Monday 29 January 2018

प्रभु प्राप्ति के लिए विद्वान् व संयमी से ज्ञान आवश्यक


मानव सदा ही प्रभु की शरण में रहना चाहता है किन्तु वह सब उपाय नहीं करता जो, प्रभु शरण पाने के अभिलाषी के लिए आवश्यक होते हैं। यदि हम प्रभु की शरण में रहना चाहते हैं तो हमारी प्रत्येक चेष्टा, प्रत्येक यत्न बुद्धि को पाने के उद्देश्य से होना चाहिये। दूसरे हम सदा ज्ञानी ,विद्वान् लोगों से प्रेरणा लेते रहें तथा हम सदा उन लोगों के समीप रहें, जो विद्वान् हों, संयमी हों, ज्ञानी हों । एसे लोगों के समीप रहते हुये हम उनसे ज्ञान प्राप्त करते रहें। इस बात को ही यह  मन्त्र अपने उपदेश में हमें बता रहा है। मन्त्र हमें इस प्रकार उपदेश कर रहा है  :-
             इन्द्रा याहि धियेषितो विप्रजूता: सुतावत:
                उप ब्रह्माणि वाघत: ॥ ऋग्वेद १.३.५ ॥
        इस मन्त्र में चार बातों की ओर संकेत किया गया है :=-
१. इन्द्रिया वश में हों    
              जीव ने विगत मन्त्र में परमपिता प्रमात्मा से जो प्रार्थना की थी, उस का उत्तर देते हुये पिता इस मन्त्र में हमें उपदेश कर रहे हैं कि हे इन्द्रियों के  २४ उतम बुद्धि वाले ज्ञानवान बनें
अधिष्ठाता जीव! हे इन्द्रियों को अपने वश में कर लेने वाले जीव! अर्थात् प्रभु उस जीव को सम्बोधन कर रहे हैं, जिसने अपनी इन्द्रियों को अपने वश में कर लिया है। उस पिता का एक नियम है कि वह पिता उसे ही अपने समीप बैठने की अनुमति देता है, उसे ही अपने समीप स्थान देता है, जो अपनी इन्द्रियों के आधीन न हो कर अपनी इन्द्रियों को अपने आधीन कर लेता है. जो इन्द्रियों की इच्छा के वश में नहीं रहता अपितु इन्द्रियां जिसके वश में होती है। अत: इन्द्रियों पर आधिपत्य पा लेने में सफल रहने वाला जीव जब उस प्रभु को पुकारता है तो एसे जीव की प्रार्थना को प्रभु अवश्य ही स्वीकार करता है तथा जीव को कहता है कि हे इन्द्रियों को अपने वश में रखने वाले जीव ! तू आ मेरे समीप आकर स्थान ले, मेरे समीप आ कर बैठ।
२. बुद्धि सूक्षम हो     
                हे जीव! तू अपने सब प्रयास , सब यत्न , सब कर्म बुद्धि को पाने के लिए, बुद्धि को बढाने  के लिए ही करता है। तू सदा बुद्धि से ही प्रेरित रहता है । बुद्धि सदा तुझे कुछ न कुछ प्रेरणा करती रहती है। तू जितने भी कार्य करता है, वह सब तू या तो बुद्धि से करता है अथवा तू जो भी करता है, वह सब बुद्धि को पाने के यत्न स्वरुप करता है। तेरी सब प्रेरणाएं बुद्धि को पाने के लिए प्रेरित होती हैं। इतना ही नहीं तू जितनी भी चेष्टाएं करता है, जितने भी यत्न करता है, जितना भी परिश्रम करता है , जितना भी प्रयास करता है, वह सब भी तू बुद्धि को पाने के लिए ही करता है। तू अपने इस यत्न को निरन्तर बनाए रख। तेरे इस यत्न से ही तेरी बुद्धि सूक्ष्म हो सकेगी, इस सूक्ष्म बुद्धि के द्वारा तू इस ब्रह्माण्ड में मेरी महिमा, मेरी सृष्टि को देख पाने में सफल होगा।
३. उतम बुद्धि पाने का प्रयास     
               तेरे अन्दर जो यह तीव्र बुद्धि आई है, जो सूक्षम बुद्धि का स्रोत बह रहा है, वह तू ने अपने ब्रह्मचर्य काल में अपने ज्ञानी, विद्वान् तथा सूक्ष्म बुद्धि से युक्त आचार्यों से, गुरुजनों से, प्रेरित हो कर एकत्र किया है। इतना ही नहीं तूं अब भी उत्तम बुद्धि को पाने के लिए अपनी अभिलाषा को बनाए हुए है।
४. सोम रक्षक से मार्ग दर्शन   
         हे उत्तम बुद्धि के स्वामी जीव! तूं सोम का सम्पादन करने वाला है। तूं प्रतिक्षण अपने जीवन में एसे यत्न, यथा प्राणायाम, दण्ड, बैठक आदि में व्यस्त रहता है, जिन से सोम की तेरे शरीर में उत्पति होती ही रहती है। तू ने अपना जीवन इतना संयमित व नियमित कर लिया है कि सोम का कभी तेरे शरीर में नाश हो ही नहीं सकता अपितु सोम तेरे शरीर में सदा ही रक्षित है। इतना ही नहीं तूं सदा एसे लोगों का, एसे विद्वानों का, एसे गुरुजनों का साथ पाने व सहयोग लेने के लिए, मार्ग-दर्शन पाने के लिए यत्नशील रहता है, जो सोम को अपने यत्न से अपने शरीर में उत्पन्न कर , उसकी रक्षा करते हैं । सोम रक्षण से वह मेधावी होते हैं। एसे मेधावी व्यक्ति के, एसे ज्ञान के भण्डारी के, एसे संयमी व्यक्ति के समीप रह कर तूं उससे ज्ञान रुपी बुद्धि को ओर भी मेधावी बनाने के लिए यत्न शील है।  


