहता है । अवन्ती को तो कभी देखना ही नहीं चाहता। मानव सदा आगे बढना चाह्ता है । पीछे लौटने की कभी उस की इच्छा ही नही होती । वह सदा ऊपर ही ऊपर उठना चाहता है नीचे देखना वह पसंद नहीं करता। इस लिए मन्त्र भी यह उपदेश करते हुए मानव को संबोधन कर रहा है कि हे उन्नति की इच्छा रखने वाले मानव! तू अपने को आगे बढ़ने की चाहना के साथ अपनी अभिलाषा को पूरा करने के लिए , अपने हांथों को गति दे , इन्हें सदा गतिशील रख , कार्य में व्यस्त रख, इन्हें आराम मत करने दे , निरंतर कार्यशील रह। १ यज्ञ से रोगाणुओं का नाश इस प्रकार अपने हांथों को गतिशील रखते हुए, क्रियाशील रखते हुए अपनी अंगुलियों से अरनियों अथवा काष्ठविशेषो में यज्ञ अग्नि को प्रदीप्त कर , यज्ञ को आरम्भ कर । यज्ञ की उस अग्नि को प्रदीप्त कर जो प्रशस्त हो, उन्नत हो अथवा उन्नति की और ले जाने वाली हो।। यह अग्नि इतनी तेजस्वी होती है कि इस के प्रकाश मात्र से, गर्मी मात्र से यह रोग के किटाणुओं के नाश का कारण बनती है अथवा युं कह सकते हैं कि यह अग्नि अपनी तेजस्विता से हानिकारक किटाणुओ का नाश कर देती है। यज्ञ की अग्नि से रोग के कीटो का अंत होता है। अत: यह यज्ञ रोग के कृमियों के संहार का कारण होता है।

 २. यज्ञ से वर्षा यह यज्ञ वर्षा आदि लाभ देने का भी कारण होता है। वर्षा से ही हमारी वनस्पतियां बडी होती हैं तथा हमें फल देती हैं । यदि वर्षा न हो तो हमारी खेतियां लहलहा नही सकती । जब खेती ही नही रहेगी तो हम खावेंगे क्या ? हमारे वस्त्र कहा से आवेंगे ? हमारे जीवन की आवश्यकता कैसे पूर्ण होगी ? इस लिए जब हम यज्ञ करते है तो वर्षा समय पर होती है। अतरू वर्षा आदि का कारण होने से भी यज्ञ प्रशंसनीय होते हैं। ३ यज्ञ से घर की सुरक्षा जब कहीं पर यज्ञ हो रहा होता है तो इसे बडी दूर के लोग भी होता हुआ देख लेते हैं। क्यों ? क्योंकि इस की लपटें ऊपर को अच्छी उंचाइयों तक उठती हैं। इस कारण यज्ञग्य स्थान से दूर निवास करने वाले लोग भी इस की अग्नि को देख सकते हैं। इस प्रकार दूर के लोग भी देखते हैं कि अमुक स्थान पर यज्ञ हो रहा है, जिससे उसे यह ज्ञान होता है कि इस स्थान पर निश्चित रूप से किसी का निवास है, निवास ही नही है, वहां निवास करने वाला व्यक्ति जागृत अवस्था में है , इस लिए ही यज्ञ की अग्नि जला रखी है,। यह सब जानते हुए वह किसी दुर्भावाना से उस घर में प्रवेश करने का साहस नहीं करता। ४ यज्ञ से उन्नति इस सब से स्पष्ट होता है कि यह यज्ञ घर की रक्षा करने का साधन है, जहां यज्ञ होता है वह स्थान सदा सुरक्षित रहता है। उस स्थान पर , उस घर में सदा निरोगता बनी रहती है, कोई बीमारी उस घर में नहीं आती

