हम संसार में
मनुष्यों सहित अनेक पशु, पक्षी व अन्य अनेक प्राणी योनियों को
देखते हैं। सभी मनुष्यों व जीवित प्राणियों में एक अनादि, अमर,
अल्पज्ञ, सूक्ष्म व ससीम चेतन जीवात्मा होता है। इन सभी
प्राणी योनियों में जो जीवात्मायें हैं वह एक जैसी हैं। अनेक मनुष्यों को मनुष्य
और अन्य सभी प्राणियों के शरीरों में उनकी आत्मायें एक जैसी हैं व नहीं, भ्रमित
देखा जाता है। कुछ वर्ष पूर्व हम अपने कार्यालय में बैठे थे। वहां जीवात्मा की
चर्चा चली तो एक मित्र पूरे विश्वास के साथ बोले कि मनुष्य का आत्मा अन्य प्राणी
योनियों के शरीरों की आत्माओं से भिन्न है। उनकी मान्यता थी कि मनुष्य के कर्म
कैसी भी क्यों न हों, मनुष्य की मृत्यु होने पर उसकी आत्मा का
पुनर्जन्म मनुष्य योनि में ही होता है। उनके अनुसार गाय की आत्मा का पुनर्जन्म गाय
योनि में, जिस प्रजाति का जो आत्मा है, उसका भावी जन्म
उसी प्रजाति में होता है। हमें अपने मित्र के यह विचार उचित प्रतीत नहीं लगे थे।
हमने उनके विचारों का प्रतिवाद किया और बताया कि जीवात्मा सभी योनियों में एक जैसा
व समान है परन्तु आत्माओं के पूर्वजन्म के कर्मों के अनुसार परमात्मा ने उनकी इस
जन्म की योनि निर्धारित की है। योगदर्शन के ऋषि ने एक सूत्र में कहा कि हमारी जाति,
आयु और भोग हमारे प्रारब्ध के अनुसार परमात्मा निर्धारित करता है। इस
पर विचार करें तो यह सिद्धान्त वेदानुकूल होने सहित तर्क व युक्ति के आधार पर भी
उचित लगता है। इसके आधार पर हमारे पूर्व जन्म के कर्मों के आधार पर ही हमें यह
मनुष्य योनि मिली है। पूर्व जन्म में हो सकता है कि हम मनुष्य रहे हों और यह भी
सम्भव है कि हम मनुष्य न रहे हों अपितु किसी पक्षी या पशु आदि योनि में रहे हों।
हमारे इस जन्म की जाति, आयु और भोग का कारण हमारा पूर्व जन्मों के कर्म
वा प्रारब्ध है। हमने उन्हीं दिनों इस विषय पर एक लेख भी लिखा था जो कुछ आर्य
पत्रिकाओं में प्रकाशित हुआ था। आज पुनः इस विषयक पर पाठकों तक ऋषि दयानन्द जी के
विचार पहुंचाने का मन हुआ जिसका परिणाम यह लेख व इसकी आगामी कुछ पंक्तियां हैं।
कोई भी बात तभी
स्वीकार की जा सकती है जब उसके पीछे पर्याप्त तर्क व युक्तियां हों। एक अन्य
प्रमाण यह होता है कि उस बात को उस विषय का कोई बड़ा प्रामाणिक विद्वान भी स्वीकार
करता हो। इस दृष्टि से हम इस विषय में ऋषि दयानन्द के विचारों को प्रस्तुत कर रहे
हैं। ऋषि दयानन्द वेदों के प्रमाणिक विद्वान थे। वह ईश्वर भक्त एवं योगी थे और
उनके विषय में यह प्रसिद्ध है कि वह 16 घंटे तक की
समाधि लगा सकते थे परन्तु देश की दुर्दशा के कारण उसका सुधार करने के लिए उन्होंने
अपने समाधि के सुख का त्याग कर दिया था। वह प्रातः लगभग 1 घंटा व
रात्रि में अधिक समय तक समाधिस्थ अवस्था में रहते थे। जो मनुष्य दीर्घकालीन समाधि
लगाने में सिद्ध होते हैं वह ईश्वर के सान्निध्य के कारण अपनी मान्यताओं को अधिक
सत्यता व प्रमाण के साथ कहते हैं ऐसा माना जा सकता है। यदि वह असत्य कथन करेंगे तो
उनकी समाधि अवस्था में बाधा आ सकती है। समाधि के लिए एक पात्रता यह भी है कि साधक
मन, वचन व कर्म से सत्य का ही विचार व प्रचार करे।
सत्यार्थ प्रकाश
के नवम् समुल्लास में स्वामी दयानन्द जी ने एक प्रश्न उपस्थित किया है जिसमें कहा
है कि मनुष्य और अन्य पश्चादि के शरीर में जीव एक से हैं या भिन्न भिन्न जाति के?