डा. अशोक आर्य

Thursday 18 January 2018

आत्म – निरीक्षण से ही मिलती है जीत

लेख :– आचार्य नवीन केवली
संसार में किसी भी क्षेत्र में उन्नति या सफलता के लिए अथवा आध्यात्मिक जगत में उच्चतम शिखर को छूने लिए, हमें अपने जीवन में एक विशेष उपाय का अवलंबन या अनुष्ठान अवश्य करना चाहिए और वह है अपने आप का आंकलन करना, जिसे शास्त्रों की भाषा में आत्म-निरीक्षण कहा गया है । जो व्यक्ति अपने द्वारा किये गए समस्त क्रिया-कलापों का पृष्ठावलोकन नहीं करता वह जीवन के किसी भी क्षेत्र में सफल नहीं हो सकता । मनुष्य अल्पज्ञ है, अल्प सामर्थ्य वाला है, अतः उससे कुछ न कुछ गलती होना स्वाभाविक है, चाहे वह स्वार्थयुक्त होकर, जानबूझ कर, योजना पूर्वक गलती करे अथवा अनजाने में गलती हो जाये । कोई भी व्यक्ति सम्पूर्ण नहीं होता, कुछ कमियाँ तो अवश्य ही रहती हैं ।


शास्त्रकारों ने हमारे लिए यह निर्देश दिया है कि – “प्रत्यहं प्रत्यवेक्षेत नरश्चरितमात्मन:। किन्नु मे पशुभिस्तुल्यं किन्नु सत्पुरुषैरिति”। अर्थात् प्रत्येक मनुष्य का यह आवश्यक कर्त्तव्य है कि वह प्रतिदिन अपना निरीक्षण करते हुए यह जानने का प्रयत्न करे कि मेरा जीवन किस प्रकार व्यतीत हो रहा है, मेरा व्यवहार व चरित्र किस प्रकार हो रहा है ? क्या मेरे सभी क्रिया-कलाप विद्वानों, ऋषि-मुनियों, महापुरुषों, सत्पुरुषों के जैसे हो रहे हैं या फिर मैं केवल पशुओं के समान खाने-पीने-सोने में ही अपने जीवन को नष्ट करते जा रहा हूँ ?

आध्यात्मिक व्यक्ति के लिए यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण व आवश्यक अंग है । सबसे पहले वह योगाभ्यासी यह निर्धारण करता है कि मेरा लक्ष्य क्या है ? उस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए उसके अनुकूल कौन से कर्तव्य कर्म हैं और कौन से अकर्तव्य हैं, यह ज्ञान करता है ? फिर वह स्वयं को उस कसौटी पर रखकर परीक्षण करता है कि, अपने लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए करने योग्य कर्मों को मैं कर रहा हूँ या नहीं और जो करने योग्य नहीं हैं उन कर्मों का त्याग कर रहा हूँ या नहीं ? क्या मैं इससे विपरीत कर्तव्य कर्मों का परित्याग और अकर्तव्य कर्मों के अनुष्ठान में तो लगा हुआ नहीं हूँ ? इस प्रकार जो व्यक्ति विचार करता है, वह अपने लक्ष्य के प्रति तीव्रता से आगे बढ़ता जाता है और अन्य व्यर्थ बातों में समय खर्च कभी नहीं करता । जितना-जितना अपने दोषों को व्यक्ति देखते जाता है और निकालते जाता है उतनी-उतनी मात्रा में नये-नये दोष दृष्टिगोचर होते जायेंगे और जितने दोष, न्यूनतायें, कमियाँ दूर होते जायेंगे, व्यक्ति उतना ही उन्नत होता जायेगा ।

