प्रत्येक प्राणी का यह स्वभाव होता है कि वह दुःख से बचना तथा सुख को पाना
चाहता है। फिर मनुष्य तो सृष्टि का सबसे श्रेष्ठ प्राणी है, वह क्यों नहीं सुख की प्राप्ति के लिए
पूर्ण पुरूषार्थ करेगा? आज
संसार भर के प्रबुद्ध मनुष्य (चाहे वे किसी भी महत्वपूर्ण पद पर आसीन हो) संसार को
सुखी बनाने का यत्न अपने-अपने ढ़ंग से करते प्रतीत हो रहे हैं। परंतु इसके उपरांत
भी आज सम्पूर्ण मानव समाज अशांति, आतंक, हिंसा, घृणा, मिथ्या, छल, कपट, ईर्ष्या, राग, द्वेष से ग्रस्त होकर अति दुःखी व अशांत
है। विचार आता है कि क्या कारण है कि चिकित्सा करते रहने पर भी रोग बढ़ता ही जा रहा
है?
मेरा
मानना है कि इस सब का मूल कारण सत्य और वास्तविकता से अनभिज्ञ रहना अथवा जानकर भी
उसके अनुकूल व्यवहार न करना ही है। आज सारे संसार में विकास की होड लग रही है। हम
छल से दूसरों को गिराकर उससे आगे जाना चाहते हैं। दूसरों की झोपडियां जलाकर अपने
भव्य भवन बनाना चाहते हैं, दूसरों
की थाली से सूखी रोटियां भी छीनकर स्वयं सुस्वाद सरस भोजन करना चाहते हैं, दूसरों के तन से जीर्ण शीर्ण वस्त्र भी
छीनकर स्वयं बहुमूल्य वस्त्र पहनकर फैशन करना चाहते हैं तथा दूसरों का गला दबाकर
स्वयं एकाकी अमर जीवन जीना चाहते हैं। क्या ऐसा जीवन हमारी सुख, शांति का विनाशक नहीं ? क्या मानवीय हत्या का हनन करने वाला नहीं
है ? हमारा
विकास तो तभी होगा जब हमारा जीवन सत्यता से परिपूर्ण होगा। क्योंकि सत्य से बढ़कर
कोई धर्म नहीं होता। धर्म के नाम पर, ईश्वर के नाम पर, देवी-देवताओं के नाम पर जितना रक्तताप व
वैमनस्यता संसार में हो रही है, संभवतः उतना किसी अन्य कारण से नहीं। धर्म के नाम पर यह पाप क्यों ?
धर्म और ईश्वर के नाम पर ईर्ष्या, राग, द्वेष, घृणा, हिंसा क्यों ? हमें धर्म का ऐसा सच्चा स्वरूप संसार के
सामने लाने का प्रयास करना होगा, जिसमें पाखण्ड, अंधविश्वास
व असत्य का कोई स्थान न हो। यही विचार संसार के ऋषियों (ब्रह्मा से लेकर जैमिनी
पर्यन्त) का रहा है। महर्षि दयानंद सरस्वती तो परमाणु से लेकर परमेश्वर तक का
यथार्थ ज्ञान व उससे अपना व दूसरों का उपकार करना ही विद्वानों का कर्तव्य बताते
हैं। दुर्भायवश महाभारत के समय से वेद के नाम पर, धर्म के नाम पर, ईश्वर के नाम पर, देवी-देवताओं के नाम पर कुछ विकृतियों ने
जन्म लिया और वेद केवल कर्मकाण्ड तक ही सीमित रह गया। उस वैदिक कर्मकाण्ड के नाम
पर मांसाहार, व्यभिचार, पशुबलि, नरबलि, स्त्री व शूद्र वर्ग के प्रति हीन भावना, मदिरापान आदि कुरीतियां इस देश में फैल
गईं। एक ईश्वर की जगह अनेक देवी-देवता प्रचलित होकर विश्व में हजारों मत-मतान्तर
चल पड़े।
सर्वशक्तिमान और सर्वसामथ्र्य सम्पन्न ईश्वर शक्ति के अस्तित्व में रहते
हुए भी इन देवी-देवताओं (वह भी एक दो नहीं, चार छः नहीं अपितु पूरे तैतीस करोड) को
प्रभाव में लाने की आवश्यकता क्यों हुई ? इसका किसी के पास कोई तर्क संगत उत्तर
नहीं है। जीवन में पूजा का किसी रूप में कोई भी उपयोग संभव नहीं है और पूजा से कुछ
