Wednesday 8 November 2017

ऋषि दयानन्द का सत्यार्थ प्रकाश बनाने का प्रयोजन


सत्यार्थ प्रकाश विश्व का वेद एवं वैदिक प्रमाणों से युक्त एक सुप्रसिद्ध सर्वोतोमहान धर्म ग्रन्थ हैं जिसकी रचना वेदों के महान मर्मज्ञ विद्वान ऋषि दयानन्द सरस्वती जी ने सन् 1875 में की थी। इस आदिम सत्यार्थप्रकाश का एक संशोधित और परिवर्धित नया संस्करण उन्होंने अपनी 30 अक्तूतबर, 1883 को मृत्यु से पूर्व लिखवा दिया था जो उनकी मृत्यु के बाद सन् 1884 में प्रकाशित हुआ। सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ वेदानुयायी आर्यसमाजियों का ‘‘धर्म ग्रन्थ है। किस प्रयोजन से ऋषि दयानन्द ने इस ग्रन्थ को लिखा था, इसका उत्तर उन्होंने सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ की अपनी भूमिका में स्वयं ही प्रस्तुत किया है जिसे हम यहां प्रस्तुत कर रहे हैं। वह लिखते हैंमेरा इस ग्रन्थ को बनाने का मुख्य प्रयोजन सत्य सत्य अर्थ का प्रकाश करना है। अर्थात् जो सत्य है, उसको सत्य और जो मिथ्या है, उसको मिथ्या ही प्रतिपादित करना, सत्य अर्थ का प्रकाश समझा है।

वह सत्य नहीं कहाता जो सत्य के स्थान में असत्य और असत्य के स्थान में सत्य का प्रकाश किया जाय। किन्तु जो पदार्थ जैसा है, उसको वैसा ही कहना, लिखना और मानना सत्य कहाता है।

जो मनुष्य पक्षपाती होता है, वह अपने असत्य को भी सत्य और दूसरे विरोधी मत वाले के सत्य को भी असत्य सिद्ध करने में प्रवृत्त होता है, इसलिये वह सत्य मत को प्राप्त नहीं हो सकता।

इसलिये आप्तों का यही मुख्य काम है कि उपदेश वा लेख द्वारा सब मनुष्यों के सामने सत्यासत्य का स्वरूप समर्पित कर दें, पश्चात् वे स्वयं अपना हिताहित समझकर सत्यार्थ का ग्रहण और मिथ्यार्थ का परित्याग करके सदा आनन्द में रहें।

मनुष्य का आत्मा सत्यासत्य का जानने वाला है तथापि अपने प्रयोजन की सिद्धि, हठ, दुराग्रह और अविद्यादि दोषों से सत्य को छोड़ असत्य में झुक जाता है।

परन्तु, इस (सत्यार्थप्रकाश) ग्रन्थ में ऐसी (कोई) बात नहीं रक्खी है और किसी का मन दुखाना वा किसी की हानि पर तात्पर्य है।

किन्तु जिससे मनुष्य जाति की उन्नति और उपकार हो, सत्यासत्य को मनुष्य लोग जानकर सत्य का ग्रहण और असत्य का परित्याग करें। क्योंकि, सत्योपदेश के विना अन्य कोई भी मनुष्य जाति की उन्नति का कारण नहीं है।  