दूसरा प्रश्न उन्होंने यह लिखा है कि मनुष्य का जीव पश्वादि में और
पश्वादि का मनुष्य के शरीर में और स्त्री का पुरुष के और पुरुष का स्त्री के शरीर
में जाता आता है वा नहीं? इन प्रश्नों का ऋषि ने उत्तर देते हुए
लिखा है कि मुनष्य और पशुओं में जीव एक से हैं परन्तु पाप पुण्य के योग से मलिन और
पवित्र होते हैं। दूसरे प्रश्न के उत्तर में वह बताते हैं मनुष्य का जीव पश्वादि
में और पश्वादि का मनुष्य में आता जाता है। क्योंकि जब पाप बढ़ जाता है, पुण्य
न्यून होता है तब मनुष्य का जीव पश्वादि नीच शरीर में और जब धर्म अधिक तथा अधर्म
न्यून होता है तब देव अर्थात् विद्वानों का शरीर मिलता है। और जब पुण्य पाप बराबर
होता है तब साधारण मनुष्य जन्म होता है। इसमें भी पुण्य पाप के उत्तम, मध्यम
और निकृष्ट होने से मनुष्यादि में भी उत्तम, मध्यम,
निकृष्ट शरीरादि सामग्री वाले होते हैं। और जब अधिक पाप का फल
पश्वादि शरीर में भोग लिया है, पुनः पाप पुण्य के तुल्य होने वा रहने
से मनुष्य शरीर में आता है और पुण्य के फल भोग कर फिर भी मध्यस्थ मनुष्य के शरीर
में आता है।
ऋषि दयानन्द जी
आगे लिखते हैं कि जब जीव शरीर से निकलता है उसी का नाम ‘मृत्यु’
और शरीर के साथ संयोग होने का नाम ‘जन्म’
है। जब शरीर छोड़ता है तब यमालय अर्थात् आकाशस्थ वायु में रहता है
क्योंकि ‘यमेन वायुना’ वेद में लिखा है कि यम नाम वायु का है।
इसके बाद ऋषि दयानन्द ने अत्यन्त महत्वपूर्ण बातें लिखी है जिसका ज्ञान हमारे आज
के विद्वत समाज को भी नहीं है। ऐसा प्रतीत होता है कि ऋषि दयानन्द ने जानकारी
सम्भवतः किसी ऋष्योक्त वा आप्त ग्रन्थ के आधार पर लिखी है। यह भी सम्भव है कि ऋषि
जी ने यह जानकारी अपने शास्त्रीय ज्ञान के आधार पर अपने विचारों के मननपूर्वक लिखी
हो। उन्होंने जो लिखा है वह प्रामाणिक तथ्य हैं और हम सबको आवश्यकता पड़ने पर इस
जानकारी को विरोधी विचारों का खण्डन करते हुए इसे प्रस्तुत करना चाहिये। ऋषि लिखते
हैं कि मृत्यु होने के साथ वा बाद शरीर से जो जीवात्मा निकलती है वह आकाशस्थ वायु
में रहती है। इस जीवात्मा को धर्मराज अर्थात् परमेश्वर उसके पाप पुण्यानुसार जन्म
देता है। वह वायु, अन्न, जल अथवा शरीर के
छिद्र द्वारा दूसरे के शरीर में ईश्वर की प्रेरणा से प्रविष्ट होता है। (जीवात्मा)
जो (पुरुष शरीर में) प्रविष्ट होकर क्रमशः वीर्य में जा गर्भ में स्थित हो शरीर
धारण कर (प्रसव काल में) बाहर आता (जन्म लेता) है। जो स्त्री के शरीर धारण करने
