Tuesday 30 May 2017

‘‘यज्ञ करने वाले स्वर्ग को पाते हैं

‘‘यज्ञ करने वाले स्वर्ग को पाते हैं ;इजानाः स्वर्गं यान्ति लोकम्, अथर्ववेद 18,4,2|| तो हकीकत में हम स्वर्ग में ही हैं हर कोई यज्ञ कर रहा है यही तो स्वर्ग है।’’-महाशय धर्मपाल जी प्रधान आर्य केन्द्रीय सभा

‘‘यदि इस तरह यज्ञ होंगे तो पूरा वायु मण्डल प्रदूषण रहित हो जाएगा क्योंकि देशी गाय के घी, समिधा व सामग्री का उचित मात्रा में मन्त्रों के साथ यज्ञ करने से पी.एम. 2.5, पी.एम.10, फगंस, मलेरिया, कैंसर आदि के वैक्टीरिया निम्न स्तर पर पहुंच जाते हैं तथा मानव जीवन सुरक्षित हो जाता है। महर्षि दयानन्द का घर-घर यज्ञ -हर घर यज्ञका सपना इस तरह पूरा हो सकता है जब हर मनुष्य वेद की ऋचाओं द्वारा स्वयं यज्ञ करेंगे।’’ -श्री धर्मपाल आर्य, प्रधान दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा।

‘‘यह मेरे लिए सपने जैसा दृश्य है जब आर्यजन अपने-अपने हवन कुण्ड पर बिना धुएं व अवस्था द्वारा यज्ञ सम्पन्न कर रहे हैं।’’ -श्री रवि देव गुप्ता, प्रधान दक्षिणी दिल्ली वेद प्रचार मण्डल।

‘‘हर आर्य समाज में ऐसे प्रशिक्षण हों तथा सभी व्यक्ति इसी तरह यज्ञ करेंगे तो वैदिक संस्कृति बहुत शीघ्र ही विश्व में अपना परचम लहराएगी।’’ -रवि चड्डा, प्रधान पश्चिमी दिल्ली वेद प्रचार मण्डल।
‘‘जब इस तरह से यज्ञ का वैज्ञानिक महत्त्व आज की युवा पीढ़ी को ज्ञात होगा तथा समय के सद्उपयोग से यज्ञ के इस रूप को देखेंगे तो उन्हें यज्ञ करने में कहीं कोई कठिनाई भी न होगी यही यज्ञ का सच्चा स्वरूप है।’’ -विनय आर्य, महामंत्री विनय आर्य

23  से 27 मई 2017 तक चले एक रूप पारिवारिक यज्ञ प्रशिक्षण शिविर में जोकि आर्य समाज प. पंजाबी बाग एवं एम एम आर्य पब्लिक स्कूल में सम्पन्न हुआ। उपरोक्त मन के उद्गार प्रकट किये गये। इस शिविर में 74 आर्य सदस्यों ने प्रशिक्षण प्राप्त किया। डॉ. ऋषि पाल शास्त्री जी ने वेद मन्त्रों के उच्चारणों के अभ्यास द्वारा शोधन किया तथा इस विधि को विस्तार से समझाया। श्री विनय आर्य ने यज्ञ की हर क्रिया-प्रक्रिया की विस्तार से चर्चा की तथा उचित-अनुचित समझाते हुए, बिना किसी विरोधाभास के इस शिविर को सफल बनाते हुए यज्ञ पर वैज्ञानिक शोधों का विश्लेषण (यज्ञ में प्रयोग होने वाले तत्वों का उचित प्रयोग से महत्त्व व प्रयास) पर हर सम्मिलित सदस्य को जानकारी दी जिसका प्रदर्शन श्री विरेन्द्र सरदाना कार्यकारिणी प्रधान पश्चिमी दिल्ली वेद प्रचार मण्डल, मंच पर बड़े सुन्दर ढंग से प्रस्तुत कर रहे थे। सामग्री में प्रयोग होने वाली औषधीय व तत्वों की प्रदर्शनी भी लगाई गई।