जैसे कि हम सुनते हैं – जंगल में जब शेर चलता है तो थोड़ी-थोड़ी दूर चलके बार-बार पीछे कि ओर मुड-मुड कर देखता रहता है कि कहीं कुछ छूट तो नहीं गया ? इसको कहते हैं सिंहावलोकन । इससे उस शेर को दो लाभ होते हैं, एक तो उसका कोई शत्रु शिकारी हो तो उससे अपनी रक्षा करने में समर्थ हो जाता है और दूसरा उसका कोई शिकार पीछे रह गया हो तो उसको दबोच लेता है ।
जब एक विद्यार्थी अध्ययन करता है तो उसको भी इस सिंहावलोकन रूपी प्रक्रिया का अनुसरण करना पड़ता है, मुख्यतः जब किसी ग्रन्थ विशेष को कंठस्थ करते हैं तो बार-बार आवृत्ति करनी पड़ती है । प्रतिदिन नये पाठ को कंठस्थ करने के साथ-साथ पीछे विगत दिनों में जो कंठस्थ किया था उसका भी पुनरावलोकन करना होता है । इस प्रकार उसकी विद्या अन्तः पटल पर स्थिर हो जाती है, नहीं तो जितना पढ़ा-सुना हुआ होगा वह सब थोड़े समय के बाद भूल जायेगा ।
ईश्वर ही एक मात्र पूर्ण स्वरुप है अतः उसके द्वारा निर्मित वस्तुओं में कोई सुधार, कोई संशोधन, परिवर्तन, परिवर्धन आदि करना नहीं पड़ता । मनुष्य अल्पज्ञ होने के कारण मनुष्यों के द्वारा निर्मित वस्तुओं में अथवा लिखित ग्रन्थों में सदा कुछ न कुछ संशोधन वा परिवर्तन आदि की अपेक्षा रहती ही है । ऐसी स्थिति में उस कार्य को पुनः निरीक्षण करने की आवश्यकता हो जाती है ।
एक व्यवसाय करने वाला दुकानदार भी यही कार्य करता है, जैसे कि वर्ष भर में उसने कितने रुपये का निवेश किया और कितने रुपये की उसको आय हुई । उसको हानि हो रही है या लाभ हो रहा है ? यदि हानि हो रही है तो किस कारण से हानि हुई, इन सबका ज्ञान करना पड़ता है अन्यथा कभी भी व्यापार में व्यक्ति सफल नहीं हो सकता ।
एक मूर्तिकार भी जब मूर्ति बना लेता है तो उसको बार-बार निरीक्षण करना पड़ता है । उदाहरण स्वरुप एक प्रसंग सुनने में आता है कि एक बार एक मूर्तिकार ने अत्यंत सुन्दर मूर्ति बनायी। काम पूरा होने पर उसने मूर्ति की ओर खूब सूक्ष्मता से निहारा और फिर रोने लगा। शिल्पकला को जानने वाले लोगों ने पूछाः "इतनी बढ़िया मूर्ति बनायी है फिर उसे देखकर क्यों रोते हो?" उसने कहा कि "मैंने मूर्ति को अच्छी प्रकार से बनायी, फिर ढूँढा कि इसमें क्या कमी रह गई है, लेकिन मुझे इसमें कोई कमी नहीं दिख रही है। इसका मतलब यह हुआ कि मेरा ज्ञान यहीं रुक गया, मेरी और उन्नति नहीं हो सकती अतः रो रहा हूँ” । इससे ज्ञात होता है कि पुनरावलोकन से कमी निकलती है और उससे फिर व्यक्ति की उन्नति होती जाती है ।

