जब हम लोकहित की
कामना से कोई कार्य करते हैं तो इसके लिए ज्ञान का होना आवश्यक है. भुवपति शास्त्र
तथा भुवनपति शास्त्र, दोनों प्रकार के ज्ञान में, पदार्थ
में तथा इसके प्रयोग में हम निपुण होकर जीव मात्र के रक्षक बनें. यजुर्वेद का यह
दूसरे अध्याय का दूसरा मंत्र इस पर ही उपदेश करते हुए कह रहा है कि :-
आदित्यै व्यूंदनमसि विष्णो स्टुपो$स्युर्णमरदसन्
त्वा स्तुणामि त्वासस्थां
देवेभ्यो भुवपतये स्वाहा भुवनपतये स्वाहा
भूतानां पतये स्वाहा ||यजुर्वेद
२.२ ||
महर्षि दयानंद
भाष्य
परमेश्वर सब मनुष्यों के लिए उपदेश
करता है कि हे मनुष्यो! तुमको वेदी आदि यज्ञ के साधनों का सम्पादन करके सब
प्राणियों के सुख तथा परमेश्वर की प्रसन्नता के लिए अच्छी प्रकार क्रिया युक्त
यज्ञ करना और सदा सत्य ही बोलना चाहिए और जैसे मैं न्याय से सब विश्व का पालन करता
हूँ वैसे ही तुम लोगों को भी पक्षपात छोड़कर सब प्राणियों के पालन से सुख सम्पादन
करना चाहिए.
इस आलोक में मन्त्र की विस्तृत
व्याख्या इस प्रकार की जाती है :-
१. ज्ञानाग्नि
से हम ज्ञान स्रवण बनें
हम जानते हैं कि प्रजापति अग्नि को
प्रचंड करने के लिए, ज्ञान की अग्नि को प्रचंड करने के लिए हमें
ज्ञान स्रवण स्वरूप अर्थात् ज्ञान का चम्मच, जिस से
ज्ञान रूपी यज्ञ में हम ज्ञान रूपी घी डाल सकें, एसा
स्रवण बनना होता है. इसके
बिना ज्ञान की अग्नि जल ही नहीं सकती. यह व्यक्ति इस ज्ञान स्रवण के कार्य में क्यों तत्पर हुआ है,
क्यों लगा है? यह एक एसा प्रश्न है जिस का उत्तर यह
मंत्र देते हुए उपदेश करता है कि :-
२. हमारा
स्वास्थ्य उत्तम हो -
उत्तम स्वास्थ्य से ही मानव जीवन के सब
कार्य सिद्ध होते हैं. यदि
हम स्वस्थ नहीं तो बिस्तर पर पड़े -पड़े रोते, कराहते
रहते हैं, कुछ कर नहीं सकते.
अकर्मण्य से हो जाते हैं, असहाय से हो
जाते हैं. इसलिए मंत्र कहता है कि हमने स्वास्थ्य के लिए
अदीन देवमाता की स्तुति करना है.
भाव यह है कि हे जीव! तेरे अन्दर दूसरों को स्वस्थ रखने वाला ज्ञान
हो. दूसरों
को स्वस्थ रखने के लिए ज्ञान रूपि एक विशेष प्रकार के जल से तू प्राणी मात्र को
भिगोने वाला बन, ज्ञान रूपि जल से प्राणी मात्र को नहला दे,
उसे ज्ञान का स्नान कराने वाला है. इस प्रकार तू अन्य लोगों को स्वस्थ, अदीन
बनाने के साथ ही साथ दिव्य गुणों से संपन्न करने वाला बन. यह सब करने के लिए ज्ञान - रूपी विशेष जल से
इन्हें भिगो दे. जब
तू ज्ञान का प्रसार करता है तो सब लोगों के जीवन स्वस्थ बनते चले जाते हैं क्योंकि
इससे अन्य लोग भी ज्ञान के भंडारी बन जाते हैं तथा इस ज्ञान के प्रयोग से वह भी
अपने अंदर के सब क्लुश धोने में सफल होते है तथा क्लुश धुल जाने से उनके भी रोगाणु
नष्ट हो जाते हैं और स्वस्थ रहने के योग्य बन जाते हैं . इससे ही उनमें
आदीनता की श्रेष्ठ भावना का उदय होता है तथा उनके जीवन में देवीय सम्पत्ती का आगमन
होता है.
३. लोकहित के
कार्य कर :-
हे जीव! तू ही इस ज्ञान का शिखर है, इस
शिखर के लिए यज्ञ की छत है.
तू ही उन लोगों का मूर्धन्य है, जिनका जीवन यज्ञमय होता है. इसलिए तेरा यह जीवन सदा ही लोकहित के कार्यों के,
जन हित के कार्यों के, अन्यों के उत्तम के लिए लगा रहे. इस कारण तू अपने
प्रत्येक कार्य में पहले हित-अहित का परीक्षण करता है तथा वह कार्य ही करना उत्तम
समझता है, जिस में दूसरों का हित हो. परहित का ही सदा धयान रखता है. इस प्रकार तू व्यक्तिगत स्वार्थ से ऊपर उठ गया है.
४. दूसरे के सहायक के प्रभु सहायक होते हैं :-
हे जीव! तू निरंतर जन-हित का, लोक दृ
हित का ध्यान रखने वाला है.
