ऋषि दयानन्द का
सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ संसार में सुविख्यात ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ में ऋषि दयानन्द
ने संसार में विद्यमान पदार्थों के सत्य स्वरूप का प्रकाश किया है। यह ग्रन्थ चौदह
समुल्लासों में है। प्रथम दस समुल्लास ग्रन्थ पूर्वाद्ध कहलाते हैं और बाद के चार
समुल्लास उत्तरार्ध कहलाते हैं। प्रथम सम्मुलास में ईश्वर के एक सौ से अधिक नामों
की व्याख्या के साथ मंगलाचरण की समीक्षा की गई है। दूसरा समुल्लास बाल शिक्षा विषय
पर है जिसमें इस विषय के साथ भूत प्रेतादि के निषेध सहित जन्म पत्र व सूर्यादि
ग्रह के मनुष्य के जीवन पर प्रभाव की समीक्षा की गई है। तीसरा समुल्लास मुख्यतः
अध्ययनाध्यापन विषय पर है। इसके साथ इस समुल्लास में गुरुमन्त्र व्याख्या, प्राणायामशिक्षा,
सन्ध्या अग्निहोत्र पर उपदेश, उपनयन
समीक्षा, ब्रह्मचर्य उपदेश, पठन पाठन की विशेष विधि, ग्रन्थों
के प्रमाण व अप्रमाण होने का विषय सहित स्त्री व शूद्रों के अध्ययन की विधि का
वर्णन है। चौथे समुल्लास में समावर्तन एवं विवाह का विषय है। इस समुल्लास में इन
विषयों के अतिरिक्त गुण कर्मानुसार वर्ण व्यवस्था, स्त्री
पुरुष व्यवहार, पंचमहायज्ञ, गृहस्थ
धर्म उपदेश, पण्डित व मूर्खों के लक्षण सहित पुनर्विवाह,
नियोग एवं गृहस्थाश्रम की श्रेष्ठता पर विचार किया गया है और वेदों
का मन्तव्य व सिद्धान्त सूचित किया गया है। पांचवे समुल्लास में वानप्रस्थ आश्रम
और संन्यासाश्रम का विषय है।
छठे समुल्लास
में राजधर्म, दण्ड व्यवस्था, राजा के
कर्तव्य, युद्ध, राज्य की रक्षा, व्यापार
में राज्य की ओर से कर स्थापन, साक्षियों के कर्तव्यों पर उपदेश,
झूठी साक्षी पर दण्ड का विधान एवं चोरों को दण्ड आदि के विधान से
अवगत कराया गया है। यूं तो सभी समुल्लास महत्वपूर्ण हैं परन्तु सातवे और आठवें
समुल्लास में ईश्वर, जीव व प्रकृति आदि विषयों के वर्णन के कारण इन
समुल्लासों का विशेष महत्व है। सातवें समुल्लास में ईश्वर, ईश्वर
स्तुतिप्रार्थनोपासना, ईश्वर ज्ञान का प्रकार, ईश्वर का
अस्तित्व, ईश्वर के अवतार का निषेध, जीव की
स्वतन्त्रता, ईश्वर तथा जीव की भिन्नता, ईश्वर
के समुण व निर्गुण स्वरूप का तात्पर्य व उनके वर्णन सहित वेद विषयक महत्वपूर्ण
विचार प्रस्तुत किये गये हैं। आठवें समुल्लास में सृष्टि की उत्पत्ति, ईश्वर
व प्रकृति की भिन्नता, मनुष्य की आदि सृष्टि में उत्पत्ति के स्थान का
निर्णय, आर्य और मलेच्छ की व्याख्या एवं ईश्वर का ब्रह्माण्ड को धारण करना
विषय सम्मिलित किये गये हैं। नवम् समुल्लास में विद्या, अविद्या,
बन्धन तथा मोक्ष का विषय वर्णित है। दसवें समुल्लास में आचार अनाचार
तथा भक्ष्य एवं अभक्ष्य पदार्थों का वर्णन किया गया है। ग्यारहवें समुल्लास में
आर्यावर्तदेश के मत-मतान्तरों के खण्डन व मण्डन के विषय सहित अन्य अनेक विषय
सम्मिलित हैं। इसमें आर्यसमाज विषय सहित आर्यवर्तीय राजवंशावली भी प्रस्तुत की गई
है। बारहवें समुल्लास में चारवाक, नास्तिक, बौद्ध एवं
जैन मतों की समीक्षा है। अन्त के दो समुल्लासों में ईसाई तथा यवन मत की समीक्षा
है। ग्रन्थ के अन्त में स्वमन्तव्यामन्तव्य प्रस्तुत किया गया है। इसके अन्तर्गत 51
विषयों पर ऋषि दयानन्द जी ने अपनी मान्यतायें लिखी हैं। यही वैदिक मान्यतायें हैं
और इन मान्यताओं को ही संक्षेप में वैदिक धर्म कहते हैं। यह मन्तव्य ऐसे हैं कि
यदि इन्हें कोई मनुष्य अपना ले तो वह सभी मत मतान्तरों से अधिक उत्तम व उपयोगी
मनुष्य बनने के साथ परजन्म में भी दूसरों से अधिक उन्नत योनि व जीवन प्राप्त करता
है।
स्वमन्तव्यामन्तव्य
प्रकाश में 51 विषय सम्मिलित किये गये हैं। यह विषय हैं
ईश्वर, वेद, धर्म-अधर्म, जीव,
ईश्वर-जीव सम्बन्ध यथा व्याप्य-व्यापक, उपास्य-उपासक