इससे भी वह घर सुरक्षित हो जाता है । इस सब के साथ ही साथ यह घर गति वाला भी होता है। इस घर में सदा उन्नति होती रहती है। सीधी सी बात है , जिस घर में सुरक्षित वातावरण के कारण चोर आदि आने का साहस नहीं करता, रोग का प्रवेश नहीं होता, उस घर में धन का बेकार के कार्यों में प्रयोग नहीं होता, इस कारण इस घर में जीवन रक्षा के उपाय अर्थात रोटी, कपडा आदि की आवश्यकतायें थोड़े से धन से ही पूर्ण हो जाती हैं। शेष जो धन बच जाता है, वह परिवार की समृद्धि को बढाने का कार्य करता है। इससे परिजन उच्च शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं, उत्तम वस्तुओ को खरीद सकते हैं तथा दान देकर अन्य साधनहीन लोगों की सहायता कर अपना यश व कीर्ति को बढा सकते हैं , सर्वत्र सम्मानित स्थान प्राप्त कर सकते हैं। अत: जिस यज्ञ के मानव जीवन में इतने लाभ हैं, उस यज्ञ को तो प्रत्येक मानव को अपने परिवार में प्रतिदिन दो काल अवश्य करना चाहिए तथा यश प्राप्त करना चाहिये । डा.अशोक आर्य 

ओउम हम सदा सद्गुणों को ग्रहण करें

आज के युग में गुणों से भरे मार्ग पर चलने वाले लोग उँगलियों पर गिने जा सकते हैं. गुणों के ह्रास से ही संसार आज अध्रूपतन की ओर जा रहा है. अपने अधिकार पाने की एक दौड़ सी लगी हुयी है. किसी को भी कर्तव्य की ओर देखने व उसे समझने तथा उस पर चलने की भावना ही नहीं रही. आज स्थिति यहाँ तक पहुंच गयी है कि एक बालक , जिसे पाल - पोस कर बड़ा किया जाता है, पढ़ाया - लिखाया जाता है. अच्छी प्रकार से उस का भरण - पोषण किया जाता है तथा उत्तम वस्त्र उसे पहनने को दिए जाते हैं. यह सब कर्तव्य पूर्ण करने में माता पिता जीवन भर की कमाई लगा देता है. जब उस की आयु ढल जाती है, वह बुढ़ापे की अवस्था में पहुंचता है, अनेक रोग उसे घेर लेते हैं, इस अवस्था में उसे सहारे की आवश्यकता होती है. इसी अवस्था में वही संतान, जिसे बनाने के लिए उसने अपना जीवन खपा दिया, आज उसे दुत्कारती है तथा यह कहने पर कि माता पिता ने तेरा पालन किया है तो उतर देती है कि यह तो उनका कर्तव्य था , हमारे लिए नहीं अपने कर्तव्य को पूरा करने के लिए यह सब किया था, अपनी नाक बचाने के लिए यह सब किया था. 



जब कहा जाता है की तुम्हारा भी इन के लिए कुछ कर्तव्य बनता है , तो उतर होता है कि हमारा अपने बच्चों के लिए भी कर्तव्य है, उसे पूरा करें या इन को संभालें. जिस माता पिता ने उसे यह संसार दिखाया, आज उनकी देख रेख करने वाला कोई नहीं , क्योंकि हम ने संतान का पालन तो किया किन्तु उसे सुसंतान न बना पाए. अच्छे गुण उनमें नहीं-भर सके. ऋग्वेद के मन्त्र ५.८२.५ में प्रभु से प्रार्थना की गयी है कि हे प्रभु, हमें अच्छे गुण ग्रहण करने की शक्ति दो द्य मन्त्र मूल रूप में इस प्रकार है -विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परा सुवा यद् भद्रं तन्न आ सुव .. ऋग्वेद ५.८२.५|| हे संसार के उत्पादक ,कल्याणकारी परमेश्वर , आप हमारे सारे दुर्गुण, दुर्व्यसन तथा दुर्गुणों को दूर कीजिये ओर जो कल्याणकारी गुण, कर्म, पदार्थ हैं , वह हमें दीजिये द्य इस मन्त्र में वैदिक संस्कृति के लक्षण बताये गए हैं. संस्कृति क्या है ?, इस का अर्थ क्या है ? आओ पहले इसे जाने , फिर हम आगे बढ़ेंगे. संस्कृति नाम है संस्कार का. संस्कार से परिष्कार होता है तथा तथा परिष्कार से संशोधन होता है. अत: संस्कार, परिष्कार व संशोधन को ही हम संस्कृति कह सकते हैं. बालक का जन्म होता है, उसे कुछ भी ज्ञान नहीं होता माता , पिता उसे संस्कार देते हैं, विगत संस्कारों को परिष्क्र्त कर , उनका संशोधन करते हैं , तब कहीं जा कर वह बालक एक उत्तम मानव की श्रेणी में आ पाता है द्य इस लिए हमारी संस्कृति के आधार हैं संस्कार, परिष्कार तथा संशोधन. इसे समझाने के लिए हम कृषि या खेती का बड़ा ही सुन्दर उदाहरण देख सकते हैं - किसान अपने खेतों में से अनावश्यक घास फुंस, जो स्वयं ही उग आता है तथा भूमि की उर्वरक शक्ति का शोषण करने लगता है, को खोद कर निकाल बाहर करता है. तत्पश्चात अपने खेत को समतल कर इस में उत्तम प्रकार के बीजों को डालता है द्य इस खेती में समय समय पर खाद व पानी दे कर इसे पुष्ट भी किया जाता है द्य इससे उगने वाले पोधों में अच्छे गुणों का आघान होता है तथा अच्छे फल स्वरूप इस का परिणाम किसान को मिलता है. कुछ एसा ही कार्य संस्कृति करती है. 

