Thursday 23 March 2017

ओउम् यज्ञाग्नि से रोगों का नाश होता है

यज्ञ करने सेवातावरण में विचरण कर रहे तथा छुपे हुए रोग के कीट नष्ट हो जाते हैं। इन जीवों के नष्ट होने सेइस से उत्पन्न होने वाले रोग भी नष्ट हो जाते हैं। इस प्रकार जो शक्ति रोग पैदा करने वाली होती हैवह नष्ट होने से रोग भी नष्ट हो जाते हैं।इस पर मन्त्र प्रकाश डालते हुए कह रहा है कि - 

विश्वाअग्नेऽपदहारातीर्येभिस्तपोभिरदहोजरूथम्। प्रनिस्वरंचातयस्वामीवाम्॥ ऋ07.1.7 

इस मन्त्र में प्रभु से प्रार्थना करते हुए यज्ञ की अग्नि को संबोधन किया गया है तथा प्रार्थना की गयी है कि १. यज्ञ से कष्टों का नाश मन्त्र उपदेश करते हुए कहता है कि हे यज्ञग्ने! आप ही अपनी तेज अग्नि के बल परतेज गर्मी के बल पर सब कष्टों को दूर करते हैं।

 हम जानते हैं कि यज्ञ की अग्नि को तीव्र करने के लिए अग्नि को प्रचंड करने के लिए इस में उतम घी तथा उतम औषधियों से युक्त सामग्री की आहुतियाँ दी जाती है| इन में पौष्टिकता होती हैयह सुगंध से भरपूर होती हैइस में उतम उतम रोग नाशक बूटियाँ डाली जाती हैं और इस के साथ ही साथ इसमें डाली जाने वाली घी व सामग्री में अग्नि को तीव्र करने की शक्ति भी होती है. यज्ञ करते समय हम कुछ वेद मन्त्रों का भी गायन करते हैं. यह मन्त्र गायन भी सुस्वास्थ्य के लिए उपयोगी होते है. इस प्रकार मन्त्र के माध्यम से हम प्रभु से प्रार्थना है करते हैं कि हे प्रभु! इस वायुमण्ड्ल में जितने भी प्राणी हमें हानि देने वाले हैंजितने भी प्राणी हमें रोग देने वाले हैंउन्हें भस्म कर दोनष्ट कर दो।उन्हें अपनी अग्नि में भस्म कर दो। अर्थात् जब हम यज्ञ करते हैं तो इस में डाली जाने वाली सामग्री में एसे पदार्थ डाल कर इसे करते हैंजिन की ज्वाला निकलने वाली गैसों से यह रोग के कीटाणु स्वयमेव ही नष्ट हो जाते हैं। यदि कोई कीटाणु बच भी जाता है तो यज्ञ की इस अग्नि में जल कर नष्ट हो जाता है। २. यज्ञ से तापक शक्ति का नाश हमारे अन्दर समय समय पर अनेक कारणों से रोगाणु पैदा होते रहते हैं. जब यह रोगाणु हमारे शरीर की शक्तियों से कहीं अधिक शक्तिशाली हो जाते हैं. इन की शक्ति हमारे अन्दर की शक्तियों से अधिक हो जाती हैं तो इस का परिणाम जो हम जानते हैं वही होता है 

अर्थात् हम रुग्ण हो जाते हैं. हम जानते हैं कि शल्य सदा कमजोर पर अथवा शक्ति विहीन पर एसा भयंकर आक्रमण करता है , ( राक्षसी वृति के लोगों के सम्बन्ध में भी कुछ एसा ही कहा जाता है कि जब वह सामने वाले को कमजोर पाते हैं तो वह उस पर चारों और से एसा भयंकर आक्रमण करते हैं कि सामने वाला जब तक उसे कुछ समझ में आता है और वह संभलने की सोचता है तब तक वह राक्षसों से इस प्रकार घिर जाता है कि उससे निपट पाना उसके लिए कठिन हो जाता है उनका प्रतिरोध उस की शक्ति में रहता ही नहीं द्य इस कारण वह या तो नष्ट हो जाता है और या फिर आत्म समर्पण कर देता है कि हमारा शारीर इस कष्ट से तप्त हो जाता है. कुछ ऐसी ही अवस्था शरीर में पल रहे रोगाणुओं कीशरीर में पल रहे शल्य की होती है. ज्यों ही यह शरीर को कमजोर पाते हैं तो वह इस शरीर पर एसा आक्रमण करते हैं कि हम संभल ही नहीं पाते. इनके दिए ताप से तप्त होकर हम स्वयं को शक्ति विहीन सा अनुभव करते हैं और शीघ्र ही शिथिल होकर बिस्तर को पकड़ लेते है. अनेक बार तो यह रोग हमारी मृत्यु का कारण भी बनते हैं. इसलिए रोग की जो तापक शक्ति होती है उससे बचने के लिए जब हम यज्ञ करते हैं तो यज्ञ करते हुए इस के साथ हम यज्ञ देव से यह प्रार्थना करते हुए कहते हैं कि हे अग्निदेव ! उस को तूं नष्ट करके हमें स्वस्थ कर अर्थात् हे यज्ञाग्नि इन रोगाणुओं की तापक शक्ति को नष्ट कर हमें स्वस्थ बना । इस सब का भाव यह है कि यह यज्ञ की अग्नि रोग की तापक शक्ति को नष्ट कर देता है। इस अग्नि के तेज से रोग के कीटाणु नष्ट हो जाते हैं तथा जो जन प्रतिदिन दो काल यज्ञ करते हैं अथवा जो लोग यज्ञ स्थल के समीप निवास करते हैंयह यज्ञ की अग्नि उनके अन्दर बस रहे रोग के कीटाणुओ का भी नाश कर देती है। इस प्रकार उसके शरीर के अन्दर के कीटाणुओं के नष्ट होने से वह निरोग हो जाता है। इस यज्ञ से उस के अन्दर इतनी प्रतिरोधक शक्ति आ जाती है कि रोग के कीटाणु भयभीत हो कर इस शरीर से दूर भागने लगते हैं और अब रोग के यह कीटाणु किसी रोग की उत्पति के लिए यज्ञकर्ता पर आक्रमण करने का साहस ही नहीं कर पाते। इससे धीर धीरे यह रोग ओझल ही हो जाता है। इस सब से यह तथ्य सामने आता है कि यज्ञ और इसकी अग्नि हमारे शरीर को सदा स्वस्थ रखने का एक बहुत बड़ा साधन है द्य स्वास्थ्य लाभ के लिए हम प्रतिदिन दो काल उतम सामग्रियों से यज्ञ करें. 
डा. अशोक आर्य


