Thursday 18 January 2018

आत्म – निरीक्षण से ही मिलती है जीत

लेख :– आचार्य नवीन केवली
संसार में किसी भी क्षेत्र में उन्नति या सफलता के लिए अथवा आध्यात्मिक जगत में उच्चतम शिखर को छूने लिए, हमें अपने जीवन में एक विशेष उपाय का अवलंबन या अनुष्ठान अवश्य करना चाहिए और वह है अपने आप का आंकलन करना, जिसे शास्त्रों की भाषा में आत्म-निरीक्षण कहा गया है । जो व्यक्ति अपने द्वारा किये गए समस्त क्रिया-कलापों का पृष्ठावलोकन नहीं करता वह जीवन के किसी भी क्षेत्र में सफल नहीं हो सकता । मनुष्य अल्पज्ञ है, अल्प सामर्थ्य वाला है, अतः उससे कुछ न कुछ गलती होना स्वाभाविक है, चाहे वह स्वार्थयुक्त होकर, जानबूझ कर, योजना पूर्वक गलती करे अथवा अनजाने में गलती हो जाये । कोई भी व्यक्ति सम्पूर्ण नहीं होता, कुछ कमियाँ तो अवश्य ही रहती हैं ।


शास्त्रकारों ने हमारे लिए यह निर्देश दिया है कि – “प्रत्यहं प्रत्यवेक्षेत नरश्चरितमात्मन:। किन्नु मे पशुभिस्तुल्यं किन्नु सत्पुरुषैरिति”। अर्थात् प्रत्येक मनुष्य का यह आवश्यक कर्त्तव्य है कि वह प्रतिदिन अपना निरीक्षण करते हुए यह जानने का प्रयत्न करे कि मेरा जीवन किस प्रकार व्यतीत हो रहा है, मेरा व्यवहार व चरित्र किस प्रकार हो रहा है ? क्या मेरे सभी क्रिया-कलाप विद्वानों, ऋषि-मुनियों, महापुरुषों, सत्पुरुषों के जैसे हो रहे हैं या फिर मैं केवल पशुओं के समान खाने-पीने-सोने में ही अपने जीवन को नष्ट करते जा रहा हूँ ?

आध्यात्मिक व्यक्ति के लिए यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण व आवश्यक अंग है । सबसे पहले वह योगाभ्यासी यह निर्धारण करता है कि मेरा लक्ष्य क्या है ? उस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए उसके अनुकूल कौन से कर्तव्य कर्म हैं और कौन से अकर्तव्य हैं, यह ज्ञान करता है ? फिर वह स्वयं को उस कसौटी पर रखकर परीक्षण करता है कि, अपने लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए करने योग्य कर्मों को मैं कर रहा हूँ या नहीं और जो करने योग्य नहीं हैं उन कर्मों का त्याग कर रहा हूँ या नहीं ? क्या मैं इससे विपरीत कर्तव्य कर्मों का परित्याग और अकर्तव्य कर्मों के अनुष्ठान में तो लगा हुआ नहीं हूँ ? इस प्रकार जो व्यक्ति विचार करता है, वह अपने लक्ष्य के प्रति तीव्रता से आगे बढ़ता जाता है और अन्य व्यर्थ बातों में समय खर्च कभी नहीं करता । जितना-जितना अपने दोषों को व्यक्ति देखते जाता है और निकालते जाता है उतनी-उतनी मात्रा में नये-नये दोष दृष्टिगोचर होते जायेंगे और जितने दोष, न्यूनतायें, कमियाँ दूर होते जायेंगे, व्यक्ति उतना ही उन्नत होता जायेगा ।