इस शिविर के महत्त्व को जानने, समझते व देखने हेतु आर्य जगत की विभिन्न गणमान्य सदस्य अपनी शुभकामना सहित पधारे जिनमें श्री प्रकाश आर्य,महामंत्री सार्वदेशिक प्रतिनिधि सभा, डॉ. ममता सक्सेना, श्रीमती ज्योति गुलाटी (एम.डी.एच. ग्रुप), आचार्य अंशुमन प्रधान आर्य प्रतिनिधि सभा, छत्तीसगढ़, श्री सत्यानन्द आर्य, श्री जितेन्द्र बनाती, श्री शत्रुधन लाल ;रांचीद्ध, डॉ. कमल नारायण, श्री अजित कुमार धवन, श्री अशोक महतानी, श्रीमती नंदिता नागपाल, आचार्य देव शर्मा, आचार्य आनन्द स्वरूप, श्री शिव कुमार मदान, श्री अजय तनेजा, श्री मेदन्ता, श्री सुबोध जिन्दल, श्री एस.पी. सिंह। इस शिविर के सफल बनाने में श्री नीरज आर्य (सहसंयोजक), श्री योगेन्द्र आर्य, श्री विजेन्द्र आर्य, श्री अरविन्द नागपाल, श्री सुरेन्द्र चौधरी, श्री सन्दीप आर्य का विशेष योगदान रहा। इस शिविर में भाग लेने वाले सभी आर्यजनों की जलपान व सुविधाओं की एस.एम. आर्य पब्लिक स्कूल की मैनेजमेंट व कार्यकर्ताओं का योगदान सराहनीय रहा उनको साधुवाद। शिविर में पधारे सभी आर्यजनों का धन्यवाद -सतीश चड्डा, शिविर संयोजक।   


Monday 29 May 2017

समाज का कल्याण करने वाली माता विदुषी हो

            वेद में माता को बहुत ही उंचा स्थान दिया गया है. माता को निर्माता कहा गया है.  जो न केवल अपनी ही संतान का अपितु अन्यों के भी निर्माण का बहुत ही सुन्दर कार्य करती है. इस कारण ही तो वेद में मही, ऋतावरी तथा अदिति आदि सरीखे नाम माता के लिए दिए गए हैं.  जिस प्रकार भूमि में डाला हुआ बीज भूमि की उदारता तथा सेवा के कारण न केवल अंकुर के रूप में फूटता है बल्कि यह भूमि के ही संस्कारों से संस्कारित हो कर निरंतर बढ़ता ही जाता है, फलता और फूलता ही जाता है. इस प्रकार ही माता न केवल बच्चे को जन्म ही देती है अपितु उसका पालन - पौषण अपने उतम संस्कारों से करती है, जिस के कारण उसके सुकर्मों का यश निरंतर विश्व में फैलता ही चला जाता है किन्तु यह सुकर्म वह तब ही कर सकता है, करने के योग्य बन सकता है, जब उस की माता भी सुशिक्षित है. यदि माता सुशिक्षित नहीं है, उसने वेद का सर्वांगीण ज्ञान नहीं पाया है तो वह अपनी संतान को सुशिक्षित करने में सक्षम नहीं हो सकती. श्रेष्ठ तथा विदुषी माता ही यह सब कर सकती है. इस सम्बन्ध में ऋग्वेद इस प्रकार प्रकाश डाल रहा है -
           अम्बितमे   नदीत्मे   देवितमे  सरस्वति.
           अप्रशस्ता इव स्मसि प्रशस्तिमम्ब नस्कृधि||
ऋग्वेद २.४१.१६||