प्रभु उपासना से हम पवित्र बनें





मानव विनाशक वतियों का दास बन जाता है किन्तु मन्त्र इन वृतियों से बचने की प्रार्थना का उपदेश करते हुए परमपिता से प्रर्थना करता है कि हम एसी प्रवृतियों का नाश कर हम स्वयं को सुरक्षित करें। हमारे हृदय में दैविय वृतियां आवें तथा हे प्रभु ! आप के समीप निवास कर हम पवित्र बनें। इस बात को ही यह मन्त्र उपदेश कर रहा है धूरसि धूर्व धूर्वन्तं धूर्व तं योऽस्मान् धूर्वति तं धूर्व यं वयं धूर्वामरू।
देवानामसि वह्नितमं सस्नितमं पप्रितमं जुष्टतमं देवहूतमम्॥8
इस मन्त्र में पांच प्रकार का उपदेश किया गया है । जो इस प्रकार है
१. हमारी आदान वृति का नाश हो!!
हे परम पूज्य प्रभो ! आप हमारे अन्दर की राक्षसी प्रवृतियों को, जो हमारा नाश करने वाली आदतें हैं, इन सब प्रकार की दुष्ट वृतियों का आप ही नाश करने वाले हैं। इन बुरी आदतों से आप ही हमें बचाने वाले हैं। आप के सहयोग के परिणाम स्वरूप हम इन बुराईयों से बच पाते हैं। इसलिए आप हमें इन राक्षसी प्रवृतियों से इन अदान की वृतियों से, दूसरों का सहयोग करने से रहित हमारी आदतों का सुधार कर इन बुराईयों से हमें बचाते हुए इन्हें हम से दूर कर दीजिए, इन का नाश कर दीजिए, इनका संहार कर दीजिए।

जब हमारे अन्दर अदान की वृतियां आती हैं तो हम विभिन्न प्रकार के भोगों में आसक्त हो जाते हैं, इस कारण हम अनेक बार हिंसक भी हो जाते हैं। आप हम पर कृपा करें तथा इन अदान की वृतियों को हम से दूर कीजिए, हमें दानशील बना दीजिए। जिस अदान व राक्षसी वृति से हम हिंसक हो जाते हैं, प्रभु! आप उस पर हिंसा कीजिए अर्थात् इन बुरी वृतियों का नाश कर हमारी रक्षा कीजिए। ये सब बुरी वृतियां हमारा नाश करने को कटिबद्ध हैं, हर हालत में, हर अवस्था में हमारा नाश करना चाहती हैं। आप की जब हमारे पर कृपा होगी, दया होगी, तब ही हम इन का विनाश करने में सक्षम हो पावेंगे। आप की दया होगी तब ही हम इन बुरी वृतियों को नष्ट कर स्वयं को रक्षित कर सकेंगे, अपनी रक्षा कर सकेंगे। हम दिव्य जीवन का आरम्भ करना चाहते हैं किन्तु यह भोगवाद हमें दिव्य जीवन की ओर जाने ही नहीं देते. आप कृपा कर हमें इस भोगवाद से बचावें तथा हमें दिव्य जीवन आरम्भ करने का मार्ग बतावें, हमारे लिए दिव्य जीवन पाने का मार्ग प्रशस्त करें।
२. प्रभु कृपा से दिव्यगुण मिलते हैं
जीव को दिव्यगुण देने वाले वह परमपिता परमात्मा ही हैं। वह प्रभु ही हमें अत्यधिक व भारी संख्या में दिव्य गुण देने वाले हैं। यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि हमें जिन दिव्य गुणों की आवश्यकता है, यथा हमने स्वयं को सुबुद्धि - युक्त करना है। यह सुबुद्धि तब ही आती है , जब हम उग्र हो जाते हैं, अत्याचारों का मुकाबला करने की, प्रतिरोध करने की शक्ति के स्वामी हो जाते हैं । हम दिव्य तब बनते हैं जब हमारे में उदात्त भावनाएं आ जाती हैं। हम स्वयं को उत्तम बना कर दूसरों को भी उत्तम बनाने का यत्न करते हैं, प्रयास करते हैं। जब हम ज्ञानी बन कर अतुल ज्ञान का भण्डार अपने अन्दर संकलित कर लेते हैं तथा दूसरों में यह ज्ञान बांट कर उन्हें भी ज्ञानी बनाने का प्रयास करते हैं। इस प्रकार हम सब प्रकार के तत्वों के स्वामी बन कर तत्वद्रष्टा हो कर ऋषि के आसन पर आसीन हो जाते हैं, सब प्रकार की सदबुद्धियों के स्वामी हो जाते हैं।
३. प्रभु चरणों में सब मलिनताएं मर जाती हैं
हे प्रभो! एक आप ही हैं , जो हमारे जीवनों को शुद्ध व पवित्र बनाते हो। हमारे जीवनों में जितनी भी शुद्धता व पवित्रता है, वह आप के ही आशीर्वाद के कारण है, आप की ही दया के कारण है , आप की ही कृपा के कारण है। आप ही हमें अधिकाधिक शुद्ध व पवित्र बनाते हो। जब हम आपके चरणों में आते हैं तो हमारी सब मलिनताएं दग्ध हो जाती हैं , नष्ट हो जाती हैं , जल कर दूर हो जाती हैं। जब हम आप की उपासना करते हैं, आप के समीप आसन लगाकर बैठते हैं , आप की निकटता को पाने में सफल होते हैं तो हमारा जीवन आप की निकटता रुपि जल से एक प्रकार से धुल जाता है तथा हम शुद्ध ओर पवित्र हो जाते हैं।
४. आप हमें देवीय शस्य से भर देते हो
प्रभो ! जब आप हमारे जीवन को शुद्ध कर देते हो , हमारे जीवन को पवित्र कर देते हो, तो बुराइयाँ निकालने से हमारे अन्दर बहुत सा स्थान रिक्त हो जाता है । आप जानते हो कि रिक्त स्थान तो कहीं रह ही नहीं सकता, जहां भी कुछ रिक्तता आती है तो आप कुछ न कुछ उस स्थान पर रख कर उसे भरने का कार्य भी करते हो। जब आप ने हमारे जीवन की सब बुराईयों को निकाल बाहर कर दिया तो इस रिक्तता को पूरित करने के लिए आप उस शुद्ध हुए शरीर में, दिव्य गुणों के बीज डाल देते हो । दिव्य गुणों की खेती कर देते हो । इन बीजों से हमारे अन्दर दिव्य गुणों के अंकुर फूटते हैं, नन्हें - नन्हें पौधे निकलते हैं। यह अंकुर दैवीय सम्पदा की ओर इंगित करने वाले होते हैं, हमें इंगित करते हैं कि हम किसी दैवीय सम्पदा के भण्डारी बनने वाले हैं। इस प्रकार हम सद्गुण रूपी देवीय सम्पदा के स्वामी बन इस सम्पदा से परिपूर्ण हो जाते हैं।
५. प्रभु ज्ञान का दीपक पा कर देव बनते हैं
हे पिता ! इस जगत् में जितने भी समझदार व सूझवान लोग हैं, आप उन से प्रीति - पूर्वक सेवन किये जाते हो। एसे लोग प्रतिक्षण आप की ही प्रार्थना करते हैं, आप की ही सेवा करते हैं। इस प्रकार के ज्ञान से भरपूर लोग ही देवता कहलाते हैं द्य अतरू आप इन देवाताओं के द्वारा बार - बार पुकारे जाते हो, इन देवताओं के द्वारा बार - बार याद किये जते हो , यह लोग बार - बार आप के समीप आते है और आप की समीपता से देव बन जाते हैं।
देव कैसे बनते हैं ? मानव को देव की श्रेणी प्राप्त करने का साधन है आप की निकटता। आपकी समीपता पाए बिना कोई देव नहीं बन सकता। अतरू आप का उपसन , आप के निकट आसन लगा कर हम देव बन जाते हैं। जब हम आप के समीप आसन लगा कर बैठ जाते हैं तो हमारे अन्दर के काम आदि दुष्ट विचारों का दहन हो जाता है, हनन हो जाता है, नाश हो जाता है, यह सब बुराईयां जल कर नष्ट हो जाती हैं, राख बन जाती हैं। यह काम रूप व्रत्र अर्थात् यह हमारी आंखों पर पर्दा डालने वाले जितने भी दोष हैं, इन सब का आप विनाश कर देते हो तथा इस दोषों के विनाश के पश्चात् हम उपासकों का ह्रदय ज्ञान के प्रकाश से प्रकाशित हो जाता है, जगमगाने लगता है, आलोकित हो जाता है। इस ज्ञान के प्रकाश को पा कर ही हम देव तुल्य बन जाते हैं।

