Thursday 11 January 2018

जन्म एवं मृत्यु विवेचना

लेख प्रस्तुति कर्ता :- आचार्य नवीन केवली   
समस्त प्राणियों के कल्याण के लिए परम पिता परमेश्वर ने इस सृष्टि की रचना की, यह शरीर भी बनाया और शरीर को उत्पन्न करने के साथ ही मृत्यु नामक एक वस्तु भी बनायी है तथा इस नियम के साथ बांध भी दिया कि जब-जब शरीर की उत्पत्ति होगी तब-तब मृत्यु भी सुनिश्चित होगी। लोग इस सृष्टि को कुछ मात्रा में समझते हैं, प्रयोग भी करते हैं, इसी प्रकार इस शरीर को भी कुछ मात्रा में जानते हैं और उसका उपयोग भी करते हैं परन्तु लोग इस मृत्यु के स्वरूप को सही रूप में समझते नहीं हैं और अपने लिए उसको हानिकारक मानते हुए घृणा करते हैं, उससे दूर रहना चाहते हैं, बचना चाहते हैं, उसको कोई भी प्राणी प्राप्त करना नहीं चाहता, यदि हठात् किसी की मृत्यु हो भी जाये तो सभी सगे-सम्बन्धी अत्यन्त दुखी हो जाते हैं और शोक सागर में डूबे रहते हैं ।

वास्तविक रूप में देखा जाये तो इस शरीर से जीव का संयोग मात्र होना ही जन्म कहलाता है और शरीर से वियोग होने का नाम ही तो मृत्यु है, इसके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। जिस समय हमारा शरीर के साथ संयोग होकर जन्म होता है उसी समय मृत्यु का भी जन्म होता है और वह जीवन भर हमारे साथ चलती रहती है । जब भी अवसर देखती है तो हमें अपने गोद में ले लेती है, यह एक व्यवस्था मात्र है । कुछ लोगों का मानना यह है कि मृत्यु सबसे बड़ा दुःख है, मृत्यु सबसे भयंकर व डरावनी होती है परन्तु यह भी सत्य है कि दुःख तो जिन्दगी देती है, मौत तो दुःख से छुटकारा दिलाती है। यह तो सत्य ही है कि जब हमारी मृत्यु होती है तब संसार के सभी वस्तुओं से, सभी प्रकार के सुख व सुख-साधनों से और समस्त सगे-सम्बन्धियों से हमारा वियोग हो जाता है परन्तु उन सब के वियोग होने मात्र से ही दुखी होना उचित नहीं है। हमारी मिथ्या धारणा के कारण ही हम मृत्यु को स्वीकार नहीं करते और मृत्यु से भयभीत होते हैं, उससे बचना चाहते हैं। यदि हमें वास्तविक ज्ञान हो जाये अथवा उचित शिक्षा मिल जाये तो हम इस मृत्यु के दुःख से बच सकते हैं । हमें अपने  व्यवहार में, सोच में कुछ बदलाव लाने पड़ेंगे तभी हम इन अवश्यम्भावी परिस्थितियों में खुद को सामान्य रखते हुए दु:खी होने से स्वयं को बचा सकते हैं ।

इसको हम इस प्रकार समझ सकते हैं जैसे कि - एक बालक का वस्त्र पुराना हो जाता है अथवा फट जाता है तो उस बालक की माँ उस वस्त्र को बदल देती है और उसे नया वस्त्र धारण करवा देती है। वैसे ही हमारी जगत-माता परमेश्वर भी जब हमारे शरीर रूपी वस्त्र को देखती है कि यह तो जीर्ण-शीर्ण हो गया है, किसी दुर्घटना के कारण विदीर्ण हो गया है, हमारे रहने के लिए अथवा धारण करने हेतु उपयुक्त नहीं है तो उसी समय उसको बदल कर नए वस्त्र के रूप में एक नया शरीर धारण करा देती है। ऐसी स्थिति में कोई मन्द-बुद्धि बालक ही होगा जो कि अपनी माता जी के द्वारा फटे-पुराने वस्त्र के बदल दिए जाने पर दुखी होगा, रोयेगा, चिल्लायेगा ।

हम स्वयं यह निरीक्षण करके देख सकते हैं कि जब भी हमारा कोई वस्त्र फट जाये या पुराना हो जाये तो उसको बदलने में संकोच नहीं करते, भय-भीत नहीं होते अथवा दुखी नहीं होते बल्कि हम स्वयं उसको निकाल कर उसके स्थान पर कोई सुन्दर व नया वस्त्र धारण करना पसन्द करते हैं ।जब इस वस्त्र के साथ हमारा व्यवहार इस प्रकार का होता है तो फिर हम शरीर के साथ उससे भिन्न प्रकार का व्यवहार क्यों ? जैसे हम एक अन्तर्वस्त्र के ऊपर और भी एक-दो वस्त्र पहनते हैं, ठीक वैसा ही यह शरीर रूपी वस्त्र है जिसको कि जीवात्मा धारण करता है। यह प्रकृति का नियम है कि प्रत्येक उत्पन्न हुए वस्तु की कुछ समय सीमा भी होती है, भेद मात्र इतना है कि शरीर को ढकने हेतु जो वस्त्र हम धारण करते हैं उसकी समय-सीमा कुछ दो,तीन,चार वर्षों की होती है और जीवात्मा जिस शरीर रूपी वस्त्र को धारण किया है वह दस,बीस, पचास,सौ तक चलती है परन्तु अंत में विनाश तो होना ही है। दोनों के व्यवहार में यदि हम समान बुद्धि बनाकर रखें तो दुःख को दूर किया जा सकता है। और एक मिथ्या ज्ञान के कारण हम दुखी होते हैं जैसे कि “शरीर के नष्ट होने पर मैं भी नष्ट हो जाऊँगा, मेरा भी अस्तित्व समाप्त हो जायेगा” जो कि हमें स्वीकार्य नहीं है । आत्मा को हम यदि नित्य मानें तो दुःख से प्रभावित नहीं होंगे ।  