बालक के अन्दर जितने भी अवाच्छ्नीय तत्व होते हैं , जितने भी दुर्गुण होते हैं या किसी भी प्रकार की कमियां बालक में होती है, संस्कृति उन सब को दूर कर , उनके स्थान पर अच्छे गुणों को प्रतिस्थापित करती है द्य बस इस कार्य को ही हम संस्कृति कहते हैं. हम संस्कृति को संक्षेप में इस प्रकार परिभाषित कर सकते हैं! दुर्गुण निवारण और सद्गुण स्थापन ही संस्कृति है. ऊपर के प्रकाश को सम्मुख रखते हुए इस मन्त्र में कहा गया है कि जितने दुर्गुण, दुर्विचार या जितने भी दू:ख देने वाले तत्व हैं , हे प्रभू, वह सब हम से दूर कीजिये तथा जितने भी सद्गुण, सद्विचार अथवा शुभ तत्व हैं, वह सब हमें प्रदान कीजिये. इस प्रकार गुणों को प्राप्त करने व दुर्गुणों को दूर करने का कार्य यह संस्कृति मानव के जीवन पर्यंत करती रहती है, यह क्रम चलता रहता है. तब ही तो मानव दुराचारों तथा पापाचारों से अपने को बचाते हुए सद्गुणों कि प्राप्ति की और बढ़ता है , इन में प्रवृत होता है , इन्हें ग्रहण करता है. जब सद्गुणों में यह प्रवृति बद्धमूल हो जाती है , समा जाती है , तब मानव में से सब प्रकार की दुर्भावनाओं, दुराचारों का नाश हो जाता है तथा अच्छे गुण, अच्छे संस्कारों में निरंतर वृद्धि होती रहती है. इस प्रकार अच्छे गुणों को प्राप्त करते हुए मानव मानवता से देवत्व की और बढ़ता ही चला जाता है. जिस मानव में ऐसे गुणों की प्रचुरता आ जाती है , संसार उन्हें युगों युगों तक याद करता है, उसके पदचिन्हों पर चलने का प्रयास करता है तथा उसे देवता तुल्य आदर सत्कार देने लगता है. अत: हम मन्त्र की भावना को अपनाते हुए संसकृति के भाव को आत्मसात करते हुए अपने दुर्गुणों को त्यागें तथा अच्छे गुणों को गृहन कर संसार के सम्मुख अच्छा उदहारण रखें. डा. अशोक आर्य 