डा. अशोक आर्य

Saturday 18 March 2017

व्यवहार की उत्तमता का मापदण्ड

हम अपने तीनों साधनों (मन, वाणी और शरीर) के माध्यम से ही कुछ क्रिया-व्यवहार करने में समर्थ हो पाते हैं। अर्थात् मानसिक, वाचनिक और शारीरिक रूप में हमारा व्यवहार का क्षेत्र पृथक-पृथक रहता है। हम अपने व्यवहार को पाँच भागों में बाँट सकते हैं जैसे कि व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय, और वैश्विक। जो भी हमारे कर्त्तव्य हैं उनको यदि हम ठीक-ठीक निभाते हैं तो हम एक व्यावहारिक व्यक्ति माने जाते हैं। चाहे हम किसी भी क्षेत्र में कार्य करें परन्तु हमारा व्यवहार उत्तम ही हो ऐसी अपेक्षा सभी की रहती है। यदि हमारे व्यवहारों का परिणाम व प्रभाव कल्याणकारी हो, लाभदायी हो तो व्यवहार उत्तम माना जाता है। व्यवहार की उत्तमता का मापदण्ड यह है कि मुख्यतः हमारे व्यवहार से सुख की ही प्राप्ति हो। यदि हम व्यक्तिगत क्षेत्र में व्यवहार करते हैं तो सुख भी व्यक्तिगत ही होता है। ठीक इसी प्रकार यदि हम अपने परिवार को सुख पहुंचाते हैं तो हमारा व्यवहार पारिवारिक क्षेत्र में उत्तम माना जाता है। सामाजिक क्षेत्र में भी हम तभी अच्छे माने जाते हैं जब हमारे व्यवहार से समाज को सुख पहुँचता है। जो भी हमारा राष्ट्रीय कर्त्तव्य हैं उनको जब हम उचित ढंग से संपादन करते हुए राष्ट्र को हित पहुंचाते हैं तो राष्ट्रीय दृष्टिकोण से हम उत्तम नागरिक कहलाते हैं। ऐसे ही हमारा कुछ कर्त्तव्य विश्व कल्याण के लिए भी होता है। हम प्रत्येक कार्य को तीनों ही साधनों के माध्यम से कर पाएं यह आवश्यक नहीं है। अपनी-अपनी योग्यता व सामर्थ्य के अनुरूप कुछ कार्य हम मानसिक रूप में ही कर सकते हैं तो कुछ कार्य वाचनिक रूप में और कुछ शारीरिक रूप में। यदि हमारा सामर्थ्य उतना अधिक नहीं है और हम किसी को शारीरिक रूप में सहयोग नहीं कर सकते, लाभ नहीं पहुंचा सकते, सुख नहीं दे सकते तो प्रयास यह करना चाहिए कि वाचनिक रूप में सुख पहुंचाएं और यदि उतना भी सामर्थ्य नहीं है तो मानसिक रूप में उनके कल्याण की कामना तो कर ही सकते हैं।
हम अपने व्यक्तिगत व्यवहारों को पुनः दो भागों में विभाजित कर सकते हैं  एक तो ईश्वर के प्रति और दूसरा स्वयं के प्रति। हम यह तो विचार कर लेते हैं और अपने कर्त्तव्यों के प्रति सावधान भी रहते हैं कि दूसरों के प्रति हमारा व्यवहार कहीं गलत न हो जाये। यह उचित भी है और हमें सावधान भी रहना चाहिए इसका निषेध नहीं है परन्तु संसार के सभी लोगों के साथ व्यवहार करते हुए एक व्यक्ति के प्रति अपना कर्त्तव्य हम भूल जाते हैं अथवा उसके प्रति व्यवहार ही ठीक नहीं कर पाते। वह व्यक्ति और कोई नहीं जिसने हमें यह सब साधन प्रदान करके कर्म करने के योग्य बनाया है, जिसने हमें विचार, चिंतन-मनन के लिए मन, निर्णय करने हेतु बुद्धि, सब भोगों को भोगने हेतु इन्द्रियाँ और सुन्दर शरीर बना के दिया उसके प्रति भी तो हमारा कुछ कर्त्तव्य बनता है। उसके प्रति कृतज्ञता प्रकट करना, उसको धन्यवाद देना तथा मुख्य रूप से  उसकी आज्ञाओं का ठीक-ठीक पालन करना। जब हम उसकी आज्ञाओं का पालन करते हैं तो उसमें भी अपना ही लाभ है, कल्याण है, हमें ही सुख मिलता है। इस दृष्टिकोण से इस व्यवहार को हम व्यक्तिगत व्यवहार के अन्तर्गत ही ले सकते हैं क्योंकि इसका परिणाम या फल आदि ईश्वर को तो प्राप्त होगा नहीं और ईश्वर को चाहिए भी नहीं। हम किसी भी क्रियाओं को करने में स्वतन्त्र हैं, अच्छे कार्यों को करने में, बुरे कार्यों को करने में या फिर अच्छे-बुरे मिलाकर मिश्रित कार्यों को करने में। परन्तु हमें यह सदा के लिए स्मरण रखना चाहिए कि जब-जब हम अच्छे कार्यों को करते हैं तो परिणाम स्वरूप सुख ही होता है और जब हम बुरे कार्यों को करते हैं तो उसके परिणाम स्वरूप दुःख की ही प्राप्ति होती है, चाहे हम व्यक्तिगत स्तर पर करें या फिर पारिवारिक और सामाजिक स्तर पर। यदि हम केवल ईश्वर के प्रति भी अपने व्यवहार में सजग-सावधान रहते हैं तो भी अपना समस्त व्यवहार उत्तम ही बनता  जायेगा और यदि हम ईश्वर को ही छोड कर सब व्यवहार करते रहेंगे तो हमारा व्यवहार दोषयुक्त ही रहेगा। जैसा कि कहा भी जाता है कि एक साधे सब सधे और सब साधे सब जाए। इसीलिए हम ईश्वर के प्रति सच्ची श्रद्धा व भक्ति से व्यवहार को उत्तम बनाये रखने में प्रयत्नशील रहें। हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि ईश्वर सर्वत्र विद्यमान, सर्वज्ञ और कर्मफल प्रदाता हैं। इतना मात्र ध्यान रखने से हमसे कभी कोई गलत कार्य हो ही नहीं सकता और हम सदा अच्छे कार्यों में ही प्रवृत्त होते रहेंगे। और जहाँ तक ईश्वर की आज्ञाओं का पालन करने की बात है तो यदि हम एक भी ईश्वरीय आदेश को देखें तो भी हमारा कल्याण सुनिश्चित है, जैसे कि सत्य बोलना। हम यदि केवल सत्य का ही पालन करने लग जाएँ तो भी कल्याण हो जायेगा। और देखा जाये तो जो व्यक्ति ईश्वर को सर्वत्र विद्यमान ही मानेगा तो उससे असत्य का व्यवहार तो वैसे भी नहीं होगा क्योंकि अत्यन्त-दुष्ट स्वभाववालों को छोड़ कर प्रायः सामान्य व्यक्तियों में तो यही प्रवृत्ति देखी जाती है कि किसी दूसरों के सामने स्थूल रूप में कभी कोई बुरा कर्म नहीं करते,अपने को अच्छा ही दिखाते हैं। वैसे भी ईश्वर हमें अच्छे कार्यों में प्रेरित करने हेतु और बुरे कार्यों से रोकने के लिए निर्देश करते रहते हैं। जब हम ईश्वरीय आन्तरिक प्रेरणा को सुनते हैं और उत्तम व्यवहार करते हैं तो इस प्रकार हम सभी बुरे कर्मों से बच जाते हैं और उनके परिणामरूप दुखों से भी । 

