लेख प्रस्तुति कर्ता – आचार्य नवीन केवली
हम सब प्रायः संसार की समस्याओं के थपेड़ों से
परेशान हो कर अपनी आन्तरिक शान्ति के लिए वा वास्तविक सुख के
लिए कभी न कभी आध्यात्मिकता की ओर आशा भरी नजरों से बाट ताकते ही हैं। संसार में अनेक
प्रकार की समस्याओं से, दुखों से,पीडाओं से,बाधाओं से, प्रताड़ित होकर उन सबसे
छुट्कारा पाने के लिए अनगिनत उपायों को करने के पश्चात् जब हमें निश्चय हो जाता है
कि इन सब उपायों से हमारा वास्तविक समाधान होने वाला नहीं है तब हम किसी ऐसे उपाय
का अन्वेषण करने लग जाते हैं जहाँ नितान्त शान्ति हो। जब एक जिज्ञासु व्यक्ति अपने
जैसे अन्य सामान्य सांसारिक लोगों को देखता है और अपने आप को भी उनसे तुलना करके
देखता है तो उसको लगता है कि यहाँ तो सारा संसार ही इन सब समस्याओं से, दुःखों से
पीडाओं से पिसा जा रहा है, सभी मनुष्य उस सुख-शान्ति की खोज में लगे हुए हैं । वह
जिज्ञासु जब एक योगी महात्मा, वैराग्यवान् व्यक्ति को देखता है तो वहाँ फिर उन लौकिक
और आध्यात्मिक दोनों व्यक्तिओं में वह तुलना करके देखता है कि कौन अधिक सुखी है ?
जब हम सांसारिक चिन्ताओं से मुक्त किसी वैरागी,
साधु, अथवा सर्वथा राग-द्वेष से रहित, सांसारिक बन्धनों से निर्लिप्त किसी अवधूत
संन्यासी को देखते हैं तो हमें लगता है कि वास्तव में यही व्यक्ति पूर्ण तृप्त है,
इसी को ही स्थायी सुख की प्राप्ति है। इस व्यक्ति के शरण में चले जायें अथवा इसके
जैसा यदि हम भी बन जायें तो हमें भी चिर-शान्ति की प्राप्ति हो सकती है। इसी
प्रकार हम इस आध्यात्मिक मार्ग की ओर मुड जाते हैं, आध्यात्मिक जगत में प्रविष्ट
हो जाते हैं । वास्तव में बाह्य आडम्बरों व साधनों को देखकर यह बताना कठिन हो जाता
है कि यथार्थ रूप में कौन व्यक्ति कितना सुखी है और कौन कितना दु:खी है। कोई
व्यक्ति गोरा है तो वह ज्यादा सुखी होगा और कोई काला है तो दु:खी होगा, कोई रूपवान्
है तो सुखी और कुरूप हो तो दु:खी, कोई धनवान् हो तो सुखी और गरीब हो तो दुखी, कोई
अच्छे-सुन्दर कपडे पहने तो सुखी और कोई फटी-पुरानी पहने तो दु:खी हो, कोई व्यक्ति
अधिक से अधिक शास्त्रों को पढ़ लिया, विद्वान् बन गया, डिग्रियों को प्राप्त कर
लिया हो, तो वह सुखी रहता हो, और कोई ज्यादा पढ़ा-लिखा न हो तो वह दुःखी होता हो, ऐसा
कोई नियम नहीं है, क्योंकि इन सबसे सुख-दुःख का कोई सम्बन्ध नहीं है।
वास्तव में देखा जाये तो सुख-दुःख का आना तथा उस
सुख-दुःख से प्रभावित होकर सुखी-दुखी होना केवल मन के ऊपर ही निर्भर होता है। एक
व्यक्ति सामान्य दुःख से भी घबरा जाता है, हताश-निराश व परेशान हो जाता है और एक
व्यक्ति के जीवन में पहाड़ जितना दुःख आने पर भी वह दुखी नहीं होता। ठीक ऐसे ही एक
व्यक्ति के जीवन में थोडा सा भी सुख मिल जाये तो वह अत्यन्त हर्षित व भावुक हो
जाता है और इस के विपरीत एक व्यक्ति सुख का समुद्र भी सामने हो तो शान्त व सामान्य
रहता हुआ प्रभावित नहीं होता। इस प्रकार एक सांसारिक व्यक्ति के व्यवहार और एक आध्यात्मिक
व्यक्ति के व्यवहार में बहुत ही अन्तर देखा जाता है। दोनों का ही व्यवहार भिन्न-भिन्न
प्रकार का होता है परन्तु जैसे लौकिक लोग दो प्रकार का व्यवहार करते
हैं ठीक ऐसे ही एक आध्यात्मिक व्यक्ति का व्यवहार भी दो प्रकार का होता है।
किसी नीतिकार ने कहा है कि “मनस्यन्यत्
वचस्यन्यत् कर्मण्यन्यत् दुरात्मनाम्”
अर्थात् जो व्यक्ति मन-वाणी और कर्म से पृथक-पृथक व्यवहार करता है उस प्रकार के
व्यक्ति को दुरात्मा कहा गया है। परन्तु यह एक विचारणीय विषय है क्योंकि एक