ऋषि दयानन्द ने ग्रन्थ रचने से पूर्व जिस प्रयोजन से इस ग्रन्थ का प्रणयन वा लेखन किया उसे भी संक्षेप में प्रस्तुत कर देते हैं। सत्यार्थप्रकाश की रचना से पूर्व जिन दिनों सन् 1874 में ऋषि दयानन्द काशी में वैदिकधर्म का प्रचार कर रहे थे तो वहां उनके उपदेशों में बड़ी संख्या में धर्मपिपासु-श्रद्धालु उपस्थित होते थे। इनमें से एक राजा जयकृष्ण दास जी भी थे। वह उन दिनों वहां डिप्टी कलेक्टर थे। सभी सज्जनों को ऋषि दयानन्द के उपदेश अपूर्व और महत्वपूर्ण लगते थे। राजा जयकृष्ण दास जी के मन में विचार आया कि ऋषि जो उपदेश करते हैं वह अतीव महत्वपूर्ण होते हैं। श्रोता उनके उपदेशों को सुनकर भावविभोर मन्त्रमुग्ध हो जाते हैं। सुना हुआ पूरा उपदेश किसी को स्मरण नहीं रहता। सुनने के कुछ समय बाद ही उपदेश की बातें विस्मरित होनी आरम्भ हो जाती हैं जिनसे श्रोता बाद में लाभ नहीं उठा सकते। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह भी थी स्वामी जी के उपदेशों से वही लोग लाभान्वित हो सकते थे वा होते थे जो उनके उपदेशों को आरम्भ से अन्त तक उपस्थित रहकर दत्तचित्त होकर सुनते थे। जो दूरी व्यस्तताओं आदि अनेकानेक कारणों से उपदेश सुनने नहीं पाते थे, तो ऐसे सभी लोग उपदेशों के लाभ से वंचित रहा करते थे। इन सभी पक्षों पर विचार कर राजा जयकृष्ण दास जी को लगा कि यदि ऋषि दयानन्द अपने समस्त विचारों को लेखबद्ध करके एक ग्रन्थ की रचना कर दें तो उससे उपदेश सुनने वाले और सुनने वाले दोनों वर्गों के श्रोता वा मनुष्य समान रूप से लाभान्वित हो सकते हैं। कालान्तर में भी उनका लाभ मिलता रहेगा। अतः यह निश्चय कर राजा जयकृष्ण दास जी ने एक दिन स्वामी जी के सम्मुख अपने विचारों का एक ग्रन्थ लिखने का प्रस्ताव वा सुझाव दिया। स्वामी जी ने विचार किया और प्रस्ताव के महत्व को पूर्णतया समझकर तत्काल अपनी स्वीकृति प्रदान कर दी। इसी वार्तालाप सुझाव का परिणाम सत्यार्थप्रकाश की रचना का प्रमुख कारण बना। यह ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश का प्रथम संस्करण कहलाता है जिसे आदिम सत्यार्थप्रकाश भी कहते हैं। महर्षि दयानन्द ने इस ग्रन्थ को कुछ पण्डितों को बोलकर लिखवाया था। लेखक प्रैस के व्यक्तियों आदि के प्रमाद के कारण प्रथम संस्करण में कुछ त्रुटियों रह गईं लेखक प्रैस के लोगों ने जानबूझकर कर दी जिनका सुधार करने के लिए ऋषि दयानन्द ने इसका सुधार कर इसका एक संशोधित परिवर्धित संस्करण तैयार किया जो सत्यार्थप्रकाश का द्वितीय संस्करण कहलाता है। आज यही संस्करण आर्यसमाजों में सर्वत्र प्रचलित है।