ईश्वर के साथ व्यवहार के पश्चात् हम अपने साथ भी उचित व्यवहार करें जिससे हर प्रकार से हमें सुख प्राप्ति हो। आत्मा की उन्नति कैसी हो ? हमारा शरीर कैसे बलवान स्वस्थ व दीर्घायु हो ? हमारा मन कैसे प्रत्येक कार्य में एकाग्रयुक्त हो ? बुद्धि कैसे कुशाग्र हो, निर्णय करने में समर्थ हो ? सभी इन्द्रियाँ स्वस्थ-बलवान हों ? इन सबके लिए सदा प्रयत्नशील रहें। शरीर आदि साधनों को किसी भी प्रकार से हानि हो ऐसा कोई उल्टा कार्य न करें। आत्मा की उन्नति के लिए ईश्वर की उपासना, शरीर की उन्नति के लिए व्यायाम, आसन, प्राणायाम, उत्तम आहार-विहार, मन की एकाग्रता के लिए ध्यान का अभ्यास, बुद्धि के लिए बुद्धि-वर्धक पदार्थों का सेवन करना, यह सब व्यक्तिगत क्षेत्र में अपने प्रति उत्तम व्यवहार है।

हमारा कुछ कर्त्तव्य अपने परिवार के प्रति, परिवार के सभी सदस्यों के प्रति भी होता है। जिन माता-पिता ने हमें जन्म दिया और बाल्यकाल से ही उत्तम रूप से लालन-पालन करके हमें योग्य बनाया, अच्छी शिक्षा दी और अपना सुख छोड़ कर भी हमारे सुख-सुविधाओं का ध्यान रखा, उनका भी हमारे ऊपर महान ऋण है। ठीक उसी प्रकार हम भी उनका सम्मान करें, आदर-सत्कार करें, श्रद्धा पूर्वक उनकी सेवा करें, उनकी आज्ञाओं का पालन करें और हर प्रकार से उनको सुख पहुँचाने का प्रयत्न करें। अपने भाई-बहनों के प्रति भी प्रेम पूर्वक व्यवहार करें, उनकी उन्नति में सदा सहायक हों, यदि हम विवाहित हैं तो अपनी धर्म-पत्नी व बच्चों के प्रति भी अपने कर्तव्यों का निर्वहन उचित रूप में करें।

जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त हम दूसरों से ही सहयोग लेते रहते हैं। समाज में अनेक प्रकार की योग्यता व विशेषताओं से युक्त लोग रहते हैं, हम अपनी छोटी से छोटी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भी दूसरों के आश्रित रहते हैं। बिना दूसरों से सहयोग लिए हमारा जीवन व्यतीत करना भी दुष्कर है। हम दूसरों से सहयोग लेते हैं तो दूसरा भी हमसे सहयोग लेता है। इस प्रकार सारा समाज परस्पर के सहयोग से ही गतिमान है इसीलिए हम भी समाज की उन्नति में अपनी योग्यता व सामर्थ्य के अनुसार कुछ योगदान करें। एक दूसरे से बात-चीत, लेन-देन अदि सब कार्य प्रेम पूर्वक तथा सबके साथ न्याय व धर्मयुक्त मधुर व्यवहार ही करें।  इस समाज में न केवल मनुष्य ही रहते हैं अपितु पशु-पक्षी भी रहते हैं अतः उन सबकी सुरक्षा और पालन-पोषण की व्यवस्था का ध्यान रखना भी एक सामाजिक प्राणी होने के नाते हमारा कर्त्तव्य बनता है, जिनका हमें उचित रूप में संपादन करना चाहिए। 