माताओं में श्रेष्ठ माता

              ऋग्वेद का यह मन्त्र माता के सम्बन्ध में प्रकाश डालते हुए हमें उपदेश कर रहा है कि हे माताओं में श्रेष्ठ माता! , मन्त्र ने माता को माताओं में श्रेष्ठ के रूप में संबोधन किया है, एसा क्योंमाताएं तो सब माताएं ही होती हैं. सब अपनी संतान को उन्नत देखना चाहती हैं, इस लिए वह अपनी संतानों में गुणों का निरंतर आघान करती रहती हैं किन्तु केवल वह माता ही अपनी संतान को आगे बढाने के, उन्नत बनाने के योग्य बना सकती है, जिस के पास वेदादि ज्ञानों का भण्डार विद्यमान है.  ऐसा अन्य माताएं
सत्यज्ञान देने वाली श्रेष्ठ उपदेशिका
            हे माताओं में श्रेष्ठ माता!  तूं सत्यज्ञान की उपदेशिकाओं में भी श्रेष्ठ है. माता वही है, जो निर्माण का कार्य करे. सब माताएं ही अपनी संतान का उतम विधि से निर्माण करना चाहती हैं किन्तु केवल वह माता ही ऊपर बताए अनुसार श्रेष्ठ संतान का निर्माण करने के लिए श्रेष्ठ संस्कार अपनी संतान को दे सकती हैं जिनके पास वेद के ज्ञान का भण्डार है, अन्य नहीं.  जिस माता ने वेद के उतम ज्ञान का भण्डार अपनी बुद्धि में भर रखा होता है, वह ही अपनी संतानों के लिए श्रेष्ठ उपदेशिका हो सकती है, वह ही अपनी संतानों के लिए न केवल श्रेष्ठ उपदेशिका होती है अपितु सत्यज्ञान देने वाली श्रेष्ठ उपदेशिका बन सकती है.  इस लिए मन्त्र माता के लिए सत्यज्ञान देने वाली श्रेष्ठ उपदेशिका होना आवश्यक मानते हुए उसके लिए वेद विदुषी होना नितांत आवश्यक मानता है, इसलिए मन्त्र के माध्यम से माता को सत्यज्ञान की उपदेशिका के रूप में सम्बोधन किया गया है.
उन्नति के मार्ग पर अग्रसर करें
सत्यनिष्ठा देवियों में श्रेष्ठ
           आगे माता को संबोधित करते हुए वेद ने माता को सत्यनिष्ठा देवियों में श्रेष्ठ के रूप में सम्बोधन किया है.इस के साथ ही आगे चलकर वेद का उपदेश करते हुए कह रहा है कि हे माते!  तूं विद्यावती मातृदेवी है. विद्यावती मातृदेवी  होने के कारण तेरे में सब विद्याओं का ज्ञान भरा हुआ है क्योंकि तूने अत्यधिक पुरुषार्थ से वेद का उतम ज्ञान प्राप्त किया है. इसलिए हे माते!  तूं अपने इस अर्जित ज्ञान के भण्डार को हम सब में बाँटते हुए हमारे अन्दर जो अनेक प्रकार के दुर्गुण भरे हुए है, हमारे अन्दर जो अनेक प्रकार के दोष भरे हुए हैं, हमारे अन्दर जो अनेक प्रकार के विकार भरे हुए है, इन सब दोषों , विकारों के कारण हम अप्रशस्त हो गए हैं, हम उन्नति के प्रशस्त पथ पर आगे बढ़ने के योग्य नहीं रह गए हैं.  हे माते !  ऐसा उपाय करो, हमें एसा ज्ञान का प्रकाश करो कि हमारे जितने भी दुर्गुण है, हमारे अन्दर जीतनी भी व्याधियां भरी है, हमारे अन्दर जितने भी दोष हैं, वह सब आपके वैदिक ज्ञान के प्रकाश से दूर हो जावें.  आप के उतम उपदेश
माता वेद ज्ञान की विदुषी हो
          इस प्रकार मन्त्र यह स्पष्ट उपदेश कर रहा है कि माता का विदुषी होना आवश्यक है. माता के पास वेद का ज्ञान होना आवश्यक होता है.  वेद  का ज्ञान ही उन्नति का मार्ग है. वेद का ज्ञान ही किसी भी व्यक्ति को आगे ले जा सकता है. यदि माता निरंतर स्वाध्याय करने में रूचि रखती है तो उस में इतनी शक्ति आ जाती है कि वह वेद के गूढ़ रहस्यों को भी सरलता से आत्मसात् कर लेती है.  यह जो वेद के उच्च विचार माता ने आत्मसात् कर रखे होते हैं, जब वह इन विचारों को बांटने के लिए अपनी संतानों के सामने बैठती है , उन्हें यह सब उतम तथा सत्य ज्ञान का उपदेश करती है तो उन संतानों के अन्दर से सब बुरे विचार, सब दोष , सब विकार निकल जाते हैं तथा उन सब का स्थान लेते हैं  वेद के उतम उपदेशों से  माता के माध्यम से प्राप्त हुए ज्ञान का भण्डार.  जब बालक को इस प्रकार के उतम ज्ञान प्राप्त होते हैं तो निश्चय ही वह उन्नति के मार्ग पर आगे बढ़ता है. इसलिए ही वेद ने उपदेश करते हुए कहा है कि माता के लिए वेद ज्ञान की विदुषी होना चाहिए.

डॉ अशोक आर्य


 

ब्रह्म को अंग संग मान शुभ कर्म कर

परम पिता परमात्मा को हम दो अर्थों में जानते हैं. इन अर्थों के आधार पर ही नारी के गुणों का गान किया जाता है. नारी समाज की रीढ़ मानी गई है. नारी से ही समाज का कल्याण संभव है. इसलिए नारी के कर्म प्राय: शुभ ही होते हैं किन्तु वेद तो कहता है कि परमपिता परमात्मा की साक्षी में नारी सदा शुभ कर्म करे. इस सम्बन्ध में अथर्ववेद इस प्रकार उपदेश कर रहा है –

