वेद का यह स्पष्ट आदेश है कि जो गुण
राजा के लिए बताए गए हैं, उन
गुणों की जांच परख प्रजा द्वारा करने पर ही पक्ष- विपक्ष का मतदान किया जाना चाहिए, अन्यथा
अनर्थ हो जावेगा. इसके साथ ही कहा गया है कि प्रजा ही राजा के लिए शक्ति का स्रोत
होती है. राजा तब तक ही राजा होता है, जब तक प्रजा का
हाथ उस पर होता है. प्रजा के विमुख होते ही वह राजा के आसन से अलग कर दिया जाता है.
इस का भाव यह है कि जिस प्रकार प्रजा अपने राजा का चुनाव करती है, उस
प्रकार प्रजा के पास राजा को पदच्युत करने की शक्ति भी होती है. वह राजा को किसी
भी समय हटा भी सकती है. जिस प्रकार प्रजा राजा को शक्ति देती है, उस
प्रकार वह उसकी शक्ति को छीन भी सकती है. यह ही कारण है कि राजा का चुनाव करते समय
प्रजा उसके गुणों को अच्छी प्रकार जांचती है, परखती है.
जिस प्रतिनिधि में वेद मन्त्र के अनुसार अधिकतम गुण होते हैं, वह
अपना मत उसी के ही पक्ष में देकर उसको राजा स्वरूप चुन लेती है.
इस बात को
यजुर्वेद अध्याय १० का यह २८ वां मन्त्र इस प्रकार प्रकट कर रहा है :-
अभिभूरस्येतास्ते पञच दिश: कल्पन्ता̇ ब्रह्मँसत्व̇ ब्रह्मासि सवितासि
सत्याप्रसवो वरुणोसि सत्यौजौइन्द्रोसि विशौजा रुद्रोसि सुशेव:
बहुकार श्रेयस्कर भुयस्करेन्द्रस्य वज्रोसि तेन में राध्य ||यजुर्वेद
१०.२८ ||
मन्त्र उपदेश करते हुए कह रहा है कि हे राजन्! तेरे अन्दर इतनी शक्ति है,
इतना शौर्य है, इतना साहस है तथा इतनी वीरता है कि तूं
बड़ी सरलता से अभिनव दुष्टों का अभिनव कर सकता है. तूं दुष्टों का पतन कर सकता है,
उनका हनन कर सकता है, उन्हें पराजित कर सकता है, मार
सकता है. तूं इन सब दुष्टों को, शत्रुओं को युद्ध में परास्त कर सकता
है, हरा सकता है, उनपर
विजय पा सकता है. इसलिए यह सब दिशाएं तेरे लिए मंगलकारी हों. दिशाएं चार मानी गई
हैं. इसलिए मन्त्र उपदेश करता है कि चारों दिशाओं में तेरी विजय पताका फहरावे.
चारों दिशाओं से तेरे लिए शुभ समाचार, मंगल समाचार
प्राप्त हों. सब ओर से तेरी सेनाएं विजयी हों. किसी दिशा में भी दुर्बलता दिखाई न
दे. सब और से तेरी शक्ति के, तेरी विजयी सेना की स्तुति में गीत सुनाई
दें, तेरा यशोगान हो.
मन्त्र आगे कहता है कि हे राजन्! तूं ब्रह्मा बन
अर्थात् तूं विद्या में इतना संपन्न हो, इतनी अधिक
विद्या ग्रहण कर कि चार वेद का समग्र
ज्ञान रूप में जाना जावे, चार वेद का पूरा ज्ञान तूं प्राप्त कर
ले द्य तेरे अन्दर विद्या इतना स्थान ग्रहण करे कि चार वेद के विद्वान् स्वरूप ब्रह्मज्ञानी के नाम से
पुकारा जावे द्य इस प्रकार तूं ब्रह्मविद्या से संपन्न बन.
