Wednesday 30 August 2017

सत्यार्थ प्रकाश: प्राणी मात्र का ग्रन्थ

आधुनिककाल में आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द सरस्वती जी महान वेदवेत्ता, सत्यवादी, महायोगी, देशभक्त विश्वहितैषी हुए हैं. सत्यार्थ प्रकाश ग्रन्थ उन की एक अमर कृति है. दयानन्द सरस्वती जी सच्चे शिव को प्राप्त करने तथा मृत्यु को जीतने के लिए घर से निकल पड़े. कई वर्ष पहाड़ों में, गुफाओं में, घोर घने जंगलों में घूमे पर सच्चे शिव को पाने का रास्ता तभी मिला जब वे स्वामी विरजानन्द जी के द्वार पर पहुंचे. द्वार पर दस्तक दी तो भीतर से आवाज़ आई कि कौन हो? जवाब दिया कि यही तो जानने आया हूँ. गुरु ने द्वार खोला और शिष्य को गले लगा लिया मानो ऐसे शिष्य को पाने की गुरु की चिर प्रतीक्षा पूरी हो गई.


Swami Dayanand


गुरु ने आदेश दिया कि अनार्ष ग्रन्थों को नदी में बहा दो और तीव्र विलक्षण बुद्धि वाले आज्ञाकारी शिष्य ने अनार्ष ग्रन्थों को केवल नदी में बहाया ही नहीं अपितु मन मस्तिष्क से ही जो उन में से पढ़ा था उस की छाप तक मिटा डाली और कोरी स्लेट बन कर गुरु चरणों में बैठ कर पूर्ण श्रद्धा, निष्ठा, विश्वास के साथ आर्ष ग्रन्थों का रसस्वादन करने लगे. आर्ष ग्रन्थों में उन की अगाध श्रद्धा ही सत्यार्थ प्रकाश है. ऋषि लिखते हैं कि महर्षि लोगों ने सहजता से जो महान विषय अपने ग्रन्थों में प्रकाशित किये हैं, क्षुद्राशय मनुष्यों के कल्पित ग्रन्थों में क्यों कर हो सकते हैं.


महर्षि लोगों का आशय, जहाँ तक हो सके वहां तक सुगम और जिसके ग्रहण में समय थोड़ा लगे, इस प्रकार का होता है. क्षुद्राशय लोगों की मनसा ऐसी होती है कि जहाँ तक कठिन रचना करनी, जिस को बड़े परिश्रम से पढ़ के अल्प लाभ उठा सकें. आर्ष ग्रन्थों का पढ़ना ऐसा है कि एक गोता लगाना, बहुमूल्य मोतियों का पाना. ऋषि प्रणीत ग्रन्थों को ही पढ़ना इसलिए चाहिए कि वे बड़े विद्वान्, सर्व शात्रवित् और धर्मात्मा थे और अनृषि अर्थात जो अल्प शात्र पढ़े हैं और जिन का आत्मा पक्षपात सहित है, उनके बनाये हुए ग्रन्थ भी वैसे ही हैं.


आर्ष ग्रन्थों की श्रेणी में वेद ही प्रथम एवं मुख्य ग्रन्थ है. ऋषि दयानन्द सरस्वती जी ने उद्घोष दिया वेदों की ओर लौटो. इसलिए आर्य समाज के दस नियम में प्रथम नियम दिया- सब सत्य विद्या और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं, उन सब का आदि मूल परमेश्वर है. सब सत्य विद्या ही वेद है. तीसरा नियम बनाया वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है. वेद का पढ़ना पढ़ाना और सुनना सुनाना सब आर्यों का परम धर्म है वेद ही ईश्वरीय ज्ञान है. वेद ही स्वतः प्रमाण है. जब इस पृथ्वी पर मनुष्य की सर्व प्रथम उत्पत्ति हुई तब ईश्वर ने चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य तथा अंगिरा को क्रमशः ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद का ज्ञान प्रदान किया.


ऋग्वेद का मुख्य विषय पदार्थ ज्ञान है. इस में संसार में विद्यमान पदार्थों का स्वरूप बताया गया है. यजुर्वेद में कर्मों के अनुष्ठान को, सामवेद में ईश्वर की भक्ति उपासना के स्वरूप को तथा अथर्व वेद में विभिन्न प्रकार के विज्ञान को मुख्य रूप से बताया गया है. वेदों का एक-एक उपवेद भी है. आयुर्वेद जिस में औषधियों तथा चिकित्सा का मुख्य रूप से वर्णन किया गया है. धनुर्वेद का मुख्य विषय युद्ध कला है. गन्धर्ववेद में गायन, वादन तथा नृत्‍य आदि विषय हैं और अर्थवेद जिसमें व्यापार, अर्थ व्यवस्था आदि विषयों का वर्णन है.


वेद मन्त्रों के गम्भीर व सूक्ष्म अर्थो को स्पष्टता से समझने के लिए ऋषियो ने छः अंगों की रचना की, जिन्हें वेदांग कहा जाता है. ये हैं शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छंद तथा ज्योतिष. शिक्षा ग्रन्थ में भाषा के अक्षरों का वर्णन, उन की संख्या, प्रकार, उच्चारण-स्थान-प्रयत्न आदि के उल्लेख सहित किया गया है. कल्प ग्रन्थ में व्यवहार, सुनीति, धर्माचार आदि बातों का वर्णन है. व्याकरण ग्रन्थ में शब्दों की रचना, धातु, प्रत्यय तथा कौन सा शब्द किन-किन अर्थो में प्रयुक्त होता है, इन बातों का उल्लेख है.


वेद मन्त्रों का अर्थ किस विधि से किया जाए, इसका वर्णन निरुक्त ग्रन्थ में किया गया है. छंद ग्रन्थ में श्लोकों की रचना तथा गान कला का वर्णन किया गया है. ज्योतिष ग्रन्थ में गणित आदि विद्याओं तथा भूगोल-खगोल की स्थिति-गति का वर्णन है. ऋषियों ने वेदों के भाष्य व्याख्या रूप में सर्व प्रथम जिन ग्रन्थों की रचना की उन ग्रन्थों को ब्राह्मण ग्रन्थ कहते हैं. ये ऐतरेय, शतपथ, तांडय तथा गोपथ के नाम से प्रसिद्ध हैं.


