‘अनुकरणीय जीवन के धनी ऋषि भक्त विद्वान श्री इन्द्रजित देव’
-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

श्री इन्द्रजित् देव जी का जन्म लाहौर में 27 मई, सन् 1938
को हुआ। आपके पालनकर्ता पिता श्री कृष्ण दास जी और माता श्री भागवन्ती जी हैं जिनकी छत्रछाया में आपका जीवन व्यतीत हुआ। आपने बताया कि आपके पालक माता-पिता और जन्मदाता माता-पिता दो-दो हैं। यह नाम पालनकर्ता माता-पिता के हैं। आपके पिताजी आर्यसमाजी थे और आर्यसमाज के अनेक आन्दोलनों में आपने भाग लिया था। आपके पिता सन् 1957
के पंजाब हिन्दी रक्षा आन्दोलन में जेल भी गये थे। पंजाब में उन दिनों जब कहीं लाइलाज बीमारी प्लेग का प्रकोप होता था तो आपके पिता उन स्थानों पर जाकर रोगियों की सेवा व उपचार करने में अपनी सेवायें देते थे। आपके 7 भाई भाई एवं दो बहिनों में अब दो भाई दिवंगत हो चुके हैं। प्रायः सभी यमुनानगर व समीप के स्थानों पर निवास करते हैं। आपने लाहौर में कक्षा चार तक की शिक्षा प्राप्त की थी। 14 अगस्त सन् 1947
को भारत का विभाजन होने पर आपको भारत आना पड़ा। आप अमृतसर आकर रहे और वहां कक्षा दस तक की शिक्षा प्राप्त की। आप बताते हैं कि सन् 1947
को भारत में आने पर आपको गरीबी का बहुत समीप से अनुभव हुआ। आपने पंजाब विश्व विद्यालय से प्रभाकर,
हिन्दी
आनर्स
एवं साहित्यरत्न
(इलाहाबाद) की परीक्षायें उत्तीर्ण की हैं। आपने पंजाब राज्य के सिंचाई विभाग में नौकरी की। क्लर्क से आरम्भ कर आप आफीस सुपरिटेण्डेंट पद तक पहुंचे। रिश्वत आदि न लेने के कारण आपको ऐसे कामों पर रखा जाता था जहां रिश्वत की गुंजाइश नहीं होती थी। आप लम्बे समय तक हिमाचल प्रदेश में भी सेवारत रहे। श्रीमती सुमनलता जी आपकी सहधर्मिणी थी। सन् 1969 में आपकी धर्मपत्नी जी की स्टोव जलाते समय दुर्घटना हो जाने से दुःखद मृत्यु हुई थी। आपके एक पुत्र एवं एक पुत्री हैं। आपकी पुत्री कविता वाक्चनवी आर्य विदुषी हैं। उच्च कोटि की लेखिका एवं सम्पादिका हैं। उनके पति दहन विज्ञान में उच्च कोटि के वैज्ञानिक हैं। आप दोनों सम्प्रति अमेरिका में रहते हैं। आपने बताया कि पुत्री के विवाह में वर पक्ष की ओर से स्वामी डा. सत्यप्रकाश जी और पं. युधिष्ठिर मीमांसक जी बारात में आये थे। आपने अपने पुत्र व पुत्री का विवाह जन्मना जाति में न कर गुण, कर्म, स्वभावानुसार
अन्तर्जातीय विवाह किया है एवं दोनों विवाह बिना दहेज लिये व दिये किये हैं।
श्री इन्द्रजित् देव जी पहले उपन्यास एवं हिन्दी कवितायें लिखते थे। सन् 1978
से
1982 के मध्य में आपने आर्यसमाज की पत्र पत्रिकाओं में लेख लिखना आरम्भ किया जो निरन्तर चल रहा है। ‘देव’ आपका काव्य रचना का उपनाम है। कवि नीरज जी को आप अपना प्रेरक कवि मानते हैं। सरकारी सेवा से आप सन् 1993
में सेवा निवृत हुए। आपने सेवा निवृति की तिथि से 3 वर्ष पूर्व ही स्वैच्छिक सेवा निवृति के लिए आवेदन किया था परन्तु उसे स्वीकार नहीं किया गया। इस कारण आपने अपनी सभी अर्जित अवकाश ले लिये थे। आपने रोजड़ में दर्शन योग विद्यालय के अनेक शिविरों में भी भाग लिया है। उन दिनों कुछ काल तक आप वैराग्य की स्थिति में भी रहे।