भी प्राप्त कर पाना संभव नहीं, व्यक्ति जो कुछ प्राप्त करना चाहता है या करता है वह केवल अपने पौरूष और
पुरूषार्थ भरे प्रयासों से प्राप्त करता है। लेकिन सहज और सरलतम रूप में प्राप्त
करने की मनुष्य की स्वाभाविक मनः प्रवृत्ति ने उसे पौरूष और पुरूषार्थ से दूर ढकेल
दिया और पूजा से वह कुछ भी प्राप्त नहीं कर सका। इस कारण देश और समाज पतित होता
चला गया। समस्याएं बढ़ती गईं, समाधान संभव नहीं हो सका। देश पराधीन हो गया, विदेशी आक्रमणकारी हमारी राजसत्ता को
हथियाकर बैठ गये। अत्याचार हो रहे, समाज में हा हाकार हो रहा, समाज लुटता-पिटता रहा पर कोई बचाने वाला
पैदा ही नहीं हुआ। जिन देवी-देवताओं पर हम विश्वास साधकर बैठे वह दीन-हीन स्थिति
में मौन धारण कर देवालयों में बैठे कांप रहे थे। हमारी रक्षा करना तो दूर वह स्वयं
अपनी रक्षा भी नहीं कर पा रहे थे। हम ढ़ोल, मजीरा, शंख, झांझर और चिमटा लेकर उन पत्थर के
देवी-देवताओं के सामने गीत गाते कीर्तन करते रहे। मौत के भय से थर-थर कांपते कायर
कायर और क्लीवजन कंठीमाला हाथ में लेकर ग्रहों, नक्षत्रों एवं राशियों में अपना भाग्य
लेख पढ़ने के लिए जन्मकुण्डली बिछाकर बैठे रहे। मंदिरों-देवालयों में जाकर
देवी-देवताओं की मूर्तियों के सामने माथा रगडते रहे लेकिन उनके दिव्य चक्षु इहलोक
के पैशाचिक दुराचारों को कभी नहीं देख सके।
विदेशी आक्रांता इन मूर्तियों को तोडकर
चकनाचूर करते रहे। उन्हें खण्ड-खण्ड कर कुओं, पोखरों में फैंका गया, पर न तो ये देवी-देवता कुछ कर सके और न
उनके पुजारी। बल्कि यह पुजारी तो बलात्कार पीडित महिला की तरह असहाय और विवश होकर
आंसू बहाते रहे। यदि इन्होंने इसके विपरीत स्वयं पौरूष की भाषा पढ़ी होती, धर्म और ईश्वर के सच्चे निराकार स्वरूप
को समझा होता तो कोई शक्ति इस देश की ओर आंख उठाकर नहीं देख पाती। सोमनाथ मंदिर की
कहानी जब हमारे स्मृति पटल पर उभर कर आती है तो आंखों में खून उतर आता है। हम केवल
पौराणिक आख्याओं तक सीमित बने रहे। भूगोल से हम प्रारंभिक परिचय कभी प्राप्त नहीं
कर सके। इसलिए धरती को कभी शेषनाग के फन पर टिका दिया, कभी कश्यप की पीठ पर और कभी गाय के सींग
पर। क्योंकि सभी जीवधारियों की कालावधि निश्चित है, अतः झूठ को स्थाई रूप देने की दृष्टि से
इन तीनों को त्रिकालजयी बना दिया और धरती का गैंद रूप देकर इधर से उधर उठाकर रखते
रहे। झूठ में हमारी अगाध आस्था रही है कि हमें अपने पूर्वजों की कही बात का भी
ध्यान नहीं रहता। आर्यभट्ट और वरामिहिर हमारे ही पूर्वज थे, जिन्होंने पृथ्वी, सूर्य और चन्द्रमा की परिधि, उनका व्यास और उनकी आपस की दूरी की माप
सटीक रूप में दी थी। लेकिन हमारे झूठ के क्षेत्र में वह कहीं बाधक न बन जाये इसलिए
उसे जान-बूझकर दृष्टि ओझल कर दिया। हमारे यह पुजारी के व्यवसायी टिपकादास धरती पर
फल कटहेरी की तरह ब्रह्म का बीज बोत रहे हैं, जिनके बेल रूप में फैलकर कहीं पैर टिकाने
को स्थान नहीं छोडा है। हमारे यहां महाभारत के महानायक कर्मयोगी श्रीकृष्ण और गीता
के रूप में उपलब्ध उनकी वैचारिक धरोहर युगों युगों तक मनु पुत्रों का मार्गदर्शन