ऐसे ही एक चित्रकार जब कोई चित्र बनाता है तो अन्तिम रूप देने से पहले ही वह निरीक्षण करता है कि कोई कमी तो नहीं रह गयी ? तब जाकर वह एक सफल चित्रकार बनता है ।
एक खिलाड़ी  को भी आत्म-निरीक्षण की प्रक्रिया को आजमाना पड़ता है । जब-जब वह दुसरे प्रतिभागी खिलाड़ियों से पराजित होता है तब-तब उसे यह निरीक्षण करना चाहिए कि किन कमियों के कारण वह पराजित हुआ । यदि वह अपनी न्यूनताओं को जान कर दूर कर लेता है तो किसी भी प्रतियोगिता में वह आगे बढ़ जाता है ।
इस प्रकार एक वैज्ञानिक भी अपनी सूक्ष्म गवेषणाओं में अनेक बार विफल होता है तो उसको भी अपने विभिन्न प्रकार के प्रयोगों में निरीक्षण करना होता है कि कहाँ पर क्या कमी रह गयी ? जिससे सफलता नहीं मिल सकी । इन कमियों को जब दूर कर देता है तब वह भी सफलता को हस्तगत कर लेता है ।
प्रायः व्यवहार में ऐसा देखा जाता है कि हम स्वयं कभी भी अपने दोषों को देखना ही नहीं चाहते और यदि कोई हमें हमारे दोषों से अवगत करा देता है तो उसको हम बहुत बुरा-भला कहते हैं, उसके प्रति क्रोध करते हैं, उसके साथ झगड़ लेते हैं जिससे वह आगे कभी भी हमारे दोषों को बताता ही नहीं और हमारे अन्दर वे सब दोष ज्यों के त्यों बने रहते हैं, हमारी उन्नति रुक जाती है । यदि हमें वास्तविक उन्नति करनी है तो अपने साथी-मित्रों से आश्वासन पूर्वक निवेदन करना चाहिए कि कृपया मेरे व्यवहार में होने वाले दोषों को मुझे बताया करिए, जिससे मेरी उन्नति होगी और आपकी बड़ी कृपा होगी । जब भी कोई हमें हमारा दोष बताये तो उसे अवश्य धन्यवाद ज्ञापन करना चाहिए । क्योंकि वह हमारी ही उन्नति के लिए, सीखने-सुधरने के लिए, विकास करने के लिए द्वार खोल रहा है, सहयोगी बन रहा है ।
हम यह कहना नहीं चाहते कि केवल अपने दोषों को ही देखें या निरीक्षण करें, किन्तु हमें अपने गुणों का भी अवश्य निरीक्षण करना चाहिए । हमारे अन्दर जो सद्गुण विद्यमान हैं, जिनके कारण हमारा व्यक्तिगत, हमारे मित्र-साथियों का, हमारे परिवार के सदस्यों का अथवा समाज का लाभ हो रहा हो ऐसे गुणों को भी सतत विकसित करते रहना चाहिए । जैसे खेतों में फसल उगाते हैं, तो वहाँ फसल के अतिरिक्त विजातीय तत्वों को भी निकालना पड़ता है, जो कि फसल के बढ़ने में बाधक बनते रहते हैं तथा कुछ पौष्टिक तत्वों को भी समाविष्ट करना होता है जिससे वे पुष्ट होकर शीघ्रता से लह-लहाने लगते हैं । ठीक इसी प्रकार हमारे अन्दर स्थित अनेक प्रकार के दुर्गुण रूपी बाधक तत्वों को निकाल कर सद्गुण रूपी पौष्टिक तत्वों को अपने जीवन में धारण करना चाहिए ।

