अजीतयेऽहतये
पवस्व स्वस्तये सर्वतातये बृहते।
तदुशन्ति
विश्व इमें सखायस्तदहं वश्मि पवमान सोम।। -). 9/96/4
विनय - हम
चाहते हैं कि हम अजित रहें, कभी हार न
जाएं, हम अहत
रहे, कभी माने
न जाएं, हमार कल्याण
ही हो, कभी हमारा
कोई अकल्याण न हो, परन्तु इस
सबके लिए, हे सोम!
हम तुम्हारे रस के भिक्षुक हैं। तुम्हारा रस मिल जाए तो और सब-कुछ हमें स्वयं मेव
मिल जाए। जैसे ग्रीष्म के बाद मेघवृष्टि उद्यान व खेत की सब वृक्ष-वनस्पतियों को
जिस समय सजीव करती है तो उनमें सरसता, उनमें हरियाली, उनमें नवपल्लवों का फूटना, उनमें पुष्प और फल का आना आदि सब-कुछ
उस एक वर्षारस के पा जाने से हो जाता है, उसी प्रकार यह संसाररूपी महा उद्यान भी, हे बरसनेवाले सोम! तुम्हारा रस पाकर ही
नाना प्रकार से फूलता-फलता और जीवित रहा करता है। इस संसारोद्यान का प्रत्येक
जीवरूपी वृक्ष तुमसे जीवन पाकर ही नाना प्रकार से आत्म-विकास पाना चाहें, सदा हमें जिस एक वस्तु की आवश्यकता है, वह है तुमसे मिलने वाला जीवन-रस, सोम-रस।
इसलिए, हे पवमान सोम! संसार के ये सब
मनुष्य-मेरे साथी तुमसे यह जीवन-रस मांग रहे हैं-तुमसे यही चाह रहे हैं। मैं तुमसे
इसी की मांग मचा रहा हूं। तो हे सोम! अब तुम मेरे लिए क्षरति होओ-मेरे इन सब
मनुष्य-सखाओं के लिए क्षरित होओ, हमारी
अजीति, अहति, स्वस्ति आदि सब कामनाओं को पूरा कर
डालने के लिए क्षरित होओ। नहीं-नहीं तुम
तो हे अमृत बरसानेवाले!् इस सब चर,अचर, बृहत् संसार के लिए ही अपनी अमृत-वर्षा
का दान करो। ऐसा बरसो कि तुम्हारे अमृत से सीचे जाते हुए इस विशाल ब्रह्माण्ड में
सब जीवों, सब
प्राणियों की सदा ठीक प्रकार से सर्वविध सर्वोन्नति व सर्वोदय होता जाए। इस प्रकार
सब जगत् और प्राणिमात्र का अमृत-सिंचन करते हुए ही तुम मुझे, इस अपने एक तुच्छ प्राणी को भी अपना यह
अमृत-रस प्रदान करो। तनिक देखो, यह सब
संसार इस अमृत-रस को पाने के लिए कैसा व्याकुल हो रहा है! मैं इसके लिए कैसा तड़प
रहा हूं!
शब्दार्थ-पवमान
सोम= हे क्षरित होने वाले सोम! अजीतये = हमारे अजित होने के लिए अहतये = हमारे अहत
रहने के लिए स्वस्तये = हमारे कल्याण के लिए तथा बृहते सर्वतातये = इस महान् संसार
की सर्वविध सर्वोन्नति व सर्वोदय के लिए पवस्व = तुम क्षरित होओ। तत् = इसे ही इमे
विश्वे सखायः = ये सब मनुष्यसाथी उशन्ति = चाह रहे हैं, मांग रहे हैं और तत् = इसे ही अहम् =
मैं वश्मि = चाह रहा हूं-इसके लिए व्याकुल हो रहा हूं।
साभार :
वैदिक विनय
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