दयानन्द सरस्वती जी ऐतरेय, शतपथ आदि ब्राह्मण ग्रन्थों को ही इतिहास, पुराण, कल्प, गाथा और नाराशंसी मानते हैं. श्री मद्भागवत पुराण को नही. आर्ष ग्रन्थों में छः दर्शन शात्र हैं जिन्‍हें उपांग कहते हैं. जैमिनी ऋषि कृत मीमांसा दर्शन में- धर्म, कर्म यज्ञादि का वर्णन है.. कणाद ऋषि कृत वैशेषिक दर्शन में- ज्ञान-विज्ञान का. गौतम ऋषि कृत न्याय में -तर्क, प्रमाण, व्यवहार व मुक्ति का. पतंजली ऋषि कृत योग दर्शन में- योग साधना, ध्यान समाधि, कपिल ऋषि कृत सांख्य दर्शन में-प्रकृति, पुरुष (ईश्वर व जीव) का तथा व्यास ऋषि कृत वेदान्त दर्शन में- ब्रह्म (ईश्वर) का वर्णन है. ऋषि दयानन्द जी ने उपनिषदों को भी आर्ष ग्रन्थ माना है. इन उपनिषदों में ईशोपनिषद आदि प्रमुख हैं.


सत्यार्थ प्रकाश इन सभी ऋषि-मुनियों के आर्ष ग्रन्थ जो वेद प्रतिपादित हैं उन के सारभूत विचारों का संग्रह है. यदि ऐसा कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नही है. यह वेद तो नहीं है पर वैदिक सिंद्धांतों व मान्यताओं का विश्वकोश है. यह ग्रन्थ मनुष्यों को जीवन जीने की कला व उनकी सर्वांगीण उन्नति का मार्ग है. ऋषि दयानन्द जी ने आर्य समाज का चौथा नियम दिया है कि सत्य के ग्रहण करने और असत्य को छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिए.


सत्य और असत्य का निर्णय कैसे करें? यही सत्यार्थ प्रकाश का मुख्य विषय है. ऋषि लिखते हैं मेरा कोई नवीन कल्पना वा मतमतांतर चलाने का लेश मात्र भी अभिप्राय नहीं है किन्तु जो सत्य है उसको मानना, मनवाना और जो असत्य है उस को छोड़ना और छुड़वाना मुझ को अभीष्ट है. इस लिए सत्यार्थ प्रकाश लिखा गया है.


सत्यार्थ प्रकाश सभी आर्ष ग्रन्थों की कुंजी (गाइड) है. कक्षा में जो छात्र प्रथम आने की आकांक्षा रखते हैं. वे पाठ्यक्रम की पूरी पुस्तकों का अच्छी प्रकार अध्ययन व स्वाध्याय करते हैं, लेकिन कई सामान्य बुद्धि छात्र ऐसे भी होते हैं, जो सभी विषयों की गाइड को पढ़कर उत्‍तीर्ण हो जाते हैं. सत्यार्थ प्रकाश आर्ष ग्रन्थों की गाइड है, हमारे जैसे सामान्य जन जिन की शिक्षा आर्ष विधि से नहीं हुई है वे भी सत्यार्थ प्रकाश का स्वाध्याय करके सत्य विद्या जो वेद हैं उन तक पहुंचने का सामर्थ्य उत्पन्न कर सकते हैं.


शिक्षा पद्धति में आर्ष ग्रन्थों का पठन-पाठन केवल कुछ गिने-चुने गुरुकुलों तक ही सीमित है. अधिकांश जनों की भौतिक विषयों की शिक्षा होने के कारण कई बहन-भाई तो यह कहकर सत्यार्थ प्रकाश का स्वाध्याय करना छोड़ देते हैं कि उन्हें कठिन लगता है. प्रथम में तो हर कार्य कठिन लगता ही है, पर हम सभी कार्यों को छोड़ नहीं देते. नन्हें बालक को प्रथम दिन माँ की गोद छोड़कर पाठशाला जाना कितना कष्ट प्रद लगता है पर कुछ ही दिनों के अभ्यास के बाद बालक स्वयं ही ख़ुशी-ख़ुशी जाने लग जाता है.


कोई भी कार्य रूचि के अनुरूप से कठिन और सरल होता है. जिसमें रूचि वह सरल, जिसमे रूचि नहीं वह कठिन. ऋषियों का मानना है कि अभ्यास को दीर्घकाल तक निरंतर श्रद्धापूर्वक एवं पुरुषार्थ पूर्वक करने से लक्ष्य अवश्य ही मिलता है. ऋषियों के कथन को आप्त वचन मानकर पूर्ण रूचि, निष्ठा, श्रद्धा से एवं ज्ञानपूर्वक सत्यार्थ प्रकाश का स्वाध्याय हम सब करें. मानव जीवन का प्रयोजन धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि के लिए है.


इन ऋषि प्रणीत आर्ष ग्रन्थों की विद्या न जानने से ही आज मनुष्य विभिन्न अंध-विश्वासों, कुरीतियों, पाखंड और नास्तिकता में फंस गया है. ईश्वर को अपनी आत्मा में न खोज कर दर-दर भटकता हुआ दुःखी व अशांत जीवन जी रहा है. वर्तमान काल में अविद्या, अज्ञान का साम्राज्य छाया हुआ है. स्वार्थी, पाखंडी, धूर्त लोग लाखो-करोड़ो लोगों को अपने अनुयायी बना कर भ्रमित कर अपना उल्लू सीधा करने में लगे हैं और लोग भी अज्ञानता व भेढ़चाल के कारण उन के चंगुल में फंस रहे हैं और दुःखी हो रहे हैं. ऋषि दयानन्द सत्यार्थ प्रकाश में ऐसे लोगो के लिए लिखते हैं कि अंधे के पीछे अंधे चलें तो दुःखी क्यों न हों? विद्वान् लोग ही यथार्थ ज्ञान को जान कर और यथा योग्य व्यवहार कर के अज्ञानियों को दुःख सागर से तारने के लिए नौकारूप होने चाहिए.