अधिकतर हमारे व्यवहार में अपने दोषों को देखने, जानने व दूर करने के स्थान पर हम अन्यों की कमियाँ निकालने में लगे रहते हैं, दूसरे की योग्यता न्यून सिद्ध करने में ही समय व बुद्धि ख़राब करते रहते हैं । यदि हम दूसरे के लिए लगाये गए समय और बुद्धि का 10 प्रतिशत भी अपने दोषों को निरीक्षण करने में लगा लेते तो निश्चित है, हमें उन्नति-प्रगति करने से वा अपने लक्ष्य प्राप्ति से कोई रोक नहीं सकता ।  
प्रायः कई बार हम कुछ दोषों को अपना स्वरुप अथवा अपना स्वभाव मान लेते हैं, जैसे कि, मैं तो क्रोधी स्वभाव का हूँ, मैं जितना भी प्रयत्न करूँ लेकिन यह क्रोध तो दूर होता ही नहीं, नष्ट होता ही नहीं, मेरे सामर्थ्य से बाहर है । ऐसा मानकर हम पुरुषार्थ करना छोड़ देते हैं । तो सदा यह स्मरण रखें कि कोई भी दोष अपना स्वभाव नहीं होता, जीवात्मा तो स्वाभाव से शुद्ध स्वरुप है परन्तु ये सब दोष निमित्त से आये होते हैं और प्रयत्न से नष्ट भी होते हैं ।
एक योगाभ्यासी यह भी सतत निरीक्षण करता रहता है कि क्या ऋषियों, मुनियों के द्वारा बताये सिद्धान्त और उपदेश के अनुरूप मेरा व्यवहार है वा नहीं ? जैसे कि ऋषियों ने कहा है – “सम्मानात् ब्राह्मणो नित्यम् उद्विजेत विषादिव, अमृतस्येव चाकांक्षेत् अवमानस्य सर्वदा” अर्थात् एक योगाभ्यासी, ब्राह्मण, विद्वान् व्यक्ति सम्मान को विष के तुल्य माने और अपमान को अमृत के समान जाने वा इच्छा करे । इस ऋषिवाक्य के अनुसार मैं सम्मान को विष के तुल्य और अपमान को अमृत के तुल्य स्वीकार करता हूँ या नहीं ?
यह सबसे उत्तम स्थिति है कि हम अपनी कमियाँ स्वयं ढूँढ लें, उनको प्रसन्नता पूर्वक स्वीकार कर लें, तथा पश्चाताप करते हुए उन दोषों को दूर करने के लिए पुरुषार्थ करें। यदि इतना सामर्थ्य, इतनी बुद्धि व योग्यता अभी बनी नहीं है, तो किसी योग्य विद्वान् के सान्निध्य में रहते हुए उनसे निवेदन करें कि कृपया मेरे अन्दर कोई दोष दृष्टिगोचर होवे तो सूचित करें । उनके बताने से उन दोषों को सहर्ष स्वीकार करें और तत्काल दूर करने हेतु प्रयत्न करें । यही उन्नति का उपाय व मार्ग है । जब योगाभ्यास करते करते अपनी योग्यता बहुत अधिक बढ़ जाती है, चित्त का स्तर बढ़ जाता है, आत्मा-परमात्मा का दर्शन हो जाता है तब ईश्वर दर्शन पूर्वक ईश्वर के सान्निध्य में रहते हुए उन दोषों को, उन कुसंस्कारों को, उन अविद्या आदि क्लेशों को बार-बार समाधि लगा कर नष्ट करना होता है । ईश्वर की कृपा के बिना तो हम अपने सूक्ष्म दोषों को जान भी नहीं सकते उनको नष्ट करने की बात तो दूर रही, अतः ईश्वर का सहयोग अत्यन्त आवश्यक होता है ।
जैसे एक छोटे से बच्चे को जब कुछ बड़े, उससे बलवान और दुष्ट लड़के मारने लगते हैं तो वह बच्चा अपनी माता जी की गोद में चला जाता है और उनकी शिकायत करता है कि “ये दुष्ट लड़के मुझे मारते रहते हैं” । उस समय उसकी माता उसको अपनी गोद में लेकर कहती है कि - “अब डरना नहीं, मैं तुम्हारे साथ हूँ, अब तुम इनको मारो” इससे वह बच्चा स्वयं को बलशाली अनुभव करता है तथा उनको मारता भी है लेकिन माँ की गोद में रहते हुए । ठीक ऐसे ही योगाभ्यासी ईश्वर के सान्निध्य में रहता हुआ ईश्वर से निवेदन करता, प्रार्थना करता है और उन दोषों को, क्लेशों को ईश्वरीय ज्ञान, बल, सामर्थ्य से नष्ट करता जाता है । जब वह पूर्णतया दोषों से रहित हो जाता है तब अपने शुद्ध स्वरुप में स्थित हो जाता है । यह प्रत्येक मनुष्य के लिए करने योग्य एक मात्र अन्तिम कार्य है । इसी को करके ही व्यक्ति नितान्त सुख का अधिकारी बन जाता है और यह सबकुछ उसी आत्म-निरीक्षण रूपी साधन के माध्यम से ही संभव है ।   
  




