Friday 30 March 2018

जीवात्मा की अल्पज्ञता के सिद्धान्त को प्रचारित व स्वयं स्वीकार करने वाले अपूर्व महापुरुष ऋषि दयानन्द


संसार में जो मनुष्य उत्पन्न होता है वह अल्पज्ञ अर्थात् अल्प, अधूरे सीमित ज्ञान वाला होता है। ज्ञान में सर्वज्ञ पूर्ण तो केवल ईश्वर ही होता है। अल्पज्ञता अविद्या के कारण मनुष्यों में लोकैषणा, वित्तैषणा तथा पुत्रैषणा पायी जाती है। संसार का शायद ही कोई मनुष्य इससे मुक्त रहा हो परन्तु ऋषि दयानन्द संसार में ऐसे महापुररुष हुए हैं जो इन तीनों एषणाओं से मुक्त दृष्टिगोचर होते हैं। इसका एक प्रमुख उदाहरण यह है कि उन्होंने स्वयं को अल्पज्ञ मानते हुए यह लिखा है कि यदि मेरे किसी लेख वा पुस्तक में कोई बात वेद विरुद्ध वा अज्ञानतापूर्ण पायी जाये तो विद्वान लोग उसकी परीक्षा करके जैसा वेदानुकूल हो वैसा स्वीकार कर लें। इसी सन्दर्भ में सारी दुनियां के महापुरूषों मुख्यतः मत वा धर्म प्रवतर्कों को देंखे तो किसी का ऐसा कोई लेख प्राप्त नहीं होता कि उस महापुरूष के अल्पज्ञ होने के कारण उसके लेख बातें असत्य अज्ञान की हो सकती हैंं जिन्हें उनके विद्वान अनुयायी उनकी मृत्यु के बाद विचार कर संशोधित कर सकते हैं। वह महापुरूष तो आज संसार में नहीं रहे, 500 से 4000 वर्ष पूर्व के वर्षों में हुए हैं, परन्तु उनके अनुयायियों का व्यवहार ऐसा है कि वह अपने प्रवतर्कों की बातों को एक सर्वज्ञ ईश्वर द्वारा कही गई मानते हैं। इस मिथ्याज्ञान से बढ़कर बचपना अविद्या नहीं हो सकती। यदि वैज्ञानिकों पर दृष्टि डालें तो शायद उनमें ऐसा कोई नहीं मिलेगा जिसने यह दावा किया हो कि उसकी बात अकाट्य अपरिवर्तनीय हैं। उसकी बात अन्तिम सत्य है और उसे बदला नहीं जा सकता।  विज्ञान में जहां यह गुण है कि वहीं यथार्थ धर्म में भी यह गुण ही होता है। कारण यह है कि मत प्रवर्तकों की अविद्या अल्पज्ञता तथा बाद में समय के साथ उनमें अनेक अज्ञान अन्धविश्वास की बातें सम्मिलित हो जाती हैं। मत-प्रवर्तकों की अविद्या के कारण आज संसार में असंख्य वा अगणित मत-मतान्तर चल रहे हैं जिससे संसार के लोगों को लाभ कम हानि अधिक हो रही है। इन मतों की अविद्या के कारण ही मनुष्य अपने जीवन का उद्देश्य लक्ष्य भूले हुए हैं जिसमें उन मनुष्यों की ही केवल गलती है अपितु उनके मत के आचार्यों की दोष भी कम नहीं है।    