सत्यार्थ प्रकाश सब प्राणी मात्र का ग्रन्थ है, यह किसी एक व्यक्ति अथवा किसी एक वर्ग विशेष के लिए नहीं है. यह सार्वभौमिक एवं सार्वकालिक (सब काल के लिए) है. मानव जीवन की ऐहलौकिक अर्थात संसार सम्बन्धी और पारलौकिक अर्थात मोक्ष सम्बन्धी समस्त समस्याओं व संशयों को सुलझाने के लिए यह ग्रन्थ एक मात्र ज्ञान का भंडार है. वर्तमान परिवेश को ध्यान में रख कर देखें तो इस की महत्ता और अनिवार्यता बढ़ गई है. आज की भाग-दौड़ व व्यस्त जीवन प्रणाली में व्यक्ति के पास इतना समय व धैर्य कहाँ जो वह शान्ति से बैठ कर सभी आर्ष ग्रन्थों का स्वाध्याय कर सके. उसके लिए तो सत्यार्थ प्रकाश ही गागर में सागर भरा हुआ आर्ष ग्रन्थ है. जो मानव इस आर्ष ग्रन्थ का पूर्ण रूचि, निष्ठा व श्रद्धा से लम्बे काल तक निरंतर अध्ययन, मनन एवं उस के अनुसार आचरण करते हैं, अपने जीवन को पावन और पवित्र बना लेते हैं और ईश्वर की ओर अग्रसर होते हैं. सत्यार्थ प्रकाश का स्वाध्याय से बुद्धि तीव्र बनती है.


एक बार पंडित रामचन्द्र देहलवी जी से प्रश्न किया गया कि आप को इतनी तर्क शक्ति कहाँ से प्राप्त हुई, पंडित जी ने बताया कि सत्यार्थ प्रकाश के सतत स्वाध्याय से ही मेरी बुद्धि में तीव्रता और कुशाग्रता आयी है. पंडित जी सत्यार्थ प्रकाश का प्रतिदिन नियमित रूप से स्वाध्याय करते थे. आर्य समाजों में सत्यार्थ प्रकाश अमर रहे के जयघोष की परम्परा बनी हुई है, सत्यार्थ प्रकाश की अमरता तभी हो सकती है, जब हम सब पूरे मनोयोग से इस आर्ष ग्रन्थ का स्वाध्याय करें और अपने दैनिक जीवन के आचरण में और व्यवहार में भी लायें.
राज कुकरेजा


निष्काम भाव से कर्मरत रहने का नाम ही योग है

हम अपने बनाए मंदिरों को साफ-सुथरा रखते हैं, उनमें धूप-दीप जलाते हैं, उन्हें सुगंधित रखते हैं। लेकिन कैसा आश्चर्य है कि ईश्वर की बनायी ’’अष्टचक्रा नव द्वारा देवानां पुरयोध्या’’ अर्थात् आठ चक्र और नौ दरवाजों वाली अयोध्या नगरी में यानी अपने शरीर रूपी मानव मंदिर में हम शराब, मांस, अंडे, भांग, बीड़ी सिगरेट का धुआं सब कुछ डालते हैं। जीवन कला के अभ्यासी को आहार शुद्धि का विचार करते हुए यह भी ध्यान रखना है कि हमारी कमाई भी शुद्ध और सात्विक हो, उसमें कर्मचारियों का रक्त नहीं सना हो।  सामान्यतया समझा जाता है कि योग का अर्थ अग्नि या सूर्य के समक्ष महीनों वर्षों तपना नहीं होता। क्योंकि यदि तपना ही होता तो मोक्ष का अधिकारी पतंगा होता है, जो दीपक पर अपने स्वाहा कर देता है। न जल में वर्षों खड़े होने पर मोक्ष मिलता है, क्योंकि बगुला घंटों पानी में ध्यान मग्न खड़ा रहता है और मछली तो जल में ही उत्पन्न होती है तथा जीवन पर्यंत जल में रहकर अंत में जल में समाधि लेती है। इसी प्रकार ठंडेश्वरी या मौनी बाबा का क्षणिक नाटक है। प्रदर्शन मान-प्रतिष्ठा प्राप्त करने तथा कुछ कमाने का चोखा धंधा है।

 योग का वास्तविक अर्थ है कि अपने वर्णाश्रम के अनुसार निष्काम भाव से कर्मरत रहना, वासनाओं की अग्नि में इंद्रियों को तपाकर निर्विषय कर देना और जीवन संग्राम के समस्त दुःखों को प्रभु प्रसाद समझकर उनसे संपूर्ण पुरुषार्थ के साथ विशांक रूप में जूझते रहना। प्रायः समझा जाता है कि ’’लोकोयं कर्म बंधनः’’ अर्थात् कर्म लोक बंधन का कारण है। लेकिन योग इसके विपरीत हमें सिखाता है कि कर्म ही बंधन मुक्ति का साधन है। अब प्रश्न है कि कौन सा कर्म है जो योग बन गया है, यज्ञ बन गया है। कर्म में यह कौशल कि वह यज्ञ बन जाये, यही योग है और यही जीवन कला है। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि ’’योगः कर्मसु कौशलम्’’ अर्थात् कर्म में कौशल उसे यज्ञमय में बना देता है, प्रभु से वियोग नहीं योग कराता है अथवा मिलाता है। इस प्रकार ज्ञान पूर्वक किए गए कर्म जब यज्ञ का रूप लेते हैं तो वही उपासना बन जाते हैं। 
ज्ञान, कर्म और उपासना का यह त्रिवेणी संगम मानव का मोक्ष तीर्थ बन जाता है। कानों से हम भद्र सुनें, आंखों से अभद्र देखें, धरती को मधुरता से सींचने के लिए शहद जैसा मीठा और हितकारी भद्र वचन कहें। मस्तिष्क से भद्र चिंतन, हाथों से भद्र कर्म और पांवो से भद्र चलन करें तब होगा हमारा आत्म यज्ञ। इसी को वेद माता ने इसे षड् योग भी कहा है। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में इसे समत्व योग कहा है।