सत्य और अहिंसा का स्वरूप

आजकल धर्म और राजनीति में सत्य और अहिंसा की बहुत चर्चा होती है। हमें लगता है कि इनके वास्तविक स्वरूप इनके प्रयोग के विषय में लोगों में अनेक भ्रान्तियां है। इसलिए हम आज इस विषय में कुछ विचार कर रहे हैं। सत्य और अहिंसा का वेद से लेकर सभी शास्त्रों में वर्णन गान किया गया है। ईश्वर का पहला प्रमुख नाम ही सच्चिदानन्दस्वरूप है। सच्चिदानन्द तीन शब्दों का समुदाय है जिसमें सत्य, चित्त और आनन्द इन तीन गुणों का समावेश है। सत्य किसी पदार्थ की सत्ता को कहते हैं। ईश्वर है और उसकी सत्ता भी है, यह यथार्थ है। इसलिये ईश्वर को सत्य कहा गया है। व्यवहार में भी सत्य असत्य शब्दों का प्रयोग किया जाता है। जो पदार्थ जैसा है, उसको उसके यथार्थ स्वरूप के अनुरूप जानना मानना सत्य कहलाता है। यदि किसी को उसका सत्य स्वरूप विदित नहीं है, और वह फिर भी उस अवास्तविक स्वरूप को जिसे वह फली प्रकार से जानता नहीं है, मानता है तो वह उसका असत्य स्वरूप कह सकते हैं। व्यवहार में जब सत्य असत्य का प्रयोग होता है तो कहा जाता है कि मनुष्य को सत्य बोलना चाहिये, असत्य नहीं बोलना चाहिये। सत्य वह है जो हमारे ज्ञान में है अर्थात् जैसा हम अर्थात् हमारी आत्मा जानती हैं। कई बार हम स्वार्थ प्रलोभनों के कारण सत्य को छुपाते हैं और उससे उलटा उससे भिन्न बात कहते हैं तो यह असत्य हो जाता है। ऐसा करना असत्य या बुरा होता है। ऐसा किसी को भी नहीं करना चाहिये। प्राचीन काल में जब बच्चा गुरुकुल में अध्ययन के लिए प्रवेश करता था तो उसे शिक्षा देते हुए आचार्य बालकों का प्रतिनिधि पिता कहा जाता था कि सदा सत्य बोलना असत्य मत बोलना। सत्य बोलना धर्म है और असत्य बोलना अधर्म या पाप है। हमारे शास्त्रों का एक प्रसिद्ध वाक्य वा सूक्ति है सत्यमेव जयते नानृतं अर्थात् सदा सत्य की ही जीत होती है असत्य की नहीं। इस कारण सत्य बोलना मनुष्य के लिए आवश्यक है और उसका व्यवहार भी सत्य पर ही आधारित होना चाहिये।   

                सत्य का व्यवहार करने के लिए यह आवश्यक है कि हम जिसके प्रति सत्य का व्यवहार कर रहे हैं वह भी निर्दोष हो और हमारे प्रति सत्य का व्यवहार करे। यदि दूसरे व्यक्ति का उद्देश्य द्वेषपूर्ण हो तो फिर ऐसे व्यक्ति के प्रति सत्य का व्यवहार करने से पूर्व उससे होने वाले हानि लाभों पर विचार कर लेना उचित होता है। यह तो निश्चित है कि जो व्यक्ति सच्चा सत्य पर दृण है उसके प्रति व्यक्तिगत व्यवहार करते हुए हमें सत्य का पालन वा व्यवहार ही करना चाहिये। यदि वह हमसे छल कर कुछ पूछ रहा है तो हमें यह ज्ञात होना चाहिये कि उसका उद्देश्य क्या है और वह हमारी जानकारी का सदुपयोग करेगा या दुरुपयोग। यदि हमारे सत्य बोलने से किसी की हानि होती है, प्राण जा सकते हैं अन्य प्रकार से दुःख पीड़ा हो सकती है तो हमें विचार करना चाहिये और ऐसा सत्य बोलना चाहिये जो प्रिय हो परन्तु अनिष्ट किसी प्रकार अपना दूसरों किसी का हो। ऐसा कहा जाता कि किसी निर्दोष के प्राण बचाने के लिए यदि मौन रहा जाये तो वह अच्छा होता है। उदाहरण भी यह हो सकता कि एक व्यक्ति के पीछे कुछ हत्यारे घूम रहे हैं। वह हमसे पूछे कि अमुक व्यक्ति किधर गया? क्या आपने देखा? ऐसी परिस्थिति में जानते हुए भी यही कहना उचित है कि हमने नहीं देखा। इससे उसकी प्राण रक्षा हो जाती है। शहीद भगत सिंह ने जब लाला लाजपतराय जी के हत्यारे साण्डर्स को गोली मारी तो वह डीएवी कालेज लाहौर के प्रांगण से होकर भागे थे। वहां इतिहासविद् पं. भगवददत्त जी, अमरस्वामी जी आदि उपस्थित थे। उन्होने उन्हें जाते हुए देखा था। कुछ ही क्षणों मे पुलिस वहां आई और इनसे पूछा तो इन्होंने उत्तर दिया कि हमने नहीं देखा। अतः सत्य का प्रयोग सोच समझ कर करना चाहिये। रामायण और महाभारत में सत्य असत्य के अनेक उदाहरण मिलते हैं। अहिंसा की रक्षा के लिए कई बार हिंसा आवश्यक होती है, उसके भी अनेक उदाहरण हैं।