स्वावलंबी को सर्वत्र प्रतिष्ठा व सम्मान मिलता है

आर्य यह वैदिक ही नहीं सामाजिक नियम है कि जो व्यक्ति स्वावलंबी है , जो व्यक्ति दूसरों पर निर्भर न हो कर अपने सब कार्य,सब व्यवसाय आदि स्वयं करता है, समाज उसे आदर की दृष्टि से देखता है , उसे सम्मान देता है स्वावलंबी व्यक्ति जहाँ भी जाता है , उसका खूब आदर सत्कार होता है. ऐसे व्यक्ति द्वारा अपना कम स्वयं करने से उसका अनुभव दूसरों से अधिक होता है, उसकी कार्यकुशलता भी अन्यों से कहीं अधिक होती है तथा वह जो कार्य करता है , उसे करने में उसकी गति भी तीव्र होती है द्य इस तथ्य को ऋग्वेद में बड़े ही सुन्दर विधि से इस मन्त्र में स्पष्ट किया गया है रू स्वःस्वायधायसेकृणुतामृत्विगृत्विजम्। स्तोमंयज्ञंचादरंवनेमाररिमावयम्॥ ऋ02.5.7 मन्त्र कहता है कि हे मानव ! स्वावलंबन को तुम अपनी पिष्टी के लिए धारण करो हे यज्ञमान ! तुम ऋतु के अनुकूल यज्ञ करो. हमने दान दिया है, अत: हम अधिक प्रशंसा और यज्ञ ( संमान ) को प्राप्त करें. मन्त्र में सर्वप्रथम स्वावलंबन पर बल दिया गया है. आगे बढ़ने से पूर्व स्वावलंबन के सम्बन्ध में जानकारी होना आवश्यक है , इसे जाने बिना हम मन्त्र के भाव को ठीक से नहीं समझ सकते द्य अतरू आओ हम पहले हम स्वावलंबन शब्द को समझें - स्वावलंबन क्या है? - स्वावाकंबन से अभिप्राय स्वत्व की अनुभूति और उसका प्रकाशन से होता है. जब मानव स्व को ही भूल जावे तो उसका अवलंबन भी कैसे करेगा?

एक पौराणिक कथा के अनुसार पवन पुत्र हनुमान को एक शाप के अंतर्गत स्वत्व से उसे भुला दिया गया था , इस कारण अत्यंत शक्तियों का स्वामी होने पर भी हनुमान जी निष्क्रीय से ही रहते थे. वह स्वशक्ति से अनभिज्ञ ही रहते थे. इस कारण सदा भयभीत से, भीरु से होकर भटकते रहते थे द्य जब उन्हें उनकी शक्तियों का स्मरण दिलाया गया तो उन्हें पुनरूपता चला कि वह तो शक्ति का भण्डार है , बस फिर क्या था वीरों की भांति उठ खड़े हुए तथा शस्त्र हाथ में लिए, शत्रु के संहार को चल पड़े, जिधर भी निकले, शत्रु को दहलाते चले गए , उनका नाम सुनकर ही शत्रु कांपने लगे. इससे स्पष्ट होता है की जब तक हम स्व को नहीं जानते, तब तक हम कुछ भी नहीं कर पाते इस लिए स्व की जानकारी, स्व का परिचय ,स्व का ज्ञान होना आवश्यक है, किन्तु यह स्व किसे कहते हैं , इसे भी जानना आवश्यक है. स्व का अर्थ है - स्व से भाव होता है आत्मा या जीवात्मा स्व का भाव स्पष्ट होंने से हम स्वालंबन का अर्थ भी सरलता से कर सकते है. स्व के अर्थ को आगे बढ़ाते हुए हम कह सकते हैं कि स्वावलंबन का अर्थ हुआ -- उस आत्मा अथवा जीवात्मा के प्रकाश का आश्रय लेना अथवा उस आतंरिक शक्ति का उपयोग और प्रयोग करना द्य जब कोई व्यक्ति स्व का अवलंबन करता है तो उस में किसी प्रकार की स्वार्थ भावना नहीं रहती द्य सब प्रकार के स्वार्थों से वह ऊपर उठ जाता है द्यवह अपने पण को स्वाहा कर देता है , इदं न मम आर्थात यह मेरा नहीं है, की भावना उसमें बलवती होती है द्य इससे स्पस्ट होता है कि आत्मिक शक्ति का अवलंबन ही स्वावलंबन होने से वेद में स्वाहा और सवधा शब्दों का अत्यधिक व सम्मान से प्रयोग होता है द्य यग्य में हम जो भी पदार्थ डालते हैं यग्य अग्नि उसे अपने पास न रख कर सूक्षम कर आगे बढा देता है , इसे बढ़ने के पश्चात आगे बांटने के इए वायु मंडल को दे देता है द्य जब मानव अपने जीवन को यग्य मय बना लेता है तो वह भी दो हाथों से कमाता है तथा हजारों हाथों से बांटने लगता है . आप कहेंगे दो हाथों से कमा कर हजारों हाथों से बांटने के लिए तो सामग्री ही उसके पास न रहे गी, इसका अर्थ क्या हुआ ? इसका भाव है कि हे मानव ! तू इतना म्हणत कर , तू इतना पुरुषार्थ कर, इतना यत्न कर कि जो तू ने कमाया है वह तेरी शक्ति से कहीं अधिक होगा क्योंकि तुने आकूत प्रयत्न किया है , इससे तेरे पास इतनी सम्पति होगी कि जो हजारों हाथों से भी बांटने पर भी समाप्त न होगी अपितु निरंतर बढती ही चली जावेगी. यह ही मानव की यज्ञ रूपता है

