Friday 6 July 2018

ईश्वर या ईश्वर के उपासक- श्रीकृष्ण, श्रीराम

श्रीराम का बड़प्पन और गौरव किस बात में है ? क्या वे इसलिए महान थे कि वे अपने पिताजी की अनुचित बात को मानकर वन में चले गये थे ? क्या वे इसलिए आदर के पात्र हैं कि वे एक आदर्श शासक थे, एक आदर्श पुत्र थे,एक आदर्श भाई थे,एक आदर्श पति थे,एक आदर्श मित्र थे?
श्रीकृष्ण जी किस लिए महान कहलाते हैं ? क्या वो अपने जन्मभूमि को छोड़कर पूरे राष्ट्र की प्रगति के लिए अपना पृथक कर्मभूमि चयन कर लिया ? क्या उनके पास सुदर्शन चक्र था इसीलिए वे महान थे ? क्या उन्होंने प्रजा की रक्षा के लिए अपने मामा जी को भी वध कर दिया था इसीलिए ?

मैं समझता हूं- नहीं । उनके विमल यश का कारण तो कुछ और ही है। न ही रघुवंश की परम्परा थी और न ही यदुवंश की प्रसिद्धि ।
इसका मुख्य कारण यह है कि वे दोनों के दोनों ईश्वर के सच्चे उपासक थे । किसी भी परिथिति में वे ईश्वर को छोड़ते नहीं थे अर्थात् यथा-सामर्थ्य ईश्वर की आज्ञाओं का परिपालन करते थे । चाहे यात्रा में हों चाहे युद्ध भूमि में हों परन्तु ईश्वर की उपासना नहीं छोड़ते थे ।