जैसे कि हम सुनते हैं – जंगल में जब शेर चलता है तो थोड़ी-थोड़ी दूर चलके बार-बार पीछे कि ओर मुड-मुड कर देखता रहता है कि कहीं कुछ छूट तो नहीं गया ? इसको कहते हैं सिंहावलोकन । इससे उस शेर को दो लाभ होते हैं, एक तो उसका कोई शत्रु शिकारी हो तो उससे अपनी रक्षा करने में समर्थ हो जाता है और दूसरा उसका कोई शिकार पीछे रह गया हो तो उसको दबोच लेता है ।
जब एक विद्यार्थी अध्ययन करता है तो उसको भी इस सिंहावलोकन रूपी प्रक्रिया का अनुसरण करना पड़ता है, मुख्यतः जब किसी ग्रन्थ विशेष को कंठस्थ करते हैं तो बार-बार आवृत्ति करनी पड़ती है । प्रतिदिन नये पाठ को कंठस्थ करने के साथ-साथ पीछे विगत दिनों में जो कंठस्थ किया था उसका भी पुनरावलोकन करना होता है । इस प्रकार उसकी विद्या अन्तः पटल पर स्थिर हो जाती है, नहीं तो जितना पढ़ा-सुना हुआ होगा वह सब थोड़े समय के बाद भूल जायेगा ।
ईश्वर ही एक मात्र पूर्ण स्वरुप है अतः उसके द्वारा निर्मित वस्तुओं में कोई सुधार, कोई संशोधन, परिवर्तन, परिवर्धन आदि करना नहीं पड़ता । मनुष्य अल्पज्ञ होने के कारण मनुष्यों के द्वारा निर्मित वस्तुओं में अथवा लिखित ग्रन्थों में सदा कुछ न कुछ संशोधन वा परिवर्तन आदि की अपेक्षा रहती ही है । ऐसी स्थिति में उस कार्य को पुनः निरीक्षण करने की आवश्यकता हो जाती है ।
एक व्यवसाय करने वाला दुकानदार भी यही कार्य करता है, जैसे कि वर्ष भर में उसने कितने रुपये का निवेश किया और कितने रुपये की उसको आय हुई । उसको हानि हो रही है या लाभ हो रहा है ? यदि हानि हो रही है तो किस कारण से हानि हुई, इन सबका ज्ञान करना पड़ता है अन्यथा कभी भी व्यापार में व्यक्ति सफल नहीं हो सकता ।
एक मूर्तिकार भी जब मूर्ति बना लेता है तो उसको बार-बार निरीक्षण करना पड़ता है । उदाहरण स्वरुप एक प्रसंग सुनने में आता है कि एक बार एक मूर्तिकार ने अत्यंत सुन्दर मूर्ति बनायी। काम पूरा होने पर उसने मूर्ति की ओर खूब सूक्ष्मता से निहारा और फिर रोने लगा। शिल्पकला को जानने वाले लोगों ने पूछाः "इतनी बढ़िया मूर्ति बनायी है फिर उसे देखकर क्यों रोते हो?" उसने कहा कि "मैंने मूर्ति को अच्छी प्रकार से बनायी, फिर ढूँढा कि इसमें क्या कमी रह गई है, लेकिन मुझे इसमें कोई कमी नहीं दिख रही है। इसका मतलब यह हुआ कि मेरा ज्ञान यहीं रुक गया, मेरी और उन्नति नहीं हो सकती अतः रो रहा हूँ” । इससे ज्ञात होता है कि पुनरावलोकन से कमी निकलती है और उससे फिर व्यक्ति की उन्नति होती जाती है ।

