आधुनिककाल में आर्य समाज के
संस्थापक स्वामी दयानन्द सरस्वती जी महान वेदवेत्ता, सत्यवादी, महायोगी,
देशभक्त विश्वहितैषी हुए हैं. सत्यार्थ प्रकाश ग्रन्थ उन की एक अमर
कृति है. दयानन्द सरस्वती जी सच्चे शिव को प्राप्त करने तथा मृत्यु को जीतने के
लिए घर से निकल पड़े. कई वर्ष पहाड़ों में, गुफाओं में,
घोर घने जंगलों में घूमे पर सच्चे शिव को पाने का रास्ता तभी मिला
जब वे स्वामी विरजानन्द जी के द्वार पर पहुंचे. द्वार पर दस्तक दी तो भीतर से आवाज़
आई कि कौन हो? जवाब दिया कि यही तो जानने आया हूँ. गुरु ने
द्वार खोला और शिष्य को गले लगा लिया मानो ऐसे शिष्य को पाने की गुरु की चिर
प्रतीक्षा पूरी हो गई.
गुरु ने आदेश दिया कि अनार्ष
ग्रन्थों को नदी में बहा दो और तीव्र विलक्षण बुद्धि वाले आज्ञाकारी शिष्य ने
अनार्ष ग्रन्थों को केवल नदी में बहाया ही नहीं अपितु मन मस्तिष्क से ही जो उन में
से पढ़ा था उस की छाप तक मिटा डाली और कोरी स्लेट बन कर गुरु चरणों में बैठ कर
पूर्ण श्रद्धा, निष्ठा, विश्वास के साथ आर्ष ग्रन्थों का रसस्वादन
करने लगे. आर्ष ग्रन्थों में उन की अगाध श्रद्धा ही सत्यार्थ प्रकाश है. ऋषि लिखते
हैं कि महर्षि लोगों ने सहजता से जो महान विषय अपने ग्रन्थों में प्रकाशित किये
हैं, क्षुद्राशय मनुष्यों के कल्पित ग्रन्थों में क्यों कर
हो सकते हैं.
महर्षि लोगों का आशय, जहाँ तक हो सके वहां तक
सुगम और जिसके ग्रहण में समय थोड़ा लगे, इस प्रकार का होता
है. क्षुद्राशय लोगों की मनसा ऐसी होती है कि जहाँ तक कठिन रचना करनी, जिस को बड़े परिश्रम से पढ़ के अल्प लाभ उठा सकें. आर्ष ग्रन्थों का पढ़ना
ऐसा है कि एक गोता लगाना, बहुमूल्य मोतियों का पाना. ऋषि
प्रणीत ग्रन्थों को ही पढ़ना इसलिए चाहिए कि वे बड़े विद्वान्, सर्व शात्रवित् और धर्मात्मा थे और अनृषि अर्थात जो अल्प शात्र पढ़े हैं और
जिन का आत्मा पक्षपात सहित है, उनके बनाये हुए ग्रन्थ भी
वैसे ही हैं.
आर्ष ग्रन्थों की श्रेणी में वेद
ही प्रथम एवं मुख्य ग्रन्थ है. ऋषि दयानन्द सरस्वती जी ने उद्घोष दिया “वेदों की ओर लौटो”. इसलिए आर्य समाज के दस
नियम में प्रथम नियम दिया- सब सत्य विद्या और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं,
उन सब का आदि मूल परमेश्वर है. सब सत्य विद्या ही वेद है. तीसरा
नियम बनाया ” वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है. वेद का पढ़ना – पढ़ाना और सुनना – सुनाना सब आर्यों का परम धर्म
है” वेद ही ईश्वरीय ज्ञान है. वेद ही स्वतः प्रमाण है. जब इस पृथ्वी पर मनुष्य
की सर्व प्रथम उत्पत्ति हुई तब ईश्वर ने चार ऋषियों अग्नि, वायु,
आदित्य तथा अंगिरा को क्रमशः ऋग्वेद, यजुर्वेद,
सामवेद और अथर्ववेद का ज्ञान प्रदान किया.
ऋग्वेद का मुख्य विषय पदार्थ
ज्ञान है. इस में संसार में विद्यमान पदार्थों का स्वरूप बताया गया है. यजुर्वेद
में कर्मों के अनुष्ठान को, सामवेद में ईश्वर की भक्ति उपासना के स्वरूप को तथा अथर्व वेद में विभिन्न
प्रकार के विज्ञान को मुख्य रूप से बताया गया है. वेदों का एक-एक उपवेद भी है.
आयुर्वेद जिस में औषधियों तथा चिकित्सा का मुख्य रूप से वर्णन किया गया है.
धनुर्वेद का मुख्य विषय युद्ध कला है. गन्धर्ववेद में गायन, वादन
तथा नृत्य आदि विषय हैं और अर्थवेद जिसमें व्यापार, अर्थ
व्यवस्था आदि विषयों का वर्णन है.