 इदं न ममष् का अर्थ - जब हम स्वाहा शब्द का प्रयोग करते हैं तो साथ ही बोलते हैं इदं न ममष्. अर्थात जो कुछ मैंने यग्य, में डाला है उसमें मेरा कुछ नहीं है, सब कुछ समाज का दिया हुआ होने के कारण उस समाज का ही है , इस त्याग बुद्धि की उत्पत्ति ही स्वाहा - बुद्धि है. इस शब्द के प्रयोग से हम में नम्रता आ जाती है, सेवा का भाव जागृत होता है, साथ ही यह भी हम जान जाते हैं कि हमारे पास जो कुछ भी है, वह हमारा नहीं है, हम तो मात्र रक्षक हैं , तो किसी को कुछ भी देते समय हमें कष्ट के स्थान पर गर्व होगा स्वधा स भाव - एक और तो स्वार्थ भाव को छोड़ना है तो दूसरी ओर स्वधा शब्द दिया गया है द्यजिसका भाव है -- स्व - आत्मप्रकाश , मनोबल, आत्मिक बल को, ढ - धारण करना द्य तुच्छ स्वार्थ - बुद्धि को छोड़ना चाहिए ओर अपने अन्दर स्वधा या आत्मिक बल को धारण करना चाहिए द्य यही स्वाहा ओर स्वधा का वास्तविक अर्थ है द्य अतएव मन्त्र में कहा गया है कि स्व अर्था. अतएव आत्मा के ज्ञान के लिए स्वधा ( आत्मिक बल ) को प्राप्त करो द्य इससे स्पस्ट होता है कि स्वधा का अर्थ है आत्मिक बल द्य यह आत्म बल ही है जो मानव में नवशक्ति का संचार करता है , यह आत्मिक बल ही है , जिससे मानव बड़े महान एवं दुर्घर्ष कार्य करने में भी सफल हो जाता है , इसके बिना मानव कुछ भी नहीं कर सकता, वह अधूरा होता है . अतरू आत्मबल अर्थात स्वधा के द्वारा ही मानव में यज्ञीय भावना आती है,परोपकार की अग्नि उसमें प्रदीप्त होती है , दान देने में प्रवृति होती है ओर दूसरों के सहयोग की भावना जागृत होती है द्य इससे उसे यश मिलता है , उसे कीर्ति मिलती है तथा सर्वत्र उसका गुणगान होता है डॉ.अशोक आर्य 

Friday 6 January 2017

विश्व पुस्तक मेले में आर्य समाज क्यों?

