Friday 6 July 2018

भारतीयों के पूर्वज बनाम पश्चिमी लोगों के पूर्वज

हमारे प्राचीन ऋषि-महर्षि लोग समाधिस्थ होकर अनेक सूक्ष्म वस्तुओं को भी जान लेते थे जो कि आज कल के भौतिक वैज्ञानिक, बड़े-बड़े सूक्ष्म यन्त्रों के माध्यम से भी जान नहीं पाते । हमारे ऋषि-मुनियों की जो योग्यता थी विज्ञान के क्षेत्र में हो या अध्यात्म के क्षेत्र में हो, आजकल के वैज्ञानिक उनके सामने कुछ भी नहीं हैं बल्कि अध्यात्म के क्षेत्र में तो शून्य ही हैं । कुछ लोग मानते होंगे कि हमारे पूर्वज मूर्ख थे, उनको कुछ नहीं आता था, यहाँ तक कि भोजन पकाना नहीं आता था अतः वे लोग मांस खाया करते थे इत्यादि । वास्तव में देखा जाये तो संभावना है कि यह सब इतिहास पाश्चात्य लोगों के साथ घटित हुई हो और उन्होंने हमारे पूर्वजों के ऊपर मढ़ दिया और अपने को विद्वान घोषित कर दिया । हमारे पूर्वज मूर्ख नहीं थे और न ही बन्दर थे, यह सब पाश्चात्य मूर्खों की ही मिथ्या परिकल्पना मात्र है ।


