त्रातारो देवा अधि वोचता नो मा नो निद्रा ईशत मोत जल्पिः। वयं सोमस्य
विश्वह प्रियासः सुवीरासो विदथमा वदेम।। ). 8/48/14
विनय - हे प्राकृतिक देवो! तुम हमसे बात करो। तुम हमसे इतने स्वाभाविक और
निकट सम्बन्ध में हो जाओ कि हम तुम्हारे अभिप्राय को सदा समझते रहें। हे रक्षक
देवो! तुम तो हमारे इतने आत्मीय हो कि यद्यपि हम अप्राकृतिक जीवन बिताते हुए अपनी
हानि करने में कभी कुछ कसर नहीं छोड़ते हैं तो भी तुम्हारी प्रवृत्ति सदा, अन्त तक हमारी रक्षा करने की ही रहती
है। हमें हानि तभी पहुंचती है जब हम अन्त तक तुम्हारी बात नहीं सुनते, तुम्हारे बार-बार सावधान करने पर भी हम
तुम्हारी चेतावन को नहीं सुनते और तुम्हारी ज़ोरदार आवाज भी हमें इसीलिए सुनाई नहीं
देती क्योंकि हम तुमसे समस्वर नहीं रहते, तुम्हारे
यन्त्र से अपना यन्त्र मिलाये नहीं रखते,
वस्तुतः इस समता में ही सब-कुछ है। हम
या तो तमोगुण में पड़े रहते हैं या उससे उठते हैं तो रजोगुण हमें अपने चक्र पर चढ़ा
लेता है। इन दोनों की समता ;सत्त्व
गुणद्ध में हम टिक नहीं सकते। हममें यह सामर्थ्य नहीं है कि हम अपनी निद्रा को या
अपनी बोलने आदि की क्रिया को अपने काबू में रख सकें। जब ‘तम’ का वेग आता है तो हम आलस्य में दब जाते
हैं ओर जब ‘रज’ का वेग आता है तो हम बोलते चले जाते
हैं। इस असमता को, हे देवो!
अब हमसे हटा दो। अब ‘निद्रा’ और ‘जल्पि’ हम पर अपन प्रभुत्व न कर सके। हम अब जब
चाहें तभी आराम करें, अपनी
निद्रा लेवें और अपने भाषण आदि कर्म पर अपना पूरा संयम रख सकें। इस समता, संयम रख सकने में ही श्रेष्ठ वीरता है, सुवीरता है। यदि हम ऐसे हो जाएंगे तो, हे देवो! तुम सब देवों के देव उस
सोमदेव के भी हम प्यारे हो जाएंगे। अब हमारी यही इच्छा है कि हम उस सोम प्रभु के
प्यारे होते हुए और समता में रहने वाले ऐसे ‘सुवीर’ होते हुए ही अपना जीवन बिताएं। ऐसे
तुम्हारे भाई बनकर तुमसे जो कुछ ज्ञान पाएं उसे अपने जीवन द्वारा फैलाते
रहें-तुमसे जो कुछ सुनें उसे औरों को भी सुनाते रहें। इसलिए, हे देवो! तुम अब हमें सुनाओ, हमसे बात करो।
शब्दार्थ - त्रातारः देवाः = हे रक्षक देवो! नः अधिवोचत = हमसे बात करो, हमें बताओ। नः निद्रा मा ईशत = हम कभी
निद्रा, आलस्य के
वशीभूत न हों और मा उत जल्पिः =और न ही बकवास, व्यर्थ बोलने की इच्छा हमें दबाये। वयं
विश्वह सोमस्य प्रियासः = हम सदा सोम के प्यारे होते हुए और सुवीरासः = श्रेष्ठ
वीर होते हुए विदथं आवदेम= ज्ञान को फैलाते रहें।
साभार : वैदिक विनय
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