लेख के प्रथम
भाग में स्पष्ट किया गया है कि ऋग्वेद के मन्त्र संख्या १०.१७३.१ ने वेदानुसार प्रजातंत्र ही सर्वोत्तम शासन पद्धति
है. राजा का
चुनाव प्रजा के द्वारा हो तथा वह ही नहीं बल्कि उसका पूरे का पूरा मंत्री मंडल तब
तक ही सत्ता का सुख प्राप्त कर सकता है, जब तक प्रजा का
विश्वास उस पर बना हुआ है, ज्यों ही वह प्रजा के विश्वास का पात्र
नहीं रहता, त्यों ही उसे सत्ता से अलग हो जाना चाहिए
अन्यथा प्रजा में इतनी शक्ति होनी चाहिए कि वह उसे सत्ता से च्युत कर सके. इस बात को ही
ऋग्वेद के १०.१७३.२ मन्त्र इस प्रकार उपदेश किया गया है:-
इहैवैधि मापं च्योष्ठा पर्वत इवाविचाचलि:||
इंद्र इवेह ध्रुवस्तिष्ठेह राष्ट्र्मुधारय ||ऋग्वेद १०.१७३.२||
मन्त्र उपदेश कर रहा है कि एक स्थिर राजा
ही उत्तम शासन दे सकता है.
स्थायी शासक ही प्रजा के लिए उत्तम व्यवस्था कर सकता है. स्थायी राजा के
बिना प्रजा को सुख के दर्शन नहीं हो सकते. प्रजा के कल्याण के लिए राजा का स्थिर होना आवश्यक है.
राजा लम्बे समय
तक पदासीन हो
इस तथ्य को मध्य दृष्टि रखते हुए मन्त्र
कह रहा है कि हे राजन्! तूं इस प्रकार के प्रयास कर, तूं इस
प्रकार का यत्न कर कि तूं अधिक व लम्बे समय तक अपने आप को सत्ता का उपभोग करने के
लिए बनाए रख सके. यह
सब करने के लिए अधिकाधिक जन-कल्याण के कार्य कर ताकि तूं इस पद पर स्थित रह सके. जनता में यह
इच्छा पैदा हो कि तूं उसके लिए एक उत्तम शासक है. जब तूं जनता की दृष्टि में उत्तम होगा तो जनता कभी तुझे पदच्युत
करने का सोचेगी भी नहीं.
अटल हिमालय की
भाँती स्थिर रह
मन्त्र कहता है कि हे राजन् ! तूं न केवल अपने पद पर स्थित रह बल्कि अपने
कर्तव्यों का अधिभार इस प्रकार संभाल, अपने कर्तव्यों
की पूर्ति के लिए इस प्रकार अडिग रह, जिस प्रकार पर्वत स्थित रहता है,
अडिग रहता है.
चाहे कितने भी आंधी या तूफान आयें किन्तु तूं किसी भी झंझावात में घबराना नहीं,
डिगना नहीं अटल हिमालय की भाँती स्थिर रहना द्य अपने कर्तव्य मार्ग
से कभी विमुख मत होना, अपने कर्तव्य मार्ग से कभी भागना नहीं, कभी
विचलित नहीं होना.
इतना ही नहीं मन्त्र आगे कहता है कि हे
राजन्! जन कल्याण के कार्य करते हुए अपने अन्दर इतना तेज पैदा कर जितना कि
सूर्य में होता है. इसलिए तूं सूर्य के सामान तेजस्वी बन. जिस प्रकार सूर्य का
प्रकाश सब प्रकार के मालों को धो देता है, सब प्रकार के
कीटाणुओं का नाश कर वातावरण को स्वच्छ बना देता है. ठीक इस प्रकार ही तूं अपने
अंदर अपनी अपार शक्ति से इस प्रकार का तेर पैदा कर कि तेरे क्षेत्र में किसी
प्रकार का कलुष रह ही न पावे. कोई भी शत्रु तेरे क्षेत्र में आ कर गड़े कार्य न कर
सके. तेरे राज्य में आ कर शत्रु कांपने लगे, थरथराने
लगे, उसका साहस टूट जावे. इस प्रकार की शक्ति, इस
प्रकार का तेज तथा इस प्रकार का प्रकाश अपने अन्दर पैदा कर.
मन्त्र आगे कहा रहा है कि हे राजन्! तूं
छोटी छोटी समस्या को लेकर कभी इच्लित न होना क्योंकि विचलित होने से तेरे अन्दर का
धैर्य नष्ट हो जावेगा. इसलिए सब प्रकार की समस्याओं का सामना बड़े धैर्य से कर,
हिम्मत से कर, साहस से कर. जब तक तेरे अन्दर धैर्य है,
तब तक तेरे अन्दर असीमित शक्ति बने रहे गी, तब तक
तेरे अन्दर साहस रहे गा, तब तक तेरे अन्दर हिम्मत रहेगी द्य
ज्यों ही तेरे अन्दर से धैर्य निकल जावेगा, त्यों ही
तेरी बुद्धि, तेरा साहस, तेरी
हम्मत तेरा साथ छोड़ जावेगी, जो कि तेरे विनाश का कारण बनेगी. इस
प्रकार धैर्य के साथ अपने पद पर आसीन रहने के लिए तूं धैर्य को बनाए रख. इन
अवस्थाओं में रहते हुए तूं अपने राज्य की प्रजा की निश्चय पूर्वक सेवा कर तथा अपने
इस राज्य को, इस राष्ट्र को निश्चय पूर्वक धारण कर.