वेद मन्त्रों के गम्भीर व सूक्ष्म
अर्थो को स्पष्टता से समझने के लिए ऋषियो ने छः अंगों की रचना की, जिन्हें वेदांग कहा जाता
है. ये हैं शिक्षा, कल्प, व्याकरण,
निरुक्त, छंद तथा ज्योतिष. शिक्षा ग्रन्थ में
भाषा के अक्षरों का वर्णन, उन की संख्या, प्रकार, उच्चारण-स्थान-प्रयत्न आदि के उल्लेख सहित
किया गया है. कल्प ग्रन्थ में व्यवहार, सुनीति, धर्माचार आदि बातों का वर्णन है. व्याकरण ग्रन्थ में शब्दों की रचना,
धातु, प्रत्यय तथा कौन सा शब्द किन-किन अर्थो
में प्रयुक्त होता है, इन बातों का उल्लेख है.
वेद मन्त्रों का अर्थ किस विधि से
किया जाए, इसका
वर्णन निरुक्त ग्रन्थ में किया गया है. छंद ग्रन्थ में श्लोकों की रचना तथा गान
कला का वर्णन किया गया है. ज्योतिष ग्रन्थ में गणित आदि विद्याओं तथा भूगोल-खगोल
की स्थिति-गति का वर्णन है. ऋषियों ने वेदों के भाष्य व्याख्या रूप में सर्व प्रथम
जिन ग्रन्थों की रचना की उन ग्रन्थों को ब्राह्मण ग्रन्थ कहते हैं. ये ऐतरेय,
शतपथ, तांडय तथा गोपथ के नाम से प्रसिद्ध हैं.
दयानन्द सरस्वती जी ऐतरेय, शतपथ आदि ब्राह्मण
ग्रन्थों को ही इतिहास, पुराण, कल्प,
गाथा और नाराशंसी मानते हैं. श्री मद्भागवत पुराण को नही. आर्ष
ग्रन्थों में छः दर्शन शात्र हैं जिन्हें उपांग कहते हैं. जैमिनी ऋषि कृत मीमांसा
दर्शन में- धर्म, कर्म यज्ञादि का वर्णन है.. कणाद ऋषि कृत
वैशेषिक दर्शन में- ज्ञान-विज्ञान का. गौतम ऋषि कृत न्याय में -तर्क, प्रमाण, व्यवहार व मुक्ति का. पतंजली ऋषि कृत योग
दर्शन में- योग साधना, ध्यान समाधि, कपिल
ऋषि कृत सांख्य दर्शन में-प्रकृति, पुरुष (ईश्वर व जीव) का
तथा व्यास ऋषि कृत वेदान्त दर्शन में- ब्रह्म (ईश्वर) का वर्णन है. ऋषि दयानन्द जी
ने उपनिषदों को भी आर्ष ग्रन्थ माना है. इन उपनिषदों में ईशोपनिषद आदि प्रमुख हैं.
सत्यार्थ प्रकाश इन सभी
ऋषि-मुनियों के आर्ष ग्रन्थ जो वेद प्रतिपादित हैं उन के सारभूत विचारों का संग्रह
है. यदि ऐसा कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नही है. यह वेद तो नहीं है पर वैदिक
सिंद्धांतों व मान्यताओं का विश्वकोश है. यह ग्रन्थ मनुष्यों को जीवन जीने की कला
व उनकी सर्वांगीण उन्नति का मार्ग है. ऋषि दयानन्द जी ने आर्य समाज का चौथा नियम
दिया है कि सत्य के ग्रहण करने और असत्य को छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिए.
सत्य और असत्य का निर्णय कैसे
करें? यही
सत्यार्थ प्रकाश का मुख्य विषय है. ऋषि लिखते हैं “मेरा कोई नवीन कल्पना वा मतमतांतर
चलाने का लेश मात्र भी अभिप्राय नहीं है किन्तु जो सत्य है उसको मानना, मनवाना और जो असत्य है उस
को छोड़ना और छुड़वाना मुझ को अभीष्ट है”. इस लिए सत्यार्थ प्रकाश लिखा गया है.
सत्यार्थ प्रकाश सभी आर्ष
ग्रन्थों की कुंजी (गाइड) है. कक्षा में जो छात्र प्रथम आने की आकांक्षा रखते हैं.
वे पाठ्यक्रम की पूरी पुस्तकों का अच्छी प्रकार अध्ययन व स्वाध्याय करते हैं, लेकिन कई सामान्य बुद्धि
छात्र ऐसे भी होते हैं, जो सभी विषयों की गाइड को पढ़कर उत्तीर्ण
हो जाते हैं. सत्यार्थ प्रकाश आर्ष ग्रन्थों की गाइड है, हमारे
जैसे सामान्य जन जिन की शिक्षा आर्ष विधि से नहीं हुई है वे भी सत्यार्थ प्रकाश का
स्वाध्याय करके सत्य विद्या जो वेद हैं उन तक पहुंचने का सामर्थ्य उत्पन्न कर सकते
हैं.
