Thursday 15 March 2018

प्रदूषण निवारण के लिये ‘यज्ञ’ अनिवार्य है –


डॉ. कमल नारायण आर्य
संसार में जीवन सबसे अधिक मूल्यवान है चाहे वह प्राणी का हो या प्रकृति का। जिन्दगी का सम्बन्ध आरोग्यता से है, जिसके नष्ट होने पर रोग बढ़ते हैं। रोग बढ़ने से मृत्यु का भय बना रहता है। निरोगता दो तरह की होती है पहली व्यक्ति की और दूसरी निसर्ग की। चूंकि प्राणियों का जीवन प्रकृति पर आधारित होता है। बाह्य जगत् में जो कुछ भी है वह सब व्यक्ति के भीतर है। पिण्ड एवं ब्रह्माण्ड की एकता का प्रतिपादन शास्त्रकारों ने किया है। प्राचीन चिन्तन में कहा गया है कि ब्रह्माण्डगत अग्नि, वाणी बनकर पिण्ड के मुंह में स्थित है, वायु प्राण बनकर नासिका में, सूर्य चक्षु बनकर नेत्र में दिशाएं श्रोत्र बनकर कानों में, औषधि बनस्पति रोम रूप से त्वचा में, चन्द्रमा मन बनकर हृदय में तथा मृत्यु अपान बनकर नाभि में प्रविष्ट है। ब्रह्माण्ड का लघु मानचित्र है पिण्ड। जो कुछ ब्रह्माण्ड में है उसका अणु-अणु और तिल-तिल पिण्ड में है इसलिये प्राणि-जगत् के लिये प्रकृति की आरोग्यता आवश्यक है।


सार्वजनिक आरोग्यता के साधन हैं-सफाई, सड़क, बिजली-पानी, अस्पताल आदि। ठीक उसी प्रकार यज्ञभी महत्त्वपूर्ण है। जीवन रक्षा का स्रोत हाने के कारण यज्ञ का आरोग्य सम्बन्धी विषय अन्य साधनों से प्रथम और प्रधान है। पर्यावरणीय प्रदूषण के निवारण में हवन की अपनी विशिष्ट भूमिका है। यज्ञ केवल धार्मिक कर्मकाण्ड नहीं है अपितु वैज्ञानिकता से परिपूर्ण सार्वभौम कल्याण कारक कार्य है। हवन में वैज्ञानिक दृष्टि से पदार्थां के रासायनिक अभिक्रिया के अन्तर्गत दहन (Combustion) आसवन (Distillation) ऑक्सीकरण (उपचयन) (oxidation)] जल विच्छेदन (Hydralysis), प्रकाश संश्लेषण (Phatosynthesis) वाष्पीकरण (Evaporation), संघनन (घनीभवन) (Condensation), धूनीकरण (Fumigation) आदि के द्वारा दृव्य पदार्थों का प्रभाव असंख्य गुना बढ़ कर पर्यावरण एवं व्यक्तित्व में निखार ला देता है। होत्रकर्म (हवन) में दो प्रक्रिया दिखाई पड़ती है- 1. अन्न-अन्नाद (एसीमिलेशन और एलिमिलेशन) की 2. पोषण प्राप्त करने के बाद संबर्धन (सेल फ़िजन, सेलडिवीजन या ग्रोथद्ध की प्रक्रिया। इन सबके आधार पर कहा गया है कि यज्ञग्नि में होमा हुआ पदार्थ सूक्ष्म होकर शीघ्र वायुमण्डल में व्याप्त हो जाता है, व्याप्त होने से अन्तरिक्षस्थ ताप, विद्युत् एवं सूर्य किरणों से उसकी घर्षण क्रिया प्रारम्भ हो जाती है जिससे प्रदूषणों का निवारण होकर पर्यावरण की आरोग्यता सिद्ध होती है।

जड़ी-बूटियों का यजन अपने आप में महत्त्वपूर्ण है इससे स्थानीय पर्यावरण औषधियुक्त बनता है और उसका अनायास लाभ वहां के निवासियों को सुगंधि, स्फूर्ति तथा शान्ति के रूप में मिलता रहता है। हवन से आरोग्यवर्धक ऋणावेशित कणों का निर्माण होता है। नवीन वैज्ञानिक तथ्य का उद्घाटन किया गया है कि यज्ञ से ऋणायणों का उत्पादन और संकेन्द्रण निष्पन्न होता है। उल्लेखनीय है कि हम हवा के जिस विशाल समुद्र में रहते हैं, वह कई गैसों का मिश्रण है। इन गैसों का जब कभी अत्यधिक ऊर्जा से आमना-सामना होता है तो उसके अणु-परमाणु आयनीकृत हो जाते हैं और ऋण तथा धन प्रकृति के कणों को जन्म देते हैं। वैज्ञानिकों का कहना है कि घनायन स्वास्थ्य के लिये हानिकारक होते हैं जबकि ऋणायन लाभकारी। मूर्द्धन्य विज्ञानी अल्बर्ट क्रूजर एवं सहयोगियों के चूहों पर प्रयोग से पता चला कि ऋणायनों की अधिकता वाले परिवेश में रक्त-सेरोटिन स्तर में गिरावट आती है, जिससे तनाव, उन्माद, अनिद्रा आदि में लाभ होता है। यज्ञ से प्रकृति का प्राणायाम हो जाता है। जैसे योगाभ्यास में प्राणायाम द्वारा हम अपनी आन्तरिक स्थिति को सुधारते हैं उसी प्रकार जागतिक साधना में यज्ञ के द्वारा बाह्म-जगत का परिष्कार किया जाता है।