प्रत्येक आर्यसमाजी व्यक्ति ने सत्यार्थप्रकाश की भूमिका से उद्धृत उपर्युक्त पंक्तियों को कई कई बार पढ़ा है। हमें भी लगभग यह पंक्तियां स्मरण हैं। इस पर भी हम इन पर कुछ विचार प्रस्तुत कर रहे हैं। सत्यार्थप्रकाश का प्रयोजन बताते हुए ऋषि दयानन्द ने पहली बात यह कही है कि उनका इस ग्रन्थ को बनाने का मुख्य प्रयोजन धर्म उसके अनुरूप आचरण विषयक सत्य सत्य बातों को प्रस्तुत करना है। उन्होंने ऐसा इस लिये लिखा कि उनके समय में किसी भी धर्म मत-पन्थ के ग्रन्थ में सभी बातें वचन सत्य-सत्य अर्थात् पूर्णरुपेण सत्य नहीं थे। सभी ग्रन्थों में कुछ बातें सत्य थी तथा कुछ ऐसी भी थीं जो सत्य नहीं थीं। अतः एक ऐसे धर्मग्रन्थ की आवश्यकता थी कि जिसकी सभी बातें सत्य-सत्य हों। यही प्रयोजन सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ के लेखन का था जिसे ऋषि दयानन्द ने उपर्युक्त पंक्तियों में प्रस्तुत किया है। ऋषि दयानन्द ने यहां एक महत्वपूर्ण बात यह भी कही है कि सत्य को सत्य और मिथ्या को मिथ्या कहना लिखना ही सत्य अर्थ का प्रकाश होता है और वह यही कार्य सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ को लिख कर रहे हैं। यह कहना अनुपयुक्त होगा कि ऋषि इस कार्य के सर्वथा योग्य थे। उन्होंने 18 वर्ष की आयु में अपने पिता का गृह त्याग कर देश के एक एक धर्म ज्ञानी पुरुष को ढूंढ कर उसके पास उपलब्ध ज्ञान को उससे प्राप्त किया था। उन्होंने योग की वह साधनायें की थी जिसमें संसार के लोगों का प्रायः मन लगता ही नहीं है। इन सब साधनों को सफलतापूर्वक करके वह यह जान सके थे कि सत्य और मिथ्या का अन्तर क्या होता है और धर्म पुस्तकों में असत्य अर्थात् मिथ्या कहां कहां कितना किस रूप में है। असत्य वा मिथ्या को दूर करने के उद्देश्य से ही वह सत्यार्थप्रकाश के लेखन में तत्पर हुए थे। स्वामी जी ने अपने वचनों में एक महत्वपूर्ण बात यह भी बतायी है कि सत्य के स्थान पर असत्य और असत्य के स्थान पर सत्य का प्रकाश करना सत्य नहीं कहलाता। यह बात भी आज सभी मतों में प्रचलित दिखाई देती है। इसी क्रम में स्वामीजी ने यह भी स्पष्ट किया है कि जो पदार्थ जैसा है उसको वैसा ही, उसके किंचितमात्र भी विपरीत नहीं, मन, वचन कर्म से मानना तथा लेखन उपदेश द्वारा निरुपित प्रस्तुत करना ही सत्य कहलाता है। स्वामी जी का यह भी मानना है कि पक्षपाती व्यक्ति कभी सत्य को प्राप्त नहीं हो सकता। इसके लिए पक्षपात से मुक्त होना आवश्यक है। आप स्वयं विचार कर देखिये कि सभी मतों में क्या निष्पक्ष विद्वान हैं? यदि है तो वह वेदों का अध्ययन क्यों नहीं करते और वैदिक मान्यताओं से अपने मत की मान्यताओं से तुलना क्यों नहीं करते। इसका उत्तर यही है कि वह पक्षपात रूपी दोष से युक्त हैं अतः उनका सत्य को प्राप्त करना असम्भव ही है। 

