लेख प्रस्तुति :- आचार्य नवीन केवली
हमारे जीवन में संकल्प शक्ति का बहुत ही
बड़ा महत्व है । इसी से व्यक्ति के जीवन का निर्माण होता है, व्यक्ति अपने जीवन को
ही परिवर्तन करके नया रंग भर सकता है, निम्न स्तर से व्यक्ति महान बन जाता है। हम
जो भी इच्छा करते हैं वह दो प्रकार की होती है , एक सामान्य इच्छा और एक विशेष
इच्छा, यह विशेष इच्छा ही जब उत्कृष्ट, दृढ़ व प्रबल बन जाती है उसी को ही संकल्प
कहते हैं । हम जो कुछ भी क्रिया करते हैं उसके तीन ही साधन हैं शरीर, वाणी और मन ।
वाणी और शरीर में क्रिया आने से पहले मन में ही होती है अर्थात् कर्म का
प्रारम्भिक रूप मानसिक ही होता है । मन में हम बार-बार आवृत्ति करते हैं कि :-
“मैं उसको ऐसा बोलूँगा...”, “मैं इस कार्य को करूँगा....” उसके पश्चात् ही वाणी से
बोलते अथवा शरीर से करते हैं । मन में यह जो दोहराना होता है, यही संकल्प होता है।
व्यक्ति का जीवन उत्कृष्ट, आदर्शमय होगा
या निकृष्ट होगा यह उसकी इच्छा, संकल्प अथवा विचार से ही निर्धारित होता है । किसी
शास्त्रकार ने कहा भी है कि :- “यन्मनसा चिन्तयति तद्वाचा वदति, यद्वाचा वदति तत्
कर्मणा करोति, यत् कर्मणा करोति तदभिसंपद्यते” अर्थात् जिस प्रकार का विचार
व्यक्ति करता है उसका जीवन भी उस प्रकार का बन जाता है । योग शास्त्र के इस वाक्य
-“चित्तं ही प्रख्या-प्रवृत्ति-स्थितिशीलत्वात् त्रिगुणम्” के अनुसार चित्त वा मन
तीन-तत्वों से बना है, सत्व-गुण, रजोगुण और तमोगुण। कभी किसी गुण की अधिकता होती
है तो कभी किसी की न्यूनता होती रहती है । जिसकी अधिकता वा प्रबलता होती है उसका
प्रभाव अधिक मन में, क्रिया में अथवा जीवन-व्यवहार में देखा जाता है । अतः मन में
उठने वाले विचार वा संकल्प भी तीन ही प्रकार के होते हैं, सात्त्विक संकल्प, राजसिक
संकल्प तथा तामसिक संकल्प, परन्तु यहाँ व्यक्ति स्वतन्त्र होता है कि किस प्रकार
के संकल्प को मन में स्थान दे, क्योंकि मन में दो प्रकार से परिवर्तन होता है, एक
है वृत्ति रूप में और दूसरा है पदार्थ रूप में । वृत्ति अर्थात् विचारों की
भिन्नता होने से परिवर्तन देखा जाता है जिसको कि निरन्तर अभ्यास करने से व्यक्ति
नियन्त्रण करने में समर्थ हो सकता है और जिस प्रकार की इच्छा करेगा उस प्रकार का
विचार उठा सकता है परन्तु पदार्थ रूप में जो परिवर्तन आता है उसको नियन्त्रण नहीं
किया जा सकता ।
किसी भी कार्य के प्रारंभ करने से पहले
संकल्प करना हमारी प्राचीन परम्परा रही है। हमारी वैदिक परम्परानुगत यज्ञ आदि जो
भी शुभ कार्य करते हैं सर्वप्रथम हम
संकल्प पाठ से ही आरंभ करते हैं। संकल्प के माध्यम से व्यक्ति मजबूत बनता है,
अन्दर से दृढ़, बलवान् होता जाता है। प्रत्येक क्षेत्र में हर प्रकार से उन्नति
करने के लिए व्यक्ति को स्वयं को संकल्पवान बनाना चाहिए। जिसको मन में संकल्प कर
