हम प्रतिदिन
संसार में नये बच्चों के जन्म के समाचार सुनते रहते हैं। इसी प्रकार पशु व
पक्षियों आदि के बच्चे भी जन्म लेते हैं। मनुष्य व पशु आदि प्राणियों के जन्म का
आधार क्या है? इसका उत्तर न विज्ञान के पास है और न अधिकांश
मत-मतान्तरों के पास है। इसका तर्क एवं युक्ति संगत सत्य उत्तर वेद व वैदिक
साहित्य में मिलता है। वेद एवं वैदिक साहित्य का अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि
मनुष्य जन्म का आधार हमारे पूर्व जन्म में किये गये वह शुभ व अशुभ कर्म हैं जिनका
हम भोग नहीं कर पाये हैं। उन बचे हुए कर्मों के भोग के लिए ही ईश्वर ने हमें यह
जन्म दिया है। योग दर्शन के एक सूत्र के अनुसार हमारे पूर्वजन्म के बचे हुए शुभ व
अशुभ कर्मों के आधार पर परमात्मा हमारी योनि अथवा जाति, आयु और
सुख-दुख रूपी भोगों को निर्धारित करते हैं और उसके अनुसार ही हमारा जन्म हो जाता
है।
पूर्व जन्म के
कर्म संचय को ही प्रारब्ध कहते हैं। उसी के आधार पर हमारी मनुष्य योनि व मनुष्य
जाति परमात्मा ने तय की थी। हमारी जो आयु होती है उसका आधार भी हमारा प्रारब्ध ही
होता है।
इसी कारण कोई कम आयु में तो कोई अधिक आयु में मृत्यु को प्राप्त होते
हैं। ऋषि दयानन्द सरस्वती (1825-1883) ने कहा है कि पुरुषार्थ प्रारब्ध से बड़ा
होता है। इसका तात्पर्य यह है कि मनुष्य वर्तमान जीवन में जो पुरुषार्थ करता है
उससे प्रारब्ध से मिलने वाले सुख व दुःखों वा ज्ञान प्राप्ति आदि उपलब्धियों को
सुधारा वा प्रभावित किया जा सकता है। इस जन्म में हमने जो शिक्षा प्राप्त की है वह
हमें प्रत्यक्ष रूप से पुरुषार्थ से प्राप्त होती है। यदि हम विद्याध्ययन में
पुरुषार्थ न करते तो हमें विद्या प्राप्त न होती। यदि हम स्वास्थ्य के नियमों का
पालन न करते तो हमारा स्वाध्याय भी अच्छा न होता है। बहुत से लोगों का स्वास्थ्य
खराब होता है। वह रोगी होते हैं और अल्पायु में ही उनकी मृत्यु हो जाती है। इसका
कारण इस जन्म में स्वास्थ्य के नियमों का पालन न करना अर्थात् उचित पुरुषार्थ न
करना ही होता है। यह रोग व अस्वस्थता पूर्वजन्म के कर्मों व प्रारब्ध के अनुसार
नहीं होती अपितु इसमें इस जन्म के कर्मों का भी महत्व होता है। अतः पुरुषार्थ से
हम अपनी जाति तो नहीं बदल सकते परन्तु आयु और सुख व दुःख रूपी भोगों में एक सीमा
तक सुधार व बिगाड़ तो कर ही सकते हैं।
पुनर्जन्म का
आधार हमारे पूर्वजन्म के शुभ व अशुभ कर्म हैं। सब जीवात्माओं के इस जन्म के कर्म
एक समान नहीं होते। अतः जिन जिन जीवात्माओं का जन्म हमारे आसपास होता है उनके
पूर्व जन्म के कर्मों में समानता न होने अथवा विविधता होने से उनके माता, पिता,
परिवेश आदि अलग अलग होते हैं। बच्चों की विद्याग्रहण करने की
सामर्थ्य व शारीरिक बल आदि भी भिन्न भिन्न होने का कारण पूर्वजन्म के कर्मों मुख्य
होते हैं। इसके साथ ही माता-पिता द्वारा जिस सन्तान को जन्म दिया जाता है, उसका