ठीक इसी प्रकार आगे जाकर हमारा व्यवहार का क्षेत्र राष्ट्रीय स्तर का हो जाता है। देश की उन्नति में जो कुछ भी हमसे बन पाए अपनी योग्यता व सामर्थ्य के अनुरूप करना चाहिए। उत्तम राजाओं वा मंत्रियों का चयन करना तथा देश में अन्याय, अधर्म, अत्याचार, भ्रष्टाचार, आतंकबाद आदि हो तो उसके विरुद्ध में जनता को जागरुक करना चाहिए। राष्ट्र में अविद्या, अन्याय और अभाव को दूर करने का सदा प्रयत्न करते रहना चाहिए। इसी प्रकार पूरे विश्व में सुख-शान्ति की स्थापना हो सके तथा सत्य-धर्म का प्रचार-प्रसार हो ऐसा प्रयत्न करना चाहिए। जहाँ एक धर्म, एक भाषा, एक राज्यीय व्यवस्था, एक संविधान, एक दण्ड-व्यवस्था, एक नीति-नियम, एक ईश्वर, एक पूजा-पद्धति हो ऐसा एक आदर्शरूप विश्व के निर्माण के लिए प्रयत्नशील होना चाहिए। आईये! इस प्रकार हम अपने व्यक्तिगत स्तर से लेकर विश्वस्तरीय व्यवहारों को समझें और कर्तव्यों का ठीक-ठीक सम्पादन करते हुए अपने जीवन के साथ-साथ विश्व के प्राणिमात्र के जीवन को भी सुखमय बनायें। 

समुद्र मन्थन अमृतत्व

पुराणों में इस प्रकार का वर्णन आता है कि समुद्र मन्थन करके देवों और दानवों ने अमृत को निकाला था। कहानी  जो भी हो, उसमें कितनी वास्तविकता है यह हमारी चर्चा का विषय नहीं है। हम केवल यहाँ अमृत के विषय में ही विचार करेंगे। आखिर कोई अमृत को प्राप्त क्यों करना चाहता है, इसका मुख्य प्रयोजन क्या है ? इसका सीधा सा उत्तर यह है कि शरीर को अमरत्व प्रदान करना ही इसका मुख्य प्रयोजन है। क्योंकि आत्मा कभी विनाश को प्राप्त नहीं होती अतः उसकी अमरता के लिए कोई प्रयास करना बुद्धिमत्ता नहीं है और प्रयास करने की आवश्यकता भी नहीं है। रही शरीर की बात तो चाहे हम जितना भी प्रयास करें परन्तु कोई भी प्राकृतिक वस्तु कभी भी अमर नहीं हो सकती। निरुक्तकार ने कहा कि – “षड्भावविकारा भवन्तीति, जायते अस्ति विपरिणमते वर्धते अपक्षीयते विनश्यतीति” अर्थात् प्राकृतिक वस्तुओं में छह प्रकार के विकार या परिणाम देखे जाते हैं और उन परिणामों में अन्तिम है विनाश। जो वस्तु उत्पन्न हुई है उसका विनाश भी अवश्य होगा। उन सभी वस्तुओं में हमारा शरीर भी है। आज तक कोई भी शरीरधारी प्राणी सदा के लिए न जीवित रहा है और न कभी ऐसा हो सकता है। यह हम सबको भी विदित है कि हम कभी न कभी मृत्यु को प्राप्त हो ही जायेंगे, फिर भी इस शरीर को सदा बचाने में प्रयत्नशील रहते हैं परन्तु आजतक असफल ही रहे हैं, सब प्रकार का प्रयत्न व्यर्थ ही हुआ है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि न शरीर की अमरता के लिए प्रयत्नशील होना चाहिए और न ही आत्मा के लिए। फिर यहाँ एक प्रश्न खड़ा हो जाता है कि यह अमरता नामक चीज है किसके लिए ? उसकी हम कामना क्यों करते हैं ? हमारी कामना के अनुरूप ऐसा कोई तत्व है भी या नहीं ? यदि है तो उसका स्वरूप कैसा है ? इन सब शंकाओं का समाधान करना हो तो हमारा एक मात्र शरण है शब्द-प्रमाण। 
शब्द-प्रमाण के आधार पर हम विचार करें तो वास्तव में अमृतत्व एक ऐसी स्थिति है जिसको प्राप्त कर लेने के पश्चात् जीवात्मा फिर लम्बेकाल तक शरीर के बन्धन में आती ही नहीं, जन्म-मरण के चक्र में कभी पड़ती ही नहीं। उस अमृत-पद का नाम ही मोक्ष है जहाँ दुःख का लेश मात्र भी नहीं है और आनन्द ही आनन्द है। इसको प्राप्त करके जीव ३१ नील १० खरब ४० अरब वर्ष पर्यन्त अर्थात् इस प्रकार की सृष्टि और प्रलय 36 हजार बार होते रहेंगे तब तक समस्त दुखों से सर्वथा रहित होकर ईश्वर के आनन्द में ही मग्न रहता है। इसी अमृतत्व की प्राप्ति के लिए ही प्रत्येक प्राणी जाने-अनजाने में प्रयत्नशील हैं। किसी भी वस्तु को प्राप्त करने के लिए कुछ साधनों की आवश्यकता भी रहती है, बिना साधन के किसी भी लक्ष्य की प्राप्ति असम्भव है और इस अमृतत्व को प्राप्त करने का साधन है ज्ञान, कर्म और उपासना। बिना ज्ञान के हमारा कर्म भी ठीक नहीं हो सकता और कर्म शुद्ध हुए बिना उपासना ठीक नहीं हो सकती अतः तीनों साधन ही हमारा शुद्ध होना चाहिए अर्थात् शुद्ध-ज्ञान, शुद्ध-कर्म और शुद्ध-उपासना। ज्ञान के शुद्ध होने से कर्म और उपासना भी शुद्ध होते हैं इसीलिए ज्ञान को ही मुख्य माना जाता है और कहा भी गया है कि- “ज्ञानान्मुक्ति:” अर्थात् ज्ञान से मुक्ति की प्राप्ति होती है, जिसके पास ज्ञान होता है वह मोक्ष रूपी अमृत को प्राप्त कर लेता है। यहाँ कर्म और उपासना का निषेध नहीं है अपितु ज्ञान में ही कर्म और उपासना का समावेश समझना चाहिए। ज्ञान में शुद्धता होनी चाहिए, शुद्धता का अर्थ है ज्ञान में सत्यता, वास्तविकता वा यथार्थता। जिस वस्तु का गुण-कर्म-स्वभाव जैसा हो उसको उसी रूप में ही जानना,मानना अथवा उसके साथ उसी रूप में ही व्यवहार करना सत्य कहलाता है। संसार की वस्तुओं के स्वरूप को यदि हम यथार्थ रूप में जान लेते हैं तो वही ज्ञान हमारी मुक्ति में सहायक बनता है। ज्ञान को प्रकाश भी कहा जाता है और वेदादि शास्त्रों में अनेकत्र ईश्वर को भी प्रकाश-स्वरूप और अन्धकार से पृथक कहा गया है। यदि हम ईश्वर को प्रकाश स्वरूप कहने से भौतिक प्रकाश ही अर्थ लेंगे तो उचित नहीं होगा क्योंकि वेदों में ईश्वर को तो सदा सर्वत्र व्यापक कहा गया है अतः प्रकाश को सर्वत्र व्यापक मान लेंगे तो कभी भी कहीं भी अन्धकार नहीं होना चाहिए परन्तु ऐसा देखा नहीं जाता। सूर्य के संयोग से प्रकाश और सूर्य के वियोग होने से अन्धकार होता है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि सूर्य जिस प्रकार भौतिक प्रकाशयुक्त है ऐसा ईश्वर नहीं है। यदि हम ज्ञान वा प्रकाशस्वरूप ईश्वर की उपासना करते हैं तो हम भी ज्ञानवान् हो जाते हैं जैसे अग्नि के संपर्क से हमें उष्णता की प्राप्ति होती है, ऐसे ही जब हम ज्ञान-विज्ञान का भण्डार ईश्वर की उपासना करते हैं तो ईश्वर निश्चय ही हमें ज्ञान प्रदान करते हैं। वैसे भी सृष्टि के आदि में ऋषियों को वेदों का ज्ञान दिया ही था और जब-जब कोई भी व्यक्ति समाधि लगाता तथा ज्ञान की याचना करता है तब-तब ईश्वर उस जीवात्मा को ज्ञान से युक्त कर देते हैं। महर्षि दयानन्द जी ने भी इस अमृतत्व की प्राप्ति के लिए साधनों की परिगणना करते हुए विवेक, वैराग्य, षट्क-सम्पत्ति और मुमुक्षुत्व आदि साधनों को स्वीकार किया है अतः हमें इन सबका भी पालन अवश्य करना चाहिए।   

