Friday 11 August 2017

धन का सदुपयोग

पृणीयादिन्नाधमानाय तव्यान् द्रीघीयांसमनु पन्थाम्।
ओ हि वर्तन्ते रथ्येव चक्रान्यमन्यमुप तिष्ठान्त रायः।। -). 10/117/5
विनय - धन को जाते हुए कितनी देर लगती है? व्यापार में घाटा हो जाता है, चोर-लुटेरे धन लूट ले-जाते है।, बैंक टूट जाते हैं, घर जल जाता है आदि सैकड़ों प्रकार से लक्ष्मी मनुष्य को क्षणभर में छोड़कर चली जाती है। वास्तव में लक्ष्मीदेवी बड़ी चंचल है। वह मनुष्य कितना मूर्ख है जो यह समझता है कि बस, यदि मैं दूसरों को धन दान नहीं करूंगा तो और किसी प्रकार मेरा धन मुझसे पृथक् नहीं हो सकेगा। अरे, ध तो जब समय आएगा तो एक पलभर में तुझे कंगाला बनाकर कहीं चला जाएगा। इसलिए हे धनी पुरुष! यदि इस समय तेरे शुभकर्मों के भोग से तेरे पास धन-सम्पत्ति आई हुई है तो तू इसे यथोचित दान में देने में कभी संकोच मत कर। जीवन-मार्ग को तनिक विस्तृत दृष्टि से देख और सत्पात्र को दान देने में अपना कल्याण समझ, अपनी कमाई समझ। सच्चा दान करना, सचमुच जगत्पति भगवान् को उधार देना है जो बड़े दिव्य सूद के साथ फिर वापस मिलता है। जो जितना त्याग करता है वह उससे न जाने कितना गुणा अधिक प्रतिफल पाता है. यह ईश्वरीय नियम है। दान तो संसर का महान् सिद्धांत  है, पर इस इतनी साफ़ बात को यदि लोग नहीं समझते हैं तो इसका कारण यह है कि वे मार्ग को दूर तक नहीं देखते। जीवन-मार्ग कितना लम्बा है, यह संसार कितना विस्तृत है और इस संसार में जीवों को उनके कब के शुभ-अशुभ कर्मों का फल उन्हें कब मिलता है, यह सब-कुछ नहीं दिखाई देता। इसीलिए हमें संसार में चलते हुए वे अटल नियम भी दिखाई नहीं देते जिनके अनुसार सब मनुष्यों को उनके शुभ-अशुभ कर्मों का फल अवश्यमेव भोगनला पड़ता है। 

यदि इस संसार की गति को हम तनिक भी ध्यान से देखें तो पता लगेगा कि धन-सम्पत्ति इतनी अस्थिर है कि यह रथचक्र की भांति घूमती फिरती है-आज इसके पास है तो कल दूसरे के पास है, परन्तु हम अति क्षुद्र दृष्टिवाले हैं और इसीलिए इस आजमें ही इतने ग्रस्त है। कि हम कलको देखते हुए भी नहीं देखते है।! संसार में लोगों का नित्य धननाश होता हुआ देखते हुए भी अपने धननाश के एक पल पहे तक भी हम इस घटना के लिए कभी तैयार नहीं होते और इसीलिए तनिक-सा धननाश होने पर इतने रोते-चीखते भी हैं। यदि हम मार्ग को विस्तृत दृष्टि से देखें तो इन धनागमों और धननाशों को अत्यन्त तुच्छ बात समझें। यदि संसार में प्रतिक्षण चलायमान, घूमते हुए, इस धन-चक्र को देखें, इस बहते हुए धनप्रवाह को देखें, तो हमें धन जमा करने का तनिक भी मोह न रहे।
शब्दार्थ-तव्यान् = धन से बढ़े हुए समृ( पुरुष को चाहिए कि वह नाधमानाय् = मांगने वाले सत्पात्र कोपृणीयात् इत् = दान देवे हीऋे पन्थाम् = सुकृत मार्ग को  द्राघीयांसम्= दीर्घतम अनुपश्येत = देखे। इस लम्बे मार्ग में रायः = धन-सम्पत्तियां उ हि = निश्चय से रथ्याः चक्राः इव = रथ-चक्रों के भांति आ वर्तन्ते =ऊपर-नीचे घूमती रहती हैं, बदलती रहती हैं और  अन्यं अन्यं उपतिष्ठन्ते = एक को छोड़कर दूसरे के पास जाती रहती हैं।

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