वेद व सृष्टि
उत्पत्ति- वेद सब सत्य विद्या की पुस्तक है वेद किसी एक देश ,एक
मनुष्य के लिए नहीं है,वरन् मानव मात्र के लिए है और सम्पूर्ण देशों
के लिए खुली पुस्तक है वेद की शिक्षाऐं सार्वजनिक, सार्वकालिक
है! वेद में निहित विद्याओ को तर्क और विज्ञान की कसौटी पर परखा जा सकता है!
वास्तव में यह सृष्टि ही विज्ञान मय है। ईश्वर के विज्ञान को ही वेद कहते है। सृष्टि
के आरम्भ में परमात्मा मनुष्य मात्र के कल्याण हेतु सबसे पवित्र मनुष्यों के हृदय
में समाधी की अवस्था में वेद ज्ञान उतार देता है वेदो को विश्व की प्रथम पुस्तक की
मान्यता यूनेस्को ने भी प्रदान की है! प्रथम विश्व धर्म संसद शिकागो में
सर्वसम्मति से यह फैसला हुआ था कि विश्व धर्म में चार आधार का होना आवश्यक है-
अगर हम दुनिया
में प्रचलित कथित धर्म , सम्प्रदायों, महजबो,
की समीक्षा उपरोक्त कसौटी पर करें तो हमें पता चलेगा, कि
कुछ कुछ अच्छी बातों को छोडकर इन कथित धर्मो में पाखण्ड़ो, अन्धविश्वासो,
अश्लीलता, अवैज्ञानिक मान्यताओं की भरमार है। इनकें कथित
धर्मो की पुस्तकों की समीक्षा करते ही इनके कथित धर्म गुरू स्वार्थवश,हठ
और दुराग्रह में हिंसा पर ऊतारू होते है अपने समाज को अंधेरे में धकेल कर अपने
मंसूबो को प्राप्त करना तथा समाज का शोषण करना ही उनका लक्ष्य होता है!
कुरान कहता है
मुसलमान बनाओ, बाईबिल कहती है ईसाई बनाओ, पुराण
कहते है। शैव,शाक्त, वैष्णव बनो,
यह सारे संघर्ष कर रहे है, अपनी अपनी टोली
इक्ट्ठा करने में। आखिर व्यक्ति क्या बनें आईये देखें वेद क्या कहतें है “मनुर्भव”- अर्थात् मनुष्य
अर्थात् मननशील बनो! वैज्ञानिक बनो, जब व्यक्ति के अन्दर मननशीलता, विचार
शीलता, वैज्ञानिकता आती है तो व्यक्ति, परिवार,
समाज ,और राष्ट्र सुखी और उन्नतशील बनता है, यही
आर्यत्व है, इसके विपरित चलने पर व्यक्ति, परिवार,
समाज, राष्ट्र में भीषण संघर्ष होता है जो कि हमारे
पतन और दुखों का कारण बनते है!
वेद में हिन्दू ,
मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई,जैन,
बौद्ध, यहूदी आदि शब्द नहीं है। यह सभी शब्द
कालान्तर में मनुष्यों की देन है आज से ३००० हजारो वर्ष पूर्व कोई मन्दिर, मस्जिद,
चर्च, गुरूद्वारे भी न थे, तो क्या
धर्म नही था? इस सृष्टि को बने लगभग दो अरब वर्ष हो चुके है
क्या उस समय धर्म नही था?