ब्रह्मापरं युज्यता ब्रह्म ब्रह्मान्ततो मध्यतो ब्रह्म सर्वत: अनाव्याधां देवापुरां प्रप. शिवा सयोना पतिलोके वि राज ||अथर्ववेद १४.१.६४||
परमेश्वर और वेद को एक ही २५ वेद में आदर्श स्त्री शिक्षा मन्त्र कहता है कि ब्रह्मा के मुख्यतरू दो अर्थ लिए जाते हैं. प्रथम अर्थ में ब्रह्म को हम परमेश्वर के अर्थ में लेते हैं तथा दूसरे अर्थ में ब्रह्म से हमारा भाव वेद से होता है. वास्तव में परमपिता परमात्मा तो सृष्टि का निर्माता है ही , इसके साथ ही इस सृष्टि के प्राणी - मात्र के कल्याण के लिए उस प्रभु ने जो ज्ञान दिया है, उसके दिए ज्ञान को हम वेद के नाम से ही जानते हैं. इस लिए इस वेद का स्वाद्याय भी हम प्रभू की साक्षी स्वरूप ही करते हैं अर्थात् हम परमेश्वर और वेद को एक ही रूप में जानते हैं. इसलिए यह दोनों अर्थ एक ही रूप में लिए जा सकते हैं. शुभ कर्म करते रहना माता को निर्माता माना गया है क्योंकि माता ने निर्माण करना होता है, इसलिए आप के आँगन में आई नववधू को इस प्रकार मन्त्र के माध्यम से उपदेश किया गया है कि हे नव वधू !, हे हमारे परिवार में पधारी नव वधू ! परम पिता परमात्मा, जिसे हम परब्रह्म के नाम से भी जानते हैं, वह प्रभु सब दिशाओं में व्यापक है. इस विश्व के प्रत्येक दिशा में वह प्रभु निराकार होने के कारण व्यापक है. इस प्रभु को अपने अंग -संग जानते हुए तूं सदा शुभ कर्म करने में तत्पर रह.
वह निराकार प्रभु सब और समान रूप से समान ही है. इस कारण ही वह सदा हमारे अंग - संग हो पाता है. इसलिए सदा यह जानो कि प्रभु हमारे साथ है, सामने है, ऊपर है, आगे है और पीछे भी है. जब हम प्रभु की उपस्थिति सदा अपने साथ पाते हैं तो हमारा साहस ही नहीं हो पाता कि कभी हम अशुभ , गलत कार्य करें. इस अवस्था में हमारे से सदा शुभ काम ही होगा. इस तथ्य को ही मन्त्र आँगन में आई नव वधु को समझाने का यत्न करते हुए कह रहा है कि प्रभु को अंग - संग मानते हुए , जानते हुए हे नववधु! तूं उत्तम कर्म , शुभ कर्म करने के कार्य में स्वयं को तत्पर रख, सदा शुभ कर्म करते रहना.
इसके साथ ही साथ मन्त्र यह भी कहता है कि कभी अशुभ अथवा पाप का आचरण न करना द्य आचरण वेदानुसार हो इसके साथ ही मन्त्र उसे उपदेश करते हुए कह रहा है कि तूं सदा वेदज्ञान से प्रेरित रहना अर्थात् सदा वेद ज्ञान का स्वाध्याय करते हुए तथा उस के आदेशों पर आचरणकरते रहना. इस ज्ञान को तूं सदा अपने प्रत्येक कार्य में उपयोग करना. तेरा प्रत्येक आचरण वेदानुसार हो. इस के व्यवहार में ही प्रसन्नता अनुभव करना. तूं अपने २६ वेद में आदर्श स्त्री शिक्षा प्रत्येक व्यवहार में, चाहे वह व्यवहार ऊपर का हो या नीचे का, सामने का हो या पीछे का अथवा यह व्यवहार दायीं और का हो अथवा बाएँ और का, सब व्यवहारों में वेद के आदेश का ही आचरण करना, वेद के अनुरूप ही चलना. इतना ही नहीं तेरे प्रत्येक कार्य में, तेरी प्रत्येक गतिविधि में वेद सदा तेरे साथ जुडा रहे. इस प्रकार कभी भी तेरा कोई भी आचार अथवा व्यवहार वेद के विरुद्ध न हो.
विद्वानों के निवास के लिए मन्त्र आगे कहता है कि हे नववधू! तूं इस प्रकार के निवास को प्राप्त कर, जो रोग रहित हो अर्थात् यह स्थान पूरी भाँति से साफ सुथरा हो, इसमें किसी प्रकार के रोगाणु निवास न करते हों. अपने ऐसे उत्तम स्थान को विद्वानों के निवास के लिए बना कर रख. इस प्रकार तूं कल्याणकारिणी बन, सुखकारिणी बन. सब प्रकार के कल्याण व सुखों का स्रोत बन कर अपने पति के निवास पर विराजमान हो, निवास कर. इस प्रकार इस मन्त्र में तीन बातों को प्रकाशित किया गया है रू- १ ब्रह्म अर्थात् परमात्मा सर्व व्यापक है तथा उसे ऐसा ही मानते हुए उस पर आचरण करने का अपने परिजनों में उपदेश कर. २ वेद के ज्ञान को न केवल प्राप्त कर बल्कि तदनुरूप अपना व्यवहार बना. ३ अपने अत्यंत कल्याणकारी तथा सुखद व्यवहार से , उत्तम स्वभाव से सब के लिए कल्याकारिणी व सुखदायिनी बन.

