Tuesday 11 September 2018

पाप कर्म के प्रमुख कारण


मनुष्य अपने जीवन में अनेक प्रकार के कर्मों को करते रहता है परन्तु उन समस्त कर्मों को ऋषियों ने सबसे पहले दो भागों में बाँट दिया है एक है सकाम कर्म और दूसरा है निष्काम कर्म । निष्काम कर्म केवल योगी लोग ही कर सकते हैं जिसमें कि समस्त लौकिक फलों की कामना से रहित होकर कर्म करना होता है । योगियों को छोड़कर अन्य समस्त लोग तीन एषणाओं से युक्त होकर ही सब कर्मों को करते हैं, सांसारिक व्यक्ति बिना लौकिक कामनाओं के कोई भी कार्य नहीं करता अतः निष्काम कर्म सामान्य व्यक्तियों के द्वारा करने योग्य नहीं होता है और सकाम कर्म तीन प्रकार के विभागों में विभक्त कर दिया है जिसको कि प्रत्येक व्यक्ति करता है, एक शुभ कर्म, दूसरा अशुभ कर्म और तीसरा मिश्रित कर्म ।

मनुष्य बहुत सारे कर्म बिना सोचे समझे वैसे ही करते जाता है, उसमें पुण्य हो रहा है या फिर पाप, मैं शुभ कार्यों को कर रहा हूँ या फिर अशुभ बिना निर्णय किये, बिना उसके परिणाम को जाने-समझे अनायास ही करते जाता है । हम कोई भी कर्म करें सबसे पहले विचार अवश्य करना ही चाहिये कि कैसा कर्म मैं कर रहा हूँ, इसके परिणाम कैसे होंगे, उसके प्रभाव कैसे होंगे, उसके फल कैसे प्राप्त होंगे आदि, क्योंकि मनुष्य उसको कहा जाता है जो विचार करके, चिंतन-मनन करके ही समस्त कर्मों को करता है । कर्म करने से पहले, कर्म करने के समय में और कर्म करने के बाद यह अवश्य देखना चाहिये, निरिक्षण करना चाहिए कि कर्म किस प्रकार के हैं ? उसके परिणाम व्यक्तिगत कैसे होंगे, सामाजिक परिणाम किस प्रकार होगा, यह सब कुछ जो व्यक्ति विचार करके ही करता है तो उसके सब कर्म अच्छे ही होते हैं । जो व्यक्ति इस प्रकार विचार नहीं करता वह अवश्य पुण्य के स्थान पर पाप कर बैठेगा ।
वास्तव में देखा जाये तो पाप कर्म के मुख्य कारण अज्ञान या अविद्या ही है, परन्तु वेदों में इन पाप कर्मों के कारणों का कुछ और ही रूप में उल्लेख किया गया है । ऋग्वेद में पाप कर्मों के पांच कारण गिनाये गए हैं, जैसे कि नियति, सुरा, क्रोध, द्युत, और अज्ञान। इन सब बिन्दुओं के ऊपर कुछ विचार करते हैं ।
नियति - नियति का अर्थ होता है प्रारब्ध अर्थात् पूर्व जन्म में हमने जो कुछ भी पूण्य या पाप कर्म किये होते हैं उन कर्मों के आधार पर ही ईश्वर हमारे वर्त्तमान जन्म में फल निर्धारित कर देते हैं जो कि जन्म होते ही प्राप्त हो जाते हैं, उसी को ही प्रारब्ध कहा जाता है । इस प्रारब्ध से हमारे उस प्रकार के कुछ संस्कार भी बन जाते हैं और उन्हीं संस्कारों से हम प्रेरित होकर पुनः पुनः उन्हीं कर्मों को करते जाते हैं । यदि पाप कर्म के संस्कार हैं तो पाप कर्मों के प्रति हम बार-बार प्रेरित होकर पाप ही करते जाते हैं ।
सुरा - सुरा अर्थात् मदिरा अथवा शराब । इससे हमारी बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है और निर्णय करने की क्षमता भी नष्ट हो जाती है फिर पाप या पुण्य का विचार किये बिना ही हम पाप कर्मों में प्रवृत्त हो जाते हैं ।
क्रोध - इसी प्रकार क्रोध से भी हमारी बुद्धि विकृत हो जाती है । सही-गलत का निर्णय किये बिना ही गलत कार्यों को करते जाते हैं । योग दर्शन में भी कहा गया है कि हम हिंसा लोभ पूर्वक, मोह पूर्वक और क्रोध पूर्वक करते हैं । क्रोध में आकर हम अधिकतर दूसरों की हानि ही करते हैं और पाप अर्जित करते जाते हैं ।
द्युत - द्युत अर्थात् जुआ खेलना जो कि सर्वनाश का कारन है । इसका प्रमुख उदहारण हम महाभारत में देख सकते हैं । जुआ में जब व्यक्ति हार जाता है तो वह फिर किसी भी रूप में धन प्राप्त करना चाहता है चाहे उसको चोरी करनी पड़े, इस प्रकार व्यक्ति पाप अर्जित कर लेता है ।
अज्ञान - समस्त पाप कर्मों का प्रमुख कारण तो यही अज्ञानता या अविद्या ही है । व्यक्ति इसी अज्ञानता के कारण सभी पाप कर्मों को भी अच्छा या पुण्य कर्म मान लेता है और पाप कर्मों में डूबा रहता है जिसके फल स्वरुप उसको अनेक प्रकार के दुःख प्राप्त होते रहते हैं और उसकी स्वयं की तथा अन्य लोगों की भी हानि होती रहती है ।
जब हम इन कारणों को जान लेते हैं और इन्हीं कारणों को दूर कर लेते हैं तो फिर पाप कर्मों से और उनके फल रूप दुःख से भी बाख जाते हैं क्योंकि कारण के नष्ट होने से कार्य भी नष्ट हो जाता है । इसी नियम को अच्छी प्रकार समझ कर हमें सदा यह प्रयत्न करते रहना चाहिए कि इनमें से कोई भी कारण हमारे जीवन में विद्यमान ही न हों तो फिर हमारे जीवन में पाप कर्म ही नहीं होंगे और यदि पाप कर्म ही हम नहीं करेंगे तो सदा दुःख से रहित सुख से ही युक्त रहेंगे । अतः सदा सुखी रहने का यही उपाय है ।
लेख - आचार्य नवीन केवली