श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन! संसार के सारे दुःख संग के कारण हैं। योग और कुछ नहीं है कर्म करते हुए सिद्धि-असिद्धि में समभाव बनाए रखना, परमात्मा के साथ युक्त रहना, अपने को उसी के हाथों से देना ही योग है। वहीं हमारे भीतर के शत्रु काम, क्रोध, लालच, लालसा, झूठ, बेईमानी, दुराचार आदि हैं। मनुष्य कितने ही आविष्कार क्यों न कर ले, कितना ही बड़ा साम्राज्य क्यों न खड़ा कर ले लेकिन जब तक उसके भीतर ये शत्रु बैठे हैं तब तक बाहर की जीत, जीत नहीं हार है। क्योंकि जितना ही वह लालच और लालसा, झूठ और बेईमानी से बाहर का सामान जुटाता जाएगा उतना ही उसका लालच, उसकी लालसा, उसकी बेईमानी, उसकी दूसरों का खून पीने की प्यास बढ़ती जाएगी। जीत तो तभी होगी जब जिस प्यास को बुझानें तुम निकले हो, वह प्यास बुझ जाएगी। क्या सिकंदर की प्यास बुझी ? क्या नेपोलियन की प्यास बुझी ? क्या हिटलर और मुसोलिनी की प्यास बुझी ? यह सब अपनी लालसा की प्यास में ही डूब गये।
 प्रश्न है कि क्या कोई ऐसा रास्ता है जिससे मनुष्य भीतर के इन शत्रुओं से जीता जा सके। इसका उत्तर भारत की संस्कृति के पास है। वह है योग दर्शन के रचयिता पतंजलि मुनि के पांच यम। अपने तथा मानव समाज के जीवन के भवन को वैदिक संस्कृति के उन पांच आधार स्तंभों पर खड़ा कर देना, जिनकी नींव पाताल तक तथा चोटी हिमालय के शिखर तक चली गई है, यह पांच यम हैं - अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह। इन्हीं को योग भी कहा गया है। योग का अर्थ अपने को संपूर्ण रुप से मानव-देव-ऋषि बनाना है और इसका साधन प्रभु के मंदिर मानव शरीर की एक-एक इंद्रिय को उपयोगी बनाना है।  

लेखक: विवेक प्रिय आर्य मथुरा, उत्तर प्रदेश

वेद व सृष्टि उत्पत्ति-

वेद व सृष्टि उत्पत्ति- वेद सब सत्य विद्या की पुस्तक है वेद किसी एक देश ,एक मनुष्य के लिए नहीं है,वरन् मानव मात्र के लिए है और सम्पूर्ण देशों के लिए खुली पुस्तक है वेद की शिक्षाऐं सार्वजनिक, सार्वकालिक है! वेद में निहित विद्याओ को तर्क और विज्ञान की कसौटी पर परखा जा सकता है! वास्तव में यह सृष्टि ही विज्ञान मय है। ईश्वर के विज्ञान को ही वेद कहते है। सृष्टि के आरम्भ में परमात्मा मनुष्य मात्र के कल्याण हेतु सबसे पवित्र मनुष्यों के हृदय में समाधी की अवस्था में वेद ज्ञान उतार देता है वेदो को विश्व की प्रथम पुस्तक की मान्यता यूनेस्को ने भी प्रदान की है! प्रथम विश्व धर्म संसद शिकागो में सर्वसम्मति से यह फैसला हुआ था कि विश्व धर्म में चार आधार का होना आवश्यक है-
अगर हम दुनिया में प्रचलित कथित धर्म , सम्प्रदायों, महजबो, की समीक्षा उपरोक्त कसौटी पर करें तो हमें पता चलेगा, कि कुछ कुछ अच्छी बातों को छोडकर इन कथित धर्मो में पाखण्ड़ो, अन्धविश्वासो, अश्लीलता, अवैज्ञानिक मान्यताओं की भरमार है। इनकें कथित धर्मो की पुस्तकों की समीक्षा करते ही इनके कथित धर्म गुरू स्वार्थवश,हठ और दुराग्रह में हिंसा पर ऊतारू होते है अपने समाज को अंधेरे में धकेल कर अपने मंसूबो को प्राप्त करना तथा समाज का शोषण करना ही उनका लक्ष्य होता है!