कई रोज पहले की बात है दो लड़कियां ऑटो में जा थी जो आपस में चर्च और ईसाइयत की महानता का बखान कर रही थी. मैंने स्वभाव वश पूछ लिया, बहन आप इसाई हो? उन्होंने कहा नहीं! तो फिर अपने धर्म को भी जानों पढो, संसार में इससे महान कोई सभ्यता और धर्म नहीं है. उनमें से एक बोली कौन से धर्म की बात कर रहे हो भईया, आसाराम वाला, राधे माँ वाला, संत रामपाल या नित्यानद वाला? यह प्रश्न शूल की तरह मेरे ह्रदय में चुभा. हालाँकि आर्य युवक अपने तर्कों से अपनी क्षमता का परिचय देने में समर्थ हैं. पर गलती उन भोली-भाली लड़कियों की नहीं थी. गलती हमारी है क्योंकि बच्चों को जो दिया जाता है वो वही वापस मिलता है. जब हम बच्चों को कीर्तन जागरण पर नाच कूद और तथाकथित ढोंगी बाबाओं के पाखंड देंगे तो बदले में हमें यही जवाब मिलेंगे. वो समझेंगे शायद यही धर्म है. क्योंकि हमेशा से समाज में धर्म जीवन के हर पहलु को प्रभावित करता आया है जब तक हम बच्चों को वैदिक सभ्यता का वातावरण नहीं देंगे कुछ ऐसा नहीं देंगे कि उनमें संस्कार पनपे तब तक बच्चें माता-पिता का तिरस्कार करेंगे. चर्च की महानता का जिक्र करेंगे, कुरान का पाठ करेंगे, धर्मांतरण करेंगे. यदि आज आधुनिक शिक्षा के साथ वैदिक संस्कार मिले तो में दावे के साथ कह सकता हूँ आज भी राम, दशरत के कहने पर महल त्याग देगा. वरना तो वर्द्ध आश्रम के द्वार दशरत का स्वागत करेंगे...

आज सवाल यह है कि क्या सबके पास आर्ष साहित्य है? वर्तमान की चकाचोंध दिखाकर नई पीढ़ी को भ्रष्ट होने से बचाने के लिए क्या सबके पास तर्कों की कसोटी पर खरी उतरने वाली विश्व की एक मात्र पुस्तक सत्यार्थ प्रकाश है? आखिर हम इन छोटी-छोटी अल्प मूल्य की पुस्तकें भी अपने घर क्यों नहीं रख पाए? क्या अगली पीढ़ी को संस्कारवान बनाने का कार्य हमारा नहीं है? अपनी बेटी-बेटे उनके कोमल मन पर हम वैदिक सभ्यता की छाप छोड़ने में पीछे क्यों? में उन्हें साधू संत बनाने की नहीं कह रहा बस इतना कि आपकी सेवा करे और आगे एक बेहतर समाज खड़ा करे. कुछ दिन पहले की बात है मेट्रो के अन्दर मैंने एक बुजुर्ग को कहते सुना कि आजकल के बच्चें मेट्रो के अन्दर दिए जाने वाले दिशा निर्देश का सही से पालन नहीं करते. फिर वो खुद ही बोल उठा, जो माँ-बाप की नहीं सुनते वो मेट्रो अनाउंसर की कैसे सुनेगे? यह वह दुःख है जो आज हर माँ-बाप किसी न किसी रूप में अपने अन्तस् में महसूस कर रहा है.

ऐसा नहीं है सब लोग धर्म से विमुख है बस यह सोचते है क्या होगा वेद पढने से क्या हासिल होगा सत्यार्थ प्रकाश पढने से! ये सब पुरानी बातें है आज आधुनिक जमाना है ये सब चीजें कोई मायने नहीं रखती आदि –आदि सवालों से अपने मन को बहला लेते है. पर जब हम जरा सा भी दुखी होते है तब सबसे पहले ईश्वर याद आता है. अच्छा आज अपनी आत्मा से एक छोटे से सवाल का जवाब देना बिलकुल निष्पक्ष होकर और यह सवाल किसी एक से नहीं बल्कि सम्पूर्ण मानवजाति से है, क्या अपने अस्तित्व का बोद्ध करना पाप है? क्या सत्य- असत्य को जानना न्याय-अन्याय को जानना तर्क संगत ठहराना अनुचित है? आखिर हमारा जन्म क्यों हुआ? दो जून का भोजन सैर सपाटा तो जानवर भी कर लेते है. या फिर सिर्फ इसलिए की हम बस मोबाईल पर गेम खेले या अपने घर परिवार तक सिमित रहे? जिस महान सभ्यता में वेदों की भूमि में हमारा जन्म हुआ क्या हम पर उत्तरदायित्व नहीं है कि इसका स्वरूप बिना बिगाड़े हम अगली पीढ़ी के हाथ में सोपने का कार्य करे?

