Sunday 8 October 2017

अंधविश्वास निर्मूलन से ही मनुष्य जाति की उन्नति सम्भव


मनुष्य जीवन में होने वाले रोगों का प्रमुख कारण प्रायः कुपथ्य होता है। संसार में प्रत्येक कार्य के पीछे कारण होता है। यदि कारण हो तो कार्य नहीं हो सकता। यह हमारी सृष्टि ईश्वर ने उपादान कारण प्रकृति अर्थात् इस प्रकृति के सत्व, रजस् तमस् सूक्ष्म कणों से बनाई है। यदि प्रकृति के त्रिगुणों वाले कण होते तो इस सृष्टि का निर्माण सम्भव नहीं था। इसी प्रकार रोग के अनेक कारण होते हैं। इन कारणों से बचने के लिए स्वास्थ्य के नियम बनायें गये हैं जिसका पालन करने से मनुष्य स्वस्थ रहता है। मनुष्य अल्पज्ञ है। इस कारण अनचाहे वह अपनी अज्ञानतावश असावधानी से रोगों से संक्रमित हो जाता है और फिर उपचार पथ्य से रोग के कारणों को दूर करके स्वस्थ भी हो जाता है। अनेक असाध्य रोग भी होते हैं। ऐसे रोगों का उपचार ढूंढा जा रहा है। शायद भविष्य में हमारे विद्वान वैज्ञानिक उन्हें ढूंढ लें परन्तु कुपथ्य से बचना होगा और अपना ज्ञान बढ़ा कर स्वास्थ्य के नियमों का अधिकाधिक पालन करना ही होगा। स्वास्थ्य के नियमों की ही तरह सामाजिक जीवन राष्ट्र को उन्नत बनाने के लिए देश के नागरिकों को अल्पज्ञता अज्ञानता को दूर कर ज्ञान की प्राप्ति को अपने जीवन का मुख्य लक्ष्य बनाकर उसका पालन करना होता है। यदि ऐसा करते हैं तो हम, हमारा समाज देश उन्नति के शिखर की ओर बढ़ता है और करने पर घोर पतन होता है। हम देशवासी दुःखों के गड्ढे में गिरते हैं। ऐसा ही महाभारत के बाद मुख्यतः मध्यकाल में हुआ। आज स्थिति यह है कि देश अज्ञान अन्धविश्वासों से भरा हुआ है। इस कारण समाज समाज होकर ‘‘अज्ञानजन्य मिथ्या परम्पराओं विषमताओं का मानव समूह बन गया है। समाज को समाज अर्थात् सभी मनुष्यों में समानता न्याय का व्यवहार कराने के लिए उनके अज्ञान, अन्धविश्वास, पाखण्ड कुरीतियों को दूर करना होगा। यह काम ऋषियों की उपस्थिति के कारण सृष्टि के आरम्भ से महाभारतकाल तक तो पृथक से करने की आवश्यकता नहीं पड़ी थी परन्तु उसके बाद ऋषियों के अभाव में अज्ञान अन्धविश्वास, पाखण्ड एवं कुरीतियां वा मिथ्या परम्परायें आरम्भ हो गईं। इसका परिणाम देश की गुलामी था। इनके कारण देश को अनेक विषम परिस्थितियों से गुजरना पड़ा और आज भी देश की धार्मिक सामाजिक स्थिति सन्तोषजनक नहीं है। इस स्थिति को दूर कर विजय पाने के लिए देश से अज्ञान अन्धविश्वासों का समूल नाश विद्या की वृद्धि कर इनका उन्मूलन करना होगा।
अन्धविश्वास क्या है? यह अंधविश्वास ऐसा विश्वास है जो अन्धा है और जिसमें ज्ञानरहित विश्वास है। लोग ईश्वर को मानते हैं। यह उनका विश्वास है परन्तु अज्ञानता के कारण दूसरों की देखा-देखी स्वार्थी मनुष्यों के छल के कारण वह बिना जाने सोचे उसी मार्ग पर चलने लगते हैं। यदि कोई मूर्ति पूजा करे तो भी जड़, भावना संवेदना शून्य, मूर्ति को खिलाने उसे धन देने की क्या आवश्यकता है। क्या मूर्ति को दिया भोजन वह ग्रहण करती है? आप स्वयं प्रयोग करके देख लीजिए। मन्दिरों में हनुमान जी की मूर्ति को मंगलवार के दिन बूंदी वा लड्डू आदि का प्रसाद चढ़ाया जाता है। पुजारी जी कुछ भाग मूर्ति के मुंह पर लगा देते हैं। सप्ताह उससे अधिक समय में भी हनुमान जी की कल्पित मूर्ति द्वारा वह खाया नहीं जाता। कुछ समय बाद उस पर मक्खियां बैठती हैं या यह चींटियों का भोजन बनता है। इसी प्रकार जो धन मन्दिरों मूर्तियों पर चढ़ाते हैं, क्या मूर्ति को उसकी आवश्यकता है? वह धन पदार्थ किसकी जेब में जाते हैं और उससे कितना धर्म और क्या क्या अधर्म होते हैं, यह कोई नहीं जानता? अतः बिना जाने सोचे समझे किये जाने वाले धर्म-कार्य अधिकांशतः अन्धविश्वास की श्रेणी में आते हैं। इसी प्रकार से अन्ध-परम्परायें होती हैं। जन्मना जातिवाद ऐसी ही प्रथा है। संसार में मनुष्य माता पिता के द्वारा जन्म लेते हैं। ईश्वर ने किसी के चेहरे अन्य स्थान पर उसके अमुक अमुक जाति के होने का स्टीकर नहीं लगाया। यह जन्मना जाति जाति सूचक शब्द हमारे ही अल्पज्ञानी पूवजों की देन हैं। इन जातिसूचक शब्दों में से कुछ तो उनके कार्य गांव आदि स्थान के सूचक भी होते हैं। परन्तु लोगों के गांव स्थान बदल गये और समय के साथ काम भी बदल गये परन्तु माथुर जाति सूचक शब्द जो मथुरा निवासी लोगों के लिए प्रयोग में लाया जाता था, वह नहीं बदला। हमारे पिता भवन निर्माण के कार्य से जुड़े थे। हमें पढ़ाया। हमने एक दुकान पर काम किया। वहां हम लोगों को टाईपिंग सिखाने लगे। हम विज्ञान स्नातक थे। पहले हमारी लिपिक के रूप में राज्य सरकार के कार्यालय में नौकरी लगी। फिर दूसरी केन्द्रीय सरकार के संस्थान में लगी। विज्ञान स्नातक होने से हम तकनीकी सहायक बने, फिर 5 बार प्रोन्नत होकर वरिष्ठ तकनीकी अधिकारी बन गये। इसी प्रकार से हमारे बच्चे भिन्न भिन्न काम कर रहे हैं। दो बैंक में अधिकारी हैं और एक अन्य सरकारी विभाग में। अब इन्हें हमारे पूर्वजों की जाति सूचक शब्दों से सम्बोधित किया जाये उसके अनुसार हमारे साथ लोगों द्वारा सामाजिक व्यवहार हो तो यह उचित नहीं कहा जा सकता? अतः जन्मना जाति भी एक प्रकार का अन्धविश्वास सामाजिक रोग है जिसने आर्य हिन्दू जाति को कमजोर दुर्बल बनाया है। ऐसा ही शिक्षा की प्राप्ति के अधिकारों को लेकर है। हमारे समाज के तथाकथित ब्राह्मणों ने महिलाओं, शूद्रो, अन्त्यजो निर्धनों के शिक्षा के अधिकार को ही छीन लिया। किसी ने घोषणा कर दी कि स्त्री शूद्रों को वेदाध्ययन का अधिकार नहीं है और युगों तक यही भ्रान्त धारणा समान में विद्यमान रही। स्वामी दयानन्द जी के प्रयासों वेद प्रमाण देने पर यह प्रथा परम्परा कमजोर हुई परन्तु आज शिक्षा का व्यापारीकरण हो जाने से निर्धन दुर्बल लोगों के लिए शिक्षा प्राप्त करना कठिन असम्भव सा हो गया है। यह शिक्षा के व्यापारीकरण, मुनाफाखोरी अथवा स्वार्थ की प्रवृत्ति के कारण हो रहा है जो देश की लिए अत्यन्त हानिकारक घातक है। ऐसे अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं।