 डॉ अशोक आर्य 

Wednesday 24 May 2017

शासक ऐश्वर्य संपन्न तथा शक्तिशाली हो


यजुर्वेद ही नहीं ऋग्वेद तथा अथर्ववेद में भी अनेक मन्त्र राजा प्रजा धर्म के सम्बन्ध में दिए गए हैं, जिन से पता चलता है कि राजा का चुनाव करने के लिए मतदान करते समय हम किन किन बातों का ध्यान रखें, अपने प्रत्याशी के लिए किन किन गुणों की उसमें खोज करें द्य राजा के इन गुणों के आधार पर यह कहा गया है कि जब राजा राजसूय यज्ञ करे तो उस समय इन मन्त्रों का उच्चारण अवश्य किया जावे अथवा यूं कहें कि राजसूय यज्ञ के समय इन मंत्रों का उच्चारण करने की परम्परा रही है. हमारे प्राचीन ग्रंथीं में भी इसका विधान किया गया है. इस में प्रजा को संबोधन करते हुए राजा पद का प्रत्याशी इस प्रकार कहता है, सूर्यत्वचस स्थ राष्ट्र्दा राष्ट्रं में दत्त. इस का भाव यह है कि हे सूर्य के समान तेजस्विनी राष्ट्र्धिकार देनेवाली प्रजाओ! मुझे तुम इस राष्ट्र के प्रमुख पद को दो. अथवा वह किसी अन्य योग्य व्यक्ति को प्रस्तुत करते हुए कहता है कि अमुक व्यक्ति इस पद के योग्य है, उसे यह पद दो. यजुर्वेद के ही अध्याय बारह के मन्त्र संख्या बाईस में भी इस प्रकार के प्रत्याशी के लिए अनेक गुणों का वर्णन किया है यथा:-
       श्रीणामुदारो फंत}णंव  रयीणां मनीषाणा̇̇̇ प्रार्पण: सोमागोपा.
       वासुरू सूनु: सहसोअप्सु राजा विभात्यग्रैउषसामिधान ||यजुर्वेद १२.२२||
         इस मन्त्र का अनुवाद स्वामी दयानंद सरस्वती जी ने इस प्रकार किया है.
                          
       सब मनुष्यों को उचित है कि सुपात्रों को दान देने वाला, धन को व्यर्थ खर्च न करने वाला, सब को विद्या वृद्धि देने वाला, जिसने ब्रह्मचर्य का सेवन किया और जितेन्द्रिय है, ऐसे पिता का पुत्र योगांगों के अनुष्ठान से प्रकाशमान, सूर्य के समान उत्तम गुण, कर्म और स्वभाव से सुशोभित और पिता के समान अच्छे प्रकार प्रजा का पालन करने वाला जो पुरुष है , उसी को जनता के राज्य के लिए ( जनराज्याय ) अभिषिक्त करें.
        स्वामी जी के दिए इस भावार्थ से ही राजा के गुणों के दर्शन हो जाते हैं द्य आओ अब हम इस मन्त्र को कुछ और अधिक सरल व प्रचलित भाषा के आधार पर समझने का यत्न करें:
       मन्त्र उपदेश करते हुए कह रहा है कि राजा का धनवान तथा सब प्रकार के ऐश्वर्यों का स्वामी होना आवश्यक है ताकि वह अपने इस धन एश्वर्य को राज्य व्यवस्था व सत्पात्र लोगों में बड़ी उदारता से बाँट सके या उनके भरण - पोषण में व्यय कर सके द्य वह उदार ह्रदय से कृपण लोगों की सहायता करने की इच्छा रखता हो. इस प्रकार के लोगों को वह धारण करने वाला हो. वह न केवल अनेक प्रकार की मतियों को, अनेक प्रकार की बुद्धियों को, अनेक प्रकार की विद्याओं को जानने वाला ही हो, अपितु इन सब को अपनी प्रजा में बांटने वाला भी हो अर्थात् प्रजाओं को सब प्रकार की विद्याओं से सुपठित करने के लिए अनेक प्रकार के गुरुकुल अथवा विद्यालय चलाने वाला हो.
      राजा में कुछ इस प्रकार के गुण हो, इस प्रकार की विशेषताएं हों कि जिससे उसका राष्ट्र, उसके द्वारा शासित देश धन ऐश्वर्यों का स्वामी बनते हुए शांत स्वभाव वाला हो तथा विद्वानों की वह सदा रक्षा करे क्योंकि जहां विद्वानों का निवास होता है, वहां ही सुखों की वर्षा होती है. राजा का यह भी एक महत्वपूर्ण गुण है कि वह प्रजाओं को बसाने वाला हो अर्थात् धन एश्वर्य , निवास ,भरण पोषण आदि सब प्रकार की सुविधाएं अपनी प्रजा को देने की सामर्थ्य उसमें हो. उसके राज्य में कोई अनपढ़ न रहे, कोई नंगा, छतहीन या भूखा न रहे. इस प्रकार के साधन अपने राज्य में उत्पन्न करना वह अपना मुख्य कर्तव्य मानता हो.
      राजा के पास इतनी शक्ति व इतनी सेना हो, जो सब प्रकार के आधुनिकतम शत्रास्त्रों से सुसज्जित हो तथा देश के शत्रुओं को मार भगाने की शक्ति उसमें हो वह अपने.
                            
