ॠषि दयानंद सरस्वती जी अपने गुरु स्वामी
विरजानन्द सरस्वती जी से दीक्षित हो कर, गुरु को वेद विद्या के प्रचार का आश्वासन दिया और
प्रचार के क्षेत्र में प्रवेश से पूर्व सुनियोजित ढंग से रणनीति निश्चित की,
अनेकों मत मतान्तरों के धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन किया। आर्ष
ग्रन्थों का स्वाध्याय तो गुरु चरणों में बैठ कर ही कर लिया था। अब सभी ग्रन्थों
का सार-निचोड़ लगाना सरल था। वेद और ॠषिओं ने आदि काल में मनुष्यों को “सत्यं वद धर्मं चर का उपदेश किया
है।” इसका अर्थ है कि सत्य बोलो, धर्म पर चलो। इससे संकेत
मिलता है कि सत्य बोलना व सत्य का आचरण करना धर्म कहलाता है।
अब सत्य व असत्य के स्वरुप पर ऋषि विचार करते हैं कि सत्य किसी
पदार्थ के यथार्थ व वास्तविक स्वरूप को कहते हैं । अन्त में सभी ग्रन्थों के सार
के अनुसार महर्षि दयानन्द सरस्वती जी धर्म का सार संक्षेप व सरल भाषा में करते हैं
कि -“जो
पक्षपात रहित न्याय, सत्य का ग्रहण, असत्य का सर्वथा परित्याग रूप आचार
है उसी का नाम धर्म हैं |” उपनिषदकार भी सत्य की परिभाषा करते हुए लिखते हैं—- सत्य से बढ़कर कोई धर्म
नहीं और असत्य से बढ़कर कोई पाप नहीं | सत्य से बढ़कर कोई
ज्ञान नहीं, इसलिए सत्य का ही व्यवहार करना चाहिए | धर्म उन सत्य कर्तव्य कर्मों का नाम है, जिनका पालन
करके व्यक्ति इस संसार में सब प्रकार की भौतिक उन्नति कर सकता है तथा मोक्ष पा
सकता है |
हमारे धार्मिक ग्रंथों में वर्णित है कि :- धर्म को जानने वाला
दुर्लभ होता है, उसे श्रेष्ठ तरीके से बताने वाला उससे भी
दुर्लभ, श्रद्धा से सुनने वाला उससे दुर्लभ, और धर्म का आचरण करने वाला सुबुद्धिमान सबसे दुर्लभ है। इन दुर्लभ
सुबुद्धिमानों की शृंखला में ॠषि दयानंद सरस्वती जी को विभूषित किया जा सकता है।
सत्य के प्रति पूर्णतः समर्पित व्यक्ति दयानंद सरस्वती जी ने सत्य से बढ़कर कोई
धर्म स्वीकार नहीं किया। सत्य और दयानंद एक दूसरे में इतना घुल मिल गए कि कोई भी
प्रलोभन सत्य पथ के पथिक को डिगा नहीं सका। ॠषि जी को अनेकों प्रलोभन दिए |
उन्हें मठाधीश बनाने के प्रलोभन भी दिए गये परन्तु सत्य के प्रति
निष्ठा व श्रद्धा ने इतना कहने का साहस व बल दिया कि “मेरी उँगलियों को चाहे बत्ती बना
कर जला दिया जाए फिर भी मैं सत्य के साथ समझौता नहीं करूंगा |” सच्चे अर्थों में ऋषि जी प्रकाश स्तम्भ थे,
प्रकाश स्तम्भ वह होता है जो मार्ग दर्शक होता है, सदमार्ग जानता है, उस पर चलता है और अन्य को चलने की
प्रेरणा देता है। ऋषि जीवन पर्यंत सत्य विद्या के अनुकूल जीवन जीने के साथ सारी
मानव जाति को सत्य मार्ग के लिए प्रेरणा स्रोत बन गए।
अपनी अमर कृति सत्यार्थ प्रकाश की भूमिका में ॠषि दयानंद सरस्वती जी
लिखते हैं कि उनका इस ग्रंथ बनाने का प्रयोजन सत्य अर्थ का प्रकाश करना है।
अर्थात् जो सत्य है उस को सत्य और जो मिथ्या है उस को मिथ्या प्रतिपादित करना है,
जो जैसा है, उसको वैसा ही कहना, लिखना और मानना सत्य कहाता है। जो मनुष्य पक्षपाती होता है, वह अपने असत्य को भी सत्य और दूसरे विरोधी मत वाले के सत्य को भी असत्य
सिद्ध करने में प्रवृत्त रहता है, इसलिए सत्य मत को प्राप्त
नहीं हो सकता। सत्योपदेश ही मनुष्य जाति की उन्नति का कारण होता है। आर्य समाज के
नियम बनाए कि सत्य के ग्रहण करने और असत्य को छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिए।
सभी काम धर्मानुसार अर्थात सत्य असत्य को विचार कर करने चाहिए।
“सत्यमेव
जयति नानृतं, सत्येन
पन्था विततो देवयानी:।”अर्थात् सर्वदा सत्य की विजय और असत्य की
पराजय होती है और सत्य ही से विद्वानों का मार्ग विस्तृत होता है।
जिस प्रकार एक पृथ्वी है, एक सूर्य है,
एक ही मानव जाति है ठीक इसी प्रकार मानवीय धर्म भी एक ही है जिस का
आधार सत्य है, इसके अतिरिक्त बाकी तो सब भ्रम ही है न कि
सत्य या धर्म | सत्य हमारे जीवन को सरल बनाता है। सत्य से
हमें सुरक्षा का भाव मिलता है। सत्यवादी कभी ऊबता या दुखी नहीं होता। सत्यवादी के
जीवन में सम्पूर्ण समरसता होती है।
संसार में आज बहुत बडी समस्या चल रही है, कि
सत्य क्या है और असत्य क्या ? क्या उचित है क्या अनुचित है ?क्या ग्रहण करने योग्य है ?क्या छोड़ने योग्य है?