गर्भकाल में पालन भी विशेष महत्व रखता है। जन्म व पुनर्जन्म का आधार यदि मनुष्य
आदि प्राणियों के पूर्वकृत कर्म न होते तो सभी मनुष्यों की आकृति व परिवेश,
शारीरिक सामर्थ्य एवं बुद्धि आदि एक समान होनी चाहिये थी। सभी
मनुष्यों के गुण, कर्म, स्वभाव, सामर्थ्य,
प्रवृत्ति आदि में समानता न होने का मुख्य कारण उनके पूर्वजन्म के
कर्म व संस्कारों की भिन्नता ही निश्चित होती है।
कर्मों के विषय
में जब विचार करते हैं तो हमें यह ज्ञात होता है कि बहुत से मनुष्य शुभ कर्म करते
हैं और बहुत लोग अपने स्वभाव व प्रवृत्ति से अशुभ व अवैदिक कर्म करते हैं जो कि
उन्हें नहीं करने चाहिये। यह इस जन्म के कर्म होते हैं जिनका उसे वर्तमान व भविष्य
में भोग करना होगा। इसके अतिरिक्त उसने पूर्व के जो कर्म किये होते हैं उसे भी उसे
भोगना होता है। सामान्य जीवन में हम देखते हैं कि यदि हम किसी से ऋण लें तो हमें
पहले पुराना ऋण व बकाया धन का भुगतान चुकता करना होता है। उसके बाद हमें नया ऋण
मिलता है। परमात्मा को भी जीवों के पुराने कर्मों का भोग कराना है और वर्तमान जीवन
में भी अशुभ व शुभ कर्म संग्रहीत हो रहे हैं। उचित प्रतीत होता है कि पहले पुराने
बचे हुए कर्मों का भोग कराया जाये। शायद यही कारण है कि मनुष्य जब इस जन्म में
अशुभ कर्म करता है तो उसे उसी समय उनका फल मिलता हुआ न देख कर लोग कर्म फल
सिद्धान्त को स्वीकार नहीं करते। उन्हें विचार करना चाहिये कि अशुभ कर्म करने वाले
मनुष्य ने पूर्व जन्मों व जीवन के आरम्भ में भी जो शुभ व अशुभ कर्म किये हैं,
उनका भी उसे भोग करना है।
इसी कारण से कई अशुभ कर्मों की प्रवृत्ति
वाले मनुष्यों को सुखी व सम्पन्न देखा जाता है। जब वह सुखी होते हैं तो इसका अर्थ
यह लगता है कि वह पूर्व किये हुए अपने शुभ कर्मों का भोग कर रहे हैं। इस जन्म में
वर्तमान समय में वह जो अशुभ कर्म कर रहा है वह उसे अपने जीवन में आगे अथवा मृत्यु
के बाद पुनर्जन्म में भोगने होंगे। समस्त वैदिक साहित्य जो कि हमारे
साक्षात्कृतधर्मा ऋषियों ने प्रदान किया है, उसके
अनुसार जीवात्मा को अपने किये हुए शुभ व अशुभ सभी कर्मों के सुख व दुःखीरूपी फलों
को अवश्य ही भोगना होता है। कोई भी मनुष्य अपने किसी भी कर्म का फल भोगे बिना नहीं
छूट सकता। अतः ईश्वर व वैदिक कर्म फल सिद्धान्त में विश्वास रखना चाहिये। हम जो
वैदिक शुभ कर्म, सन्ध्या, यज्ञ,
मात-पिता-आचार्यों की सेवा, परोपकार,
दान आदि कर रहे हैं, उसके कर्म भी हमें यथासमय ईश्वरीय
व्यवस्था से मिलेंगे।
हम मनुष्यों के
आचरणों पर भी विचार कर सकते हैं जो सदैव वेद सम्मत शुभ वा पुण्य कर्म ही करते हैं।
उन्हें पुनर्जन्म में मनुष्य योनि प्राप्त होने के साथ ऐसे परिवार में उनको जन्म
मिलने की सम्भावना होती है जहां सभी लोग धार्मिक एवं वेदाचरण व सदाचरण करने वाले
होते हों। इसके विपरीत अधिकांश में अशुभ व दुराचरण आदि कर्म करने वालों का आगामी