देश की रक्षा उत्तम विधि से कर सकें द्य न केवल वह स्वयं ही शक्तियों से संपन्न हो अपितु प्रजाओं में भी बल का प्रेरक हो. व्यवस्थापक हो. राजा में एक उत्तम  संचालक के गुण भी भरपूर हों. वह राज्य व्यवस्था का बड़ी उत्तम प्रकार से संचालन करने की क्षमता रखता हो. जिस प्रकार दिन के आरम्भ में सूर्य लालिमा लिए होता है उस प्रकार का तेज उसमें हो, जिस से वह स्वयं को सुशोभित करने वाला , आलोकित करने वाला हो.  जिस प्रकार उगता हुआ सूर्य नदियों व समुद्र के जल में अपने प्रकाश से लालिमा भर कर उसे स्वर्णमयी बना देता है, उस प्रकार ही राजा अपने आप में सूर्य की सी लालिमा, सूर्य का सा तेज भरते हुए इसे अपनी सम्पूर्ण प्रजा को प्रदान कर सब प्रकार की लालिमा, सब प्रकार के तेजों से, सब प्रकार के धन ऐश्वर्यों से भर कर उन्हें शान्ति प्रिय तथा सुख, समृद्धि व धन ऐश्वर्यों का स्वामी बनाने वाला हो.
       राजा में जब इस प्रकार के गुण होंगे तो निश्चय ही उसकी प्रजा उसके लिए मरने तक को भी तैयार रहेगी. सब प्रकार के यश व कीर्ति की अधिकारी होगी तथा सब और सुख व शान्ति की वर्षा होगी. अत: राजा का चुनाव करते समय उसमें इन गुणों की जांच अवश्य कर लेनी चाहिए अन्यथा हम प्रताड़ित होते रहेंगे व दुरूखी होते रहेंगे. उत्तम शासक का चुनाव करते समय वेद के माध्यम से ही हम समाधान निकालेंगे तो उत्तम  रहेगा क्योंकि वेद में ही सब समस्याओं का समाधान मिल सकता है , अन्यत्र नहीं.

डा. अशोक आर्य

Wednesday 17 May 2017

निरंतर अग्निहोत्र से जीवन सुखी

मानव जीवन एक निरंतर चलने वाले यज्ञ के सामान है. हम सदा एवं सर्वत्र यह यज्ञ करते हुए अपने जीवन को भी अग्निहोत्रम य बनावें. जिस प्रकार अग्निहोत्र सर्वजन सुखाय होता है,  उस प्रकार ही हमारा जीवन भी सर्वजन सुखाय ही हो. इस भावना को यजुर्वेद प्रथम अध्याय का यह अंतिम मन्त्र इस प्रकार प्रकट कर रहा है-सवितुस्त्वा प्रसवऽउत्पुनाम्यच्छिद्रेण पवित्रेण सूर्य्यस्य रश्मिभिरू। सवितुवर्रू प्रसवऽउत्पुनाम्यच्छिद्रेण पवित्रेण सूर्य्यस्य रश्मिभि-
मन्त्र उपदेश कर रहा है कि १. धूप और शुद्ध वायु से स्वास्थ्य उतम सूर्य की किरणें और खुली हवा स्वास्थ्य के लिए अति उत्तम होती हैं, इस बात को हम सब अच्छे प्रकार से जानते हैं. एक बंद कमरे में, जहाँ न तो अच्छी धूप ही आती है और न ही खुली हवा ही मिलती है, में रहने वाले व्यक्ति का स्वास्थ्य कभी उतम नहीं होता. इस में रहने वाले व्यक्ति की अवस्था एक पुराने रोग से ग्रस्त व्यक्ति के समान होती है. इतना ही नहीं इस के आगे जा कर देखें तो हम पाते हैं कि यदि एक कमरा लम्बे समय से बंद पड़ा है, उसमें न तो खुली हवा ही प्रवेश कर पा रही है और न ही धूप अन्दर प्रवेश कर पा रही है. इस कमरे का दरवाजा खोलने वाले व्यक्ति को उपदेश किया जाता है कि जब इस कमरे को खोला जाए तो कुछ समय के लिए तत्काल इस के सामने से हट जाना चाहिए अन्यथा अन्दर से निकलने वाली गन्दी वायु स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव डालती है. धूप और हवा पर्यावरण को स्वच्छ करती है, जिससे हमारा स्वास्थ्य भी इस में विचरण से उतम होता है तथा रोगाणुओं का नाश होता है.