हम चाहे जितनी धन-संपत्ति भी एकत्रित क्यों न कर लें परन्तु इन सब साधनों से कभी भी उस अमृतत्व को प्राप्त नहीं कर सकते क्योंकि बृहदारण्यक उपनिषद् में मैत्रेयी ने जब यह प्रश्न किया कि इस सारी पृथिवी को यदि धन-सम्पत्ति से भर दिया जाये तो क्या मैं इससे पूर्ण तृप्त हो जाऊँगी? क्या मैं इससे अमर हो जाऊँगी? तब महर्षि याज्ञवल्क्य ने कहा कि - “यथैवोपकरणवतां जीवितं तथैव ते जीवितं स्यात् अमृतत्वस्य तु न आशा अस्ति वित्तेन इति” अर्थात् हे मैत्रेयी! जिस प्रकार धन-सम्पत्ति से युक्त अन्य लोगों का जीवन होता है, तुम्हारा जीवन भी ठीक ऐसा ही होगा, परन्तु इन सम्पूर्ण संसार की धन-सम्पत्ति से भी अमृतत्व की आशा कदाचित की नहीं जा सकती। सांख्यकार महर्षि कपिल जी ने भी कहा है कि – “न दृष्टात् तत्सिद्धिर्निवृत्तेरप्यनुवृत्तिदर्शनात्” अर्थात् इन सांसारिक दृष्ट-साधनों के द्वारा हम कभी अपने अन्तिम प्रयोजन (अत्यन्त दुःख निवृत्ति और अमृतत्व की प्राप्ति) को सिद्ध नहीं कर सकते क्योंकि एक दुःख के हट जाने पर भी फिर से अन्य दुखों की आवृत्ति देखी जाने से। यदि हम दुःख की निवृत्ति पूर्वक अमृतत्व को प्राप्त करके कृतकृत्यता अनुभव करना चाहते हैं तो हमें विवेक अर्थात् ज्ञान की प्राप्ति करनी पड़ेगी। जैसे कि सांख्यकार ने कहा है - “विवेकात् निःशेषदुःखनिवृत्तौ कृतकृत्यता नेतरान्नेतरात्”। यथार्थ ज्ञान के द्वारा ही वैराग्य होता है और वैराग्य ही मोक्ष का साधन है, ज्ञान ही वैराग्य में कारण है। योग दर्शन के  भाष्यकार ने कहा है कि- “ज्ञानस्य एव पराकाष्ठा वैराग्यम्,एतस्यैव हि नान्तरियकं कैवल्यमिति” अर्थात् ज्ञान की पराकाष्ठा ही वैराग्य है और यह वैराग्य ही बिना व्यवधान के मोक्ष वा अमृतत्व को प्राप्त कराने वाला साधन है। यदि हम वास्तविक रूप में अमृतत्व को प्राप्त करना चाहते हैं तो ऋषियों के बताये मार्ग का अनुसरण करना ही पड़ेगा। उपनिषद् में ऋषि ने कहा कि- “भूतेषु भूतेषु विचित्य धीराः प्रेत्यास्माल्लोकादमृता भवन्ति” अर्थात् विद्वान् लोग संसार के एक-एक पदार्थ को विवेचना करते हुए सबका आदि मूल परमेश्वर पर्यन्त पहुँच जाते हैं ऐसे धीर पुरुष मृत्यु के पश्चात् इस लोक से अमृत लोक को प्राप्त हो जाते हैं। 
महर्षि सनतकुमार जी ने महर्षि नारद जी को उपदेश किया कि “यो वै भूमा तत्सुखं, नाल्पे सुखमस्ति। यो वै भूमा तदमृतम्”। अर्थात् जो महान स्वरूप, व्यापक है वही सुख है, जो सिमित पदार्थ हैं उनमें सुख नहीं है और जो भूमा है वही अमृत है। जब तक हम सांसारिक अल्प वस्तुओं का आश्रय छोड़ कर महान व्यापक स्वरूप परमेश्वर के शरण में नहीं जाते तब तक अमृतत्व को प्राप्त नहीं कर सकते। और भी वेद में ईश्वर से प्रार्थना की गयी है कि – “यत्र ज्योतिरजस्रं....अमृते लोके अक्षित” हे परम पावन परमेश्वर! मुझ भक्त को उस मरणरहित अमृत लोक में, अक्षय-रूप परमधाम में स्थापित कीजिये। उस अमृतत्व को प्राप्त करने के लिए एक उपाय बताया गया है कि समस्त दुष्ट गुण-कर्म-स्वभाव से पृथक रहते हुए ईश्वरीय दिव्य गुण-कर्म-स्वभावों से युक्त हो कर हम जीवन्मुक्त बन जाएँ अर्थात् जीवित अवस्था में ही अमृतत्व को प्राप्त कर लेवें। अमृतत्व की प्राप्ति का एक मात्र शर्त है कि ईश्वर-साक्षात्कार पूर्वक हम सम्पूर्ण रूप से क्लेशों से रहित हो जाएँ, हमारे समस्त क्लेश दग्धबीज अवस्था को प्राप्त हो जायें। हम अधिक से अधिक यह प्रयास करें कि अविद्या आदि क्लेशों से युक्त न हों। क्लेशों के स्वरूप को और अवस्थाओं को हम ठीक-ठीक समझें तथा उन क्लेशों से कभी चित्त को अभिभूत न होने दें। सभी क्लेशों की जननी अविद्या ही है अतः कहा कि “अत्राविद्या क्षेत्रं प्रसवभूमिरुत्तरेषामस्मितादिनाम्” अर्थात् अविद्या कारण रूप उत्पत्ति स्थान है अस्मिता आदि क्लेशों का और भी कहा कि क्षीणक्लेशः कुशलश्चरमदेह इत्युच्यते अर्थात् जिसका क्लेश सम्पूर्णतया क्षीण हो जाता है वह योगी कुशल और अन्तिम शरीरवाला कहलाता है, ऐसा योगी शरीर छोड़ने के बाद सीधा ही अमृतत्व को प्राप्त कर लेता है फिर से एक परांतकाल पर्यन्त शरीर के बन्धन में नहीं आता। इन सब प्रमाणों से यह निष्कर्ष निकलता है कि ईश्वर ही एक मात्र अमृत स्वरूप है और उसी को वा मोक्ष को ही प्राप्त करके हम स्वयं भी अमृत हो सकते हैं, इसके अतिरिक्त कोई अन्य मार्ग नहीं है, अतः हमें सदा उसी के लिए ही प्रयत्नशील होना चाहिए।      आचार्य नवीन केवली         