जन्म मनुष्यादि श्रेष्ठ योनि में न होकर पशु, पक्षी
आदि नीच योनियों में होने की सम्भावना होती है। यदि ऐसा न हो तो फिर इस जन्म में
लोग सद्कर्म क्यों करेंगे? शायद कोई भी सद्कर्म नहीं करेगा। कोई
भी व्यवस्था लम्बी अवधि तक सफलता के साथ तभी चल सकती है जिसमें सद्गुणों की
प्रशंसा तथा दुगुर्णों की भर्त्सना की जाती हो। यजुर्वेद का 40/2 मन्त्र ‘कुर्वन्नेवेह
कर्माणि जिजीविषेच्छतम् समः’ भी सकेंत कर रहा है कि मनुष्य वेद
विहित कर्म करके स्वस्थ रहते हुए सौ वर्ष की आयु तक सुखपूर्वक जीवित रहने की इच्छा
करे। इसका सीधा अर्थ यह है कि वेद विहित सद्कर्मों को करने से हमारा यह जीवन सुख,
समृद्धि से युक्त होकर दीर्घायु को प्राप्त होता है। जब सद्कर्मों का
प्रभाव इस जन्म में होता है तो निश्चय ही पुनर्जन्म में भी भोग न किये जा सके
कर्मों से हमें सुख व ज्ञान आदि का लाभ होगा।
मनुष्य का आत्मा
अनादि व अमर है। ईश्वर अनादि व अमर है। प्रकृति भी अनादि व नाश रहित है। हमारी यह
सृष्टि ईश्वर द्वारा मूल प्रकृति से ही बनी है। दर्शन का सिद्धान्त है कि यह सृष्टि
उत्पत्ति व प्रलय को प्राप्त होती है और यह कार्य जगत वा सृष्टि प्रवाह से अनादि
है। ईश्वर, जीव व प्रकृति के अनादि व अमर होने से भी यह
निश्चित होता है कि यह सृष्टि अनादि काल से बनती व प्रलय को प्राप्त होती आ रही है
और भविष्य में भी ऐसा ही होगा। जैसे रात्रि के बाद दिन और दिन के बाद रात्रि आती व
जाती रहती हैं इसी प्रकार से सृष्टि की उत्पत्ति व प्रलय सदैव से होती आयीं हैं और
सदैव होती रहेंगी। हम इस जन्म में मनुष्य हैं और विचार करने पर निश्चित होता है कि
असंख्य बार हमारे अनेक व प्रायः सभी योनियों में जन्म हो चुके हैं। सृष्टि के
प्रवाह से अनादि होने से यह भी निश्चित होता है कि हम अनेक बार मोक्ष भी रहे हो
सकते हैं। सृष्टि में हम जितनी भी प्राणी योनियां देखते हैं उनमें प्रायः हम सभी
योनियों में अनेक अनेक बार जन्म ले चुकें हैं। अतः इन तथ्यों व को जानकर मनुष्य को
वेदों का अध्ययन कर उनकी शिक्षाओं के अनुसार ही जीवनयापन करना चाहिये। इसी मार्ग
पर चलने से हमें इस जीवन व परजन्म में अधिकाधिक सुख, श्रेष्ठ
जीवन व योनि सहित मोक्ष सुख भी प्राप्त हो सकता है।
हमारा यह मनुष्य
जीवन हमारे पूर्व जन्मों के कर्मों वा प्रारब्ध का परिणाम है। ईश्वर ने हमें वा
हमारी आत्मा को सुख प्रदान करने के लिए ही यह जीवन दिया है। ईश्वर अर्यमा अर्थात्
न्यायाधीश है। वह पक्षपात रहित होकर जीव के प्रत्येक कर्म बिना भूले न्याय करता
है। जो मनुष्य पाप कर्म करते हैं ईश्वर उनके लिए रुद्र वा रूलाने वाला होता है। यह
व्यवस्था हम संसार में देख रहे हैं। अतः हमें कर्म फल सिद्धान्त को अधिकाधिक जानकर
उसे व्यवहारिक रूप में अपने जीवन में स्थान देना चाहिये। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार
आर्य
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