ऐसा माना जाता है कि जो असत्य दूसरों के हित के लिए बोला जाता है, वह असत्य नहीं होता। सत्य बोलने से परिणाम भी शुभ ही होना चाहिये। दुष्टों के प्रति सत्य का व्यवहार करना उचित प्रतीत नहीं होता। जो लोग हमारे बन्धुओं धर्म के शत्रु हैं, उनके प्रति यदि हम सत्य का कोमल व्यवहार करते हैं तो इसके घातक परिणाम हो सकते हैं। इतिहास इसके उदाहरणों से भरा है। इसी कारण वेदों के ज्ञाता, ईश्वर के साक्षात्दर्शी ऋषि दयानन्द सरस्वती जी ने नियम बनाया है कि सबसे प्रीतिपूर्वक धर्मानुसार यथायोग्य वर्तना चाहिये। यहां धर्मानुसार और यथायोग्य शब्दों पर विचार करना चाहिये और उसके अनुरूप ही हमारा व्यवहार होना चाहिये। चोर के प्रति उसके अनुरूप यथायोग्य व्यवहार होना चाहिये। झूठे छली व्यक्ति समुदायों के प्रति भी धर्मानुसार यथायोग्य व्यवहार ही करना चाहिये। हर परिस्थिति में सबसे एक समान सत्य का व्यवहार करना उचित नहीं प्रतीत होता। यह हानिकारक घातक हो सकता है। देश समाज के हित के लिए यदि कुछ असत्य भी कहना पड़े तो करना चाहिये परन्तु अपने व्यक्तिगत हित स्वार्थ के लिए असत्य का व्यवहार उचित नहीं है। इसके लिए हमें श्री राम, श्री कृष्ण, महात्मा चाणक्य, ऋषि दयानन्द आदि महापुरूषों के जीवनों सहित नीति ग्रन्थों चाणक्य नीति, विदुर नीति, शुक्र नीति, भृतहरि शतक आदि का अध्ययन करना चाहिये और जानना चाहिये कि किस परिस्थिति में सत्य का किस प्रकार से प्रयोग या व्यवहार किया जाये। हर परिस्थिति में सत्य का समान रूप से प्रयोग स्वयं देश समाज के लिए अहितकर हो सकता है। देश में भी बहुत सी गुप्त सूचनायें होती हैं। अधिकारियों को शपथ दिलाई जाती है कि वह उसकी गोपनीयता बनायें रखेंगे अर्थात् सत्य भाषण नहीं करेंगे। उसका पालन करना दण्डनीय होता है। यहां वेदों के ज्ञान के आधार पर ऋषि दयानन्द द्वारा सत्य से संबंधित बनाये अन्य नियमों को भी प्रस्तुत कर देते हैं। पहला नियम है सब सत्य विद्या और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं, उन सब का आदि मूल परमेश्वर है। तीसरा नियम है वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। चौथा नियम है सत्य के ग्रहण करने और असत्य के छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिये। पांच नियम है सब काम धर्मानुसार अर्थात् सत्य और असत्य का विचार करके करने चाहिएं। हमारे देश के मत-मतान्तरों की स्थिति यह है कि वह वेद सब विद्याओं का पुस्तक है, इस मान्यता को तो स्वीकार करते हैं और खण्डन ही करते हैं। इसका कारण उनका स्वार्थ और अज्ञान नहीं तो क्या हो सकता है?

