जैसे कि हम सुनते हैं, वेद समस्त ज्ञान-विज्ञान का अथाह सागर है । हम
मनुष्यों के लिए आवश्यक व उपयोगी सभी प्रकार का ज्ञान ईश्वर ने इस वेद में समाहित
किया हुआ है । इसमें यदि गोता लगायेंगे तो विभिन्न प्रकार के, अन्य-अन्य विषयों से
सम्बन्धित ज्ञान हमें प्राप्त होता रहेगा । इसीलिए महर्षि मनु जी ने सत्य ही कहा
है कि “सर्व ज्ञानमयो ही सः” । ईश्वर ने इस मनुष्य शरीर को बहुत ही विचित्रता के
साथ निर्माण किया है । सम्भवतः प्रकृति से इससे उत्कृष्ट और कुछ बन ही नहीं सकता
था । समग्र ब्रह्माण्ड का निर्माण करने वाले ईश्वर की महिमा कहें या फिर यह
प्रकृति कि ही न्यूनता कहें कि इस शरीर को इतना सुन्दर, व्यवस्थित व सुख-सुविधाओं
से युक्त बनाने के बाद भी इसमें अनेक दोष पाए जाते हैं ।
हम देखते हैं कि इस शरीर में सहस्र प्रकार के रोग उत्पन्न हो जाते
हैं, चाहे कारण कुछ भी हो, चाहे हमारी अज्ञानता हो अथवा आहार-विहार में दोष हो परन्तु
परिणाम तो सामने ही है । इस शरीर में जब हजारों प्रकार के रोग उत्पन्न हो जाते हैं
तो शरीर की बहुत बड़ी हानि भी होती है । हमारे समस्त कार्य रुक जाते हैं, कार्य
करने की क्षमता भी घट जाती है और शरीर दुर्बल व क्षीण हो जाता है, इससे हमें
अत्यन्त दुःख भी होता है और हम मृत्यु के अत्यन्त निकट पहुँच जाते हैं तथा कभी-कभी
तो रोग की अधिकता से ही व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है । उनसे बचना हमारा प्राथमिक
कर्त्तव्य है । कहा भी गया है कि – “शरीरं खलु धर्म साधनं” अर्थात् यह शरीर ही
धर्माचरण करने का प्रमुख साधन है । यदि हमें धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष रूपी मनुष्य
जीवन का पुरुषार्थ चतुष्टय को सिद्ध करना है तो शरीर को अवश्य स्वस्थ रखना होगा ।
व्यक्ति को स्वयं अपना चिकित्सक होना चाहिए क्योंकि व्यक्ति स्वयं अपने शरीर को
जितना समझ सकता है उतना कोई और नहीं । हमें आयुर्वेद का ज्ञान भी रखना होगा
क्योंकि ईश्वर की कृपा से प्राप्त ज्ञान-विज्ञान के माध्यम से हमारे प्राचीन ऋषि-मुनिओं
ने शरीर को स्वस्थ और दीर्घायु बनाने के लिए प्रत्येक रोग के लिए अर्थात् उसी-उसी
रोग के अनुरूप हजारों प्रकार की औषधियाँ बनाई हैं ।
वेद में यह निर्देश भी किया गया है कि अलग-अलग रोगों के लिए
अलग-अलग चिकित्सकों को उस-उस विषयक विशेषज्ञ होना चाहिए । वेद में चिकित्सक के गुण
व विशेषता और उसके कर्त्तव्य कर्मों का विस्तृत वर्णन किया गया है । जैसे कि –
“विप्रः स उच्यते भिषग् रक्षोहाऽमीवचातन:” (ऋग्. 10.97.6) अर्थात् उत्तम चिकित्सक
वह कहलाता है जो राक्षसों अर्थात् रोग कृमियों का नाशक हो, रोगों को नष्ट करने
वाला हो, जो समस्त औषधियों का संग्रह करने वाला हो और अपने विषय का विप्र अर्थात्
विशेषज्ञ हो । “सीरा: पतत्रिणी: स्थन यदामयति निष्कृथ” (ऋग्.10.97.9) अर्थात्
चिकित्सक को ऐसा होना चाहिए कि वह रोगों के मूल कारणों को समझे और उसको मूल से ही
नष्ट कर देवे क्योंकि कारण के नष्ट होने से ही कार्य भी नष्ट हो जायेगा । “ओषधी:
प्राचुच्यवु: यत् किंच तन्वो रपः” (ऋग्. 10.97.10) अर्थात् चिकित्सक औषधियों के
माध्यम से शरीर के सभी दोषों को बाहर निकाल देवे । “इमं मे अगदं कृत” (ऋ. 10.97.2)
अर्थात् हमें अपने शरीर को रोग रहित बनाये रखना चाहिए । “प्र न आयूंषि तारिषत्” (साम.184)
अर्थात् हम इस प्रकार की वायु का सेवन करें जिससे फेफड़ा स्वस्थ रहे और हम दीर्घायु
हों । चिकित्सक भी हमें दीर्घायु प्राप्त कराने वाला हो । “निष्कर्ता विह्रुतं
पुनः” (साम.244) अर्थात् चिकित्सक ऐसा पारंगत होवे कि शल्यचिकित्सा के द्वारा टूटी
हड्डियों को जोड़ सके ।
चरक, सुश्रुत और अष्टांगहृदय आदि ग्रंथों में
भिषक्पाद अर्थात् चिकित्सक के गुण-कर्म-स्वभावों का अच्छी प्रकार से प्रतिपादन
किया गया है । वैद्य शास्त्र का ज्ञाता हो, अनेक बार रोगी, औषध-निर्माण और प्रयोग
का प्रत्यक्ष-द्रष्टा हो, समयानुसार उचित औषध का निर्णय करने में चतुर हो, और
आन्तरिक व बाह्य रूप से पवित्रता –निर्मलता रखने वाला हो । कोई भी व्यक्ति केवल
शास्त्रज्ञान मात्र से ही योग्य-वैद्य नहीं हो सकता अपितु उसे क्रियात्मक ज्ञान का
होना भी अत्यन्त आवश्यक है और उसे अपने शास्त्र से भिन्न अन्य अनेक शास्त्रों का
ज्ञान भी होना चाहिए । इस प्रकार से योग्य चिकित्सक स्वयं भी कभी रोगी नहीं होता
और अन्य लोगों का भी रोगोपचार करके रोगमुक्त व सुख–समृद्धियुक्त समाज का निर्माण
करके अपने चरम लक्ष्य को प्राप्त करने-कराने में समर्थ हो पाते हैं । लेख आचार्य नवीन केवली
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