ऐसे ही एक चित्रकार जब कोई चित्र बनाता है तो अन्तिम रूप देने से पहले ही वह निरीक्षण करता है कि कोई कमी तो नहीं रह गयी ? तब जाकर वह एक सफल चित्रकार बनता है ।
एक खिलाड़ी  को भी आत्म-निरीक्षण की प्रक्रिया को आजमाना पड़ता है । जब-जब वह दुसरे प्रतिभागी खिलाड़ियों से पराजित होता है तब-तब उसे यह निरीक्षण करना चाहिए कि किन कमियों के कारण वह पराजित हुआ । यदि वह अपनी न्यूनताओं को जान कर दूर कर लेता है तो किसी भी प्रतियोगिता में वह आगे बढ़ जाता है ।
इस प्रकार एक वैज्ञानिक भी अपनी सूक्ष्म गवेषणाओं में अनेक बार विफल होता है तो उसको भी अपने विभिन्न प्रकार के प्रयोगों में निरीक्षण करना होता है कि कहाँ पर क्या कमी रह गयी ? जिससे सफलता नहीं मिल सकी । इन कमियों को जब दूर कर देता है तब वह भी सफलता को हस्तगत कर लेता है ।
प्रायः व्यवहार में ऐसा देखा जाता है कि हम स्वयं कभी भी अपने दोषों को देखना ही नहीं चाहते और यदि कोई हमें हमारे दोषों से अवगत करा देता है तो उसको हम बहुत बुरा-भला कहते हैं, उसके प्रति क्रोध करते हैं, उसके साथ झगड़ लेते हैं जिससे वह आगे कभी भी हमारे दोषों को बताता ही नहीं और हमारे अन्दर वे सब दोष ज्यों के त्यों बने रहते हैं, हमारी उन्नति रुक जाती है । यदि हमें वास्तविक उन्नति करनी है तो अपने साथी-मित्रों से आश्वासन पूर्वक निवेदन करना चाहिए कि कृपया मेरे व्यवहार में होने वाले दोषों को मुझे बताया करिए, जिससे मेरी उन्नति होगी और आपकी बड़ी कृपा होगी । जब भी कोई हमें हमारा दोष बताये तो उसे अवश्य धन्यवाद ज्ञापन करना चाहिए । क्योंकि वह हमारी ही उन्नति के लिए, सीखने-सुधरने के लिए, विकास करने के लिए द्वार खोल रहा है, सहयोगी बन रहा है ।
हम यह कहना नहीं चाहते कि केवल अपने दोषों को ही देखें या निरीक्षण करें, किन्तु हमें अपने गुणों का भी अवश्य निरीक्षण करना चाहिए । हमारे अन्दर जो सद्गुण विद्यमान हैं, जिनके कारण हमारा व्यक्तिगत, हमारे मित्र-साथियों का, हमारे परिवार के सदस्यों का अथवा समाज का लाभ हो रहा हो ऐसे गुणों को भी सतत विकसित करते रहना चाहिए । जैसे खेतों में फसल उगाते हैं, तो वहाँ फसल के अतिरिक्त विजातीय तत्वों को भी निकालना पड़ता है, जो कि फसल के बढ़ने में बाधक बनते रहते हैं तथा कुछ पौष्टिक तत्वों को भी समाविष्ट करना होता है जिससे वे पुष्ट होकर शीघ्रता से लह-लहाने लगते हैं । ठीक इसी प्रकार हमारे अन्दर स्थित अनेक प्रकार के दुर्गुण रूपी बाधक तत्वों को निकाल कर सद्गुण रूपी पौष्टिक तत्वों को अपने जीवन में धारण करना चाहिए ।