इसके पश्चात स्वामी जी आप्त लोगों का कर्तव्य बताते हैं कि वह लेख उपदेश द्वारा सत्य असत्य का स्वरूप सभी लोगों के सम्मुख प्रस्तुत कर दें। यहां भी यह प्रश्न है कि क्या आप्त पुरुष किंवा पूर्ण विद्वान अन्य मतों में है। आप्त पुरुष उस मनुष्य को कहते हैं कि जो वेदों का अनिवार्यतः विद्वान हो और सत्य वा असत्य को पूर्णतः जानता हो। हमें लगता है कि ऐसे मनुष्य वेदेतर किसी मत में मिलना कठिन है। फिर भी जो मनुष्य जिन मतों के विद्वान हैं वह यदि निष्पक्ष होकर बिना किसी भय लोभ के सत्य का स्वरूप अपने अपने समाज में प्रस्तुत करें तो इससे भी लोगों को कुछ लाभ हो सकता है। हमारी दृष्टि मंे आप्त मनुष्यों में हम ऋषि दयानन्द उनके बाद उनके कुछ अनुयायी वैदिक विद्वानों को ले सकते हैं। शुद्ध शाकाहारी, योगाभ्यासी ईश्वरोपासक विद्वान मनुष्य जो वैदिक साहित्य के स्वाध्याय में संलग्न रहता है, उसे ही आप्त उसके समान मान सकते हैं। ऐसे विद्वान संसार में बहुत कम हैं। सभी मतों के अनुयायियों का भी कर्तव्य है कि वह पक्षपातरहित विद्वानों की संगति करें और अपना हिताहित समझकर सत्यार्थ का ग्रहण और मिथ्यार्थ का परित्याग करके सदा आनन्द में रहें। आगे ऋषि कहते हैं मनुष्य का आत्मा सत्यासत्य का जानने वाला है तथापि अपने प्रयोजन की सिद्धि, हठ, दुराग्रह और अविद्यादि दोषों से सत्य को छोड़ असत्य में झुक जाता है। ऋषि के इन शब्दों को हम विश्व इतिहास में स्वर्णाक्षर कह सकते हैं। इसमें अविद्या की चर्चा है। अविद्या बिना वेदाध्ययन किए वेदों के मर्म को जाने दूर नहीं होती। अतः वेदेतर मतों के विद्वानों वा अनुयायियों को यह स्थिति प्राप्त करना हमें संभव नहीं लगता। जब तक वह विधिवत वेदाध्ययन नहीं करेंगे, तब तक वह अपनी अपनी आत्माओं को सत्यासत्य का जानने वाला होने पर भी ऐसा नहीं बना सकते क्योंकि बिना ऐसा किये उनकी अविद्या दूर नहीं हो सकती। इसके साथ ही स्वार्थ, हठ दुराग्रह छोड़ना भी आसान काम नहीं है। स्वामीजी ने स्पष्ट किया है उनके ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश में अविद्यादि दोष नहीं हैं। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया है कि उनका उद्देश्य किसी मतानुयायी वा मनुष्य का मन दुःखाना नही है और किसी की हानि करना है। अन्त में स्वामीजी ने सर्वत्र दुर्लभ किन्तु सबसे महत्वपूर्ण बात यह कही है कि जिससे मनुष्य जाति की उन्नति और उपकार हो, सत्यासत्य को मनुष्य लोग जानकर सत्य का ग्रहण और असत्य का परित्याग करें, क्योंकि सत्योपदेश के बिना अन्य कोई भी मनुष्य जाति की उन्नति का कारण नहीं है। इसी सत्योपदेश सत्य को स्वीकार करने के प्रयोजन को पूरा करने अर्थात् मनुष्य जाति की सार्वत्रिक उन्नति के लिए ही महर्षि दयानन्द सत्यार्थप्रकाश के लेखन सहित वेदों के प्रचार में प्रवृत्त हुए थे। यह दुःख की बात है कि अपने अपने स्वार्थों किंचित अज्ञान के कारण भिन्न-भिन्न मतों के अनुयायियों विद्वानों ने उनके सदाशयों, उद्देश्यों कल्याणीकारी कार्यों को जानने समझने में भूल की है। इस कारण विश्व के मनुष्यों को जो लाभ मिलना था वह उससे वंचित हो गये। भविष्य में भी कोई सम्भावना नहीं है।

वेदों की आज्ञा है कि संसार को श्रेष्ठ विचारों आचरणों वाला बनाओं। इसके लिए सभी मनुष्यों को वेदों वैदिक मान्यताओं का ज्ञानी बनाना होगा। इन सब के लिए सभी मनुष्यों को असत्य से हटाकर सत्य पर आरूढ़ भी करना होगा। यही सत्यार्थप्रकाश का मुख्य उद्देश्य है जिसके लिए वह इस ग्रन्थ के लेखन सद्धर्म के प्रचार में ऋषि दयानन्द प्रवृत्त हुए थे। इसी के साथ लेख को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।      

-मनमोहन कुमार आर्य

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