क्या क्या पढ़ने और पढाने योग्य है ? क्या हितकर
है? और क्या अहितकर है? ऐसे ही हजारों
शंकाओं से सामान्य जन ही नहीं अपितु बुद्धिजीवी का बहुत बड़ा वर्ग भी भ्रम जाल में
फंसा हुआ है। करोड़ों व्यक्ति सत्य को न पहचान पाने के कारण अंधविश्वासों और
पाखंडों में फँसकर अपना जीवन, धन तथा शक्ति नष्ट कर रहे हैं।
महर्षि दयानन्द सरस्वती जी के लिखे सत्यार्थ प्रकाश के तीसरे समुल्लास में सत्य और
असत्य को ठीक प्रकार से जानने के लिए पाँच प्रकार से परीक्षा करनी चाहिए।-
पहली – जो – जो ईश्वर के गुण-कर्म-स्वाभाव और वेदों के
अनुकूल हो, वह वह सत्य और उससे विरूद्ध असत्य है। वेद ही सब
सत्य विद्या की पुस्तक है। इस सृष्टि का कर्ता ईश्वर है और सृष्टि के उपयोग का
विधि – निषेधमय ज्ञान वेद है। वेद सर्वज्ञ ईश्वर के द्वारा प्रदत्त होने से
निर्भांन्त एवं संशय रहित है, इसी वेद ज्ञान के अनुसार
आर्यों ने सिद्धांत निर्धारित किए और जीवनयापन किया।
दूसरी – जो-जो सृष्टि क्रम के अनुकूल है, वह वह सत्य और जो जो विरूद्ध है, वह सब असत्य है।
सृष्टि की रचना और उसका संचालन ईश्वरीय व्यवस्था और प्राकृतिक नियमों के अधीन है।
ये सभी नियम त्रिकालाबाधित है। प्रत्येक पदार्थ के गुण-कर्म-स्वाभाव सदा एक से
रहते हैं। अभाव से भाव की उत्पत्ति अथवा असत् का सदभाव, कारण
के बिना कार्य, स्वाभाविक गुणों का परित्याग, जड़ से चैतन्य की उत्पत्ति अथवा चेतन का जड़ रूप होना, ईश्वर का जीवों की भांति शरीर धारण करना आदि सब सृष्टि क्रम के विरुद्ध
होने से असत्य है।
तीसरी – आप्त अर्थात जो यथार्थ वक्ता, धार्मिक,
सबके सुख के लिए प्रयत्नशील रहता है। ऐसा व्यक्ति छल कपट और स्वार्थ
आदि दोषों से रहित होता है और धार्मिक और विद्वान होता है और सदा सत्य का ही उपदेश
करने वाला होता है। सब पर कृपादृष्टि रखते हुए सब के सुख के लिए अविद्या – अज्ञान को दूर करना ही
अपना कर्तव्य समझता है। ऐसे वेदानुकूल विद्या का ही उपदेश करने वाले आप्त के कथन
अनुकरणीय होते हैं। इस लिए कहा जाता है कि सत्यज्ञानी, सत्यमानी,
सत्यवादी, सत्यकारी, परोपकारी
और जो पक्षपात रहित विद्वान जिसकी कथनी और करनी एक जैसी हो, उसकी
बात सब को मन्तव्य होती है।
चौथी – मनुष्य का आत्मा सत्य-असत्य को जानने वाला है तथापि
अपने हठ, दुराग्रह और अविद्यादि दोषों के कारण सत्य को छोड़
असत्य में झुक जाता है। महर्षि दयानंद सरस्वती जी के अनुसार मनुष्य का आत्मा
सत्य-असत्य को जानने वाला है, अर्थात् आत्मा में सत्य और असत्य
का विवेक करने की शक्ति है। अपने आत्मा की पवित्रता, विद्या
के अनुकूल अर्थात जैसा अपने आत्मा को सुख प्रिय और दु:ख अप्रिय है,ऐसी ही भावना सम्पूर्ण प्राणी मात्र में रखनी चाहिए। अर्थात् जिस आचरण को,
