हमारी सदा ही यह इच्छा रही है कि हम उस पिता को , उस प्रभु
को प्राप्त करें किन्तु कैसे? इस निमित्त हम अपनी अन्दर की वासनाओं
का नाश करें। वासना विनाश के लिए अपने अन्दर ज्ञान का दीप जलाएं। ज्ञान का दीप
जलाने के लिए सात्विक अन्न का प्रयोग करना आवश्यक है। जब मन वासना रहित होगा,
अन्दर ज्ञान का प्रकाश होगा तथा जब यह शरीर सात्विक भोजन पर निर्भर
होगा तो हम प्रभु को पाने में सफल होंगे। इस तथ्य पर ही यह मन्त्र इस प्रकार
प्रकाश डाल रहा है :-
इन्द्रा याहि तुतुजान उप ब्रह्माणि हरिव: ।
सुते दधिष्व नश्चन: ॥ ऋग्वेद १.३.६
॥
इस मन्त्र में तीन बातों पर, तीन बिन्दुओं पर प्रकाश डालते हुए इस
प्रकार कहा गया है, उपदेश किया गया है :-
१. वासनाओं का नाश
जितेन्द्रीय पुरुष को इन्द्र के
नाम से सम्बोधित करते हुए मन्त्र कहता है कि हे जितेन्द्रिय पुरुष! तू अति शीघ्रता
से सब वासनाओं का नाश करता हुआ मेरे समीप आ। इससे यह स्पष्ट होता है कि मन्त्र के
अनुसार प्रभु प्राप्ति की प्रथम तथा प्रमुख सीढी वासनाओं का नाश ही है। जब तक
वासनाओं का नाश नहीं होता तब तक प्रभु प्राप्ति की ओर प्रथम कदम भी नहीं रखा जा
सकता। इसलिए प्रभु दर्शन के अभिलाषी प्राणी को सर्व प्रथम जो कार्य करना होता है,
उसे हम वासनाओं का नाश के नाम से जानते हैं। अत: प्रभु प्राप्ति
के पथिक को सर्व प्रथम वासना नाश रुपी मार्ग को पकडना होता है। यह ही प्रभु दर्शन
का प्रथम साधन है, प्रथम सीढी है।
२. ज्ञान से वासनाओं का नाश
वासनाओं का नाश करने के इच्छुक हे प्रशस्त इन्द्रिय रुपी घोडों से युक्त
प्राणी! तु सदा ज्ञान के मध्य निवास करने वाला बन। ज्ञान प्राप्ति की रुचि के बिना
तू ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता। इसलिए तेरे लिए यह आवश्यक है कि यदि तूं ज्ञान
प्राप्ति की अभिलाषा रखता है तो अपने अन्दर ज्ञान को पाने की इच्छा पैदा कर,
रुचि पैदा कर । जब तक तेरे अन्दर ज्ञान नहीं है, तब
तक वासनाओं का नाश सम्भव ही नहीं है। जब तुझे अच्छे व बुरे का ज्ञान ही नहीं है,
तब तक तूं बुराई को करे तथा यह इच्छा शक्ति भी अपने अन्दर पैदा कर कि
तू ने उत्तम ज्ञान को पैदा करना है, ग्रहण करना है। जब तक तेरे अन्दर
वासनाओं को मारने के लिए, वासनाओं का हनन करने के लिए ज्ञान ही
नहीं है, वासनाओं की बुराई को तू जानता ही नहीं है, तब तक
इनका नाश नहीं कर सकता। इसलिए महान् ज्ञानी बनना तेरे लिए आवश्यक है। यह ज्ञान ही
है जो हमें वासनाओं की हानियों की जानकारी देने वाला है। यह ज्ञान ही तो है जो
वासनाओं का नाश करता है।
३. उत्तम अन्न का सेवन
अपने शरीर में हमने शक्ति पैदा करनी है। शक्ति ही सब सफलताओं का मार्ग है,
सब सफलताओं का मूल है। इस शक्ति को ही सोम कहते हैं । इसलिए हे
प्राणी! अपने शरीर में सोम की उत्पत्ति के लिए, शक्ति की
उत्पत्ति के लिए, मैंने जो अन्न तेरे लिए दिया है, पैदा
किया है, तू उसे धारण करने के योग्य बन, अपने
अन्दर एसे गुण पैदा कर कि तू इस अन्न का उपभोग करने के योग्य बन सके, इस
अन्न को ग्रहण कर। यह अन्न ही तेरा भोजन है, यह अन्न
ही तेरी क्षुधा पूर्ति का साधन है, यह अन्न ही तेरे जीवन का मुख्य भाग है।
इस प्रकार यह मन्त्र उपदेश कर रहा है कि गेहूं , चावल ,
जौ, उडद, दालें, तिल
आदि वस्तुएं , जिन्हें अन्न का नाम दिया गया है, ही
तू खाने के लिए सेवन कर, इनका ही उपभोग कर, इन्हें
ही तू ग्रहण कर। मांस मनुष्य का भोजन नहीं है, इसलिए तू
ने मांस , मदिरा आदि तुच्छ पदार्थों का अपने भोजन के रूप में सेवन नहीं करना।
एसे गन्दे भोजन का सेवन कर तू अपनी बुद्धि को रजस वृत्तियों वाला बना कर वैष्यिक वृत्तिवाला बनकर, तामस
वृत्ति वाला बनकर सोम रक्षण का कार्य नहीं कर पावेगा। सोम रक्षण एसी दूषित
वृत्तियों से नहीं होता। यदि तू अपने शरीर में सोम की ,शक्ति की
रक्षा करना चाहता है तो यह आवश्यक है कि तू उत्तम अन्न व दालों आदि का ही सेवन कर।
मांस, मदिरा के सम्बन्ध में सोच भी न, देख भी न।
इससे ही शक्ति अर्थात् सोम की
प्राप्ति होगी। इस के अतिरिक्त हे जीव! तू यह भी कर:-
क)
तू सदा सात्विक भोजन कर
ख)
सात्विक भोजन की प्राप्ति से तू सूक्ष्म बुद्धि वाला बनकर ज्ञान प्राप्ति
के कार्य में लग जा।
ग)
ज्ञान प्राप्ती से तु अच्छे व बुरे की परख करने वाला बन।
घ)
अच्छे व बुरे का पारखी बनकर तू अपने अन्दर की विषय वासनाओं की हानि को
समझ तथा अपनी वासनाओं
का विनाश कर।
ड)
वासनाओं का विनाश कर तू अपने आप को प्रभु को पाने के योग्य बना।
डा.अशोक आर्य
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