अपम सोमममृता अभूमागन्म ज्योतिरविदाम देवान्। किं नूनमस्मान् कृणवदरातिः
किमु धूर्तिरमृत मर्त्यस्य।। ). 8/48/3
विनय - मैंने अमर करने वाले ज्ञानामृत का पान कर लिया है, मैं तृप्त हो गया हूं, अमर हो गया हूं। अब मैं मृत्यु से पार
हो गया हूं, क्योंकि
मैंने देख लिया है कि मैं अजर-अमर हूं, नित्य हूं, सनातन हूं, न कभी पैदा हुआ हूं और न कभी मर सकता
हूं। यह सब मैं ज्ञान के प्रकाश में स्पष्ट देख रहा हूं। मैं प्रकाश के राज्य में
पहुंचा हुआ हूं, जहां किसी
भ्रम व संशय को स्थान नहीं है। मैं अब मरनेवाला मनुष्य नहीं रहा हूं, देव हो गया हूं, मैंने देवलोक पा लिया है। अब मेरा न
कोई मित्र है और न शत्रु। मेरे लिए संसार में विघ्न बाधा कोई वस्तु नहीं रही है।
जो बेचारे अज्ञानी मुझे अपना शुत्र समझते हैं, मुझे सहायता देना रोककर हानि पहुंचाना
चाहते हैं- वे जानते नहीं। उनके किये से भला मेरा क्या बिगड़ सकता है? मुझ परितृप्त-निष्काम पुरुष को वे क्या
हानि पहुंचा सकते हैं? मुझ अमर
को मरणशील मनुष्य की कौन-सी हिंसा, कौन-सा वध
मार सकता है? हे मेरे
अमृत परमेश्वर! वे अमृतपान को कुछ भी नहीं जानते।
तू उन्हें भी अमृत का तनिक-सा आनन्द चखा
दे, तो वे जान
जाएं कि मरणशील मनुष्य कितना तुच्छ है और उसके हाथ में पकड़ा हुआ हिंसा का हथियार
और भी अधिक क्षणभंगुर एवं तुच्छ है! मनुष्य अपने मर्त्यपन की अवहेलना को अनुभव
करने लगे तो वह अमर बनने के लिए, देव बनने
के लिए व्याकुल हो उठे। तब मार-काट, हिंसा, द्वेष कहां रहे? तब किसी को बिगाड़ने की आवश्यकता न रहे, सबको बनाना ही काम हो जाए किसी
को मारने, नाश करने
की आवश्यकता न रहे, सबको
जीवित करने का ही काम रह जाए। अहो, अमर को
मारने की इच्छा करने वाले कितना व्यर्थ प्रयास कर रहे हैं! परितृप्त ज्ञानी देव को
हानि पहुंचाना चाहने वाले कितने भ्रम में हैं! अपनी शक्ति का कितना दुरुपयोग कर
रहे हैं? हे
परमेश्वर! तू उनपर दया कर।
शब्दार्थ - सोमं अपाम = मैंने सोम का पान किया है, अमृताः अभूम = अमर हो गया हूं। ज्योतिः
अगन्म = प्रकाश पा लिया है। देवान् अविदाम = देवों को प्राप्त हो गया हूं, देव हो गया हूं, मैंने दिव्यता पा ली है, अतः अब नूनम् = निश्चय से अरातिः =
शत्रु, दान का
अभाव अस्मान् किं कृणवत् = हमारा क्या करेगा और मर्त्यस्य धूर्तिः = मरणशील मनुष्य
की हिंसा अमृत = हे अमृतदेव! किम् = मेरा क्या बिगाड़ेगी!
साभार : वैदिक विनय
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