मोघमन्नं
विन्दते अप्रचेताः सत्यं ब्रवीमि वध इत् स तस्य।
नार्यमणं
पुष्यति नो सखायं केवलाघो भवति केवलादी।। -). 10/117/6
विनय - संसार में धनी दीखने वाले दुर्बुद्ध पापबुद्ध मनुष्यों के पास जो
अन्न-भण्डार और नाना भोग-सामग्री दिखाई देती है, क्या वह भोग्य-सामग्री है? अरे, वह सब भोग-विलास का सामान तो उनकी ‘मौत’ है। वे भोग्य-वस्तुएं नहीं हैं, किन्तु उनको खा जाने वाले ये इतने उनके
भोक्ता हैं, भक्षक
हैं। भोग्य-सामग्री का मनोहर रूप धरके आया हुआ उनका काल है, उन्हें खा जाने के लिए आया हुआ काल है।
मनुष्यो! तुम्हें इस विचित्र बात पर विश्वास नहीं होता होगा, किन्तु मैं सच कहता हूं, सच कहता हूं और फिर सच कहता हूं कि
पापी, पुरुष के पास एकत्र हुआ सब सांसारिक भोग का सामान उसकी मृत्यु का सामान है, केवल मृत्यु का ही सामान है इसमें
तनिक भी सन्देह नहीं है, क्योंकि
वह पुरुष अपने इस धन-ऐश्वर्य द्वारा केवल अपने देह को ही पोषित करता है।
न तो वह
उस द्वारा अपने अन्य मनुष्य-भाइयों को पोषित करके अपने स्वाभाविक यज्ञ-धर्म को
पालता है, न ही वह
अर्यमादि देवों के लिए आहुति देकर आधिदैविक जगत के साथ अपना सम्बन्ध स्थापित रखता
है। यदि वह आधिदैविक आदि जगत् को पोषित करता हुआ इसके यज्ञ-शेष से अपने को पोषित
करे, तब जो
भोग-सामग्री उसके लिए अमृत हो सकती थी, वही भोग-सामग्री उसकी ‘मौत’ बन जाती है। मनुष्यो! याद रक्खो कि
अकेला भोगनेवाला, औरों को
बिना खिलाये स्वयमेव अकेला भोगनेवाला मनुष्य, केवल पाप को ही भोगता है। जबकि चारों
ओर असंख्य पुरुष एक समय भी भरपेट भोजन न पा सकने वाले, भूखे-नंगे झोंपड़ों में पड़े हों तो उनके बीच में
जो हलुवा-पूरी खानेवाला, महल में
रहने वाला, पलंग पर सोने वाला‘अप्रचेताः’ पुरुष है उससे तुम क्यों ईर्ष्या करते
हो? तुम्हें
बेशक वह मजे़ में हलुवा-पूरी खाता हुआ दिखाई देता है, पर तनिक सूक्ष्मता से देखो तो वह
बेचारा तो केवल अपने पाप को भोग रहा होता है, वह केवल शुद्ध पाप का भागी होता है और इस
अयज्ञ के भारी पाप-बोझ को वह अकेला ही उठाता हैऋ इसमें उसका कोई और साथी नहीं
होता। ‘‘केवलाघो
भवति केवलादी’’ यह संसार
का परम सत्य है। इसे कभी मत भूलो! ;शरीर, मन और आत्मा तीनों को पुष्ट करने
वालेद्ध सच्चे भोजन में और ;शीघ्र ही
विनाश को पहुंचा देने वालेद्ध पापमय भोजन में भेद करो! पाप से सना हुआ हलुवा-पूरी
खाने की अपेक्षा रूखा-सूखा खाना या भूखा रहना हज़ारों गुणा श्रेष्ठ है। पहले प्रकार
का भोजन मौत हैऋ दूसरा अमृत है।
शब्दार्थ-अप्रचेताः = दुर्बु( मनुष्य मोघम्= व्यर्थ ही अन्नम् =
भोग-सामग्री को विन्दते= पाता है। सत्यं ब्रवीमि = सच कहता हूं कि सः= वह
भोग-सामग्री तस्य = उस मनुष्य के लिए वध इत् = मृत्यु रूप ही होती है - उसका नाश
करने वाली ही होती है। ऐसा दुर्बु( न अर्यमणं पुष्यति = न तो यज्ञ द्वारा अर्यमादि
देवों की पुष्टि करता है नो सखायम् = और न ही मनुष्य-साथियों की पुष्टि करता है।
सचमुच वह केवलादी = अकेला खाने-भोग करनेवाला मनुष्य केवलाघो भवति = केवल पाप
को ही भोगनेवाला होता है।
साभार :
वैदिक विनय
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