योग्य कर्म हों तो स्त्री और पुरुष के शरीर धारण करने योग्य कर्म हों तो पुरुष के
शरीर में प्रवेश करता है। और नपुंसक गर्भ की स्थिति-समय स्त्री पुरुष के शरीर में
सम्बन्ध करके रज वीर्य के बराबर होने से होता है। इसी प्रकार नाना प्रकार के जन्म
मरण में तब तक जीव पड़ा रहता है कि जब तक उत्तम कर्मोपासना ज्ञान को प्राप्त करके
मुक्ति को नहीं पाता। क्योंकि उत्तम कर्मादि करने से मनुष्यों में उत्तम जन्म और
मुक्ति में महाकल्प पर्यन्त जन्म मरण दुःखों से रहित होकर आनन्द में रहता है।
उपर्युक्त
पंक्तियों में हमने ऋषि दयानन्द जी के विचारों को प्रस्तुत किया है जो वेद
शास्त्रानुकूल व प्रमाणित हैं। वेदों और शास्त्रों में जीवात्मा का जो स्वरूप
उपलब्ध होता है, आज का विज्ञान अभी वहां तक पहुंच नहीं पाया है
और वह जीव को उस रूप में स्वीकार नहीं करता जैसा जीव का वर्णन वेद आदि शास्त्रों व
ऋषियों के ग्रन्थों में मिलता है। ईश्वर व जीव विषयक वैदिक शास्त्रों की बातें
सत्य हैं जिन्हें विज्ञान को स्वीकार करने में समय लगेगा क्योंकि यह विषय अभौतिक
होने के कारण मनुष्य की आत्मा के चिन्तन मनन सहित स्वाध्याय और योगाभ्यास आदि से
अनुभव करने योग्य है। ऋषि दयानन्द जी ने जो कहा है उसके अनुसार मनुष्य व अन्य सभी
पश्वादि योनियों में जो चेतन जीवात्मायें हैं वह सब एक जैसी हैं। वह कर्मानुसार एक
योनि से दूसरी योनि में आ जा सकती हैं। स्त्री के शरीर की आत्मा पुरुष शरीर में व
पुरुष की आत्मा स्त्री शरीर में आ जा सकती है। मृत्यु होने पर जीवात्मा शरीर से
निकलने के बाद आकाशस्थ वायु में रहती है। मनुष्य जन्म होने से पहले वह भावी पिता
के शरीर में प्रवेश करती है। पिता के शरीर से वह माता के शरीर में जाती है और वहां
से प्रसव काल में वह जन्म के समय शिशु रूप में बाहर आती है। शिशु रूप में जन्म के
बाद वह किशोर, किशोर से युवा, प्रौढ़ व
वृद्ध अवस्थाओं से गुजर कर पुनः मृत्यु को प्राप्त होती है। हम आशा करते हैं कि
पाठकों को आत्मा के आवागमन विषयक ऋषि दयानन्द के शास्त्रसम्मत विचारों का ज्ञान हो
गया होगा। यही विचार ज्ञान विज्ञान सम्मत होने के साथ सत्य व यथार्थ भी हैं। सभी
मनुष्यों को आत्मा विषयक इन्हीं विचारों को स्वीकार करना चाहिये और इसके विरोधी
विचारों को स्वीकार नहीं करना चाहिये। आत्मा विषयक इन विचारों को पढ़कर अपने भ्रम
को दूर कर दूसरों के भ्रम को भी दूर करना चाहिये। इति ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार
आर्य
No comments:
Post a Comment