                मत मतान्तरों की अविद्या का कारण यह है कि इन्हें सृष्टि के किसी कालखण्ड में किन्हीं लोगों ने चलाया है। हम सब जानते हैं कि मनुष्य पूर्ण विद्वान कदापि नहीं हो सकता है। इसका मुख्य कारण जीवात्मा का एक एकदेशी, ससीम, अल्पज्ञ, जन्म-मरण धर्मा, जन्म जन्मान्तरों के अच्छे बुरे संस्कारों का होना है। स्वामी दयानन्द जी ज्ञानी वेदों के ज्ञाता ऋषि थे। वह सत्यासत्य को जानते थे तथा अविद्या से मुक्त थे। वह सब सत्य विद्याओं के ग्रन्थ वेदों के अपूर्व अद्वितीय विद्वान थे। उनमें किसी प्रकार का कोई निजी स्वार्थ तीनों एषणायें नहीं थीं। होती तो फिर वह अपने आप को अवतार ईश्वर का पुत्र घोषित करते करवाते। वह कहते कि वह जो कहते हैं उनको वह ज्ञान सर्वव्यापक परमात्मा से मिलता है। जो व्यक्ति उन पर विश्वास नहीं करेगा वह नरक की अग्नि में जलेगा। उनकी सिफारिश के बिना ईश्वर उनके अन्य किसी मत के अनुयायी को भी स्वर्ग या मोक्ष नहीं दे सकता क्योंकि वह ईश्वर के प्रमुख पुत्र उसके ही प्रमुख अंग हैं। स्वामी दयानन्द जी जानते थे कि यह सब अविद्या मूर्खों की बातें हैं और ऐसा करने से वह ईश्वर के सच्चे उपासक कृपापात्र होकर ईश्वर के दण्ड के अधिकारी बनते। अन्य भी इसी प्रकार के हैं। इसी कारण ऋषि दयानन्द ने अपने जीवन भर अच्छे पवित्र कर्मों को किया। देश में सुधार के कार्य किये जिससे मनुष्य सुखी कल्याण को प्राप्त हों। उनके जीवन में ऐसे भी प्रलोभन आये जब उनको अवतार घोषित करने या उदयपुर रियासत के मन्दिर का मठाधीश बनाने का प्रस्ताव किया गया। उनका यही मानना था कि मैं सत्य से परिचित हूं और उसके विरुद्ध आचरण नहीं कर सकता और हि किसी को करना ही चाहिये।

                महर्षि दयानन्द ने योग का सफल साधक बनकर और वेदों सहित ऋषियों के ग्रन्थों का अध्ययन कर यह प्रत्यक्ष जाना था कि मनुष्य जन्म मरण धर्मा है जिसका आधार मनुष्य के मनुष्य योनि में किए गए कर्म होते हैं। मनुष्यों को अपने सभी शुभ अशुभ कर्मों को अनेक जन्म लेकर भोग करना होता है। शुभ कर्मों का फल ईश्वर सुख के रूप में देता है और अशुभ कर्मों का फल दुःख कष्ट के रूप में मिलता है। संसार में मनुष्य योनि में भी अनेक अवस्थायें होती हैं जिनमें रहकर मनुष्यों को अनेकानेक सुख दुःख भोगने पड़ते हैं। इसके अतिरिक्त हमारा जीवात्मा मनुष्य योनि सहित पशु, पक्षी, कीट, स्थावर वनस्पतियों की योनियों आदि में भी कर्म फल का भोग करने के लिए ईश्वर की व्यवस्था से आता जाता है। मनुष्य किसी भी अच्छी योनि निम्न योनि में हो, उसे वहां अनेकानेक दुःख भोगने पड़ते हैं। अतः उसे अशुभ, पाप कर्म वेद विरुद्ध कर्मों का त्याग कर देना चाहिये जिससे वह इस जन्म भावी जन्मों में दुःखों से बच सके। ऋषि दयानन्द ने दुःखों से बचने के लिए सभी उपायों का चिन्तन कर यथार्थ ज्ञान प्राप्त किया था। वह जानते थे कि मनुष्य योनि में मनुष्य को प्रातः सायं ईश्वर की वैदिक विधि वा ऋषि प्रणीत विधि से स्तुति, प्रार्थना उपासना करनी आवश्यक है। उन्होंने स्वयं वेदों पर आधारित ईश्वरोपासना की विलुप्त विधि का प्रकाश किया है। मनुष्यों को सद्कर्मों के साथ ईश्वरोपसना ही नहीं अपितु प्रतिदिन प्रातः सायं देवयज्ञ-अग्निहोत्र करना भी आवश्यक है जिससे वायु जल की शुद्धि होती है। वायु में से दुर्गन्ध विष का नाश होकर वह सुखकारी गुणों से युक्त होती है जिससे मनुष्य रोगरहित, स्वस्थ बलवान होते हैं। हमारे देवयज्ञ करने से आस पास दूर दूर तक के सहस्रों इससे भी अधिक लोगों को अनेकानेक लाभ होते हैं इससे हमें उसी मात्रा में पुण्य मिलता है और हम सुखी होते हैं। यज्ञ के अतिरिक्त मनुष्य को पितृयज्ञ, अतिथियज्ञ तथा बलिवैश्वदेवयज्ञ भी करने होते हैं। इनकी विधि इनसे होने वाले लाभ भी उन्होंने अपने सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों में प्रस्तुत किये हैं। स्वामी दयानन्द जी ने युक्तिपूर्वक सिद्ध किया है कि वेद ईश्वर प्रदत्त ज्ञान है जो सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर ने चार ऋषियों के हृदय वा बुद्धि में प्रेरणा के द्वारा प्रदान किया था।