शिक्षा पद्धति में आर्ष ग्रन्थों
का पठन-पाठन केवल कुछ गिने-चुने गुरुकुलों तक ही सीमित है. अधिकांश जनों की भौतिक
विषयों की शिक्षा होने के कारण कई बहन-भाई तो यह कहकर सत्यार्थ प्रकाश का
स्वाध्याय करना छोड़ देते हैं कि उन्हें कठिन लगता है. प्रथम में तो हर कार्य कठिन
लगता ही है, पर
हम सभी कार्यों को छोड़ नहीं देते. नन्हें बालक को प्रथम दिन माँ की गोद छोड़कर
पाठशाला जाना कितना कष्ट प्रद लगता है पर कुछ ही दिनों के अभ्यास के बाद बालक
स्वयं ही ख़ुशी-ख़ुशी जाने लग जाता है.
कोई भी कार्य रूचि के अनुरूप से
कठिन और सरल होता है. जिसमें रूचि वह सरल, जिसमे रूचि नहीं वह कठिन. ऋषियों का मानना है कि
अभ्यास को दीर्घकाल तक निरंतर श्रद्धापूर्वक एवं पुरुषार्थ पूर्वक करने से लक्ष्य
अवश्य ही मिलता है. ऋषियों के कथन को आप्त वचन मानकर पूर्ण रूचि, निष्ठा, श्रद्धा से एवं ज्ञानपूर्वक सत्यार्थ प्रकाश
का स्वाध्याय हम सब करें. मानव जीवन का प्रयोजन धर्म, अर्थ,
काम और मोक्ष की सिद्धि के लिए है.
इन ऋषि प्रणीत आर्ष ग्रन्थों की
विद्या न जानने से ही आज मनुष्य विभिन्न अंध-विश्वासों, कुरीतियों, पाखंड और नास्तिकता में फंस गया है. ईश्वर को अपनी आत्मा में न खोज कर
दर-दर भटकता हुआ दुःखी व अशांत जीवन जी रहा है. वर्तमान काल में अविद्या, अज्ञान का साम्राज्य छाया हुआ है. स्वार्थी, पाखंडी,
धूर्त लोग लाखो-करोड़ो लोगों को अपने अनुयायी बना कर भ्रमित कर अपना
उल्लू सीधा करने में लगे हैं और लोग भी अज्ञानता व भेढ़चाल के कारण उन के चंगुल में
फंस रहे हैं और दुःखी हो रहे हैं. ऋषि दयानन्द सत्यार्थ प्रकाश में ऐसे लोगो के
लिए लिखते हैं कि अंधे के पीछे अंधे चलें तो दुःखी क्यों न हों? विद्वान् लोग ही यथार्थ ज्ञान को जान कर और यथा योग्य व्यवहार कर के
अज्ञानियों को दुःख सागर से तारने के लिए नौकारूप होने चाहिए.
सत्यार्थ प्रकाश सब प्राणी मात्र
का ग्रन्थ है, यह किसी एक व्यक्ति अथवा किसी एक वर्ग विशेष के लिए नहीं है. यह
सार्वभौमिक एवं सार्वकालिक (सब काल के लिए) है. मानव जीवन की ऐहलौकिक अर्थात संसार
सम्बन्धी और पारलौकिक अर्थात मोक्ष सम्बन्धी समस्त समस्याओं व संशयों को सुलझाने
के लिए यह ग्रन्थ एक मात्र ज्ञान का भंडार है. वर्तमान परिवेश को ध्यान में रख कर
देखें तो इस की महत्ता और अनिवार्यता बढ़ गई है. आज की भाग-दौड़ व व्यस्त जीवन
प्रणाली में व्यक्ति के पास इतना समय व धैर्य कहाँ जो वह शान्ति से बैठ कर सभी
आर्ष ग्रन्थों का स्वाध्याय कर सके. उसके लिए तो सत्यार्थ प्रकाश ही गागर में सागर
भरा हुआ आर्ष ग्रन्थ है. जो मानव इस आर्ष ग्रन्थ का पूर्ण रूचि, निष्ठा व श्रद्धा से लम्बे काल तक निरंतर अध्ययन, मनन
एवं उस के अनुसार आचरण करते हैं, अपने जीवन को पावन और
पवित्र बना लेते हैं और ईश्वर की ओर अग्रसर होते हैं. सत्यार्थ प्रकाश का
स्वाध्याय से बुद्धि तीव्र बनती है.
एक बार पंडित रामचन्द्र देहलवी जी
से प्रश्न किया गया कि आप को इतनी तर्क शक्ति कहाँ से प्राप्त हुई, पंडित जी ने बताया कि
सत्यार्थ प्रकाश के सतत स्वाध्याय से ही मेरी बुद्धि में तीव्रता और कुशाग्रता आयी
है. पंडित जी सत्यार्थ प्रकाश का प्रतिदिन नियमित रूप से स्वाध्याय करते थे. आर्य
समाजों में सत्यार्थ प्रकाश अमर रहे के जयघोष की परम्परा बनी हुई है, सत्यार्थ प्रकाश की अमरता तभी हो सकती है, जब हम सब
पूरे मनोयोग से इस आर्ष ग्रन्थ का स्वाध्याय करें और अपने दैनिक जीवन के आचरण में
और व्यवहार में भी लायें.
राज कुकरेजा
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