मन्त्र कहता है कि हे राजन्! तूं कभी अपने
इस पद से कभी च्युत न होना बल्कि पर्वत के सामान स्थर रूप से स्थित रहना, कभी
डगमगा न होना. तूं तब तक ही राजा के इस पद पर रह सकता है,
जब तक तू पर्वत सामान स्थिर रहते हुए अपने कर्तव्यों को पूर्ण करता
रहेगा. तु इस पद पर तब तक ही रह सकेगा, जब तक कि जनता
के हित के प्रजा के कल्याण के कार्य करता
रहेगा. जनता का हित करना ही तेरा एकमात्र उत्तेश्य है, यही तेरा
एक मात्र कार्य है, जब तक तुन इस प्रकार की सेवा करता रहेगा तब तक
तूं पर्वत के सामान स्थिर है, ज्यों ही जनहित के कार्यों से विमुख
होगा त्यों ही तेरा अन्ता आ जावेगा, तेरी स्थिरता का नाश हो जावेगा.
जनहित के
कार्यों से ही स्थिरता
जो उपदेश ऋग्वेद के अध्याय १०.१७३ के
मन्त्र संख्या एक में दिया गया था कुछ इस प्रकार का ही उपदेश इस १०.१७३.२ में दिया
गया है तथा कहा गया है कि राजा को अपनी सत्ता को स्थिर बनाने के लिए जनहित के
कार्य करने होंगे जितने अधिक जनहित के कार्य वह करेगा उतना ही अधिक उसकी सत्ता
स्थिरता को प्राप्त होगी. इसा लिए प्रजा तांत्रिक व्यवस्था में राजा के लिए यह
आवश्यक होता है कि वहाधिक से अधिक जनहित के कार्य करे द्य इस तथ्य की पुष्टि
यजुर्वेद इस प्रकार करता है कि :
विशि राजा प्रतिष्ठित: ||यजुर्वेद
२०.९ ||
राजा के यश और
कीर्ति का कारण उसकी प्रजा
यजुर्वेद के बीसवें अध्याय का यह नवम
मन्त्र उपदेश करता है कि राजा की स्थिरता तथा राजा की प्रतिष्ठा प्रजा पर ही
निर्भर करती है. राजा-प्रजा की भलाई करके उसका मन जीतता है तो प्रजा भी उस का आदर
करती है, उसका सम्मान करती है तथा दीर्घ काल तक उसे उसके पद पर स्थिर बनाए
रखती है. यदि राजा प्रजा के हितों की रक्षा न कर प्रजा की हानि के कार्य करता है
तो अवसर मिलते ही प्रजा उसे पद से च्युत कर देती है, उसे पद
से हटा देती है. इसलिए मन्त्र कहता है कि राजा के यश और कीर्ति का कारण उसकी प्रजा
ही होती है, जिससे राजा का सम्मान बढ़ता है तथा राजा के
विनाश का कारण भी जनता ही होती है. अपने शासन को दीर्घजीवी व स्थिर बनाने के लिए
राजा को चाहिए कि वह अधिकाधिक् प्रजा के लिए उत्तम कार्य करे.
इस सब से यह स्पष्ट होता है कि राजा की
स्थिरता प्रजा के हितों पर, प्रह्जा की इच्छा तक ही निर्भर है.
प्रजातंत्र का शासक यह जानता है कि उसकी स्थिरता, उसका
सम्मान तब तक ही स्थिर है, जब तक प्रजा उसके पक्ष में है. प्रजा
के पास उसे पद से हटाने का अधिकार है, चाहे वह आज हटा
दे या चुनाव के समय उसे अपना मत न देकर उसे पद से हटा देवे. इस लिए अधिक से अधिक
समय तक सत्ता का सुख भोगने के लिए राजा सदा इस प्रयत्न में रहेगा कि प्रजा की दया
उस पर बनी रहे. प्रजा का यह आशीर्वाद पाने के लिए वह प्रजा के हितों का अधिक से
अधिक ध्यान रखेगा. वह्प्रजा के कल्याण के लिए, प्रजा के
सुखों के बढाने के लिए सदा यत्न करता रहेगा. कभी कोई इस प्रकार का कार्य नहीं
करेगा कि जिससे प्रजा को कष्ट हो, दू:ख हो, उसका
कल्याण न हो क्योंकि वह जानता है कि किसी प्रकार के कार्यक्रम के वह अपनी चिता में
स्वयं अग्नि प्रवाहित कर रहा है. इसलिए वह अपने राज्य को स्थायी व सुरक्षित बनाए
रखने के लिए प्रजा के लिए सदा उत्तम कार्य करता रहता है.
डा.अशोक आर्य
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