कुरान कहता है मुसलमान बनाओ, बाईबिल कहती है ईसाई बनाओ, पुराण कहते है। शैव,शाक्त, वैष्णव बनो, यह सारे संघर्ष कर रहे है, अपनी अपनी टोली इक्ट्ठा करने में। आखिर व्यक्ति क्या बनें आईये देखें वेद क्या कहतें है मनुर्भव”- अर्थात् मनुष्य अर्थात् मननशील बनो! वैज्ञानिक बनो, जब व्यक्ति के अन्दर मननशीलता, विचार शीलता, वैज्ञानिकता आती है तो व्यक्ति, परिवार, समाज ,और राष्ट्र सुखी और उन्नतशील बनता है, यही आर्यत्व है, इसके विपरित चलने पर व्यक्ति, परिवार, समाज, राष्ट्र में भीषण संघर्ष होता है जो कि हमारे पतन और दुखों का कारण बनते है!
वेद में हिन्दू , मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई,जैन, बौद्ध, यहूदी आदि शब्द नहीं है। यह सभी शब्द कालान्तर में मनुष्यों की देन है आज से ३००० हजारो वर्ष पूर्व कोई मन्दिर, मस्जिद, चर्च, गुरूद्वारे भी न थे, तो क्या धर्म नही था? इस सृष्टि को बने लगभग दो अरब वर्ष हो चुके है क्या उस समय धर्म नही था?
ये सब मनुष्यों में प्रेम उत्पन्न नही करते, वरन् मनुष्यों के विभाजन का कारण हैं, इनको चलानें वालो के स्वार्थ है जिसके कारण सारे संसार को अज्ञान के गड्ढे में धकेले हुए है। वर्तमान में प्रचलित धर्म, सम्प्रदाय मनुष्यों का मार्ग दर्शन नही उनका शोषण करते हैं। समान विचारधारा मनुष्यों को पास लाती है , विपरित विचार धाराऐ मनुष्यों में द्वेष उत्पन्न करती है। आज सम्पूर्ण देशों के बीच दीवारें और दुश्मनी विचार धारा के कारण ही है। वेद ने मनुष्यों के प्रथम दो विभाग किये है- आर्य और दस्यु अथवा राक्षस। आर्य- श्रेष्ठ, सदाचारी मनुष्य जो संसार से अज्ञान, अन्याय, और अभाव दूर करते है। वेदो से प्राप्त इस शब्द का अर्थ परमात्मा, तथा पवित्र आत्मा भी है। दस्यु- राक्षस- भ्रष्टाचारी मनुष्य जो संसार में अज्ञान , अन्याय, अभाव फैलाते हैं। वेद जब उपदेश करता है कृण्वन्तो विश्वम्आर्यम्तो इसके अर्थ हुआ कि संसार के मनुष्यों को श्रेष्ठ बनाओ, जिससे संसार से अज्ञान, अन्याय,अभाव दूर हो सके। न कि संसार को सम्प्रदायिक बनाना।
वेद में आये हुए प्रत्येक शब्दो का अर्थ यौगिक होता है न कि रूढ। अत: वेद में आये शब्दो का अर्थ जानना जरूरी होता है, रूढ अर्थ करने से सम्प्रदायिकता फैलती है, जैसा की एक ईश्वर के अनेक नामों के आधार पर अनेक भगवान, उनके अवतारों का पाखण्ड़ सनातन धर्म के नाम पर फैला दिया गया है।
आओ अब बात करते है आर्य समाज की इस देश का मूल और आदि नाम आर्यावर्त है, देश के मूल निवासी आर्य कहलाते थे, जो कि वेदो के अनुयायी थे, इसका गौरवशाली इतिहास है तो वेदो के कारण। श्री राम, कृष्ण, शिवजी महाराज, ऋषि, मुनि,हनुमान जी महाराज सभी आर्य थे तथा वेदों के अनुयायी थे, अत: आर्य लोग कही बाहर से नही आये ब्लकि वही इस देश के मूल निवासी हैं।
आर्यो के विदेशी होने का इतिहास अंग्रेजो की देन है। महाभारत के युद्ध के बाद, वेदो के विद्वानो का घोर अकाल हुआ, फल स्वरूप इस आर्यावर्त देश में नाना मतमतान्तरों का जन्म हुआ। विचार भिन्नता के कारण सामाजिक, और राष्ट्रीय संगठन टूट गया महर्षि दयानन्द ने वेदो का पुर्नउद्धार करके सनातन धर्म का पुर्नउद्धार किया, उनकी घोषणा थी कि वे किसी नये मत, और सम्प्रदाय की स्थापना नहीं कर रहें, वरन भूली हुई विद्या, वेदों का पुर्नउद्धार करके इस देश को मूल की तरफ वापस ले जा रहे है उनका नारा था वेदों की ओर लोटो

उनका कथन है कि ब्रह्मा से लेकर जैमिनी मुनि तक जो ऋषियो का मत है वही मेरी मत है। हिन्दू मुस्लिम, सिक्ख, आदि नाम से पूर्व यह पूरा समाज ही आर्य समाज था, अत: महर्षि ने किसी नये समाज की नीव नहीं रखी वरन् पुराने गौरव को पुनर्जाग्रत किया। इन सम्प्रदायो के प्रचलन से पूर्व समस्त संसार में वैदिक धर्म ही था, जिसके चिन्ह आज भी अनेक देशों में प्राप्त होते है। वेद देशों में विभाजन भी नहीं करता, यह समस्याऐं भी मनुष्यों की अपनी है अगर प्राणी मात्र के कल्याण के नियमों में समस्त विश्व एक राष्ट्र बन जाय तब न तो वेद को कोई परेशानी होगी, न वैदिक लोगो को, सारे विश्व में अशान्ति,और संघर्ष व्यक्ति गत स्वार्थ और विचार भिन्नता के कारण है।हमारे मित्रो ने सलाह दी कि सम्पूर्ण विश्व की सहमति से एक वैज्ञानिक धर्म की स्थापना एक नये नाम के साथ हो 

वेदों की ओर लौटो

शिक्षित माता मही समान उदार वेद में माता को निर्माता कहा गया है. इसका भाव यह है कि जो संतानों के निर्माण का कार्य करे, उसे माता कहते हैं. इस से यह तथ्य सामने आता है कि जो निर्माण के कार्यों के सम्बन्ध में जानती हो, जो जानती हो कि किस विधि के प्रयोग से मानव का उत्तम निर्माण किया जा समकता है, क्या ढंग अपनाया जा सके कि मानव में उत्तम गुणों का आघान हो, वह कौन से ढंग से बालकों को शिक्षित करे कि बालक में अच्छे गुणों का विकास हो? एक अध्यापक जो बालकों को शिक्षित करता है, वह इससे १४ वेद में आदर्श स्त्री शिक्षा पूर्व वर्षों के तप से स्वयं को तैयार करता है, स्वयं में वह सब गुण पैदा करता है, जिन गुणों का आघान उसने अपने शिष्यों में करना होता है. जब एक अध्यापक को बालकों को शिक्षा देने के लिए स्वयं को शिक्षित करना होता है तो माता के लिए अपने में यह सब गुण पैदा करना भी आवश्यक होता है. इसलिए वेद ने स्त्री - शिक्षा पर अत्यधिक बल दिया है.

