Friday 11 August 2017

हे सोम! अपना अमृत वर्षाओ

अजीतयेऽहतये पवस्व स्वस्तये सर्वतातये बृहते।
तदुशन्ति विश्व इमें सखायस्तदहं वश्मि पवमान सोम।। -). 9/96/4
विनय - हम चाहते हैं कि हम अजित रहें, कभी हार न जाएं, हम अहत रहे, कभी माने न जाएं, हमार कल्याण ही हो, कभी हमारा कोई अकल्याण न हो, परन्तु इस सबके लिए, हे सोम! हम तुम्हारे रस के भिक्षुक हैं। तुम्हारा रस मिल जाए तो और सब-कुछ हमें स्वयं मेव मिल जाए। जैसे ग्रीष्म के बाद मेघवृष्टि उद्यान व खेत की सब वृक्ष-वनस्पतियों को जिस समय सजीव करती है तो उनमें सरसता, उनमें हरियाली, उनमें नवपल्लवों का फूटना, उनमें पुष्प और फल का आना आदि सब-कुछ उस एक वर्षारस के पा जाने से हो जाता है, उसी प्रकार यह संसाररूपी महा उद्यान भी, हे बरसनेवाले सोम! तुम्हारा रस पाकर ही नाना प्रकार से फूलता-फलता और जीवित रहा करता है। इस संसारोद्यान का प्रत्येक जीवरूपी वृक्ष तुमसे जीवन पाकर ही नाना प्रकार से आत्म-विकास पाना चाहें, सदा हमें जिस एक वस्तु की आवश्यकता है, वह है तुमसे मिलने वाला जीवन-रस, सोम-रस।

 इसलिए, हे पवमान सोम! संसार के ये सब मनुष्य-मेरे साथी तुमसे यह जीवन-रस मांग रहे हैं-तुमसे यही चाह रहे हैं। मैं तुमसे इसी की मांग मचा रहा हूं। तो हे सोम! अब तुम मेरे लिए क्षरति होओ-मेरे इन सब मनुष्य-सखाओं के लिए क्षरित होओ, हमारी अजीति, अहति, स्वस्ति आदि सब कामनाओं को पूरा कर डालने के लिए क्षरित होओ। नहीं-नहीं तुम तो हे अमृत बरसानेवाले!् इस सब चर,अचर, बृहत् संसार के लिए ही अपनी अमृत-वर्षा का दान करो। ऐसा बरसो कि तुम्हारे अमृत से सीचे जाते हुए इस विशाल ब्रह्माण्ड में सब जीवों, सब प्राणियों की सदा ठीक प्रकार से सर्वविध सर्वोन्नति व सर्वोदय होता जाए। इस प्रकार सब जगत् और प्राणिमात्र का अमृत-सिंचन करते हुए ही तुम मुझे, इस अपने एक तुच्छ प्राणी को भी अपना यह अमृत-रस प्रदान करो। तनिक देखो, यह सब संसार इस अमृत-रस को पाने के लिए कैसा व्याकुल हो रहा है! मैं इसके लिए कैसा तड़प रहा हूं!
शब्दार्थ-पवमान सोम= हे क्षरित होने वाले सोम! अजीतये = हमारे अजित होने के लिए अहतये = हमारे अहत रहने के लिए स्वस्तये = हमारे कल्याण के लिए तथा बृहते सर्वतातये = इस महान् संसार की सर्वविध सर्वोन्नति व सर्वोदय के लिए पवस्व = तुम क्षरित होओ। तत् = इसे ही इमे विश्वे सखायः = ये सब मनुष्यसाथी उशन्ति = चाह रहे हैं, मांग रहे हैं और तत् = इसे ही अहम् = मैं वश्मि = चाह रहा हूं-इसके लिए व्याकुल हो रहा हूं।

साभार : वैदिक विनय

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