स्वामी दयानन्द के जीवन पर एक रोचक लेख


स्वामी दयानन्द महापुरुष थे
संसार में लाखों मनुष्य नित्य जन्मते और मरते हैं । सैंकड़ों नवीन आत्मायें नवीन सजधज और शोभा के साथ सृष्टि में आती हैं । उनके जन्म लेने पर अत्यन्त प्रसन्नता प्रकट की जाती है, संसार के समाचारपत्र उनकी प्रशंसा के गीत गाते हैं और उनके माता पिता तथा परिवार के लोगों को बधाईयाँ देते हैं । देश के मन्दिरों में उनकी आयु-वृद्धि के लिये प्रार्थना की जाती है । बड़े-बड़े धर्मनिष्ठ लोग उनकी सफलता के लिये ईश्वर से प्रार्थना करते हैं । प्रतिक्षण उनकी सुरक्षा के कदम उठाये जाते हैं । प्रतिवर्ष उनकी प्रगति की रिपोर्टें छपती हैं । उनके कार्यों को सृष्‍टि के अद्‍भुत कार्यों में गिना जाता है । उनकी उत्पत्ति से ही लोगों के मन में एक अपूर्व आह्लाद पैदा हो जाता है क्योंकि लोगों को उनसे बहुत बहुत आशाएँ होती हैं । परन्तु खेद इस बात का है कि ऐसे लोगों में से अधिसंख्य अपने कार्यों से यह सिद्ध कर देते हैं कि उनका जन्म लेना लोगों के लिये प्रसन्नता का हेतु नहीं था । उनमें से अनेक अपने माता-पिता तथा अपने वंश को कलंकित काने वाले सिद्ध होते हैं तथा मानवता से सर्वथा रहित होते हैं । जब वे मर जाते हैं तो संसार को उनकी मृत्यु से कोई खेद नहीं होता अपितु कई लोग तो उनसे इतनी घृणा करने लगते हैं कि उनकी मौत को पृथ्वी का भार दूर होना ही समझते हैं । लोग यही समझते हैं कि धरती से एक बला टली । दूसरी ओर बहुत कम संख्या में ऐसे लोग भी जन्म लेते हैं जिनके आने की दुनिया को खबर ही नहीं लगती । केवल उनके नाते-रिश्तेदारों को ही उनके जन्म का ज्ञान होता है और उनका आविर्भाव संसार के लिये किसी भी प्रकार महत्त्वपूर्ण नहीं माना जाता । ऐसे लोग पर्याप्‍त समय तक गुमनामी की ही जिन्दगी जीते हैं और इस अप्रसिद्धि में ही जीवन-यात्रा का कुछ भाग व्यतीत करते हैं । वे अप्रसिद्ध रहकर ही मर जाते हैं । उनका जन्म, जीवन और मृत्यु संसार की कोई प्रसिद्ध घटना नहीं मानी जाती । लोगों को पता ही नहीं चलता कि कौन जन्मा और कौन मरा । अनेक ऐसे भी होते हैं जो अप्रसिद्धि की अवस्था में जन्म लेते हैं, इसी अवस्था में शिक्षा ग्रहण करते हैं किन्तु जब युवा होते हैं तो उनकी गणना प्रसिद्ध लोगों में होती है । समस्त संसार में नहीं तो कम से कम एक प्रान्त में तो वे अपना नाम करते ही हैं । जब उनकी मृत्यु होती है तो अनेक लोग उनके लिये शोक करते हैं और उनके गुणों का स्मरण करते हैं । उनका यश थोड़ा स्थायी होता है । किन्तु एक-दो पीढ़ी के बाद लोग उन्हें भी भूल जाते हैं परन्तु किसी समय विशेष पर ही लोग उन्हें याद करते हैं । इसके अतिरिक्त एक श्रेणी उन लोगों की है जिनकी संख्या अत्यन्त कम है । ये लोग गुमनामी में ही पैदा होते हैं और गुमनामी में ही पलते हैं किन्तु जब कर्मक्षेत्र में आते हैं तो अपने बुद्धि, अन्तश्चेतना, लगन, योग्यता, मनुष्यत्व तथा वीरता के कारण संसार के लोगों को अपनी ओर खींचते हैं । वे लोग संसार में दृढ़ प्रभाव उत्पन्न करते हैं, लोगों में खुद के लिए आकर्षण पैदा करते हैं । कार्लाइल ने ऐसे मनुष्यों की उपमा अग्नि के स्फुलिंगों से दी है जिन्हें लोग परमात्मा कहते हैं । ऐसे मनुष्य पृथ्वी को प्रकाशित करने के लिये सूर्य तुल्य हैं । वे सूर्य के तुल्य ही यश पाते हैं और संसार को उनसे प्रकाश मिलता है । उनकी मृत्यु मनुष्य जाति के एक सीमित वर्ग के लिये ही नहीं, बल्कि समस्त मानव-जाति के लिए खेदजनक होती है । उनका नाम कभी नहीं मरता और उनका काम कभी नष्‍ट नहीं होता । उनकी याद कुछ दिनों या कुछ शताब्दियों में भी विलीन नहीं होती, किन्तु वह सदा तरोताजा रहती है । उनके द्वारा फैलाई गई ज्योति एक काल या एक पीढ़ी को ही प्रकाशित नहीं करती, किन्तु उसका प्रभाव सदा के लिए जगत् में रहता है । उनकी कार्यप्रणाली एक वंश या एक समय तक ही स्मरणीय नहीं रहती, अपितु उस पर सदा चर्चा और वाद-विवाद होता रहता है । ऐसे मनुष्यों का आचरण ही संसार में महत्त्वपूर्ण होता है । ऐसे मनुष्य बहुत थोड़े होते हैं । संसार में अन्य लोगों के लिये वे प्रकाशस्तम्भ तुल्य होते हैं । संसार के महावन में वे विश्रामस्थल के समान होते हैं । विश्व के राजमार्ग पर मील के पत्थर के तुल्य होते हैं जिन पर यात्रा की मंजिलें अंकित रहती हैं । ऐसे लोग आत्मिक क्षुधातुरों तथा तृषा से व्याकुल पुरुषों के लिए भोजनागार तथा जलाशय के तुल्य हैं । लोग उनके व्याख्यान सुनकर ही अपनी आत्मा का आहार पाते हैं और व्याकुलता को शान्त करते हैं । आप चाहे उन्हें अवतार कहें या पैगम्बर, ईश्वर का स्थानापन्न कोई ऋषि-महर्षि कहें अथवा महापुरुष कहकर पुकारें, वे एक की शिला के खण्ड, एक ही अग्नि के स्फुलिंग, एक ही कारखाने के पहिये और एक ही कल के पुर्जे होते हैं । संसार का कोई भाग ऐसे मनुष्यों के अस्तित्व से खाली नहीं होता । भगवान् कृष्ण, महात्मा बुद्ध, महर्षि व्यास, गौतम, कणाद, जैमिनि, कपिल और पतञ्जलि आदि इसी श्रेणी के मनुष्य थे । स्वामी शंकराचार्य, गुरु नानकदेव, गुरु गोविन्द सिंह भी इसी कोटि के थे । महाराज विक्रमादित्य, सम्राट् अशोक तथा शिवाजी महाराज भी ऐसे ही महापुरुष थे । हमने केवल नमूने के रूप में ये नाम लिखे हैं ।