अध्यात्मिक योगाभ्यासी भी अन्दर और बाहर के व्यवहारों में भिन्नता रखता है। हमें
यह जानना चाहिए कि – एक योगाभ्यासी का व्यवहार कैसे होता है ? एक योगाभ्यासी का
व्यवहार भी बाहर कुछ भिन्न होता है और अन्दर कुछ भिन्न प्रकार का होता है, फिर भी
लौकिक व्यक्तिओं से पृथक ही होता है।
एक योगाभ्यासी भले ही बाहर से किसी से बातचीत
करते रहता है, किसी को उपदेश करते रहता है परन्तु अन्दर से वह ईश्वर के साथ अपना घनिष्ठ
सम्बन्ध बनाये रखता है, आन्तरिक रूप से कभी ईश्वर के साथ सम्बन्ध टूटने नहीं देता।
ईश्वर की उपस्थिति, ईश्वर की अनुभूति मन में सतत बनाये रखता है। मन में
ईश्वर-प्रणिधान, ईश्वर के प्रति प्रेम, भक्ति, श्रद्धा बनाये रखता है। समस्त बाह्य
क्रिया-कलापों को करते हुए भी आन्तरिक कार्यों में संलग्न रहता है। उसका यदि कहीं
पर सम्मान हो रहा हो तो बाहर से वह प्रसन्न मुद्रा में दिखाई देता है परन्तु अन्दर
से सम्मान को विष तुल्य मानकर उससे निस्पृह रहता है। बाह्य रूप से किसी से
हँसी-मजाक करते हुए भी आन्तरिक रूप से गम्भीर रहता है। बाह्य रूप में किसी के
प्रति क्रोध दिखाता हुआ भी आन्तरिक रूप में क्रोध-रहित मन्यु से युक्त रहता है।
बाह्य साधनों की न्यूनता के कारण भले ही दुखी-परेशान दिखाई दे परन्तु अन्दर से
शान्त-तृप्त और आनन्द से युक्त रहता है। बाहर से भले ही एक भिखारी या गरीब जैसा
दीखता हो परन्तु अन्दर वह एक चक्रवर्ती सम्राट की तरह अनुभव करता रहता है । शय्या
पर विश्राम करता हुआ, किसी आसन या कुर्सी पर बैठा हुआ, मार्ग पर चलता हुआ, अन्य
किसी भी कार्य में लगा हुआ सदा ईश्वर के आनन्द स्वरूप में मग्न रहता है तथा अपने
आन्तरिक कार्यों से सम्बद्ध रहता है। अपने चित्त के अन्दर विद्यमान अनेक
दुर्गुण-दुर्व्यसनों को, अविद्या आदि क्लेशों को सदा ईश्वर के सान्निध्य में रहता
हुआ नष्ट करने का प्रयत्न वा पुरुषार्थ करते रहता है ।
इससे ठीक विपरीत लौकिक व्यक्ति बाहर भले ही सुखी व प्रसन्न दिखाई दे
परन्तु अन्दर से अत्यन्त दुखी रहता है। लोभ,मोह,इर्ष्या,द्वेष,काम,क्रोध आदि
आन्तरिक शत्रुओं से पीड़ित रहता है और योगाभ्यासी इन सबसे अछूता रहता है। इन सब
व्यवहारों को देखने से पता चलता है कि नीतिकार के उस वाक्य का तात्पर्य कुछ पृथक
ही है। जो व्यक्ति अन्दर से ईश्वर के प्रति श्रद्धा-विश्वास न रखता हुआ भी लोगों के
सामने यह दिखावा करता है कि – “मैं एक आध्यात्मिक व्यक्ति हूँ”। जो व्यक्ति अपने
माता-पिता, गुरु आचार्यों के प्रति सम्मान की भावना न रखता हुआ भी बाहर दिखाता है,
ऐसा व्यक्ति दुरात्मा कहलाता है। मुख्यतया वे लोग दुरात्मा कहलाने के योग्य हैं जो
भलीभांति वेद की आज्ञा को जानते हैं और उसको अन्दर से यथार्थ रूप में पालन भी नहीं
करते फिर भी सबके सामने स्वयं को प्रदर्शित करते हैं कि हम वेद को मानते हैं। दुरात्मा
वह होता है जो यह दिखाता है कि मैं ईश्वर की उपासना कर रहा हूँ ध्यान कर रहा हूँ
परन्तु अन्दर से न ईश्वर के प्रति और न आध्यात्मिक क्रियाओं के प्रति उसके मन में कोई श्रद्धा-भक्ति होती है, सब
सांसारिक विचार ही चलते रहते हैं।
आध्यात्मिक व्यक्ति वह कहलाता है जो वेद को, ईश्वरीय आज्ञाओं को अन्दर
से व्यावहारिक रूप में मन-वचन-कर्म से मानता है। ईश्वर को सदा सर्वत्र उपस्थित
जानता हुआ कभी भी असत्य, अन्याय, अधर्म आदि से युक्त व्यवहार नहीं करता । तो आईये हम भी समस्त
क्रियाओं को करते हुए भी ईश्वर के साथ जुड़े रहें और एक सच्चा आध्यात्मिक बनते हुए
अपने जीवन के लक्ष्य को सिद्ध करें .....
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