इस सम्बन्ध में वेद उपदेश कर रहा है कि - सरस्वतीं देवयन्तो हवन्ते सरस्वतीमध्वरे तायमाने| सरस्वतीं सुकृतो अह्वयंत सरस्वती दाशुषे वार्यं दात् ||ऋग्वेद १०.१७.७|| इस मन्त्र के माध्यम से स्त्री के लिए चार उपदेश दिए गए हैं. मन्त्र उपदेश करते हुए कह रहा है कि - १ कर्तव्यार्थ प्रोत्साहन जीवन में अनेक अवसर इस प्रकार के आते हैं कि पुरुष में हीनता की भावना का उदय होता है, जिस से वह स्वयं को दुर्बल अनुभव करने लगता है. उसके मन की यह दुर्बलता उसे आगे बढ़ने से रोक देती है. उस मानव के हृदयों से हीनता के भावों का नाश करने को नारी आगे आवे. अदिति का रूप इस समय यह सुशिक्षित देवी, यह सुशिक्षित नारी अदिति का रूप धारण कर लेती है. अदिति का कार्य ही दुर्बलताओं को दूर करना है. यह देवी सब प्रकार की दुर्बलताओं युक्त भावनाओं को दूर कर शक्ति देने वाली होती है. इसलिए अदिति देवी के रूप में यह स्त्री न केवल अपने ही पति की दुर्बलताओं को दूर कर उसमें एक विशेष प्रकार का साहस पैदा कर उसमें अपने कर्तव्यों का पालन करने के लिए प्रोत्साहित करती है अपितु अपने अन्य सम्बन्धियों अर्थात् समाज के विभिन्न प्राणियों में भी साहस का आघान कर उन्हें अपने कर्तव्यों की पूर्ति के लिए भी प्रोत्साहित करती है.

 २ मही समान उदार मानव के अन्दर के संकुचित विचार, उसकी विचारधारा को भी संकुचित बना देते है. इन संकुचित विचारों से ही उसमें स्वार्थ का उदय होता है. अब वह जो भी सोचता है १५ वेद में आदर्श स्त्री शिक्षा से, जो भी विचारता है, वह सब स्वार्थ से लबालब भरा होता है. जब उस की स्त्री, उसकी माता, उसकी बहिन को, उसकी इस अवस्था का ज्ञान हो जाता है तो वह मही का रूप धारण कर लेती है. मही का अभिप्राय: पृथ्वी से होता है अर्थात् अब उसे समझाया जाता है कि उसे भी पृथ्वी के से गुण अपने आप में धारण करने चाहियें.

पृथ्वी जिस प्रकार अपने अन्दर से अनेक प्रकार के अनाज , फल -फूल व ओषध आदि दे कर मानव मात्र ही नहीं अपितु प्रत्येक प्राणी के जीवन इस प्रकार यह सुशिक्षित देवी भी महि बनकर उस में उदार भावों का प्रवेश करने का कार्य करती है. ३ बहुश्रुता सुशिक्षित स्त्री सदा ही सब पर अत्यधिक उपकार करने वाली होती है. जब उस का पति उत्साह रहित हो जाता है, तो उसे ऊपर उठाने के लिए, उसमें नवचेतना, नया उत्साह पैदा करने के लिए, वह उसे वेदादि सत्य शास्त्रों की गाथाएं सुना कर, इस प्रकार के ही अन्य ग्रंथों की उपयोगी चर्चाओं को सुना कर उसे बहुश्रुता बना कर, इस प्रकार की उसकी प्रसिद्धि करने का कार्य करती है, जिस से संसार में उसका यशस्वी नाम सर्वत्र चर्चा में आने लगता है तथा उसमें नए उत्साह का प्रवाह होता है. ४ पुण्य व धर्मोपदेशक सुशिक्षित स्त्री अपने पति, संतान व समाज को सुपथ पर लाने के लिए अनेक कार्य करती है. वह सदा यह ही चाहती है कि उसके परिजन सदा पुण्य - पथ के ही पथिक हों. वह सदा इन सब को पुण्य के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देने के साथ ही साथ समग्र समाज को भी धर्म का मार्ग अपनाने का आह्वान करती है.

डॉ अशोक आर्य 

साहित्य और समाज के रिश्ते

शिक्षा की भाषादैनंदिन कार्यों में प्रयोग की भाषा, सरकारी काम-काज की भाषा के रूप में हिंदी को उसका जायज गौरव दिलाने के लिए अनेक प्रबुद्ध हिंदी सेवी और हितैषी चिंतित हैं और कई तरह के प्रयास कर रहे हैं जनमत तैयार कर रहे हैं. समकालीन साहित्य की युग-चेतना पर नजर दौडाएं तो यही दिखता है कि समाज में व्याप्त विभिन्न विसंगतियों पर प्रहार करने और विद्रूपताओं को उघारने के लिए साहित्य तत्पर है. इस काम को  आगे बढाने के लिए स्त्री-विमर्श, दलित-विमर्श, आदिवासी विमर्श जैसे अनेक विमर्शों के माध्यम से हस्तक्षेप किया जा रहा है . इन सबमें  सामजिक न्याय की गुहार लगाई जा रही है ताकि अवसरों की समानता और समता समानता के मूल्यों को स्थापित किया जा सके. आज देश के कई राजनैतिक दल भी  प्रकट रूप से इसी तरह के मसौदे के साथ काम कर रहे हैं. आजाद भारत में स्वतंत्रताकी जाँच-पड़ताल की जा रही है. साहित्य के क्षेत्र में परिवर्तनकामी और जीवंत रचनाकार यथार्थ, पीड़ा, प्रतिरोध और संत्रास को लेकर अनुभव और कल्पना के सहारे मुखर हो रहे हैं. इन सब प्रयासों में सोचने का परिप्रेक्ष्य आज बदला हुआ है. यह अस्वाभाविक भी नहीं है क्योंकि आज जिस देश और काल में हम जी रहे हैं वही बदला हुआ है . अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य और राजनीतिक समीकरण बदला हुआ है . संचार की तकनीक और मीडिया के जाल ने हमारे ऐन्द्रिक अनुभव की दुनिया का विराट फैलाव दिया है. ऐसे में जब इस सप्ताह दद्दायानी राष्ट्रकवि श्रदधेय मैथिलीशरण गुप्त की एक सौ इकतीसवीं जन्मतिथि पड़ी तो उनके अवदान का भी स्मरण आया. इसलिए भी कि उनके सम्मुख भी एक साहित्यकार के रूप में अंग्रेजों के उपनिवेश बने हुए परतंत्र भारत की मुक्ति का प्रश्न खड़ा हुआ था. उन्हें राजनैतिक व्यवस्था की गुलामी और मानसिक गुलामी दोनों की ही काट सोचनी थी और साहित्य की भूमिका तय कर उसको इस काम में नियोजित भी करना था.

