Thursday 15 March 2018

जागते रहो


यो जागारः तमृचः कामयन्ते यो जागार तमु सामानि यन्ति।
यो जागार तमयं सोम आह तवाहमस्मि सख्ये न्योकाः।। -). 54414ऋ सा. उ. 925
ऋषि -अवत्सारः काश्यपः।। देवता-विश्वेदेवाः।। छन्दः-विराट्त्रिष्टुप्।।
विनय-संसार में पूरिपूर्ण जाग्रत् तो एक ही हैऋ वह अग्नि=परमात्मा है। यह सर्वथा अनिद्र है, त्रिकाल में जाग्रत् है। उसमें तमोगुण का ;अज्ञान व आलस्य काद्ध स्पर्श तक नहीं हैं। अतएव सब )चाएंॅ, संसार की सब स्तुतियॉं, उसी को चाह रही हैं उसके प्रति हो रही हैं। सब सामों का, मनुष्यों के किये सब यशोगानों का, सब स्तुति-गीतियों का भाजन भी वही एक परम-जाग्रत् देव हो रहा है और देखो, यह समस्त भोग्य-संसार-भोग्य बना हुआ यह सोमरूप ब्रह्माण्ड-उसी जागरूक अग्निदेव के पैरों में पड़ा हुआ कह रहा है ‘‘मैं तेरा हूँ, तेरे ही आश्रय से मेरी सत्ता है, तेरी मित्रता में मेरा निवास हो रहा हैऋ तुझसे हटकर मुझे और कहीं ठौर नहीं है।’’

इसी प्रकार हम मनुष्य-जीव भी यदि अपनी शक्तिभर सदा जाग्रत् रहेंगे, सदा सावधान और कटिब( रहेंगे, तमोगुण को दूर हटाकर सदा चैतन्ययुक्त, अतन्द्र रहेंगे, आलस्य के कभी भी वशीभूत न होकर अपने कर्त्तव्य को तत्क्षण करने के लिए सदा तैयार, उद्यत रहेंगे, कभी प्रमाद न करते हुए-बिना भूलचूक के-अपने कर्त्तव्य को ठीक-ठीक करते जाने के अभ्यासी हो जाएँगे, तो हम भी उतने ही अंश में अग्नि’- रूप हो जाएँगे।
परन्तु वास्तविक भोक्ता होना आसान नहीं। संसार के विषयी पुरुष तो भोगों के भोक्ता होने के स्थान पर भोगों के भोग्य बने हुए हैं, परन्तु वही ऐश्वर्य, वही सुख, वही सुखभोग, जिसके पीछे यह सब संसार दौड़ता फिरता है, परन्तु लोगों को मिलता नहीं, वही ऐश्वर्य ;सोमद्ध-जाग्रत् पुरुष के सामने हाथ बाँधकर, सेवक होकर, शरण पाने के लिए आ खड़ा होता है। अग्नित्व को प्राप्त उस मनुष्य के लिए वास्तव में संसार के सब भोग्यपदार्थ उसकी मित्रता में, उसके हितसाधन के निमित्त, सदा नियत स्थान पर उपस्थित रहते हैंऋ उसे उनपर ऐसा प्रभुत्व प्राप्त हो जाता है, अतः हे मनुष्यो! जागो, जागो, सदा जाग्रत् रहो! तामसिकता त्यागो और निरालस्य-जीवन का अभ्यास करो! जागरूकों के लिए ही यह संसार हैऋ स्तुत्यता, लोकमान्यता, यश, भोक्तृत्व यह सब जागते रहनेवाले के ही लिए है।
शब्दार्थ-यः जागार=जो जागता है तम्=उसे )चः=)चाएँ, स्तुतियाँ कामयन्ते=चाहती हैं, यः जागार=जो जागता है तं उ=उसे ही सामानि=साम, स्तुतिगान यन्ति=प्राप्त होते हैं और यः जागार=जो जागता है तम्=उसे, उसके सामने आकर अयम्=यह सोमः=सोम, भोग्य-संसार आह=कहता है कि ‘‘तव अहं अस्मि=मैं तेरा हूँ, सख्ये न्योकाः= तेरी मित्रता में ही मेरा निवास है, तेरे सख्य के लिए मैं सदा नियत स्थान पर उपस्थित हूँ।’’

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