अक्सर बातों-बातों यह सुना जाता है कि अब जमाना पहले जैसा नहीं रहा न बच्चों में संस्कार बचे न मर्यादा. पर कभी किसी ने सोचा है इसके जिम्मेदार कौन है जरा सोचिये जब हमे जमाना और संस्कार ठीक मिला था जिसका हम अक्सर जिक्र करते है तो उसका वर्तमान में स्वरूप क्यों बिगड़ा? में समझता हूँ कौन है उसका दोषी? दो चार घंटे कीर्तन-जागरण कर या गाड़ी में दो भजन चला लेना धर्म है? नहीं वो मनोरंजन हो सकता है लेकिन धर्म नहीं!! प्रत्येक परिवार जिसमें 4 लोग है ओसतन हर महीने 500 सौ या 700 रूपये का इन्टनेट डाटा इस्तेमाल कर लेते है. में यह नही कह रहा वो क्यों करते है यह सब आज जीवन का हिस्सा बन चूका है. लेकिन जब अपने ग्रंथो का मामला आता है तो हम बचत करते दिख जाते है. ऐसा क्यों? जबकि सब जानते है की इंटरनेट का प्रयोग एक बार बच्चे की मानसिकता धूमिल कर सकता है किन्तु हमारा वैदिक साहित्य जिसमें एक बार किया निवेश उसे कभी पतन की और नहीं जाने देगा. वरन  पीढ़ियों तक उसे बचत खाते की तरह परिवार को ब्याज में संस्कार देता रहेगा. यदि वो 10 मिनट भी अपने ग्रंथो वेद उपनिषद में देगा तो उसके संस्कार जाग उठेंगे.

आर्य समाज की किसी धर्म-मत से लड़ाई नहीं है बस यह तो हजारों साल के पाखंड, कुरीतियों और कुप्रथाओं से लड़ रहा है, जिसमें यह रक्त रंजित भी हुआ कभी स्वामी दयानन्द के रूप में, कभी श्रद्धानन्द जी रूप में, कभी पंडित लेखराम के रूप में. अब आर्य समाज पुनः अंगड़ाई ले चुका है, एक बार आना 2017 के विश्व पुस्तक मेले में देखना सभी धर्मों ,पंथों और मत-मतान्तरों के विभिन्न स्टाल लगे मिलेंगे. इसाई समाज बाइबिल को लेकर इस्लामिक समाज कुरान के प्रचार में कोई आसाराम को निर्दोष बताता मिलेगा तो कोई राधे माँ का गुणगान करता दिख जायेगा. ओशो का अश्लील साहित्य बिकता मिलेगा. हिंदी साहित्य हाल में केवल और केवल आर्यसमाज ही राष्ट्रवादी, समाज सुधारक, नवचेतना, सदाचारी, पाखंडों से मुक्ति दिलाने वाला, विधर्मियों के जाल से बचाने वाला साहित्य वितरित करता दिखेगा.


हर वर्ष देश विदेश से हजारों की संख्या में प्रकाशन धार्मिक संस्था पुस्तकों के माध्यम से अपनी संस्कृति का प्रचार करने यहाँ आते है, निशुल्क कुरान और बाइबिल यह बांटी जाती है. चुपचाप धर्मांतरण के जाल यहाँ बिछाये जाते है. हमारी संस्कृति पर हमला किया जाता है उस समय जब लोग धर्मनिरपेक्षता की आड़ में हमारे वैदिक धर्म को नीचा दिखाने की नाकाम कोशिश करते है तब आर्य समाज क्या करे? उस समय जिस हिन्दू के हाथ में सत्यार्थ प्रकाश होता है वो ही विजयी होता है. जिसके पास नहीं होता वो हार जाता है. अब तो सब समझ गये होंगे कि आर्य समाज का पुस्तक मेले में जाना कोई व्यापारिक प्रयोजन नहीं है बल्कि अपनी महान वैदिक सभ्यता का पहरेदार बनकर जाता है. 50 रूपये की कीमत का सत्यार्थ प्रकाश दानी महानुभाओं के सहयोग से 10 रूपये में उपलब्ध कार्य जाता है. गत वर्ष  हिंदी भाषा में सत्यार्थ प्रकाश ने समूचे मेले में सभी भाषाओं में विक्री होने वाली किसी एक पुस्तक की सर्वाधिक विक्री का रिकॉर्ड स्थापित किया था. उर्दू, अंग्रेजी वा अन्य भाषाओं में सत्यार्थ प्रकाश की विक्री इसके अतिरिक्त रही और विशेष बात यह है कि सत्यार्थ प्रकाश की यह प्रतियां मुस्लिम सहित मुख्यतः गैर आर्य समाजियों के घरों में गई. इस बार फिर आप सभी से निवेदन है आपको आमन्त्रण है आओ आर्य समाज के साथ इस राष्ट्र निर्माण के यज्ञ में अपने कीमती समय की आहुति देवें...राजीव चौधरी 