अन्धविश्वास दूर करना आवश्यक क्यों है? इसका उत्तर इस प्रकार से है। जैसे एक अबोध बालक को माता-पिता बाद में स्कूल के शिक्षक ज्ञान कराते हैं उसकी अविद्या को दूर करते हैं। जैसे एक सद्-चिकित्सक रोगी को औषधि एवं पथ्य से स्वस्थ करने का प्रयत्न करता है तथा देश के पुलिसकर्मी समाज में अपराध को रोकने के लिए बुरे लोगों को पकड़ कर उन्हें जेल यातनायें आदि देकर उनका सुधार करने का प्रयत्न करते हैं। इसी प्रकार से धार्मिक सामाजिक अन्धविश्वास भी केवल मनुष्य विशेष अपितु समाज देश को भी निर्बल बनाते हैं। अतः अन्धविश्वासों मिथ्या परम्पराओं को पहचानना उसका निदान करना किसी एक मनुष्य या संस्था का काम नहीं अपितु समूचे समाज देश का काम है। इस काम में सबसे बड़ी बाधा लोगों का अज्ञान उनके निजी स्वार्थ प्रतीत होते हैं। लोग धार्मिक ज्ञान पर आधारित सामाजिक परम्पराओं का ज्ञान नहीं रखते। उन्हें इसके लिए एक धार्मिक नेता आचार्य की आवश्यकता अनुभव होती है। इस स्थिति को जान समझकर बहुत से कुपात्र यह काम करना आरम्भ कर देते हैं और अपनी दुर्वासनाओं की जी भर कर पूर्ति करते हैं। इसके कुछ उदाहरण अभी देश समाज के सामने आयें हैं। ऐसे बड़े बड़े धार्मिक नेता जेल में हैं। यह तो एक बानगी मात्र है। ऐसा भी नहीं है कि सभी धार्मिक आचार्य, सामाजिक नेता उनके पूर्व आचार्य भी ऐसे ही रहे हों, परन्तु एक बात तो निश्चित है कि यह सभी आचार्य ईश्वरीय ज्ञान वेद के विपरीत बहुत सी बातें कृत्य करते हैं। कुछ सीमा तक इनका स्वार्थ भी सिद्ध होता है। यह आचार्यगण तपस्वी त्याग का जीवन भी व्यतीत नहीं करते जैसा कि हमारे ऋषि पूर्व धार्मिक पुरुष करते थे। संस्कृत शास्त्रों की इनकी योग्यता के बराबर या अति अल्प होती है। ऐसे अनेक कारणों से यह सभी आचार्य अज्ञानता अन्धविश्वास ही परोसते हैं ज्ञानी होने का दम्भ भरते हैं। इनकी अविद्या क्योंकि केवल वेद के ज्ञानी विद्वान ही पकड़ सकते हैं, इसी कारण यह उनसे शास्त्रार्थ या वार्तालाप भी नहीं करते। इसके पीछे इनका डर होता है। इससे पता चलता है कि किस प्रकार से देश समाज में अन्धविश्वास अविद्या बढ़ रही है।

