शब्दार्थ- न दक्षिणा विचिकिते= न दायीं ओर कुछ दिखाई देता है न सव्या=और न
बायीं ओर न= न आदित्याः= हे आदित्यदेवो! प्राचीनम्= सामने ही कुछ दिखाई देता है न
उत पश्चा= और कुछ पीछे, इसलिए
पाक्याचित्=मैं चाहे कितना अपरिपक्व, कच्चा होऊंॅ और धीर्यांचित्=चाहे कितना
धैर्यरहित, दीन होऊंॅ
वसवः= हे वासक आदित्यो! युष्मानीतः=किसी तरह तुम्हारे द्वारा ले-जाया गया मैं अभयं
ज्योतिः=भय रहित प्रकाश को अश्याम्=प्राप्त हो जाऊॅं।
न दक्षिणा वि चिकिते न सव्या न प्राचीनमादित्या नोत पश्चा।
पाक्याचित् वसवो धीर्याचिद् युष्मानीतो अभयं ज्योतिरश्याम्।। -). 2/27/11
ऋषि :- कूर्मो गार्त्समदो गृत्समदो वा।।
देवता-आदित्याः।। छन्दः-विराट्त्रिष्टुप्।।
विनय- आजकल मैं एक अँधेरी रात्रि में घिरा हुआ हू। मेरे मानसिक नेत्रों के
सामने एक ऐसा दुर्भेद्य काला पर्दा आ गया है, जिसने कि मेरा सम्पूर्ण प्रकाश रोक
लिया है। अपनी वर्त्तमान आध्यात्मिक समस्या को हल करने में ही मैं दिन-रात डूबा
हुआ हूँ कहीं से भी कोई प्रकाश की किरण मिलती नहीं दीखती। चारों ओर
अन्धेरा-ही-अन्धेरा है-घोर घुप्प अन्धेरा है। दाएं-बाए कहीं कुछ दृष्टि नहीं आता, आगे या पीछे कहीं भ इस अन्धकारमय उलझन
से बाहर निकलने का रास्ता नहीं सूझता। क्या करूं? यह भयंकर रात्रि क्या कभी समाप्त भी
होगी या नहीं? इस अन्धे
जीवन से तो मरना भला है। खाता-पीता, चलता-फिरता हुआ भी मैं आज मुर्दा हूं।
चौबीसों घण्टे विचारने में ग्रस्त हूं, पागल हो रहा हूं, प्रकाश पाने के लिए निरन्तर घोर युद्ध में
लगा हुआ हूं, पर इस
काली रात्रि का कहीं अन्त होता नहीं दिखाई देता! हे देवो! भगवान् के दिच्य प्रकाश
का सन्देश लाने वाले हे ‘आदित्य’ नामक दूतो! मैं तुम्हें याद कर रहा हूं, तुम्हारी राह देख रहा हूं। तुम मुझे इस
रात्रि से शीघ्र पार ले-चलो, नहीं तो
अब मेरा जीना कठिन हो रहा है। सुना है कि बुद्ध ईसा, दयानन्द आदि अनेक महात्मा अपना दिव्य
प्रकाश पाने से पहले ऐसा अन्धेरी रात्रियों में से गुज़रे थे, परन्तु वे तो जन्म-जन्मान्तरों के पके
हुए थे और बड़े धीर थे। मैं बिलकुल कच्चा, अपरिपक्व ज्ञानवाला और बड़ा दुर्बल, अधीर हूं। मुझे इससे पार कौन ले-जाएगा? किसी तरह भी हो, हे वासक आदित्यो! तुम मुझे भी बसा लो, अन्धकार से निकाल मुझे मरने से बचा लो।
मैं चाहे जितना अज्ञानी, कच्चाऔर
धैर्यरहित होऊॅं, पर यदि
तुम मुझे ले-चलोगे-मेरे नायक बन जाओगे-तो मैं निःसन्देह अन्धकार को समाप्त कर
प्रकाश को पा जाऊॅंगा और तब इस महाभय से पार हो जाऊॅंगा। मेरी यह भय की अवस्था उस
ज्योति को पाकर ही मिटेगी। मुझे चाहिए वह अभय ज्योति! हां, वह अभय ज्योति!! साभार : वैदिक विनय आर्य समाज
दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा
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