मानव सदा ही
प्रभु की शरण में रहना चाहता है किन्तु वह सब उपाय नहीं करता जो, प्रभु
शरण पाने के अभिलाषी के लिए आवश्यक होते हैं। यदि हम प्रभु की शरण में रहना चाहते
हैं तो हमारी प्रत्येक चेष्टा, प्रत्येक यत्न बुद्धि को पाने के
उद्देश्य से होना चाहिये। दूसरे हम सदा ज्ञानी ,विद्वान्
लोगों से प्रेरणा लेते रहें तथा हम सदा उन लोगों के समीप रहें, जो
विद्वान् हों, संयमी हों, ज्ञानी
हों । एसे लोगों के समीप रहते हुये हम उनसे ज्ञान प्राप्त करते रहें। इस बात को ही
यह मन्त्र अपने उपदेश में हमें बता रहा है।
मन्त्र हमें इस प्रकार उपदेश कर रहा है :-
इन्द्रा याहि धियेषितो विप्रजूता:
सुतावत:।
उप ब्रह्माणि वाघत: ॥ ऋग्वेद
१.३.५ ॥
इस मन्त्र में चार बातों की ओर संकेत
किया गया है :=-
१. इन्द्रिया वश
में हों
जीव ने विगत मन्त्र में परमपिता
प्रमात्मा से जो प्रार्थना की थी, उस का उत्तर देते हुये पिता इस मन्त्र
में हमें उपदेश कर रहे हैं कि हे इन्द्रियों के २४ उतम बुद्धि वाले ज्ञानवान बनें
अधिष्ठाता जीव!
हे इन्द्रियों को अपने वश में कर लेने वाले जीव! अर्थात् प्रभु उस जीव को सम्बोधन
कर रहे हैं, जिसने अपनी इन्द्रियों को अपने वश में कर लिया
है। उस पिता का एक नियम है कि वह पिता उसे ही अपने समीप बैठने की अनुमति देता है,
उसे ही अपने समीप स्थान देता है, जो अपनी
इन्द्रियों के आधीन न हो कर अपनी इन्द्रियों को अपने आधीन कर लेता है. जो
इन्द्रियों की इच्छा के वश में नहीं रहता अपितु इन्द्रियां जिसके वश में होती है।
अत: इन्द्रियों पर आधिपत्य पा लेने में सफल रहने वाला जीव जब उस प्रभु को पुकारता
है तो एसे जीव की प्रार्थना को प्रभु अवश्य ही स्वीकार करता है तथा जीव को कहता है
कि हे इन्द्रियों को अपने वश में रखने वाले जीव ! तू आ मेरे समीप आकर स्थान ले,
मेरे समीप आ कर बैठ।
२. बुद्धि
सूक्षम हो
हे जीव! तू अपने सब प्रयास ,
सब यत्न , सब कर्म बुद्धि को पाने के लिए, बुद्धि
को बढाने के लिए ही करता है। तू सदा
बुद्धि से ही प्रेरित रहता है । बुद्धि सदा तुझे कुछ न कुछ प्रेरणा करती रहती है।
तू जितने भी कार्य करता है, वह सब तू या तो बुद्धि से करता है अथवा
तू जो भी करता है, वह सब बुद्धि को पाने के यत्न स्वरुप करता है।
तेरी सब प्रेरणाएं बुद्धि को पाने के लिए प्रेरित होती हैं। इतना ही नहीं तू जितनी
भी चेष्टाएं करता है, जितने भी यत्न करता है, जितना भी
परिश्रम करता है , जितना भी प्रयास करता है, वह
सब भी तू बुद्धि को पाने के लिए ही करता है। तू अपने इस यत्न को निरन्तर बनाए रख।
तेरे इस यत्न से ही तेरी बुद्धि सूक्ष्म हो सकेगी, इस
सूक्ष्म बुद्धि के द्वारा तू इस ब्रह्माण्ड में मेरी महिमा, मेरी सृष्टि
को देख पाने में सफल होगा।
३. उतम बुद्धि
पाने का प्रयास
तेरे अन्दर जो यह तीव्र बुद्धि आई
है, जो सूक्षम बुद्धि का स्रोत बह रहा है, वह तू ने
अपने ब्रह्मचर्य काल में अपने ज्ञानी, विद्वान् तथा सूक्ष्म
बुद्धि से युक्त आचार्यों से, गुरुजनों से, प्रेरित
हो कर एकत्र किया है। इतना ही नहीं तूं अब भी उत्तम बुद्धि को पाने के लिए अपनी
अभिलाषा को बनाए हुए है।
४. सोम रक्षक से
मार्ग दर्शन
हे उत्तम बुद्धि के स्वामी जीव! तूं सोम का
सम्पादन करने वाला है। तूं प्रतिक्षण अपने जीवन में एसे यत्न, यथा
प्राणायाम, दण्ड, बैठक आदि में
व्यस्त रहता है, जिन से सोम की तेरे शरीर में उत्पति होती ही
रहती है। तू ने अपना जीवन इतना संयमित व नियमित कर लिया है कि सोम का कभी तेरे
शरीर में नाश हो ही नहीं सकता अपितु सोम तेरे शरीर में सदा ही रक्षित है। इतना ही
नहीं तूं सदा एसे लोगों का, एसे विद्वानों का, एसे
गुरुजनों का साथ पाने व सहयोग लेने के लिए, मार्ग-दर्शन
पाने के लिए यत्नशील रहता है, जो सोम को अपने यत्न से अपने शरीर में
उत्पन्न कर , उसकी रक्षा करते हैं । सोम रक्षण से वह मेधावी
होते हैं। एसे मेधावी व्यक्ति के, एसे ज्ञान के भण्डारी के, एसे
संयमी व्यक्ति के समीप रह कर तूं उससे ज्ञान रुपी बुद्धि को ओर भी मेधावी बनाने के
लिए यत्न शील है।
डा. अशोक आर्य
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