समर्पण और आत्मोन्नति


समर्पण एक ऐसा भाव है जो कि व्यक्ति को एक सामान्य स्तर से महान स्तर पर तक पहुँचाने में एक अतुलनीय साधन है । न केवल अध्यात्मिक क्षेत्र में किन्तु लौकिक क्षेत्र में भी यह एक महत्वपूर्ण साधन है किसी भी बड़ी उपलब्धि को प्राप्त करने हेतु । जब हम किसी भी व्यक्ति के प्रति समर्पण भाव रखते हैं तो उससे कुछ न कुछ प्राप्त ही होता है । समर्पण में सबसे बड़ा एक बाधक तत्व है व्यक्ति का मिथ्या अभिमान या गर्व । जब तक व्यक्ति अपने अभिमान का त्याग नहीं कर पाता तब तक किसी के प्रति समर्पण नहीं किया जा सकता ।

अथर्ववेद के मन्त्रों में आत्मसमर्पण को ब्रह्मप्राप्ति का सर्वोत्तम उपाय बताया गया है । इन मन्त्रों में कहा गया है कि ब्रह्म जीवात्मा का आश्रय स्थान है, रक्षक है, कवच है और आत्मबल का कारण है । जीवात्मा अपनी पूर्ण सामर्थ्य, सभी ज्ञान-विज्ञान, सभी इन्द्रियों, सभी शक्तियों और सर्वात्मना अपने आपको ईश्वर के प्रति समर्पित कर देता है तभी जीवात्मा ब्रह्म के सानिध्य को प्राप्त पाता है ।
ईश्वर को कहा गया "इन्द्रस्य गृहो असि, शर्मासि, वरूथमसि" अर्थात् इसका अभिप्राय है जीवात्मा का आश्रय, आधार, माता-पिता और रक्षक परमात्मा ही है जो कि सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान है । जीवात्मा अल्पज्ञ और अल्पशक्तिमान है अतः उसको सदा अधिक ज्ञान-विज्ञान की, शक्ति-सामर्थ्य की, दिव्य-शक्तियों की आवश्यकता रहती है जो कि केवल और केवल अनन्त गुणों और दिव्य शक्ति-सामर्थ्य वाले ईश्वर से ही प्राप्त हो सकती है । इसका एक ही उपाय है समर्पण, ईश्वर के प्रति आत्म-समर्पण । इसी समर्पण से ही आत्मोन्नति संभव है और सबसे बड़ी उपलब्धि अर्थात् ब्रह्मप्राप्ति का अमोघ शस्त्र है ।
यदि जीवात्मा अपने आप को ईश्वरार्पण करता है तो समर्पण से उसमें दिव्य-गुण या ईश्वरीय गुण प्रकट होते हैं समर्पण क्रिया समस्त मनोकामनाओं को पूरी करती है । इस कामधेनु को विश्वरूप कहा है अर्थात् साधक जिस मनोरथ के लिए आत्म समर्पण करता है उसका वह मनोरथ पूर्ण होता है ।
"यदंग दाशुषे त्वमग्ने भद्रं करिष्यसि, तवेत्तत् सत्यमंगिर:" यह परमात्मा की प्रतिज्ञा है कि जो कोई ईश्वर के प्रति सर्वात्मना समर्पण कर देता है उसका ईश्वर अवश्य कल्याण करते हैं और ईश्वर की प्रतिज्ञा कभी मिथ्या नहीं होती, यह सत्य प्रतिज्ञा ही है ।
इस समर्पण की महिमा का महर्षि पतंजलि जी ने भी और योगदर्शन के भाष्यकार महर्षि व्यास जी ने भी बहुत ही अधिक गुणगान किया है । इस समर्पण को प्रणिधान के नाम से योगशास्त्र में पढ़ा गया है जिसका फल अत्यन्त ही लाभकारी बताया गया है ।
जो व्यक्ति ईश्वर के प्रति भक्ति-विशेष पूर्वक अपने आत्मा सहित समर्पण कर देता है तो ईश्वर केवल संकल्प मात्र से ही उस भक्त को अपना लेते हैं उसके प्रति अनुग्रह करते हैं और उसका कल्याण कर देते हैं । उस योगाभ्यासी को इसी एक साधन से ही ईश्वर के स्वरुप का साक्षात्कार हो जाता है । इससे बड़ी उपलब्धि और इस सम्पूर्ण संसार में कुछ भी नहीं हो सकती ।
जिस उपलब्धि को बड़े से बड़े धनवान, ज्ञानवान अथवा कीर्तिमान, बड़े से बड़ा राजा-महाराजा भी प्राप्त करने में जीवन खपा देते हैं परन्तु उनको उसकी उपलब्धि नहीं होती । एक व्यक्ति समर्पण के माध्यम से इस महान उपलब्धि को सरलता और सुगमता से प्राप्त कर लेता है । अतः अपने जीवन में हम सबका कर्तव्य यह है कि समर्पण रूपी साधन को निश्चय से अपनावें और अपने जीवन को निम्न स्तर से उच्चतम शिखर तक ले जाएँ, जीवन का कल्याण कर सकें ।
लेख - आचार्य नवीन केवली