लिया उसको व्यवहार में क्रियान्वयन करना ही है । जिसका संकल्प जितना मजबूत होता है
उसको उतनी ही सफलता मिलती जाती है ।
संकल्प शक्ति को बढाने के लिए सबसे पहले
हमें छोटे छोटे संकल्प लेने चाहिए जो कि हमारे लिये लाभदायक हों, हमारे जीवन के साथ-साथ
अन्यों के लिए भी उपयोगी हों और उसको पूरा बल लगा कर तन-मन-धन से निष्ठा पूर्वक
पूर्ण करना चाहिए। जैसे कि हम संकल्प ले सकते हैं प्रातः काल जल्दी उठने का और
रात्रि को जल्दी सोने का और जिस समय का निश्चय किया हो उसी समय ही उठना और सोना
चाहिए। इस प्रकार संकल्प लेकर पूरा करने से मन भी दृढ़ होता है और आत्मविश्वास भी
बढ़ता है।
धीरे-धीरे बड़े-बड़े कार्यों का संकल्प लेना
चाहिये जैसे कि “मुझे किसी भी परिस्थिति में सत्य ही बोलना है”, “मुझे कभी भी
आलस्य नहीं करना है” “मैं कभी चोरी नहीं करूँगा, सदा पुरुषार्थ ही करूँगा” “मैं
किसी के लिए भी कभी अपशब्द का प्रयोग नहीं करूँगा”, “कभी क्रोध नहीं करूँगा”, “
किसी से इर्ष्या-द्वेष नहीं करूँगा” “ मैं सदा गरीब,निर्धन,असहाय, जरुरतमन्द
व्यक्तिओं की सहायता करूँगा” । इस प्रकार एक-एक संकल्प को लेकर जीवन भर निभाना
चाहिए जिससे अपना जीवन भी सुधरता है, विकसित होता है, स्वयं का विश्वास भी बढ़ता है साथ-साथ अन्य लोग
भी उस व्यक्ति के ऊपर विश्वास करने लग जाते हैं कि- “यह व्यक्ति जो भी संकल्प लेता
है, मन में जो ठान लेता है उसको करके ही छोड़ता है” और ऐसा विचार कर अनेक प्रकार से
सहयोग भी करते हैं, इस प्रकार धीरे धीरे हम इसी संकल्प शक्ति के माध्यम से बड़े से
बड़ा कार्य भी करने में समर्थ हो जाते हैं। शास्त्रों में भी शारीरिक शक्ति की
अपेक्षा मानसिक शक्ति के महत्व को अधिक स्वीकार किया है। योग दर्शन के भाष्यकार
लिखते हैं कि – “मानसिक-बल-व्यतिरेकेण कः दंडकारण्यं शून्यं कर्तुम् उत्सहेत्”
अर्थात् केवल शारीरिक कर्म के द्वारा कौन भला मानसिक बल के बिना दंडकारण्य को
शून्य करने में समर्थ हो सकता है ।
संसार की सफलताओं का
मूल मन्त्र है उत्कृष्ट मानसिक शक्ति, दृढ़ संकल्प शक्ति, इसी की प्रबलता से संसार
में व्यक्ति को कोई भी वस्तु अप्राप्य नहीं रह जाता । अपार धन- संपत्ति हो, चाहे
उत्कृष्ट विद्या हो, समाज में प्रतिष्ठा हो वा मान-सम्मान हो सब कुछ इसी साधन के
माध्यम से व्यक्ति प्राप्त कर लेता है । लौकिक सफलताओं के साथ-साथ यह एक ऐसा आधार-
स्तम्भ है जिसके द्वारा एक आध्यात्मिक व्यक्ति भी अपनी साधना क्षेत्र में सफल हो
जाता है । यह एक ऐसी दिव्य विभूति है जिससे मनुष्य ऐश्वर्यवान् बन जाता और
अकल्पनीय, अविश्वसनीय कार्यों को करते हुए सबको हतप्रभ कर देता है। संकल्प एक ऐसा
कवच है जो कि धारण करने वाले को माता के समान सभी प्रकार के विपरीत अथवा विकट-परिस्थितिओं