ऋषि लोग शरीर में होने वाली सूक्ष्म प्रक्रियाओं को भी जान लेते थे जैसे कि बालक गर्भ में किस प्रकार रहता है और किन किन क्रियाओं को करते रहता है, कितने समय में गर्भस्थ शिशु कितना विकास को प्राप्त होता जाता है? ठीक ऐसा ही जो हम सब मनुष्य अपने विचारों को अभिव्यक्त करने के लिए अत्यन्त सरलता से शब्दों का उच्चारण कर लेते हैं वे शब्द किस प्रकार अन्दर से उत्पन्न होते हैं और किस पद्धति से बाहर प्रकट रूप में आते हैं ? यह सब हमारे लिए बुद्धिगम्य ही नहीं है परन्तु ऋषि-मुनियों को यह सहजता से ही अंतःकरण से अनुभूत हो जाता था और वे इस शब्दोच्चारण की सूक्ष्म विद्या को 4-5 वर्ष अल्पायु के बालक को भी सिखा दिया करते थे । जैसे कि वर्णोच्चारण शिक्षा पुस्तक में बताया गया है कि -
आत्मा बुद्ध्या समेत्यर्थान् मनो युङ्क्ते विवक्षया । मनः कायाग्निमाहन्ति स प्रेरयति मारुतम् ॥
मारुतस्तूरसि चरन् मन्दं जनयति स्वरम् ॥ अर्थात् सर्व प्रथम आत्मा बुद्धि के साथ संयुक्त होकर कुछ कहने की इच्छा से मन को युक्त करता है, पुनः मन जठराग्नि को प्रताड़ित करता है, फिर वह जठराग्नि वायु को प्रेरित करता है । उसके पश्चात् वह वायु हृदय प्रदेश में गति करता हुआ धीरे-धीरे स्वरों को अर्थात् वर्णों को उत्पन्न करता है जिससे फिर सामनेवाले को सुनाई देता है ।
चत्वारि वाक् परिमिता पदानि तानि विदुर्ब्राह्मणा ये मनीषिण: ।
गुहा त्रीणि निहिता नेङ्गयन्ति तुरीयं वाचो मनुष्या वदन्ति ।। (ऋ. 1.164.45)
ऋग्वेद और अथर्ववेद में कहा गया है कि वाणी चार प्रकार के भेदों वाली है । उनके नाम क्रमशः परा, पश्यन्ति, मध्यमा और वैखरी हैं । इन भेदों को तत्वज्ञ या ब्रह्मज्ञ ही जानने में समर्थ होते हैं । इनमें से तीन भेद बुद्धिरूपी गुफा में ही विद्यमान हैं और इनमें किसी भी प्रकार की स्थूलरूप शारीरिक चेष्टा नहीं होती है अतः ये तीनों सुनने योग्य नहीं होती है । केवल चतुर्थ वैखरी वाणी को ही मनुष्य लोग अपने व्यवहार में प्रयोग कर पाते हैं अथवा उच्चारण के पश्चात् सुन पाते हैं ।
परावाणी :- परा वाणी शुद्ध ज्ञानरूप है और सर्वत्र व्यापक रहने वाली है । यह शान्त समुद्र के तुल्य निश्चल और निष्क्रिय है । यह अक्षय है, विनाशरहित है । इस अवस्था में यह अपने शुद्ध शब्दब्रह्म के रूप में विद्यमान रहती है । यह वाणी की अव्यक्त एवं सूक्ष्मतम अवस्था मानी जाती है । योगी ही इसके शुद्ध स्वरूप का साक्षात्कार कर पाते हैं ।
पश्यन्ति वाणी :- जब किसी विचार या भाव को प्रकट करने की इच्छा होती है, तब पश्यन्ति वाणी का कार्य प्रारम्भ होता है । शान्त समुद्र में छोटी तरंग के समान विचाररूपी तरंग वाक् तत्व में प्रकट होते हैं । इन विचारों को व्यक्त करने की भावना का उदय होना और शान्त समुद्र में थोड़ी हलचल का होना, तरंगे उठना और विचारों की अभिव्यक्ति की प्रक्रिया का प्रारम्भ होना पश्यन्ति अवस्था है । यह द्वितीय अवस्था है जो कि मस्तिष्क तक सिमित है, अतः अव्यक्त है । योगी ही विचारों के उदय होने की प्रक्रिया को देख सकते हैं ।
मध्यमा वाणी :- यह तृतीय अवस्था है । इसमें शरीर यंत्र में हलचल प्रारंभ हो जाती है । नाभि से प्राणशक्ति ऊपर उठती है और सर से टकराकर स्वरयंत्र तक मुख में पहुँच जाती है । केवल वर्णों के उच्चारण का कार्य ही शेष रह जाता है । यह उच्चारण से पूर्व की अवस्था है, अतः इसे मध्यमा या मध्यगत वाणी कहते हैं ।
वैखरी वाणी :- यह वाणी की चतुर्थ अवस्था है । इसमें वर्णों का कंठ, तालु आदि स्थानों से उच्चारण प्रारंभ हो जाता है । अब विचार या भाव अव्यक्त या गुप्त न रहकर प्रकट हो जाते हैं । यह वैखरी वाणी ही जन साधारण के व्यवहार में आती है ।
यह सब सूक्ष्म विद्याएँ हमारे ऋषि-मुनियों की गवेषणा और खोज का ही प्रतिफल है, उन्होंने तो ऐसे अनगिनत सूक्ष्म वैज्ञानिक तथ्यों की खोज की है,जिनके इतिहास को ही बदलकर रख दिया गया । ऋषियों की गवेषणा में से महर्षि भरद्वाज मुनि प्रणीत बृहद्विमानशास्त्र आज भी उपलब्ध है । ऐसे अनेकों ऋषि-महर्षि हुए हैं जिन्होंने समाधिस्थ होकर सीधे-सीधे ईश्वर से शुद्ध ज्ञान प्राप्त किया करते थे और वह ज्ञान मनुष्य मात्र के कल्याण के लिए होता था । उन दिव्य पुण्यात्माओं, ऋषि-मुनियों के सामने तो इन वैज्ञानिकों की कुछ भी योग्यता नहीं है। वर्त्तमान के वैज्ञानिकों का विषय तो ये वैज्ञानिक लोग तो ऐसे हैं जैसे कि "अविद्यायामन्तरे विद्यमाना: स्वयं धीराः पण्डित मन्यमानाः । दन्द्रम्यमाना परियन्ति मूढाः अन्धेनैव नीयमाना यथान्धा: "।। अर्थात् कुछ लोग स्वयं को धीर पण्डित माननेवाले परन्तु वे अविद्या के अन्दर गोते लगाते रहते हैं ऐसे मूर्ख लोगों के पीछे चलने वालों की स्थिति भी वैसी ही होती है जैसी अंधों के पीछे चलनेवाले अंधों की होती है । अतः हे मनुष्यो ! सावधान हो जाओ ! नहीं तो दुर्गति सुनिश्चित है । हमारे पूर्वजों के ग्रन्थों को पढ़ के तो देखें फिर बड़े बड़े साइंटिस्ट्स और साइंस के छात्रों की बुद्धि भी अवरुद्ध हो जाएगी । हमारे ऋषियों के प्रश्नों का इनके पास कोई उत्तर नहीं होता ।

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