तू मूर्धन्य हो कर औरों के जीवनों को ऊपर ले जाने वाला, ऊपर
उठाने वाला है.
सब की प्रगति की भावना तेरे में है.
तू केवल अपनी ही उन्नति नहीं चाहता बल्कि सबकी उन्नति में ही अपनी उन्नति देखता है. तू किसी का भी
बुरा नहीं चाहता बल्कि सबका हित चाहता है, सब को आच्छादित
करता है. तू मृदु
स्वभाव वाला है, सदा मधुर ही मधुर, मीठा ही
मीठा बोलने वाला है.
इसलिए मैं तुझे अपनी शरण में लेता हूं, अपनी छत्रछाया
में रखता हूँ.
जिस प्रकार हमारे घरों की छत सर्दी,
गर्मी तथा वर्षा आदि से हमारी रक्षा करती है, उस
प्रकार ही मैं तुझे अपनी छत दे रहा हूँ ताकि तू आसुरी आक्रमणों से,राक्षसी
प्रवृतियों से बचा रह सके, आसुरी प्रवृतियों का तेरे ऊपर हमला न
हो सके, इन से तेरी निरन्तर रक्षा हो सके. इस प्रकार परमपिता परमात्मा की शरण में आने से हम सुरक्षित हो जाते
हैं. जो
प्रचार का कार्य हम करते हैं.
इस प्रचार के कार्य को करते हुए अनेक जन ऐसे होते हैं, जो
दूसरों को जो उपदेश देते हैं , उस उपदेश को दूसरों के लिए ही समझते
हैं द्य अपने पर अपने ही उपदेश को लागू
नहीं करते. इस प्रकार के उपदेश करने वाले तो अनेक मिल जाते हैं किन्तु अपने पर
लागू करने वाले बहुत कम मिलते हैं.
५. लोक हितकारी को प्रभु दिव्य गुण देता है :-
परमपिता परमात्मा कहते हैं कि हे जीव!
तेरे लिए यह ही आशीर्वाद है कि मैं तुझे दिव्यगुण देता हूं. इन दिव्यगुणों के लिए
मैं तुझे यह उत्तम आश्रय स्थल बनाता हूं. तू ने दूसरों को आगे बढाना है. इस कार्य
के लिए तेरे पास अनेक प्रकार के दिव्य गुणों का होना आवश्यक है, वह
सब दिव्य गुण मैं तुझे देता हूं.
६. लोक हित के कारण तूं स्वाहा का अधिकारी है :-
परमपिता परमात्मा इस मंत्र के माध्यम
से हमें उपदेश कर रहे हैं कि हम उपदेश करते समय केवल दूसरों की कमियां निकालने में
ही न लगे रहें. मीठे शब्दों में प्रचार का कार्य करना चाहिये.
मीठी भाषा से, मीठे
शब्दों में सब कुछ समझाना चाहिये, सब ज्ञान देना चाहिये. जो ज्ञान के प्रसारक इस प्रकार से प्रचार करते
हैं, प्रभु उनकी रक्षा करते हैं अपितु उन्हें उत्तम बनाने के लिए अत्यंत
मृदुभाषी बनाते हैं.
तेरा यह शास्त्रीय ज्ञान केवल
शास्त्रीय ही नहीं है अपितु यह एक क्रियात्मक, एक
व्यवहारिक तथा एक प्रयोगात्मक ज्ञान है. तेरे इस ज्ञान की वाणी लोगों को अत्यधिक
प्रभावित करने वाली है क्योंकि इस में आगम तथा प्रयोग, दोनों
प्रकार के ज्ञानों की निपुणता स्पष्ट दिखाई पड़ती है. इस कारण ही हे सब प्रकार के
ज्ञानों के स्वामी मानव! तेरी यह कल्याणकारी ज्ञान से भरपूर वाणी अत्यन्त
प्रभावोत्पादक हैं. इससे दूसरों को अत्यधिक लाभ हो रहा है. इसलिए तू स्वाहा शब्द
का अधिकारी हो गया है. अत: मैं तुझ सब प्राणियों की रक्षा करने वाले को स्वाहा
जैसे शुभ शब्दों का उच्चारण करने का अधिकारी बनाता हूं. इस शुभ शब्द से तू सब का
उपकार करने में सफल होगा.
हे लोक हितकारी मानव! तू सदा दूसरों के कल्याण
की, हित की, शुभ की ही बातें सोचता है, इन
सब का हित ही चाहता है. इसलिए तेरे पास कुछ दिव्य शक्तियों का होना आवश्यक होता है.
तू दूसरों के हित के लिए अपने हित की भी चिन्ता नहीं करता. इसलिए तुझ चिन्तनशील को
जो स्वाहा जैसे उत्तम शब्द का चिन्तन मनन किया जाता है, उच्चारण
किया जाता है, यह सब लोक पदार्थों के पतिभूत होते हैं. इसलिए
यह स्वाहा शब्द तेरे लिए प्रशंसात्मक शब्द है. इन का उच्चारण तेरे लिए ही किया
जाता है. तू ने अत्यधिक चिन्तन किया है, तू ने अत्यधिक
मनन किया है. इस प्रकार तू शास्त्रीय ज्ञान के पति अर्थात् स्वामी बन गया है इसके
साथ ही साथ इस शास्त्रीय ज्ञान के विषयभूत पदार्थों का भी तू पति है, स्वामी
है, मालिक है.
डा.अशोक आर्य
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