 उल्लेखनीय है कि गुप्त जी का समय यानी बीसवीं सदी के आरंभिक वर्ष आज की प्रचलित खड़ी बोली हिंदी के लिए भी आरंभिक काल था . समर्थ भाषा की दृष्टि से हिंदी के लिए यह एक संक्रमण का काल था. भारतेन्दु युग में शुरुआत हो चुकी थी पर हिंदी का नया उभरता रूप अभी भी ठीक से अपने पैरों पर खड़ा नहीं हो सका  था . सच कहें तो आज की हिंदी आकार ले रही थी या कहें रची जा रही थी . भाषा का प्रयोग पूरी तरह से रवां नहीं हो पाया था. इस नई चाल की हिंदी के महनीय शिल्पी सरस्वती पत्रिका के सम्पादक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने गुप्त जी को ब्रज भाषा की जगह खड़ी बोली हिंदी में काव्य-रचना की सलाह दी और इस दिशा में प्रोत्साहित किया.
 गुप्त जी के मन-मस्तिष्क में देश और संस्कृति के सरोकार गूँज रहे थे. तब तक की जो कविता थी उसमें प्रायः परम्परागत विषय ही लिए जा रहे थे. गुप्त जी ने राष्ट्र को केन्द्र में लेकर काव्य के माध्यम से भारतीय समाज को संबोधित करने का बीड़ा उठाया. उनके इस प्रयास को तब और स्वीकृति मिली जब 1936 में हुए कांग्रेस के अधिवेशन में महात्मा गांधी से उन्हें राष्ट्र-कविकी संज्ञा प्राप्त हुई. एक आस्तिक वैष्णव परिवार में जन्मे और चिरगांव की ग्रामीण पृष्ठभूमि में पले-बढे गुप्त जी का बौद्धिक आधार मुख्यतः स्वाध्याय और निजी अनुभव ही था. औपचारिक शिक्षा कम होने पर भी गुप्त जी ने समाज, संस्कृति और भाषा के साथ एक दायित्वपूर्ण रिश्ता विकसित किया. बीसवीं सदी के आरम्भ से सदी के मध्य तक लगभग आधी सदी तक चलती उनकी विस्तृत काव्य यात्रा में उनकी लेखनी ने चालीस से अधिक काव्य कृतियाँ हिंदी जगत को दीं . इतिवृत्तात्मक और पौराणिक सूत्रों को लेकर आगे बढती उनकी काव्य-धारा सहज और सरल है . राष्ट्रवादी और मानवता की पुकार लगाती उनकी कवितायेँ छंद बद्ध होने के कारण पठनीय और गेय हैं. सरल शब्द योजना और सहज प्रवाह के साथ उनकी बहुतेरी कवितायेँ लोगों की जुबान पर चढ़ गई थी.  उनकी कविता संस्कृति के साथ संवाद कराती सी लगती हैं. उन्होंने उपेक्षित चरित्रों को लिया . यशोधराकाबा और कर्बलाजयद्रथ बधहिडिम्बा, किसान, पञ्चवटी, नहुष, सैरंध्री, अजित, शकुंतला, शक्तिवन वैभव आदि खंड काव्य उनके व्यापक विषय विस्तार को स्पष्ट करते हैं. साकेत और जय भारत गुप्त जी के दो महाकाव्य हैं.
संस्कृति और देश की चिंता की प्रखर अभिव्यक्ति उनकी प्रसिद्ध काव्य रचना भारत-भारती में हुई जो गाँव शहर हर जगह लोकप्रिय हुई. उसका पहला संस्करण 1014 में प्रकाशित हुआ था . उसकी प्रस्तावना जिसे लिखे  भी एक सौ पांच साल हो गए आज भी प्रासंगिक है . गुप्त जी कहते हैं यह बात मानी हुई है कि भारत की पूर्व और वर्त्तमान दशा में बड़ा भारी अंतर है . अंतर न कह कर इसे वैपरीत्य कहना चाहिए . एक वह समय था कि यह देश विद्या, कला-कौशल और सभ्यता में संसार का शिरोमणि था और एक यह समय है कि इन्हीं बातों का इसमें शोचनीय अभाव हो गया है . जो आर्य जाति कभी सारे संसार को शिक्षा देती थी वही आज पद-पद पर पराया मुंह ताक रही है’!
 गुप्त जी का मन देश की दशा को देख कर व्यथित हो उठता है और समाधान ढूँढ़ने चलता है.  फिर गुप्त जी स्वयं यह प्रश्न उठाते हैं कि ‘क्या हमारा रोग ऐसा असाध्य हो गया है कि उसकी कोई चिकित्सा ही नहीं है ?. इस प्रश्न पर मनन करते हुए गुप्त जी यह मत स्थिर कर पाठक से साझा करते हैं :  ‘संसार में ऐसा काम नहीं जो सचमुच उद्योग से सिद्ध न हो सके . परन्तु उद्योग के लिए उत्साह की आवश्यकता है . बिना उत्साह के उद्योग नहीं हो सकता . इसी उत्साह के उद्योग नहीं हो सकता. इसी उत्साह को उत्तेजित करने के लिए कविता एक उत्तम साधन है.’  इस तरह के संकल्प के साथ गुप्त जी काव्य-रचना में प्रवृत्त होते हैं .
 भारत-भारती काव्य के तीन खंड हैं अतीत, वर्तमान और भविष्यत् . बड़े विधि विधान से गुप्त जी भारत की व्यापक सांस्कृतिक परंपरा की विभिन्न धाराओं का वैभव, अंग्रेजों के समय हुए उसके पराभव के विभिन्न आयाम और जो भी भविष्य में  संभव है उसके लिए आह्वान को रेखांकित किया है. उनकी खड़ी बोली हिंदी के प्रसार की दृष्टि से प्रस्थान विन्दु सरीखी तो हैं ही उनकी प्रभावोत्पाक शैली में उठाये गया सवाल आज भी मन को मथ रहे हैं: हम कौन थे क्या हो गए और क्या होंगे अभी ? हमें आज फिर इन प्रश्नों पर सोचना विचारना होगा और इसी बहाने समाज को साहित्य से जोड़ना होगा. शायद ये सवाल हर पीढ़ी को अपने अपने देश कल में सोचना चाहिए.