इनके अन्दर मनुष्योचित गुण ही विद्यमान थे अतः इन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम कहें या फिर योगीराज श्रीकृष्ण परन्तु ईश्वर कदाचित नहीं, क्योंकि ईश्वर भला अपनी ही उपासना क्यों करने लगा ?
शैशवेऽभ्यस्तविद्यानां यौवने विषयैषिणाम् ।
वार्धके मुनिवृत्तिनां योगेनान्ते तनुत्यजाम् ।। (रघुवंश १/८)
रघुवंशी बालकपन में समस्त विद्याओं का अभ्यास कर लेते थे। युवावस्था में वे गृहस्थाश्रम में प्रवेश कर भोगों की अभिलाषा करते थे। बुढ़ापे में वे वानप्रस्थी बन जाते थे और अन्त में योगाभ्यास करते हुए अपने शरीरों का त्याग करते थे।
परन्तु,
*मर्यादा पुरुषोत्तम राम* इसके अपवाद थे-
*पुत्रसंक्रान्तलक्ष्मीकैर्यद् वृद्धेक्ष्वाकुभिर्धृतम् ।*
*धृतं बाल्ये तदार्येण पुण्यमारण्यकव्रतम् ।।-(उत्तररामचरित १/१२)*
पुत्र को राज्यलक्ष्मी सौंपकर इक्ष्वाकुवंशोत्पन्न राजा वृद्धावस्था में जिस वानप्रस्थ-व्रत को धारण करते थे, श्रीराम ने उस पवित्र व्रत को यौवनावस्था में ही धारण कर लिया था।
उठती हुई जवानी और जीवन में प्रसन्नतापूर्वक वन में चले जाना ही श्रीराम के गौरव को बढ़ाता है। श्रीराम वन में जाते हैं परन्तु उनके मुखमण्डल पर विषाद की रेखा तक नहीं है। उनकी स्थिति के सम्बन्ध में महाराज दशरथ ने महानाटक ३/२२ में ठीक ही कहा था-
*आहूतस्याभिषेकाय विसृष्टस्य वनाय च ।*
*न मया लक्षितस्तस्य स्वल्पोऽप्याकारविभ्रमः ।।*
राज्याभिषेक के लिए बुलाए गए और वन के लिए विदा किये गए श्रीराम के मुख के आकार में मैंने कोई भी अन्तर नहीं देखा।
हर्ष और शोक में,सुख और दुःख में,मान और अपमान में,लाभ और हानि में समान रहना यह महापुरुषों का चिन्ह होता है।
किसी कवि ने कितना सुन्दर कहा है-
*उदये सविता रक्तो रक्तश्चास्तमये तथा ।*
*सम्पत्तौ च विपत्तौ च महतामेकरुपता ।।*
उदय होता हुआ सूर्य लाल होता है और अस्त होता हुआ सूर्य भी लाल ही होता है,इसी प्रकार सम्पत्ति और विपत्ति में महापुरुष समान ही होते हैं। सम्पत्ति प्राप्त होने पर हर्षित नहीं होते और विपत्ति पड़ने पर दुःखी नहीं होते।
श्रीकृष्ण जी भी किशोर अवस्था में ही गुरुकुल में अध्ययन हेतु चले गए थे । एक राजकुमार होने के कारण उनका देश वा राज्य के प्रति जों भी कर्त्तव्य होता था उन्होंने बहुत ही उत्तमता के साथ निभाया ।
श्रीराम और श्रीकृक्ष्ण तो स्वयं ईश्वर की पूजा करते थे। रामायण और महाभारत इसके साक्षी हैं-
प्रक्षिप्त भाग को छोड़कर जब हम शुद्ध रामायण या शुद्ध महाभारत का स्वाध्याय करते हैं तो हमें वास्तविक इतिहास का ज्ञान होता है । उसके कुछ प्रसंग उद्धृत किये जाते हैं -
"कौशल्या सुप्रजा राम पूर्वा सन्ध्या प्रवर्तते।
उत्तिष्ठ नरशार्दूल कर्तव्यं दैवमाह्मिकम्।।
तस्यर्षे: परमोदारं वच: श्रुत्वा न्रपात्मजौ।
स्नात्वा क्रतोदकौ वीरो जपेतु परमं जपम्।।"(बाल० २३.३)
'हे कौशल्या की संतान! प्रात:काल की सन्ध्या का समय हो गया है। हे धरशार्दूल ! उठो और उपासना करो। उस ऋषि के परम उदार वचनों को सुनकर, स्नान करके उन दोनों, श्रीराम और श्रीलक्ष्मण जी ने गायत्री का जाप किया। रामायण में यह नहीं लिखा कि उन्होंने मूर्तिपूजा की।
इसी प्रकार का वर्णन महाभारत में श्रीकृष्ण जी के विषय में प्राप्त होता है-
अत्रतीर्य रथात् तूर्णं कृत्वा शौचं यथाविधि।
रथमोचनमादिश्य सन्ध्यामुपविवेश ह।।(महा० उद्योग०८४/२१)
जब सूर्यास्त होने लगा तब श्रीकृष्ण शीघ्र ही रथ से उतरे और घोडों को रथ से खोलने की आज्ञा देकर और विधिपूर्वक शौच-स्नान करके सन्ध्योपासना करने लगे।
ब्रह्ममुहूर्त उत्थाय वाय्रुपस्प्रश्य माधव:।
दध्यो प्रसन्नकरण आत्मनं तमस: परम् ।।(भा० पु० ९०.७०.४)
श्रीकृष्ण जी ब्रह्ममुहूर्त में उठकर , पवित्र जल से हाथ मुंह धोकर, अत्यन्त प्रसन्न हो, हृदय में प्रकृति से परे ज्योतिस्वरुप परब्रह्म का ध्यान करने लगे।
अथाप्लुतोसम्भस्यमले यथाविधि।
क्रियाकलापं परिधायं वाससी।
चकार सन्ध्योपगमादि सत्तमो।