मन्त्र सवितुरू के माध्यम से बता रहा है कि वह प्रभु उत्पादक है और उत्पादक होने के कारण उसने इस जगत् का उत्पादन किया है, इसे बनाया है, इसे पैदा किया है. अच्छिद्रेण पवित्रेण शब्दों से मन्त्र ने कहा है कि वायु छिद्र से सदा रहित और निर्दोष होती हैइस कारण यह सब प्रकार के दोषों को दूर करने वाली होती है. इतना ही नहीं सूर्यस्य रश्मिभि- शब्दों के माध्यम से मन्त्र कह रहा है कि सूर्य की किरणें और खुली वायु उतम स्वास्थ्य का मूल होते हैं. यह सब प्रकार के मलों को दूर करते हैं, रोगाणुओं का नाश करते हैं और इस सब से ऊपर उठाकर सब को पवित्रता देते हैं. २. पौष्टिक वातावरण में रहें समुदाय का एक व्यक्ति जब उत्तम होता है तो पूरा का पूरा समुदाय ही उत्तमता की और अग्रसर हो जाया करता है. समुदाय के स्वास्थ्य का प्रभाव सदा व्यक्ति पर पड़ता है. यदि मेरे चारों और के व्यक्ति स्वस्थ हैं , हृष्ट दृ पुष्ट हैं, ज्ञानवान् हैं तो इस समुदाय का प्रभाव मेरे पर भी पड़ना अनिवार्य हो जाता है. इन के प्रभाव से मैं भी स्वस्थ बनूंगा मैं भी हृष्ट व पुष्ट बनूँगा, मेरे में भी ज्ञान का आघान होगा. क्योंकि मेरे चारों और का वातावरण इन गुणों से भरा हुआ है तो इन गुणों की वर्षा समुदाय के अन्दर के प्रत्येक प्राणी पर होना आवश्यक है. अत: मैं ही नहीं मेरे साथ के लोगों में भी इन सब गुणों का आघान होगा. सब लोग स्वस्थ , हृष्ट दृ पुष्ट और ज्ञानवान् होंगे. ३. क्षेत्र रोगाणु रहित हो इस के उल्ट यदि हमारे समुदाय के चारों और यदि कूड़े करकट के ढेर लगे रहेंगे तो इस क्षेत्र में रोगाणुओं का होना भी अनिवार्य हो जाता है. जहाँ रोगाणुओं का, रोग के कृमियों का निवास हो, उस क्षेत्र के समुदाय पर इनका प्रभाव न हो, यह तो कभी संभव ही नहीं होता. अत: इस क्षेत्र के निवासियों पर यह रोगाणु सदा ही हमले करते ही रहेंगे और इस क्षेत्र के लोगों का स्वास्थ्य खतरे में पड जावेगा. परिणाम - स्वरूप इस क्षेत्र का निवासी होने के कारण इस सब का प्रभाव मेरे स्वास्थ्य पर भी पडेगा और मैं किसी भी प्रकार रोगों से बच न पाउँगा और रोग - ग्रस्त हो जाउंगा. ४. उत्तम स्वास्थ्य के लिए अग्निहोत्र मैं सदा स्वस्थ रहूँ. मेरे क्षेत्र के लोग सदा स्वस्थ रहें. मेरे चारों और का स्वास्थ्य उत्तम हो, इसके लिए हमें इस प्रकार के उपाय करने होंगे कि सब समुदाय का क्षेत्र स्वास्थ्य वर्धक गुणों रूपी वातावरण में पुष्पित व पल्वित होता रहे. इस के लिए आवश्यक है कि हम सदा अग्निहोत्र की शरण में रहें और दूसरों को भी एसा ही करने के लिए प्रेरित करें. इस हेतु ईश्वर हमें आशीर्वाद देते हुए उपदेश करते हैं कि क) तेजोैसि जब जीव अपने समुदाय में उत्तम स्वास्थ्य के साथ निवास कर रहा होता है तो प्रभु उसे अनेक प्रकार की प्रेरणाएं देता है. इन प्रेरणाओं में एक है तेजोैसि अर्थात् हे जीव ! तूं तेजस्वी है. उत्तम स्वास्थ्य सदा ही तेजस्विता का कारण होता है. जो व्यक्ति रोगों से ग्रस्त रहता है , वह सदा दु:खों में, संताप में डूबा रहता है तथा कष्ट-दायक जीवन यापन कर रहा होता है. इस प्रकार का जिवन जीने वाले के पास न तो समय ही होता है और न ही इतनी शक्ति ही होती है कि वह कभी कहीं से भी कोई उत्तम प्रेरणा प्राप्त कर सके इसलिए प्रभु ऊत्तम स्वास्थ्य लाभ पाने वाले प्राणी को ही तेजोअसि का आशीर्वाद देता है और कहता है कि हे जीव ! तूं तेजस्वी बन ख) शुक्रम् असि