हम ईश्वर तत्व
पर निष्पक्ष वैज्ञानिक दृष्टि से विचार करते हैं। हम संसार के समस्त ईश्वरवादियों
से पूछना चाहते हैं कि क्या ईश्वर नाम का कोई पदार्थ इस सृष्टि में विद्यमान है,
भी वा नही? जैसे कोई अज्ञानी व्यक्ति भी सूर्य,
चन्द्र, पृथिवी, जल,
वायु, अग्नि, तारे, आकाशगंगाओं,
वनस्पति एवं प्राणियों के अस्तित्व पर कोई शंका नहीं करेगा, क्या
वैसे ही इन सब वास्तविक पदार्थों के मूल निर्माता व संचालक ईश्वर तत्व पर सभी
ईश्वरवादी शंका वा संदेह से रहित हैं? क्या संसार के
विभिन्न पदार्थों का अस्तित्व व स्वरूप किसी की आस्था व विश्वास पर निर्भर करता है?
यदि नहीं तब इन पदार्थों का निर्माता माने जाने वाला ईश्वर क्यों
किसी की आस्था व विश्वास के आश्रय पर निर्भर है? हमारी
आस्था न होने से क्या ईश्वर नहीं रहेगा? हमारी आस्था से
संसार का कोई छोटे से छोटा पदार्थ भी न तो बन सकता है और न आस्था के समाप्त होने
से किसी पदार्थ की सत्ता नष्ट हो सकती है, तब हमारी
आस्थाओं से ईश्वर क्योंकर बन सकता है और क्यों हमारी आस्था समाप्त होने से ईश्वर
मिट सकता है?
क्या हमारी
आस्था से सृष्टि के किसी भी पदार्थ का स्वरूप बदल सकता है? यदि नहीं,
तो क्यों हम अपनी-२ आस्थाओं के कारण ईश्वर के रूप बदलने की बात कहते
हैं? संसार की सभी भौतिक क्रियाओं के विषय में कहीं किसी का विरोध नहीं,
कहीं आस्था, विश्वास की बैसाखी की आवश्यकता नहीं,
तब क्यों ईश्वर को ऐसा दुर्बल व असहाय बना दिया, जो
हमारी आस्थाओं में बंटा हुआ मानव और मानव के मध्य विरोध, हिंसा व
द्वेष को बढ़ावा दे रहा है। हम सूर्य को एक मान सकते हैं, पृथिवी
आदि लोकों, अपने-२ शरीरों को एक समान मानकर आधुनिक भौतिक
विद्याओं को मिलजुल कर पढ़ व पढ़ा सकते हैं, तब क्यों
हम ईश्वर और उसके नियमों को एक समान मानकर परस्पर मिलजुल कर नहीं रह सकते? हम
ईश्वर की बनाई हुई सृष्टि एवं उसके नियमों पर बिना किसी पूर्वाग्रह के संवाद व
तर्क-वितर्क प्रेमपूर्वक करते हैं, तब क्यों इस सृष्टि के रचयिता ईश्वर
तत्व पर किसी चर्चा, तर्क से घबराते हैं? क्यों
किचित् मतभेद होने मात्र से फतवे जारी करते हैं, आगजनी,
हिंसा पर उतारू हो जाते हैं। क्या सृष्टि के निर्माता ईश्वर तत्व की
सत्ता किसी की शंका व तर्क मात्र से हिल जायेगी, मिट
जायेगी?
यदि ईश्वर तर्क,
विज्ञान वा विरोधी पक्ष की आस्था व विश्वास तथा अपने पक्ष की अनास्था
व अविश्वास से मिट जाता है, तब ऐसे ईश्वर का मूल्य ही क्या है?
ऐसा परजीवी, दुर्बल, असहाय,
ईश्वर की पूजा करने से क्या लाभ? उसे
क्यों माना जाये? क्यों उस कल्पित ईश्वर और उसके नाम से प्रचलित
कल्पित धर्मों में व्यर्थ माथापच्ची करके धनसमय व श्रम का अपव्यय किया जाये?
-आचार्य
अग्निव्रत नैष्ठिक
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