वास्तव में कोई भी बच्चा व्यवहारों को समाज में प्रचलित रीति-रिवाज, लोगों का व्यवहार, परम्पराओं को देख कर ही सीखता है। समाज में वह देखता कि किसी के वियोग अथवा मृत्यु होने पर लोग दुखी होते हैं व रोते हैं, शोक मनाते हैं इसीलिए इन व्यवहारों को देखते हुए वह भी शोकाकुल होता है। यदि किसी बालक को बाल्यकाल से ही इस शरीर को वस्त्र के समान मानकर ही व्यवहार करना सिखाया जाये तो इन परिस्थितिओं में वह कभी भी दुखी नहीं होगा ।
ठीक इसी प्रकार जब हम किसी गन्तव्य स्थल पर जाते हैं तो उसके लिए किसी यान-वाहन आदि साधन का प्रयोग करते हैं और लक्ष्य प्राप्ति हो जाने पर उस साधन का परित्याग भी कर देते हैं, किसी-किसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए तो हमें अनेकों साधन बदलने पड़ते हैं और अगले साधनों के लिए पिछले साधनों को छोड़ना ही पड़ता है, ठीक ऐसा ही हम सब का लक्ष्य एक ही दुःख निवृत्ति और सुख प्राप्ति है, भिन्न शब्द में कहें तो मोक्ष प्राप्ति ही है और उस लक्ष्य की प्राप्ति का साधन यह शरीर है। उस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए ऐसे अनेक शरीर रूपी साधन बदलने पड़ते हैं। प्रायः किसी यात्रा में जब हम किसी साधन को छोड़ कर दूसरे साधन को पकड़ते हैं तो हमें कोई दुःख भी नहीं होता परन्तु जब हम मोक्ष रूपी लक्ष्य के लिए शरीर बदलते हैं तो दुःख होता है। ऐसा क्यों ?

वास्तव में यह हमारी मिथ्या मान्यता के कारण ही होता है। हम ऐसा मानते हैं कि हमारा यह शरीर ज्यों का त्यों बना रहे परन्तु ऐसा होता नहीं है और यह वास्तविकता भी नहीं है क्योंकि कोई भी उत्पन्न हुआ पदार्थ कभी नित्य हो ही नहीं सकता। यह शरीर भी उत्पन्न होने से अनित्य ही है। यदि हम इसको अनित्य ही मानें और पहले से ही मन में बसा लें कि यह कभी भी नष्ट हो सकता है, कभी भी यह वस्त्र बदलना पड़ सकता है अथवा लक्ष्य प्राप्ति के लिए कभी भी साधन बदलना पड़ सकता है तो हमें दुःख नहीं होगा। जब सत्यता को, वास्तविकता को स्वीकार करने के लिए हम अभ्यस्त हो जायेंगे, पूर्व से ही बार-बार उस सम्भावित घटनाओं की आवृत्ति करते रहेंगे तो अंत में उस स्थिति को सहर्ष स्वीकार कर लेंगे। अपने शरीर को छोड़ना पड़े अथवा अपने सगे-सम्बन्धियों से अलग होना पड़े, यदि हम पूर्व से ही मानसिक सज्जा कर लेंगे और उस आने वाली स्थिति के स्वागत में तैयार खड़े होंगे तो कभी भी दुःख नहीं होगा। उस स्थिति का सामना करते हुए हम कहेंगे कि यह तो हमने पहले से सोच रखा था, यह तो हमें पहले से विदित था, यह कौन सी नयी बात है ? वास्तव में हमें दुःख का अनुभव तब होता है जब हमारी मान्यता के विपरीत कोई घटना घट जाती है। हमारी मान्यता रहती है कि हमारे सम्बन्धी लोग हमसे कभी भी अलग नहीं होंगे और जब इसके विपरीत स्थिति हमारे सामने आ जाती है हमारे परिवार के किसी सदस्य की मृत्यु हो जाती है तो हम कहते हैं कि यह क्या हो गया ? मैंने तो कभी ऐसा सोचा भी नहीं था। यही तो हमारी कमी है कि हमने पहले से क्यों नहीं सोचा जो कि अवश्यम्भावी था। इसीलिए हमें उचित है कि पहले से ही इस विषय में सोच-विचार कर तैयार रहें जिससे कि दुःख न हो।

रात्रिर्गमिष्यति भविष्यति सुप्रभातम् ,भास्वानुदेष्यति हसिष्यति पंकजश्री ।
इत्थं विचिन्तयति कोषगते द्विरेफे, हा हन्त हन्त नलिनी गज उज्जहार ।
रात्रि समाप्त होगी, प्रातः काल होगा, सूर्य उदय होगा और कमल खिलेंगे और इस प्रकार मैं मुक्त हो जाऊँगा । कली के भीतर बंद भौंरा ऐसा विचार ही रहा था कि हा शोक ! इतने में एक हाथी आकर कमल को तोड़कर निगल गया । अतः जीवन का कोई विश्वास ही नहीं कि अभी श्वास ले रहे हैं परन्तु अगले क्षण का पता नहीं कि जीवित रहेंगे या नहीं ।  



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