हमारा दृढ़ विश्वास है कि स्वामी दयानन्द भी इसी श्रेणी के महापुरुष थे । अप्रसिद्धि में जन्मे, उसी रूप में पले, शिक्षा-प्राप्‍ति तक भी अप्रसिद्ध ही रहे, किन्तु जब कर्मक्षेत्र में आये तो जीवनपर्यन्त सिंह की तरह गरजते रहे । स्वामी जी ने एक पुरातन जाति को मृत्यु की स्थिति से हटा कर आशा के आसन पर ला बिठाया । एक महान् धर्म को गड्ढ़े से निकालकर प्रकाश के उच्च शिखर पर स्थापित कर दिया । संस्कृत जैसी गौरवमयी भाषा को अप्रसिद्धि की हालत से हटा कर संसार की भाषाओं में प्रधान स्थान दिला दिया । संसार की सभ्यता को गतानुगति से हटा कर सचेत किया । प्रत्येक प्रकार से देखें तो स्वामी दयानन्द महापुरुष सिद्ध होते हैं । यदि शारीरिक दृष्टि से देखें तब भी स्वामी जी महान् प्रतीत होते हैं । वे शरीर से दुर्बल लोगों को सदा तुच्छ मानते थे । शारीरिक बल तथा इन्द्रिय दमन में वे अद्वितीय थे । जीवन से मृत्युपर्यन्त उन्होंने कभी नारी का सान्निध्य नहीं किया । उनके अखण्ड ब्रह्मचर्य पर उनके बड़े से बड़े शत्रु ने भी शंका नहीं की, न उनके जीवनकाल में और न उनकी मृत्यु के पश्‍चात् ।

स्वामी जी उच्च कोटि के विरक्त और वीतराग पुरुष थे । उन्होंने अपने पिता की सम्पत्ति को लात मारी । जीवन में ऐसे अनेक अवसर आये जब उन्हें अपरिमित धन तथा ऐश्वर्यपूर्ण जीवन जीने के प्रलोभन दिये गये किन्तु वे इससे सर्वथा असंपृक्त रहे । उनमें तीव्र बुद्धि तथा अपूर्व स्मरण शक्ति थी । उनके समकालीनों में उनकी सी तीक्ष्ण बुद्धि वाला शायद ही कोई रहा हो । विद्या और चारित्रिक श्रेष्ठता में वे अद्वितीय थे । संस्कृत ज्ञान में उनका कोई सानी नहीं था । निर्भयता में अद्वितीय थे । वे अपने विश्वास पर आजीवन दृढ़ रहे । एक समय ऐसा था जब सारा संसार एक ओर था और स्वामी दयानन्द एक ओर थे । अपने विश्वास को व्यक्त करने तथा विचारों क प्रचार करने में उनके तुल्य अन्य कोई नहीं था । उनको न राजा का भय था और न प्रजा का । वे अपने परिजनों या जाति वालों से कभी भयभीत नहीं हुए और न इतर जाति वालों से । अनथक परिश्रम करने से कभी विरत नहीं हुए । यदि उनके सार्वजनिक जीवन के उस स्वल्प काल ला लेखा-जोखा किया जाए तो उनकी कर्मठता का पूर्ण प्रमाण मिल जाता है । उनकी वाणी और लेखन तथा शास्‍त्रार्थ कौशल सब कुछ असाधारण था । लोगों को अपनी ओर आकृष्ठ करने की उनमें अद्‍भुत शक्ति थी । जो मनुष्य उनके समक्ष आता, उनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रहता । वे उच्च कोटि के योगी थे किन्तु उनमें अपने योग बल का स्वल्प भी अभिमान नहीं था ।

योग शक्ति का अभिमान करना तो दूर, वे इसे प्रकट करने में भी संकोच करते थे । कठिनाइयों से कभी घबराये नहीं बल्कि साहस और वीरतापूर्वक उनका सामना किया । न किसी की मित्रता की परवाह की और किसी की शत्रुता की चिंता, अपितु हुआ यह कि अनेक शत्रु उनके मित्र बन गये और मित्र शत्रुवत् आचरण करने लगे । तथापि उस महापुरुष के कार्य और व्यवहार में थोड़ा भी अन्तर नहीं आया । सारांश यह कि स्वामी जी में महापुरुषों के सभी गुण विद्यमान थे । उनके समग्र कार्यों का मूल्यांकन करने का अभी उचित समय नहीं आया है किन्तु हमारा विश्वास है कि एक समय आएगा जब उनके नाम से सारा संसार परिचित हो जाएगा । संस्कृत पृथ्वी की समस्त भाषाओं में वरिष्ठ पद प्राप्‍त करेगी तो विश्व के लोग उन्हें महापुरुषों की श्रेणी में उच्च पद पर प्रतिष्ठित करेंगे । उनके मिशन और कार्य को भी आदर की दृष्टि से देखा जाएगा ।


- लाजपतराय