Friday 11 August 2017

सच्चा आनन्द

अक्षैर्मा दीव्यः कृषिमित् कृषस्व वित्ते रमस्व बहु मन्यमानः। तत्र गावः कितव तत्र जाया तन्मे वि चष्टे सवितायमर्यः।।

विनय - बिना परिश्रम किये फल चाहने वाले भाइयो! बिना पसीना बहाये सुख-सम्पत्ति के अभिलाषियो! तुम बड़ भारी भ्रम में हो। तुम्हारी यह इच्छा इस जगत् के महान् सिद्धांत  के विपरीत है। इस जगत् के स्वामी, सर्वान्तर्यामी, प्रेरक प्रभु ने यह बात आज मुझे साफ-साफ़ दिखला दी है, मेरे अन्तःकरण में इसका प्रकाश हो गया है। पहले मैंने भी सुख पा लने के बहुत से छोटे रास्ते ;ैवतज बनजेद्ध ढूंढे, परन्तु आज प्रभु-कृपा से मुझे साक्षात् हो गया है कि बिना स्वयं परिश्रम किये कोई सच्चा सुख नहीं मिल सकता। यह अटल नियम है। इसलिए आज मैं ऊंचे स्थान पर खड़ा होकर सब संसार को कहना चाहता हूं, मनुष्यमात्र को सुना देना चाहता हूं-‘‘हे मनुष्य! तू जुआ खेल रहे हैं, भिन्न-भिन्न जातियों ने अपने-अपने ढंग-सभ्य या असभ्य-निकाल रखे हैं, पर इन सब ढंगां में दो मूलभूत बात रहती हैं, अर्थात् ;1द्ध बिना श्रम किये समृ( पाने का लोभ और  इसके लिए अपने-आपको भाग्य की अनिश्चित, संशयित सम्भावना पर छोड़ देना।

 इस लोभ और आलस्य में फंसकर मनुष्य जुए के पाप में पड़ता है, पर लोभ और आलस्य के कारण वैसक्तिक ही नहीं, किन्तु सामाजिक सम्पत्ति का भी ट्ठास होता है तथा कौटुम्बिक जीवन ;जोकि मनुष्य के विकास का साधन हैद्ध का नाश होता है। मनुष्यो! तुम्हें सम्पत्ति का सुख ;जिसका कि उपलक्षण गावःहैद्ध और कौटुम्बिक सुख ;जिसका कि उपलक्षण जायाहैद्ध इस कृषि से ही मिलेगा, जुए से नहीं, कुछ श्रम करके कमाने से मिलेगा, दूसरे को ठगने द्वारा मिले धन से नहीं। इसलिए ऐसी थोड़ी कमाई को ही तू बहुत समझ। ईमानदारी और परिश्रम से ही कमाया हुआ थोड़ा-सा धन भी बहुत है, वह वास्तव में बहुत अधिक है। किसी प्रकार के भी जुढ;द्यूतद्ध से रहित सच्ची कमाई का एक-एक पैसा एक-एक हीरे के बराबर है, उतना ही सुख देने वाला है। इसलिए, हे प्यारे! तू अपनी शु( कमाई की रूखी-सूखी में अमृत का आनन्द ले और अपनी शु( कमाई के दो पैसों पर ही बादशाह को मात करने वाले गर्व के साथ सच्चा आनन्द लूट।
शब्दार्थ - अक्षैः मा दीव्यः = तू कभी जुआ मत खेल, किन्तु  कृषिं इत् कृषस्व = खेती ही का काम परिश्रमपूर्वक कर वित्ते बहु मन्यमानः= परिश्रम से मिले धन को ही बहुत मानता हुआ उसी में  रमस्व =आनन्दित, प्रसन्न और सन्तुष्ट रह। कितव = हहे जुआ खेलेने वाले! तत्र = इसी परिश्रम की कमाई में ही  गावः = गौ आदि सब सच्ची सम्पत्ति है और तत्र जाया = इसी में सब गृहस्थ-सुख हैं। तत् = यह बात अर्यः अयं सविता = मेरे स्वामी इस प्रेरक प्रभु ने मे = मुझे वि चष्टे = अच्छी तरह दिखला दी है।

साभार : वैदिक विनय

No comments:

Post a Comment