Thursday 15 February 2018

पापी और झूठे प्रभु के बन्धन में पड़ते हैं


न वा उ सोमो वृजिनं हिनोति न क्षत्रियं मिथुया धारयन्तम्।
हन्ति रक्षो हन्त्यासद् वदन्तं उभाविन्द्रस्य प्रसितौ शयातै।। -). 710413ऋ अ. 8413
ऋषि -वसिष्ठः।। देवता- सोमः।। छन्दः-निचृत्त्रिष्टुप्।।
विनय-जगदीश्वर सोमरूप से सब जगत् का पालन-पोषण कर रहे हैं। सोम-प्रभु के जीवनदायी रस को पाकर ही सब संसार बढ़ रहा है, पुष्ट हो रहा है, परन्तु ये भगवान् पाप को कभी नहीं बढ़ाते. इनका यह सोमरस पाप को कभी नहीं पहुँचता और सब पापों का स्त्रोत-मूल, जो असत्यता है, उसे तो परमेश्वर का जीवनरस मिलता ही नहीं है।
जब मनुष्य सदा इस प्रकार वर्त्तमान सत्के विरुद्ध अपने अन्दर कुछ असत् की रचना करता है, असत्-पर-असत्-दुहरी बातों को अपने अन्दर धारण करता है, तो यह मिथुया धारयन्मनुष्य अपने इस दूसरे असत् द्वारा अपने-आपको आच्छादित कर लेता है और एवं, सत्य की सोम-धारा से अपने को वि´चत कर लेता है। प्रत्येक पाप का करना भी क्रिया से सत्य-विरुद्ध  कर्म ;पाप-वृजिनद्ध करता है, त्योंही उसका सत्स्वरूप जीवनरसदायी सोम से सम्बन्ध विच्छिन्न हो जाता है, वह ईश्वरीय जगत् से पृथक् हो जाता है, मानो वह परमेश्वर के बन्धनागार में पड़ जाता है, अपने असत् द्वारा ही वह ढक जाता है, वह बँध जाता है। जहाँ परमेश्वर सोमरूप से सब ठीक चलनेवालों को जीवन देकर बढ़ा रहे हैं, वहाँ इन्द्र के ;‘इदं दारयिताद्ध रूप से ये ही परमेश्वर विपरीतगामी को पृथक् करके बाँधनेवाले भी हैं। इस प्रकार असत्य बोलनेवाला या पाप करनेवाला जीवन-रस से वि´चत होकर, सूखकर नष्ट हो जाता है। इसीलिए वर्जनीय होने से पाप का नाम वृजिनहै तथा पाप ही रक्षः’  कहलाता है, चूँकि इससे अपने-आपको सदा रक्षित1 रखना चाहिए। इस वृजिन को, ‘रक्षःको, वह परमेश्वर नष्ट ही कर देता है, कभी बढ़ाता नहीं है।
मनुष्य यदि इस सत्य को समझे, इसमें उसे तनिक भी सन्देह न हो, तो वह पाप करते हुए घबराये और असत्य बोलते हुए उसका कलेजा काँपे। संसार में यद्यपि हमें दीखता है कि परमेश्वर भी पाप को ही मदद दे रहा है और झूठे को बढ़ा रहा है, परन्तु यह हम क्षुद्र बु(वाले अल्पज्ञों का भ्रम है। हम अल्पज्ञ नहीं देख सकते कि किस पाप का फल कब और कैसे मिलता है?
शब्दार्थ-सोमः=सोमरूप परमेश्वर वै=निःसन्देह न उ=न तो वृजिनम्=वर्जनीय पाप को हिनोति=बढ़ाता है, समर्थन करता है और न=न ही मिथुया धारयन्तम्=दुहरी बात को-झूठ को-धारण करनेवाले क्षत्रियम्=बलवान् को ही बढ़ाता है, किन्तु वह तो रक्षः=पापराक्षस का हन्ति=हनन करता है और असद् वदन्तम्=असत्य बोलनेवाले का हन्ति=हनन करता है. ये उभौ=दोनों ही इन्द्रस्य=इन्द्र रूप परमेश्वर के प्रसितौ=बन्धन में शयाते=पड़ते हैं।
1. रक्षितव्यं यस्मात्। -निरुक्त 432

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