व्यवहार को हम अपने लिए नहीं चाहते, उसे
दूसरों के साथ कभी भी नहीं करना चाहिए| धर्म और सत्य का
सार-निचोड़ यही है, इसे ही सुनना और सुनकर इस पर ही आचरण
करना मानव जाति का प्रथम कर्तव्य है |
पाँचवी — आठों प्रमाण अर्थात प्रत्यक्ष, अनुमान,
उपमान, शब्द, ऐतिह्य,
अर्थापति, सम्भव और अभाव से प्रतिपादित होना
चाहिए|
दयानंद सरस्वती जी की शिक्षा व्यक्ति को एक परिपूर्ण मानव बना सकती
है। व्यक्ति जाति, धर्म, भाषा, संस्कृति के भेदों से ऊपर उठकर मनुष्य मात्र की एकता के लिए सदा ही प्रयास
शील बन जाते हैं। जीवन और जगत के प्रति हमारी सोच अधिकाधिक वैज्ञानिक होती चली
जाती है। हम इसी बात को सत्य मानेंगे जो युक्ति, तर्क और
विवेक की कसौटी पर खरी उतरती है। इसे ही ॠषि दयानंद सरस्वती जी ने सृष्टि क्रम से
अविरूद्ध होना कहा है। मिथ्या चमत्कारों और ऐसे चमत्कार दिखाने वाले ढोंगी बाबाओं
के चक्कर में दयानंद जी के अनुयायी कभी नहीं आते। वैदिक सतग्रंथो के अध्ययन में
व्यक्ति की रूचि बढ़ेती है, फलतः बौद्धिक क्षितिज विस्तृत
होता है और विश्व बंधुता बढ़ती है। महर्षि ने वेदों के सनातन चिन्तन को आधार बनाकर
नियम बना दिया कि वेद सब सत्य विद्या की पुस्तक है, सत्य को
जीवन का आधार बना कर जीवन जीने की जो शैली निर्मित की उस पर स्वयं चले और सामान्य
जनों को उस पर चलने के लिए प्रेरित किया। उनका तेजस्वी और आचरणीय व्यक्तित्व आम
आदमी में स्फूर्ति भरने वाला था। सत्य के तेज़ से ॠषि दयानंद के व्यक्तित्व से
प्रभावित स्वामी श्रद्धानंद जी लिखते हैं कि ह्रदय स्वामी जी की ओर आकर्षित होता
जाता था, जैसे कि भटका हुआ जहाज़ प्रकाश पा कर तीव्रता से
उधर बढ़ जाता है।
ॠषि दयानंद सरस्वती जी एक ऐसा सत्य का पूजारी, धर्म धुरंधर जिसने सभी पाखंडों का खंडन कर आर्यों को सत्य की राह दिखाई।
एक ऐसा सत्य का पुजारी जो अपनी हर बात को डंके की चोट पर कहता था। एक ऐसा व्यक्ति
जिसने कभी भी सत्य से समझोता नहीं किया, एक ऐसा महान व्यक्ति
जिस ने लाखों की संपत्ति को ठोकर मार दी पर सत्य के मार्ग से विचलित नहीं हुआ।
महर्षि दयानन्द सरस्वती जी एक ऐसे ब्रह्मास्त्र थे जिन्हें कोई भी पंडित, पादरी, मौलवी, औघड़, ओझा, तांत्रिक हरा नहीं पाया और न ही उन पर अपना कोई
मंत्र तंत्र या किसी भी प्रकार का प्रभाव छोड़ पाया।
जन सामान्य को ऋषि का संदेश बड़े ही सरल शब्दों में यह है कि
व्यक्ति को सदा सच बोलने का साहस रखना चाहिए। परिणाम भुगतने की शक्ति परमात्मा
देंगे। आइए संकल्प लें कि आज से ही नहीं अपितु अभी से हम केवल ऋषि दयानंद जी के
सच्चाई के ही मार्ग पर चलेंगे।
ईश्वर हम सब को श्रेष्ठ बुद्धि दे कि सदा सत्य मार्ग पर चलें।
राज कुकरेजा\करनाल
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