Tuesday 3 January 2017

हमारे प्राचीन ग्रंथों की उपेक्षा नहीं होनी चाहिए: इसरो चीफ

भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) प्रमुख ए. एस. किरण कुमार ने वैज्ञानिक दृष्टिकोण के लिहाज से प्राचीन भारतीय ग्रंथों की सराहना की है। उन्होंने देश के गौरव के उसके गरिमामयी इतिहास से जुड़े होने पर जोर देते हुए कहा कि प्राचीन ग्रंथों की उपेक्षा नहीं होनी चाहिए।

कुमार ने कहा कि जिस विज्ञान को आज जाना जाता है वह तुलनात्मक रुप से आधुनिक मूल का है, लेकिन यह जिस परंपरा से निकला है वह मौजूदा इतिहास से कहीं पहले का है। उन्होंने कहा, 'यह कई सदियों में विकसित हुआ है और इसकी व्याख्या सुपरिचित और सुपरिभाषित कदमों के संदर्भ में की जाती है।'
मनिपाल विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में पहुंचे इसरो प्रमुख ने कहा, 'जीवन और अस्तित्व के मूलभूत मुद्दों का निदान करने वाले व्यापक तौर पर स्वीकार्य वैज्ञानिक सिद्धांत, खोज और अविष्कार आधुनिक वैज्ञानिक व्याख्याओं के आधार बनते हैं। वैदिक और आधुनिक यूनानी लेखनी प्राचीन ज्ञान के सार हैं। उपनिषद, भगवद्गीता, ब्राह्मण सूत्र, श्रीमद्भागवत और महाभारत प्राचीन ज्ञान का स्रोत हैं।'
उन्होंने चिकित्सा के क्षेत्र में नोबेल प्राइज विजेता और चीनी वैज्ञानिक तु-यूयू का हवाला देते हुए कहा कि ऐंटी मलेरियल ड्रग विकसित करने में मिली असाधारण सफलता के लिए 1500 साल पुराने चीनी लेखों से ही उन्हें मदद मिली थी। इसके अलावा उन्होंने यह भी बताया कि करीब 18,000 पुराने लेखों के अध्ययन के बाद शोधकर्ताओं ने पाया कि विभिन्न तरह के दर्द जिसमें कि माइग्रेन और असह्नीय पीठ दर्द भी शामिल है, उसके इलाज में पश्चिमी चिकित्सा पद्धति की तुलना में ऐक्यूपंक्चर कहीं ज्यादा कारगर है।

इसी तरह उन्होंने भारतीय ध्यान और योग पद्धति की भी सराहना करते हुए कहा कि हार्वर्ड मेडिकल स्कूल के वैज्ञानिकों द्वारा किए गए एक हालिया अध्ययन में यह निकल कर आया है कि ध्यान-योग पद्धति किस तरह से हमारे जीन्स को प्रभावित करती है, जिससे हमें तनाव को कम करने और प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाने में मदद मिलती है।

उन्होंने कहा कि हमें अपने प्राचीन ग्रंथों की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। अगर हमने इन्हें सत्यापित किया, इनका व्यापक अध्ययन किया और सही ढंग से शोध किया गया तो इनसे महत्वपूर्ण ज्ञान की प्राप्ति हो सकती है।