अधिकतर हमारे व्यवहार में अपने दोषों को देखने, जानने व दूर करने के स्थान पर हम अन्यों की कमियाँ निकालने में लगे रहते हैं, दूसरे की योग्यता न्यून सिद्ध करने में ही समय व बुद्धि ख़राब करते रहते हैं । यदि हम दूसरे के लिए लगाये गए समय और बुद्धि का 10 प्रतिशत भी अपने दोषों को निरीक्षण करने में लगा लेते तो निश्चित है, हमें उन्नति-प्रगति करने से वा अपने लक्ष्य प्राप्ति से कोई रोक नहीं सकता ।  
प्रायः कई बार हम कुछ दोषों को अपना स्वरुप अथवा अपना स्वभाव मान लेते हैं, जैसे कि, मैं तो क्रोधी स्वभाव का हूँ, मैं जितना भी प्रयत्न करूँ लेकिन यह क्रोध तो दूर होता ही नहीं, नष्ट होता ही नहीं, मेरे सामर्थ्य से बाहर है । ऐसा मानकर हम पुरुषार्थ करना छोड़ देते हैं । तो सदा यह स्मरण रखें कि कोई भी दोष अपना स्वभाव नहीं होता, जीवात्मा तो स्वाभाव से शुद्ध स्वरुप है परन्तु ये सब दोष निमित्त से आये होते हैं और प्रयत्न से नष्ट भी होते हैं ।
एक योगाभ्यासी यह भी सतत निरीक्षण करता रहता है कि क्या ऋषियों, मुनियों के द्वारा बताये सिद्धान्त और उपदेश के अनुरूप मेरा व्यवहार है वा नहीं ? जैसे कि ऋषियों ने कहा है – “सम्मानात् ब्राह्मणो नित्यम् उद्विजेत विषादिव, अमृतस्येव चाकांक्षेत् अवमानस्य सर्वदा” अर्थात् एक योगाभ्यासी, ब्राह्मण, विद्वान् व्यक्ति सम्मान को विष के तुल्य माने और अपमान को अमृत के समान जाने वा इच्छा करे । इस ऋषिवाक्य के अनुसार मैं सम्मान को विष के तुल्य और अपमान को अमृत के तुल्य स्वीकार करता हूँ या नहीं ?
यह सबसे उत्तम स्थिति है कि हम अपनी कमियाँ स्वयं ढूँढ लें, उनको प्रसन्नता पूर्वक स्वीकार कर लें, तथा पश्चाताप करते हुए उन दोषों को दूर करने के लिए पुरुषार्थ करें। यदि इतना सामर्थ्य, इतनी बुद्धि व योग्यता अभी बनी नहीं है, तो किसी योग्य विद्वान् के सान्निध्य में रहते हुए उनसे निवेदन करें कि कृपया मेरे अन्दर कोई दोष दृष्टिगोचर होवे तो सूचित करें । उनके बताने से उन दोषों को सहर्ष स्वीकार करें और तत्काल दूर करने हेतु प्रयत्न करें । यही उन्नति का उपाय व मार्ग है । जब योगाभ्यास करते करते अपनी योग्यता बहुत अधिक बढ़ जाती है, चित्त का स्तर बढ़ जाता है, आत्मा-परमात्मा का दर्शन हो जाता है तब ईश्वर दर्शन पूर्वक ईश्वर के सान्निध्य में रहते हुए उन दोषों को, उन कुसंस्कारों को, उन अविद्या आदि क्लेशों को बार-बार समाधि लगा कर नष्ट करना होता है । ईश्वर की कृपा के बिना तो हम अपने सूक्ष्म दोषों को जान भी नहीं सकते उनको नष्ट करने की बात तो दूर रही, अतः ईश्वर का सहयोग अत्यन्त आवश्यक होता है ।
जैसे एक छोटे से बच्चे को जब कुछ बड़े, उससे बलवान और दुष्ट लड़के मारने लगते हैं तो वह बच्चा अपनी माता जी की गोद में चला जाता है और उनकी शिकायत करता है कि “ये दुष्ट लड़के मुझे मारते रहते हैं” । उस समय उसकी माता उसको अपनी गोद में लेकर कहती है कि - “अब डरना नहीं, मैं तुम्हारे साथ हूँ, अब तुम इनको मारो” इससे वह बच्चा स्वयं को बलशाली अनुभव करता है तथा उनको मारता भी है लेकिन माँ की गोद में रहते हुए । ठीक ऐसे ही योगाभ्यासी ईश्वर के सान्निध्य में रहता हुआ ईश्वर से निवेदन करता, प्रार्थना करता है और उन दोषों को, क्लेशों को ईश्वरीय ज्ञान, बल, सामर्थ्य से नष्ट करता जाता है । जब वह पूर्णतया दोषों से रहित हो जाता है तब अपने शुद्ध स्वरुप में स्थित हो जाता है । यह प्रत्येक मनुष्य के लिए करने योग्य एक मात्र अन्तिम कार्य है । इसी को करके ही व्यक्ति नितान्त सुख का अधिकारी बन जाता है और यह सबकुछ उसी आत्म-निरीक्षण रूपी साधन के माध्यम से ही संभव है ।   
  




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