और पिता-पुत्र आदि, अनादि पदार्थ, सृष्टि
प्रवाह से अनादि, सृष्टि, सृष्टि
का प्रयोजन, सृष्टि सकर्तृक, बन्ध,
मुक्ति, मुक्ति के साधन, अर्थ-अनर्थ,
काम, वर्णाश्रम, राजा,
प्रजा, न्यायकारी, देव-असुर-राक्षस-पिशाच,
देवपूजा, शिक्षा, पुराण,
तीर्थ, पुरुषार्थ प्रारब्ध से बड़ा, मनुष्य,
संस्कार, यज्ञ, आर्य-दस्यु,
आर्यावर्त्त व आर्य, आचार्य, शिष्य,
गुरु, पुरोहित, उपाध्याय,
शिष्टाचार, आठ प्रमाण, आप्त,
परीक्षा, परोपकार, स्वतन्त्र-परतन्त्र,
स्वर्ग, नरक, जन्म, मृत्यु,
विवाह, नियोग, स्तुति, प्रार्थना,
उपासना एवं सगुणनिर्गुणस्तुतिप्रार्थनोपासना। ऋषि दयानन्द ने इन
शीर्षक से वैदिक मन्तव्य को स्पष्ट किया है। ऋषि दयानन्द जी ने जो भी लिखा है उसे
हम गागर में सागर कह सकते हैं। इसे पढ़कर एवं आचरण में लाकर मनुष्य अपने जीवन को
अन्य सामान्य लोगों से कहीं अधिक श्रेष्ठ, ईश्वर की आज्ञा
के अनुरूप व महत्वपूर्ण बना सकता है। इन मन्तव्यों में स्वामी जी ने दो से पांच
वाक्यों में वैदिक मन्तव्यों का जिस प्रकार से चित्रण किया है वह संसार के धार्मिक
व सामाजिक साहित्य में अन्यत्र एक साथ इस उत्तमता से उपलब्ध नहीं होता। अतः सुधी
पाठकों व ऋषि भक्तों को इन मन्तव्यों को पढ़ते रहना चाहिये और इसके अनुसार अपना
जीवन बनाना चाहिये। वेद प्रचार के लिए यह लघु पुस्तक एक उत्तम साधन हो सकता है।
वाणी से भी लोगों में इन बातों को समझाना आवश्यक है।
इन मन्तव्यों
में प्रथम ईश्वर विषयक मन्तव्य को प्रस्तुत किया गया है और इस पर प्रकाश डालते हुए
कहा गया है कि ईश्वर, कि जिस के ब्रह्म परमात्मादि नाम हैं, जो
सच्चिदानन्दादि लक्षणयुक्त है, जिस के गुण, कर्म,
स्वभाव पवित्र हैं। जो सर्वज्ञ, निराकार,
सर्वव्यापक, अजन्मा, अनन्त,
सर्वशक्तिमान्, दयालु, न्यायकारी,
सब सृष्टि का कर्त्ता, धर्त्ता, हर्त्ता,
सब जीवों को कर्मानुसार सत्य न्याय से फलदाता आदि लक्षणयुक्त है। इन
लक्षणों वाली सत्ता को ही ऋषि दयानन्द परमेश्वर मानते थे। हम व संसार के सभी लोगों
को भी इन लक्षणों से युक्त ईश्वर को ही परमात्मा वा ईश्वर स्वीकार करना चाहिये और
इसके विपरीत लक्षण वाली सत्ता को ईश्वर स्वीकार नहीं करना चाहिये। यदि हम ऐसा करते
हैं तो निश्चय ही हमारा कल्याण होगा। हम यह भी कहना चाहते हैं कि कोई भी विद्वान
किसी भी मत का क्यों न हो, इसमें दिये हुए ईश्वर विषयक एक भी
लक्षण को अन्यथा सिद्ध नहीं कर सकता और न अब तक कोई कर पाया है। आश्चर्य यह है कि
सभी मत-मतान्तरों के विद्वान व अनुयायी न्यूनाधिक इन लक्षणों से विपरीत ईश्वर की
सत्ता को मानते हैं। ऐसे विद्वान अपना तो अकल्याण करते ही हैं अपने अनुयायियों का
भी अकल्याण करते हैं। जो भी मनुष्य ईश्वर के सत्य स्वरूप को जानना चाहें उनके लिए
ऋषि का यह मन्तव्य विचारणीय एवं स्वीकार करने योग्य है।
धर्म की भी
अत्यन्त महत्वपूर्ण परिभाषा ऋषि दयानन्द जी ने अपने मन्तव्यों में दी है। उनके
अनुसार पक्षपातरहित, न्यायाचरण, सत्यभाषणादि
युक्त ईश्वराज्ञा जो वेदों से अविरुद्ध है वही धर्म है। इसके विपरीत धर्म विषयक जो
मान्यतायें हैं, वह अधर्म हैं। इस परिभाषा को सभी मत-मतान्तरों
पर लागू किया जाये तो यह कह सकते हैं कि संसार में प्रचलित सभी मत वा धर्मों की जो
मान्यतायें ऋषि दयानन्द के धर्म विषयक इस मन्तव्य के अनुरूप व अनुकूल है, उसी
सीमा तक वह धर्म हैं। इनके विपरीत को धर्म कदापि नहीं कह सकते। अन्य मन्तव्यों पर
कुछ न लिख कर हम पाठकों से अनुरोध करेंगे कि वह सत्यार्थप्रकाश में ऋषि के
मन्तव्यों को पढ़कर उसे बार बार पढ़े जब तक कि वह उन्हें हृदयंगम न हो जाये। ऐसा
करने व इसके अनुसार आचरण करने पर साधक का निश्चित रूप से कल्याण होगा। इति ओ३म्
शम्।
-मनमोहन कुमार
आर्य
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