प्रोगिरीश्‍वर मिश्र Prof. GirishwarMisra, Ph.D
कुलपति  / Vice-Chancellor
महात्‍मा गांधी अंतरराष्‍ट्रीय हिंदी विश्‍वविद्यालय /Mahatma Gandhi Antarrashtriya Hindi Vishwavidyalaya


Friday 11 August 2017

अमरता का केन्द्र

माता रुद्राणां दुहिता वसूनां स्वसादित्यानाममृतस्य नाभिः।
प्र नु वोचं चिकितुषे जनाय मा गामनागामदितिं वधिष्ट।। -). 8/101/15
विनय- हे मनुष्य! तू गौ को कभी मत मार। तू चेतनावाला है, तुझे परमात्मा ने कुछ समझ, अक्ल,  है। इसलिए तुझे कहता हूं-तू गो-घात कभी मत करना! तू अपनी समझ का तनिक-सा उपयोग करेगा तो तुझे पता लग जाएगा कि यह गौ यद्यपि बड़ी भोली, बेचारी, बिलकुल निर्दोष है, इसलिए इसे कोई भी कभी मार सकता है, मारने से यह मर जाएगी, कोई प्रतिरोध न करेगी, परन्तु साथ ही यह इतनी महत्त्वशालिनी है, सब देवों की सम्बन्धिनी और अमरपन का एक केन्द्र है कि इसका मारना अपना नाश करना है, इसका घात करना आत्मघात है।

 यह गौ कहीं और नहीं, हमारे ही अन्दर है। यह अदितिआत्म-शक्ति है, वाणी है, अन्तरात्मा की वाणी है, अन्दर की आवाज है। तुम इसे दबाओगे तो यह चुपचाप दब तो जाएगी, परन्तु इससे तुम्हारा आत्मा नष्ट हो जाएगा। यह अदितिवाणी ;यह आदित्यों की बहिनद्ध वसुओं-आत्मा की वासक अग्नियों-से प्रकट होती है ;इनकी पुत्री हैद्ध और मनुष्य के सब रुद्रों-प्राणों-की और सब चेष्टाओं की माता है। यह ऐसी अमृत वस्तु है कि इसे मारने का यत्न करने वाला स्वयं मर जाता है और इसकी रक्षा करने वाला सुरक्षित रहता है। इसी अन्दर की गौकी प्रतिनिधि आधिदैविक में भूमि है,  आधिभौतिक में राष्ट्रदेवी है और पशुओं में गौ मात है। हे चेतनावाले मनुष्य! तू समझ कि इन गौओं का भी घात कितना भयंकर परिणाम लानेवाला है। भूमि, राष्ट्र और गौओं की रक्षा करने में ही मनुष्यों की, मुनष्य-जाति की रक्षा हे। देखना, इस भूमि-गौ की, इस राष्ट्र-गौ की तथा इस गौ-पशु की तनिक भी हिंसा करने वाला कर्म तुझसे न हो। जब कभी इन सर्वथा अप्रतिरोधिनी गौओं की हिंसा करने का प्रलोभन आये तो याद कर लेना कि ये सब अमृत की नाभियां हैं और अपने-अपने क्षेत्र के आदित्यों, वसुओं और रुद्रों से सम्बन्धित दिव्य शक्तियां हैं। इनको मारकर तू कभी फूल-फल नहीं सकता, परन्तु अन्त में सब बाह्य गौओं की गौ तो अन्तरात्मा की वाणी है। इस गौ को तो कभी मत छेड़ना, उस सदा पालना, पोसना और इसकी आज्ञा को सदा मानना। अपना सर्वस्व स्वाहा करके भी इस गौ की रक्षा करना। इसे तनिक भी नहीं दबाना। यदि इस अमृतनाभि अदितिगौ का रक्षण, पोषण और वृ( होती गई तो तू भी एक दिन अमृत हो जाएगा, देवों का राज्य पा जाएगा। देखना, इस सर्वथा अप्रतिरोधिनी परम शान्त गौ का तेरे यहां तनिक भी तिरस्कार न होने पाये, इसे तनिक भी क्षति न पहुंचने पाये।
शब्दार्थ-मैं चिकितुषे जनाय = प्रत्येक चेतनावाले मनुष्य को नु प्रवोचम् = कहे देता हूं कि अनागाम् = निरपराध अदितिम् = अहन्तव्या गाम् = गौ को मा वधिष्ट = कभी मत मार, क्योंकि यह रुद्राणां माता =रुद्रदेवों की माता है, वसूनां दुहिता = वसु देवों की कन्या है और आदित्यानां स्वसा = आदित्यदेवों की बहिन है तथा अमृतस्य नाभिः = अमरपन का केन्द्र है।

साभार : वैदिक विनय