आचार्य इन्द्रजित् जी यमुनानगर में रहते हैं। भजनोपदेशक श्री ओम् प्रकाश वर्मा जी से आपकी घनिष्ठता है। आपने वर्मा जी के जीवन के अनुभव प्रायः सुनते रहे हैं। उन पर आधारित आपके लगभग 23 लेख आर्य पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं जिनमें इतिहास विषयक महत्वपूर्ण जानकारी है। परोपकारिणी सभा अजमेर के अध्यक्ष कीर्तिशेष डा. धर्मवीर जी के आप बहुत निकट रहे हैं। आपने उनसे जुड़े भी अनेक संस्मरण हमें सुनाये हैं। आपने बताया कि आर्य विद्वान प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी के परामर्श से उन्होंने परोपकारी मासिक पत्रिका का प्रकाशन पाक्षिक किया था। आप स्थानीय लोगों से मिलते समय व रेल यात्रा करते हुए जिन लोगों के सम्पर्क में आते थे, उनका नाम व पता नोट कर लेते थे और उन्हें परोपकारी पत्रिका प्रेषित करते थे। किसी पाठक का शुल्क न आने पर भी आप पत्रिका को बन्द नहीं करते थे। पत्रिका घाटे में चलती है परन्तु इसकी आपको चिन्ता नहीं थी। आपका मानना था कि पत्रिका के माध्यम से परोपकारिणी सभा विषयक जानकारियां लोगों तक पहुंचती हैं। डा. धर्मवीर जी के साथ आपने देश के दूरस्थ स्थानों की अनेक प्रचार यात्रायें भी की हैं। हमने उनकी बातों से अनुभव किया कि डा. धर्मवीर जी के असामयिक वियोग से परोपकारिणी सभा एक प्रकार से निष्प्राण सी हो गई है। परोपकारिणी सभा में जो बड़े बड़े भव्य भवन बने हैं उनका समस्त श्रेय भी डा. धर्मवीर जी को है। आपने व वर्मा जी ने हमें यह भी बताया कि डा. धर्मवीर जी आशु उपदेशक थे। उन्हें किासी भी विषय पर व्याख्यान के लिए कहा जाये और दो मिनट पहले ही निवेदन करें, उस पर भी वह अनेक प्रमाणों व उदाहरणों से प्रभावशाली व्याख्यान देते थे।
श्री इन्द्रजित् देव जी आर्यसमाज के प्रचार प्रसार में मनसा, वाचा कर्मणा लगे हुए हैं। आप स्वस्थ हैं और आर्यसमाज के प्रचार के लिए अनेक स्थानों पर आते जाते रहते हैं। आपका जीवन एवं व्यक्तित्व सरल है और सबसे घुल मिल जाते हैं। आपका अध्ययन भी विस्तृत है और आर्यसमाज की इतिहास की बहुत सी घटनायें आपको स्मरण हैं जिनका प्रयोग वह वार्तालाप एवं उपदेशों में करते हैं। हमने उन्हें गुरुकुल या अन्यत्र होने वाले सभी विद्वानों व भजनोपदेशकों
के उपदेशों में एक सामान्य श्रोता की भांति बैठे हुए उपदेश व भजन श्रवण करते हुए देखा है। यह गुण बहुत कम उपदेशकों व भजनोपदेशकों
में होता है। मंच पर आप तभी जाते हैं कि जब आपको बुलाया जाता है। आर्यसमाज व इसकी संस्थाओं के उत्सव आदि में आप बिना उपदेश के लिए बुलाये ही एक श्रोता के रूप में सम्मिलित होते हैं। गुरुकुल पौंधा भी आप एक श्रोता के रूप में आये हैं। यहां के अधिकारी आपकी योग्यता एवं स्वभाव से परिचित हैं। यही कारण है कि कल रात्रि आपका उपदेश हुआ था। अभी 4 जून तक और भी कई उपदेश हो सकते हैं। गुरुकुल में आजकल ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका स्वाध्याय शिविर चल रहा है। उसमें भी एक शिविरार्थी की तरह आप समय पर अपनी ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका पुस्तक लेकर पहुंच जाते हैं और पूरा समय बैठते हैं। शिविराध्यक्ष डा. सोमदेव शास्त्री जी से कुछ विषयों पर आप प्रेमपूर्वक चर्चा भी करते हैं। आपका सरल स्वभाव हमें विशेष रूप से प्रेरणा देता है। हमारे सभी विद्वान ऐसे ही हों तो प्रचार ओर अधिक बढ़ सकता है। इसी के साथ हम इस लेख को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य
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