हिंसा अहिंसा पर भी विचार करते हैं। हिंसा की उत्पत्ति किन्हीं व्यक्ति प्राणियों में परस्पर वैर वा शत्रुता की भावनाओं के कारण होती है। हमें अपने मन में किसी के प्रति वैर भावना द्वेष नहीं रखना चाहिये। वैर भावना से की गई हिंसा पाप होती है। अतः अहिंसा की परिभाषा सभी के प्रति वैर भावना का त्याग करना होती है। ऐसी स्थिति में भी बहुत से लोग दूसरों के प्रति द्वेष शत्रुता रखते हैं। ऐसे लोगों के प्रति यथायोग्य व्यवहार ही उत्तम प्रतीत होता है। सज्जन मनुष्यों के प्रति सज्जनता का और दुष्टों के प्रति दुष्टता का व्यवहार करना ही उचित प्रतीत होता है। कहा भी जाता है कि दूसरों को अपना शोषण अपने ऊपर अन्याय नहीं करने देना चाहिये। जो दुर्बल, असहाय, वृद्ध, रोगी, निर्धन धार्मिक हैं उनके प्रति दया करूणा के भाव रखने चाहियें उनकी श्री राम श्री कृष्ण के समान रक्षा करनी चाहिये। सबल, अत्याचारी, अन्यायकारी, अभिमानी, दुष्ट अधार्मिक लोगों के प्रति सज्जनता का व्यवहार कोई मायने नहीं रखता। उनको नसीहत तभी मिलती है जब उनसे उन्हीं की भाषा तरीके से व्यवहार किया जाये जो वह दूसरों के प्रति प्रयोग करते हैं। हिंसक के प्रति हिंसा करना कहीं अधर्म नहीं बताया गया है। दुष्टों के प्रति दुष्टता हिंसकों के प्रति उन्हीं के अनुरूप हिंसा से उत्तर देना ही धर्म सम्मत व्यवहार है। यह सिद्धान्त पूर्णतः गलत है कि कोई आपके एक गाल पर थप्पड़ मारे तो दूसरा गाल आगे कर देना चाहिये। इससे तो हिंसा की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिलता है। हिंसा करने वाला अधिक दुष्ट हिंसक हो जाता है और उसकी हिंसा से सज्जन लोग दुःखी होते हैं। ऐसे लोगों को ऐसा कठोर सबक मिलना चाहिये जिससे वह हिंसा का व्यवहार करने की बात सोच भी सकें। शहद की मक्खियों से भी शिक्षा ली जा सकती है जहां वह अपने हमलावर को दबोच कर उसे मरणासन्न कर देती हैं। पहले तो हिंसा रोकने का कार्य सरकार को करना चाहिये और आपातकाल में मनुष्य स्वयं भी, जैसा व्यवहार उचित हो, विचार कर कर सकता है। सिद्धान्त यही है कि हमें जानते हुए किसी निर्दोष के प्रति हिंसा नहीं करनी है। टिट फार टैट या यथायोग्य व्यवहार ही सर्वत्र उचित होता है। अतः अहिंसा वा हिंसा की परिभाषा देश काल परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तित हो जाती है। हमें स्वरक्षा को भी महत्व देना चाहिये। अहिंसा का अर्थ यह नहीं की हम अकारण किसी की हिंसा का शिकार हों जायें। ऐसा भी हो कि हम किसी आततायी या आतंकवादी की हिंसा का शिकार हों जायें। शास्त्र में ऐसी अहिंसा का वर्णन नहीं है। अतीत में देश में अहिंसा की गलत धारणा बनने से भी अपूरणीय क्षति हुई है और इसके कारण हमें वर्षों तक गुलाम रहे हैं। अहिंसा के लिए नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के विचार व्यवहार तथा हमारे क्रान्तिकारियों की विचारधारा प्रशंसनीय है जिसने हमें आजादी दिलाई थी। हिंसा अहिंसा के लिए रामायण महाभारत का अध्ययन कर वहां से भी मार्गदर्शन लिया जा सकता है।

ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश में मनुष्य की परिभाषा दी है। वहां सत्य अहिंसा का प्रयोग कहां कैसे करना चाहिये, इस पर प्रकाश पड़ता है। वह लिखते हैं मनुष्य उसी को कहना कि जो मननशील होकर स्वात्मवत् अन्यों के सुख-दुःख और हानि लाभ को समझे। अन्यायकारी बलवान् से भी डरे और धर्मात्मा निर्बल से भी डरता रहे। इतना ही नहीं किन्तु अपने सर्व सामर्थ्य से धर्मात्माओं कि चाहे वे महा अनाथ, निर्बल और गुणरहित क्यों हों, उन की रक्षा, उन्नति, प्रियाचरण और अधर्मी चाहे चक्रवर्ती सनाथ, महाबलवान् और गुणवान् भी हो तथापि उसका नाश (हिंसा), अवनति और अप्रियाचरण सदा किया करें अर्थात् जहां तक हो सके वहां तक अन्यायकिरियों के बल की हानि और न्यायकारियों के बल की उन्नति सर्वथा किया करें। इस काम में चाहे उस को कितना ही दारुण दुःख प्राप्त हो, चाहे प्राण भी भले ही जावें, परन्तु इस मनुष्यपनरूप धर्म से पृथक कभी हों। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य