हम जानते हैं कि शुक्र से अभिप्राय वीर्य से होता है. वीर्य सब शक्तियों का आधार होता है द्य जो व्यक्ति अपने वीर्य का नाश कर लेता है , वह शक्तिहीन हो जाता है द्य इसलिए वीर्य की रक्षा आवश्यक होती है. इस कारण ही इस मन्त्र में परमपिता परमात्मा आशीर्वाद देते हुए कह रहा है कि हे जीव ! तूं वीर्यवान बन क्योंकि उत्तम वीर्य से युक्त व्यक्ति का स्वास्थ्य सदा उत्तम रहता है. अमृतम् असि जिस मनुष्य का स्वास्थ्य उत्तम होता है, वह सदा रोगों से मुक्त रहता है. इस लिए मन्त्र के माध्यम से उपदेश देते हुए प्रभु जीव को आशीर्वाद देते हुए आगे कहते हैं कि अमृतम् असि हे जीव ! तूं स्वस्थ होने के कारण कभी कष्ट दायक असमय को मृत्यु प्राप्त ही नहीं होगाधाम असि अमृत का पान करने के कारण हे जीव तूं धाम असि अर्थात् तेज का पुंज बन गया है. तेरे शरीर के प्रत्येक अंग से तेज टपकने लगा है द्य तेज से प्राप्त तेजस्विता ने तेरा यश , तेरी कीर्ति सब और पहुंचा दी है द्य इस के साथ ही साथ नाम अर्थात् तेरे में विनम्रता भी है द्य स्वभाव से विनम्र होने के कारण तेरे अन्दर जो शक्ति है , वह विनय से विनम्रता से विभूषित है. देवानां प्रियं इन सब कारणों से तूं अनेक प्रकार के दिव्यगुणों का स्वामी बन गया है. तेरे अन्दर अनेक प्रकार के दिव्य गुण आ गए हैं. इसलिए तूं देवताओं को अत्यधिक पसंद होने के कारण देवता लोगों का तूं प्रिय हो गया है. अनाधृष्टम् इन दिव्यगुणों का स्वामी होने के कारण तूं कभी धर्षित न होने वाला बन गया है द्य छ) देवयज्ञनम् तूं अबाधित रूप से निरंतर अग्निहोत्र करने वाला बन गया है द्य सदा अग्निहोत्र के कार्यों को संपन्न करने के लिए प्रयासरत रहता है. इस प्रकार तूं देवों का , देने वालों का यज्ञ करने वाला बन गया है. निरंतर देवयज्ञ करने वाला होने के कारण तूं अबाध गति से यज्ञ करने वाला हो गया है. तेरा यह अगनिहोत्र सदा ही अविच्छिन्न रहता है इस में कभी कोई बाधा नहीं आती द्य जब तूं पुरुषार्थ करते हुए इस देवयज्ञ को निरंतर करता है तो देवता लोग तेरे से अत्यधिक प्रसन्न होते हैं और इस कारण सब आवश्यक पदार्थ तुझे उपलब्ध करवाते हैं किन्तु तेरे अन्दर जो यज्ञ की भावना है, जो परोपकार की भावना है, जो दूसरों को कुछ देने की भावना है, तूं कभी इस भावना को भूलता नहीं और कुछ देने की अभिलाषा अपने अन्दर सदा बनाए रखता है, इस कारण ही तूं कुछ भी लेने के स्थान पर सब कुछ देवताओं के अर्पण कर देता है. अपने लिए कुछ भी नहीं रखता. यदि कुछ रखता है तो वह होता है यज्ञशेष. भाव यह है कि तूं केवल यज्ञशेष को अर्थात् यज्ञ करने के पश्चात् शेष रूप में बचे का ही स्वयं के लिए उपभोग करता है. यह ही तेरी पवित्र कमाई है. इस प्रकार मन्त्र ने हमें उपदेश किया है कि हमारा जीवन अनाधृष्ट देवयजन हो. हम बिना किसी बाधा के सदा प्रभु की सृष्टि को स्वास्थ्यवर्धक बनाए रखने के लिए यज्ञ की कड़ी को कभी टूटने न दे और इसे करने की परम्परा को सदा बनाये रखें. हम इस बात को कभी मत भूलें की देवताओं के हमारे ऊपर बहुत से ऋण हैं. इन सब ऋणों से उऋण होने का एकमात्र साधन यह देवयज्ञ ही है. इस ऋण से उऋण होने के लिए यह अगनिहोत्र ही एकमात्र साधन है. इससे हम अनेक प्रकार के वार्धक्य अर्थात् उन्नति को प्राप्त करते हैं और मृत्यु होने पर भी हम पुनरू बंधन में नहीं आते और मुक्ति को प्राप्त होते हैं. डॉ अशोक आर्य