हे
राजन्! तूं सविता बनकर सब प्रकार के ऐश्वर्यों का स्वामी बन. सब प्रकार के ऐश्वर्यों
का उत्पादन तेरे द्वारा हो. तूं एशवर्यों के उत्पादन की शक्ति तो रखता है किन्तु
इस एश्वर्य के साथ ही साथ अपने जीवन में और अपने राज्य में सत्य के व्यवहार से
एशवर्य कमाने वाला बन. तेरे व्यवहार में कभी और कहीं असत्य का स्थान न हो द्य तूं
जो धन, सम्पति तथा एश्वर्य का सृजन कर रहा है, वह सब भी
तेरे सत्य व्यवहार से ही हो. असत्य व्यवहारों से सदा दूर रह.
इतना ही नहीं मन्त्र के अनुसार हे राजन्!
तूं वरुण भी है, इस कारण तूं श्रेष्ठ भी है. वरुण एक ऐसे मित्र
को कहा जाता है, जिस में इतनी शक्ति होती है कि वह अपने मित्र
को गलत मार्ग से रोकने के लिए अपनी मित्र शक्ति का प्रयोग करने का भी अधिकारी होता
है तथा वह अपने मित्र को सुपथगामी बनाने के लिए कुछ क्रोध भी दिखा सकता है. इसलिए
मन्त्र ने राजा को वरुण कहा है. भाव यह है कि राजा अपनी प्रजा से न केवल पिता के
समान व्यवहार करता है बल्कि वह अपनी प्रजा का अन्तरंग मित्र भी होता है. जब प्रजा
उसके उत्तम उपदेश को आदेश को नहीं मानती तो एक उत्तम मित्र के समान वह अपनी प्रजा
को दंड देते हुए सुमार्ग पर लाता है.
राजन्! सत्य आचरण के कारण, सत्य
मार्ग व सत्य व्यवहार के कारण तूं सत्योजा बन गया है अर्थात् तूं सब प्रकार के
सत्यों को अपने अन्दर समेटे हुए है तथा तेरा आचरण भी सब सत्यों पर ही आधारित होता
है. इस प्रकार तूं सत्य के बल से संपन्न हो गया है. तूं इंद्र है, तूं
सुधरता है और तूं विशौजा है. तेरे पराक्रम का कारण तेरी उत्तम प्रजा है, क्योंकि
तेरी शक्ति का मूल प्रजा है. इस प्रजा से ही तुझे शक्ति प्राप्त हुई है. प्रजा की
शक्ति के आधार पर ही तेरे अन्दर इतनी शक्ति आ गई है कि तूं दुष्टों को, शत्रुओं
को, कुमार्ग गामियों को रुलाने वाला बन सका है. प्रजा से प्राप्त शक्ति
ही के कारण तेरे अन्दर यह भावना आई है तूं उत्तम व सुख दायक इस प्रकार के कार्य
करे कि जिससे न केवल स्वयं ही सुखी रहे अपितु तेरी प्रजा भी सब प्रकार के सुखों को
पाने की अधिकारी बने.
अंत में मन्त्र कह रहा है कि तेरे पुरुषार्थ के कारण बहुत से सुखों का सृजन
हो, उत्पादन हो, बहुत से सुखों का तूं कारण हो. तेरे
पराक्रम से सब शत्रु दहल जावें अर्थात् तूं दुष्टों और शत्रुओं को रुलाने वाला बने.
सब प्रकार के शत्रुओं का नाश करने वाला हो. तेरे भय से भयभीत कोई भी शत्रु तेरे
राज्य क्षेत्र के आस पास भी न आ पावे. तेरे राज्य में, तेरे
पुरुषार्थ के कारण सर्वत्र कल्याण ही कल्याण दिखाई दे, सुख ही
सुख दिखाई दे. तूं सब कल्याणों का कारण
रूप स्रोत हो. तूं एक बार नहीं जनकल्याण के लिए बार बार उत्तम कर्म करता रह. इस
प्रकार उत्तम कार्य करते हुए तूं अपने राज्य में अत्यधिक धन एश्वर्य की खेती करते
हुए इसे बढ़ा .इस प्रकार तूं अपनी सता में सब प्रकार के यश और सब प्रकार की कीर्ति
को प्राप्त कर.
डा. अशोक आर्य