अन्धविश्वास का कारण अविद्या अज्ञान है। अविद्या अज्ञान का नाश केवल वेद और उसके अनुकूल ग्रन्थ, शास्त्रों पुस्तकों से होता है। लगभग 150 वर्ष पूर्व तक समस्त वैदिक साहित्य संस्कृत भाषा और वह भी अधिकांश मन्त्रों, श्लोकों, पद्य सूत्रों आदि में होता था जिसे समझना कठिन था। ऋषि दयानन्द की कृपा से समस्त वैदिक साहित्य उसका सार आज हिन्दी देश की अन्य भाषाओं सहित अंग्रेजी में भी उपलब्ध है। एक ही ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश में समस्त वैदिक साहित्य वा शास्त्रों का ज्ञान उपलब्ध है। महाभारत के उत्तरकालीन देशी विदेशी मत, पंथ, मजहब सम्प्रदायों की मान्यताओं का परिचय एवं उनकी समीक्षा खण्डन भी सत्यार्थप्रकाश में उपलब्ध होता है। इतना ही नहीं इस ग्रन्थ में यह भी बताया गया है कि संसार के सभी मनुष्यों का केवल एक ही धर्म वैदिक धर्म है। वैदिक धर्म में सभी मत मतान्तरों की सभी अच्छी बातों का समावेश है और जो मिथ्या बातें मत-मतान्तरों में हैं, वह ऋषि दयानन्द जी के अनुसार उनके मत के आचार्यों उनकी अपने मतों की हैं। ऋषि दयानन्द जी की यह भी महती कृपा है कि उन्होंने संसार के एक सत्यमत के सिद्धान्त मान्यतायें जो सभी मनुष्यों के लिए समान रूप से माननीय धारण करने योग्य है, उसे कुछ ही पृष्ठों मेंस्वमन्तव्यामन्तव्यके नाम से प्रस्तुत उपलब्ध कराया है। यदि संसार में सभी मताचार्य उनके अनुयायी मनुष्य अपनी साम्प्रदायिक बातें छोड़ कर केवल सत्यार्थप्रकाश के प्रथम दस समुल्लासों में उल्लेखित मान्यताओं वा सिद्धान्तों को ही स्वीकार कर लें, तो संसार से लोभ, हिंसा, अन्याय, घृणा, स्वार्थ, अशान्ति, रोग शोक आदि सभी का निवारण हो सकता है। जहां सत्यार्थप्रकाश और उसकी मान्यतायें हांंगी, वहां असत्य, अविद्या, अज्ञान अन्धविश्वास हो ही नहीं सकते। मत-पंथ-सम्प्रदाय-मजहब आदि की भी वहां आवश्यकता नहीं होगी। ऐसे समाज देश में कोई ढोंगी पाखण्डी बाबा नहीं होगा जो बहनों, मां-बेटियों सहित देश के लोगों का आर्थिक, मानसिक शारीरिक शोषण करे। वह समाज देश ज्ञान विज्ञान सम्पन्न सभी सुखों से पूरित होगा। आईये, सत्यार्थप्रकाश पढ़ने और उसकी सत्य शिक्षाओं को धारण करने का व्रत लेकर अपना, समाज, देश विश्व का कल्याण करने की पहल करें। ओ३म् शम्।         

-मनमोहन कुमार आर्य

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