हुतानलो ब्रह्म जजाप वाग्यत: ।।(भा० पु० १०.७०.६)
श्रीकृष्ण जी ने स्वच्छ जल में डुबकी लगाकर स्नान किया। फिर स्वच्छ धोती पहनकर एवं उत्तरीय धारण करके श्रद्धापूर्वक सन्ध्योपासना की। तदनन्तर वे हवन करके मौन होकर गायत्री का जाप करने लगे।
श्री राम स्थितप्रज्ञ थे―*संसार में हम देखते हैं कि जब कभी हमारी इच्छापूर्ति में कोई छोटा मोटा भी आघात उपस्थित करता है, तो हम उसके प्रति कुपित ही नहीं प्रत्युत मरने-मारने को भी तैयार हो जाते हैं। किन्तु श्रीराम असाधारण योगीसम स्थिरप्रज्ञ थे जो बड़े से बड़े कष्ट के समय भी लेशमात्र विचलित नहीं होते थे। इसीलिए महर्षि वाल्मीकि लिखते हैं―
न वनं गन्तुकामस्य त्यजतश्च वसुन्धराम्।
सर्वलोकातिगस्येव लक्ष्यते चित्तविक्रिया ।।
―(वा०रा० अयो० १९/३३)
अर्थात्― जिस समय श्रीराम को राजतिलक के लिए बुलाया गया तथा जिस समय उनको १४ वर्ष के वनवास के लिए कहा गया, ऐसे हर्षविषाद के समय में भी श्रीराम की मुखाकृति में कोई अन्तर नहीं था अर्थात् न तो युवराज बनने की खुशी और न ही वनवास जाते समय विषाद के चिन्ह थे। ऐसा सुख-दुःख में समता से रहने वाला व्यक्ति पूर्ण वेदज्ञ व स्थिरप्रज्ञ ही हो सकता है।
शत्रु के साथ भी आदर्श व्यवहार― रावण द्वारा वानर-सेना का संहार होते देख श्रीराम रावण के सम्मुख आये। श्रीराम ने अपना अद्भुत युद्ध-कौशल दिखाते हुए रावण के रथ के टुकड़े कर डाले। उसके घोड़े और सारथि को भी मार गिराया और रावण के चमचमाते मुकुट को भी काट डाला। सन्ध्या-समय निकट देख श्रीराम ने रावण से कहा―
कृतं त्वया कर्म महत्सुभीमं,
हतप्रवीरश्च कृतस्त्वयाहम् ।
तस्मात्परिश्रान्त इव व्यवस्य,
न त्वां शरैर्मृत्युवशं नयामि ।।
―(वा०रामा०यु० ५९/१४२)
भावार्थ― प्रातःकाल से घोर युद्ध करते हुए आपने बड़े वीरत्व का परिचय दिया है। आज आपके द्वारा हमारी सेना के बहुत-से वीर मारे अथवा घायल किये गये हैं। अत्यन्त थके होने के कारण आपका वध करना बहुत सरल है, परन्तु थके हुए शत्रु का वध करना आर्य-मान और मर्यादा के विरूद्ध है, अतः अब आप घर जाइये। जब स्वस्थ होकर कल आप पुनः युद्ध में आयेंगे तब मैं आपका युद्धोचित स्वागत करुँगा।
श्रीराम शत्रु थे। परन्तु कितने आदर्श शत्रु थे ! रावण भी मन-ही-मन श्रीराम के शील और पराक्रम की प्रशंसा करता हुआ नगर में प्रविष्ट हुआ और श्रीराम जी अपने डेरे में पहुँचकर लक्ष्मण जी के उपचार में लगे।
दूसरी जगह श्रीराम ने रावण की अन्त्येष्टि का आदेश देते हुए विभीषण से कहा―
मरणान्तानि वैराणि निर्वृत्तं नः प्रयोजनम्।
क्रियतामस्य संस्कारो ममाप्येष यथा तव।।
―(वा०रामा० यु० ११२/२६)
भावार्थ― मरने तक ही वैर रहता है। अब हमारा प्रयोजन सिद्ध हो चुका है, अतः अब यह जैसा तुम्हारा भाई है वैसा ही मेरा भी है। अतएव इसका यथोचित संस्कार कीजिये।
कैसा उच्च और महान् आदर्शमय जीवन था इन दोनों महापुरुषों का ? कितने ही उत्कृष्ट ईश्वर भक्त थे ? कितने बड़े वेदों के व्यावहारिक विद्वान थे ?
इन दोनों ने ही गुरुकुलों में गुरुओं के सान्निध्य में रहते हुए, गुरुजनों की सेवा करते हुए, प्रतिदिन ईश्वर की उपासना, सन्ध्या-वन्दन और हवन-यज्ञ आदि करते हुए वेद शास्त्रों का अध्ययन किया और उस विद्या को अपने जीवन में भी पूरी श्रद्धा वा लगन के साथ अपनाया, जिससे सम्पूर्ण मनुष्य समाज के लिए एक प्रेरणा के पात्र बन गए और स्वयं को एक आदर्श के रूप में स्थापित कर गए जिनका यश-कीर्ति इतनी फैली कि वर्त्तमान में पूरे विश्व के लोग उनको भगवान् ही मानने लग गए । परन्तु वास्तव में देखा जाये तो वे दोनों ही हमारे जैसे सामान्य मनुष्य थे, योग्य शासक, राजा थे, वेद शास्त्रों के ज्ञाता थे । हमने उनको ईश्वर बना दिया और खुद ईश्वर की उपासना करना भूल गए जैसे कि वे लोग करते थे । हम उनके चरित्र की पूजा करना या उनका अनुसरण-अनुकरण करना छोड़ दिए और चित्र की पूजा करने लग गए ।

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