ये सब मनुष्यों
में प्रेम उत्पन्न नही करते, वरन् मनुष्यों के विभाजन का कारण हैं,
इनको चलानें वालो के स्वार्थ है जिसके कारण सारे संसार को अज्ञान के
गड्ढे में धकेले हुए है। वर्तमान में प्रचलित धर्म, सम्प्रदाय
मनुष्यों का मार्ग दर्शन नही उनका शोषण करते हैं। समान विचारधारा मनुष्यों को पास
लाती है , विपरित विचार धाराऐ मनुष्यों में द्वेष उत्पन्न करती है। आज सम्पूर्ण
देशों के बीच दीवारें और दुश्मनी विचार धारा के कारण ही है। वेद ने मनुष्यों
के प्रथम दो विभाग किये है- आर्य और दस्यु अथवा राक्षस। आर्य- श्रेष्ठ,
सदाचारी मनुष्य जो संसार से अज्ञान, अन्याय,
और अभाव दूर करते है। वेदो से प्राप्त इस शब्द का अर्थ परमात्मा, तथा
पवित्र आत्मा भी है। दस्यु- राक्षस- भ्रष्टाचारी
मनुष्य जो संसार में अज्ञान , अन्याय, अभाव
फैलाते हैं। वेद जब उपदेश करता है “कृण्वन्तो
विश्वम्आर्यम्तो इसके अर्थ हुआ कि संसार के मनुष्यों को श्रेष्ठ बनाओ, जिससे
संसार से अज्ञान, अन्याय,अभाव दूर हो सके।
न कि संसार को सम्प्रदायिक बनाना।
वेद में आये हुए
प्रत्येक शब्दो का अर्थ यौगिक होता है न कि रूढ। अत: वेद में आये शब्दो का अर्थ जानना जरूरी होता है, रूढ
अर्थ करने से सम्प्रदायिकता फैलती है, जैसा की एक
ईश्वर के अनेक नामों के आधार पर अनेक भगवान, उनके
अवतारों का पाखण्ड़ सनातन धर्म के नाम पर फैला दिया गया है।
आओ अब बात करते
है आर्य समाज की इस देश का मूल और आदि नाम आर्यावर्त है, देश के
मूल निवासी आर्य कहलाते थे, जो कि वेदो के अनुयायी थे, इसका
गौरवशाली इतिहास है तो वेदो के कारण। श्री राम, कृष्ण, शिवजी महाराज,
ऋषि, मुनि,हनुमान जी
महाराज सभी आर्य थे तथा वेदों के अनुयायी थे, अत: आर्य लोग कही
बाहर से नही आये ब्लकि वही इस देश के मूल निवासी हैं।
आर्यो के विदेशी होने का इतिहास अंग्रेजो की देन है। महाभारत के
युद्ध के बाद, वेदो के विद्वानो का घोर अकाल हुआ, फल
स्वरूप इस आर्यावर्त देश में नाना मतमतान्तरों का जन्म हुआ। विचार भिन्नता के कारण
सामाजिक, और राष्ट्रीय संगठन टूट गया महर्षि दयानन्द ने वेदो का पुर्नउद्धार
करके सनातन धर्म का पुर्नउद्धार किया, उनकी घोषणा थी
कि वे किसी नये मत, और सम्प्रदाय की स्थापना नहीं कर रहें, वरन
भूली हुई विद्या, वेदों का पुर्नउद्धार करके इस देश को मूल की
तरफ वापस ले जा रहे है उनका नारा था “वेदों की ओर लोटो”
उनका कथन है कि
ब्रह्मा से लेकर जैमिनी मुनि तक जो ऋषियो का मत है वही मेरी मत है। हिन्दू मुस्लिम,
सिक्ख, आदि नाम से पूर्व यह पूरा समाज ही आर्य समाज था,
अत:
महर्षि ने किसी नये समाज की नीव नहीं रखी वरन् पुराने गौरव को पुनर्जाग्रत किया।
इन सम्प्रदायो के प्रचलन से पूर्व समस्त संसार में वैदिक धर्म ही था, जिसके
चिन्ह आज भी अनेक देशों में प्राप्त होते है। वेद देशों में विभाजन भी नहीं करता,
यह समस्याऐं भी मनुष्यों की अपनी है अगर प्राणी मात्र के कल्याण के
नियमों में समस्त विश्व एक राष्ट्र बन जाय तब न तो वेद को कोई परेशानी होगी,
न वैदिक लोगो को, सारे विश्व में अशान्ति,और
संघर्ष व्यक्ति गत स्वार्थ और विचार भिन्नता के कारण है।हमारे मित्रो ने सलाह दी कि
सम्पूर्ण विश्व की सहमति से एक वैज्ञानिक धर्म की स्थापना एक नये नाम के साथ हो
No comments:
Post a Comment