यज्ञाग्नि में रोगनाशक-सुगंधित-पुष्टिकारक-आयुवर्क-मिष्टगुण वाले औषधियों को जलाने से पौष्टिक तथा स्वास्थ्यवर्द्धक विकिरण निर्मित होता है, जो संहारक बर्मों के घातक विकिरण की अपेक्षा असंख्य गुना लाभकारी व उपयोगी होता है। यज्ञीय ऊर्जा से विनिर्मित विकिरण में ‘‘जीन्स’’ को भी शुद्ध-संस्कारवान और स्वस्थ बनाने की प्रबल क्षमता होती है। साथ ही मंत्रों की ध्वनियां उस वायुभूत शुद्धता को तरंगित कर आकाश में फैला देती है। ऋग्वेद के मंत्रदृष्टा ऋषि विश्वामित्र ने मंत्र पाठ किया है ‘‘मित्राय हव्यं घृतवज्जुहोत’’-मित्र ;प्राणप्रदवायुद्ध की प्राप्ति के लिये घृत आदि से युक्त हविष्यान्न की आहुति दें। यजुर्वेद में भी मंत्रगान है ‘‘सं ते वायुर्मातरिपूवा दघातु =यज्ञ से शुद्ध हुआ आकाशगामी पवन अच्छे प्रकार पुष्ट करें।

रामायण काल में दैहिक-दैविक-भौतिक दुःखों का अभाव था, उसका कारण था यज्ञों का विविध प्रयोग। अयोध्या में समृद्ध गुणी, वेद पारंगत एवं यज्ञकर्त्ता याजक निवास करते थे ;अयोध्या काण्ड सर्ग 71/श्लोक|| उस काल में राजा के द्वारा हवन करने-कराने की व्यवस्था की जाती थी।, ऐसा प्रमाण मिलता है-श्री राम ने चित्रकूट में भरत से पूछा था ‘‘कच्चिदग्निषु ते युक्तों विधिज्ञो मतिमानृजुः। हुतं च होष्यमाणं च काले वेदयते सदा’’ = तुमने अपने राज्य में अग्निहोत्र करने के लिये बु(मान सरलचित्त एवं विधियों के ज्ञाता को ही नियुक्त किया है, जो समय पर यज्ञ करते-कराते हैं। ;अयोध्याकाण्ड सर्ग 100 श्लोक 12द्ध कलियुग में वेदों के वैज्ञानिक भाष्यकार महर्षि दयानन्द सरस्वती ने प्रजाओं पर पिता की तरह पालन-रक्षण तथा शासन करने वाले के लिये कर्त्तव्य कर्म का निर्धारण करते हुए यजुर्वेद अध्याय 11 मंत्र 38 के भावार्थ में लिखा है ‘‘राजा को चाहिये कि दो प्रकार के वैद्य रखे। एक तो सुगंध आदि पदार्थों के होम से वायु वर्षा जल और औषधियों  को शुद्ध करें। दूसरे श्रेष्ठ विद्वान् वैद्य होकर निदान आदि द्वारा सब प्राणियों को रोग रहित रखें। इस कर्म के बिना कहीं भी सार्वजनिक सुख नहीं हो सकता।’’

सार्वजनिक सुख-समृ( के लिये पर्यावरण का परिशुद्ध होना अत्यधिक अनिवार्य है। प्राणी और पर्यावरण का परस्पर गहरा सम्बन्ध है।आधिदैविक दृष्टि से पर्यावरण भगवान है तो प्रदूषण अकाल मौत तथा प्रलय का मूल कारण है। इसलिये पर्यावरण को बचाये बिना समग्र स्वस्थता असंभव है। प्रदूषण निवारण के सर्वमान्य उपायों में हवन महत्त्वपूर्ण उपाय हो सकता है, अतः सरकार को अपने एजेण्डे में सार्वजनिक यज्ञ निरंतर कराते रहने की व्यवस्था करनी चाहिये। पर्यावरण, चिकित्सक के रूप में यज्ञाचार्यों की नियुक्तियां, यज्ञस्थलों का निर्धारण तथा हवन के पदार्थों की व्यवस्था सुनिश्चित करने का प्रावधान करना चाहिये। जगत काहित चाहने वालों को इसकी पहल करनी होगी तभी राजनैतिक ईच्छाशक्ति जगेगी, प्रदूषण से निजात पायेंगे, पर्यावरण और प्राणी बच पायेंगे।
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