से निरन्तर रक्षा करता रहता है । किसी भी लौकिक अथवा आध्यात्मिक कामनाओं की पूर्ति
का मूल मन्त्र संकल्प ही है । किसी भी सफल व्यक्ति के जीवन का यदि हम निरीक्षण
करें तो ज्ञात होगा कि उसकी सफलता के पीछे अवश्य ही संकल्प का हाथ होगा ।
जब हम कोई लक्ष्य
निर्धारित कर लेते हैं तो उसकी सिद्धि के लिए सर्व प्रथम दृढ़ संकल्प और उसके
पश्चात् अत्यन्त उद्योग, कठोर पुरुषार्थ, एकाग्रता व तत्परता भी आवश्यक होता है । यह
सत्य है कि संकल्प और पुरुषार्थ के बिना सफलता की सिद्धि नहीं होती। संकल्प से
हमारी बुद्धि लक्ष्य के प्रति स्थिर रहती है और हम अन्तिम क्षण तक सक्रिय बने रहते
हैं तथा बड़े से बड़ा अवरोधक तत्व भी हमारी सफलता को रोक नहीं सकते । कभी तमोगुण से
प्रभावित होकर, तामसिक संकल्पों से युक्त होकर असत्य, अन्याय, अधर्म, अत्याचार,
भ्रष्टाचार, चोरी, डकैती, व्यभिचार आदि कर्मों के द्वारा अपना तथा दूसरों के जीवन
को नष्ट न कर दें इसीलिए वेद में ईश्वर ने निर्देश दिया कि “तन्मे मनः शिव
संकल्पमस्तु” अर्थात् मेरा मन सदा कल्याणकारी संकल्पों से युक्त हो, अपना तथा
अन्यों की उन्नति के लिए प्रयत्नशील हो ।
जब भी हम कोई संकल्प
लेते हैं और लक्ष्य कि ओर चल पड़ते हैं तो संकल्प की सिद्धि और हमारे बीच में अनेक
प्रकार की परिस्थितियाँ व्यवधान बनकर खड़ी हो जाती हैं तो हमें यहाँ अत्यन्त संघर्ष
करना होता है । कोई व्यक्ति जब यह कहता है कि – “मैं तो इस कार्य को किसी भी
प्रकार से करूँगा ही” तो वह कभी ना कभी सफल हो ही जाता है और ठीक इसके विपरीत जो
व्यक्ति संकल्प ही नहीं लेता और कहता है कि मैं तो इस कार्य को नहीं कर पाऊंगा तो
वह कभी भी सफल नहीं हो सकता । जब भी हमें किसी कार्य में असफलता मिलती है तब कभी
भी हताश-निराश होकर संकल्प को छोड़ नहीं देना चाहिए । विचार करना चाहिए कि - हमारे
सामर्थ्य में कहीं कुछ कमी हो, हमारी क्रिया करने की शैली में कमी हो, उस विषयक
हमारा अनुभव न हो, अथवा साधनों में कोई न्यूनता हो, क्योंकि असफलता के पीछे यही
मुख्य कारण होता है । न्याय शास्त्रकार ने भी कहा है कि – “कर्म-कर्त्रृ-साधन वैगुण्यात्”
अर्थात् कर्म में कोई दोष हो, कर्ता में कोई दोष हो अथवा साधनों में कोई दोष हो तो
सफलता नहीं मिलती । अतः दोषों को पहचानें और उनको दूर करने का प्रयत्न करें तभी
हमारा संकल्प सफल हो पायेगा ।
सबसे बड़ा हमारा
लक्ष्य है आनन्द की प्राप्ति, ईश्वर-प्राप्ति अथवा मोक्ष-प्राप्ति । इस महान्
लक्ष्य के लिए हमें संकल्प भी उतनी ही महानता से, दृढ़ता के साथ लेना होगा तथा उतना महान् घोर-पुरुषार्थ भी करना
होगा । तो आइये हम सब संकल्पवान बनें और जीवन के अन्तिम लक्ष्य को प्राप्त करके
अपने जीवन को सार्थक-सफल बनायें ।
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