                यदि सभी मतों सम्प्रदायों आदि पर दृष्टि डालें तो प्रायः सभी मतों के पूर्व नवीन आचार्य सभी तीनों एषणाओं से युक्त दृष्टिगोचर होते हैं इसी कारण उन्होंने अपने बारे में अनेक असत्य बातें प्रचलित की कराईं हैं। ऋषि दयानन्द ही तीन एषणाओं से मुक्त हैं और यह शायद अपवाद है। वह भली भांति जानते थे कि मनुष्य अल्पज्ञ है इसलिए वह कितना बड़ा ज्ञानी, योगी या ऋषि क्यों बन जाये, उसकी बोली गई लिखी गई बातों में दोष त्रुटि हो सकती है। इसी को उन्होंने स्वीकार कर उन्होंने अपने ग्रन्थों में संशोधन करने की बात लिखी है। वह यह भी जानते थे कि ईश्वर पूर्ण सक्षम है। उसके द्वारा धर्म प्रचार हेतु भेजा गया कोई उसका बेटा है सन्देशवाहक। सभी मनुष्य पशु-पक्षी आदि उसके बेटे हैं और सत्य वदे के प्रचारक ही उसके सन्देश वाहक हैं।  ऋषि दयानन्द पहले ऐसे व्यक्ति हैं जो यह घोषणा कर गये हैं कि वह अल्पज्ञ हैं और कहीं कोई बात उनसे ऐसी लिखी गई हो सकती है जो सत्य हो। इसलिये सभी धर्म प्रवर्तकों धर्माचार्यों में वही एक मात्र सत्य को जानने उसके ग्रहण किये हुए महापुरुष सिद्ध होते हैं। आज आवश्यकता है कि सभी मतों के सिद्धान्तों की समीक्षा कर विद्वानों को सब मतों की अविरोधी मान्यताओं का संकलन करना चाहिये और उनके सत्यासत्य पर विचार कर सत्य मान्यताओं को ही संसार के सभी लोगों को स्वीकार करना चाहिये तभी संसार में सुख शान्ति हो सकती है। यदि ऐसा नहीं होगा तो परस्पर लड़ाई झगड़े हिंसा आदि होते रहेंगे। लोग असुरक्षित भयग्रस्त रहेंगे। धर्मान्तरण का कुचक्र चलता रहेगा। अच्छे बुरे कामों से राजनीतिक सत्ता हथियाने के प्रयास मत-मतान्तर के लोग करते रहेंगे। सत्य को जानने उसे स्वीकार करने वाले तथा सभी एषणाओं पर विजय प्राप्त करने सहित मनुष्य की अल्पज्ञता के सिद्धान्त को प्रचारित करने वाले ऋषि दयानन्द जी की जय हो। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य