कर सकती है। लेकिन इन टिपकादासों ने उसकी विषयवस्तु की सहज विश्वसनीयता पर तमाम
तरह के प्रश्नवाचक चिन्ह खडे कर दिये हैं। श्रीकृष्ण जैसे योगीराज, अदम्य व्यक्तित्व पर भी इन मिथ्यावाद के
प्रणेता टिपकादासों ने अपनी अतृप्त यौन पिपासा को विभिन्न रूपों में उन पर
निर्ममता से प्रत्यारोपित कर उन्हें रसिक बिहारी, छैल बिहारी, रास बिहारी, लीला बिहारी और बांके बिहारी जैसे तमाम
तरह के नाम देकर उन्हें राधा के पैरों में महावर रचाने बैठा दिया।
आज धरती पर उपलब्ध सभी सुख सुविधाएं और उसके उपकरण स्वयं मानव ने पैदा किये
हैं। किसी देवी देवता का उसमें इंच मात्र का योगदान नहीं है किंतु
पाखण्डी-मिथ्यावादी अपने स्वार्थ हित में उसका विभिन्न रूपों में गुणगान करते चले
आ रहे हैं। कलान्तर में धीरे-धीरे इस देवत्व भाव को समान भाव से पशु पक्षियों पर
भी आरोपित कर दिया और अंत में यह देवता पत्थरों पर भी उकेरे जाने लगे। पराकाष्ठा
की स्थिति तो यहां तक पहुंच गई कि ढ़ेले पर कलावा बांधकर उसे सीधे-सीधे गणेश भगवान
बना दिया गया। इस देश में भिखारी से लेकर पुजारी तक मांगकर खाने वालों की फौज खडी
होती चली गयी। ऋषि ने ’एको
ब्रह्म द्वितीयो नास्ति’ का जो
उपदेश दिया उसके विपरीत बहुदेवतावाद का अंतहीन सिलसिला खडा हो गया, जो आज भी समाप्त होने का नाम नहीं ले रहा
है। पत्थरों, धातुओं
और लकडियों के टकड़ों पर तमाम तरह के देवी-देवताओं की विचित्र-विचित्र शक्लें
उतारकर देवालयों, मंदिरों और घरों में खडी कर दी। यह
देवी-देवता आज तक किसी को कुछ नहीं दे सके, बल्कि स्वयं इस कमाऊ समाज पर भार बन जाते
हैं। हमारे ही पैदा किये हुए देवता, जो हमारी ही दी हुई व्यवस्था पर जीवित
हैं, हमें
उन्हीं के आगे मंगिता बनाकर बिठा दिया। वैसे सृष्टि नियम के विरूद्ध बातें सभी
मतों में हैं, जैसे
मुस्लिम भाई कहते हैं कि हमारे पैगम्बर मोहम्मद सहाब ने एक ही उंगली से चांद के दो
टुकडे कर दिये। इसी प्रकार हमारे पुराणों में सबसे अधिक चमत्कारिक बाते हैं, जैसे हनुमान ने अपने बचपन में ही सूर्य
को गाल में रख लिया, कुंती
कर्ण कान से उत्पन्न हुआ, योगेश्वर
श्रीकृष्ण ने गोवर्धन पर्वत अपनी उंगली पर उठा लिया, श्रीकृष्ण द्रोपदी का चीर बढ़ा दिया आदि।
भूत-प्रेत, गण्डा, डोरी, श्राद्ध-तर्पण, फलित ज्योतिष, गृहों का नाराज होना या खुश होना तथा
मूर्तिपूजा व अवतारवाद का मानना अंधविष्वास व पाखण्ड है। क्योंकि यह सब बातें
प्रकृति नियम के विरूद्ध हैं। इसलिए इनको न मानकर वैदिक धर्म को मानना ही हर
व्यक्ति के लिए श्रेयस्कर व लाभदायक होगा।
वैदिक धर्म में ईश्वर के प्रति कृतज्ञता
ज्ञापन करने के लिए संध्या करना (जिसे ब्रह्मयज्ञ कहते हैं), दूषित वातावरण को शुद्ध करने के लिए हवन
करना (जिसे देवयज्ञ कहते हैं)। शरीर को स्वस्थ्य रखने के लिए यम-नियमों से समाधि
तक पहुंचने के लिए अष्टांग योग करना, दूसरों की भलाई के लिए परोपकार करना, वेदों सहित सभी आर्ष ग्रन्थों को पढ़ना और
उनके अनुसार जीवन बनाना आदि मुख्य सिद्धांत वैदिक धर्म के हैं। इसलिए हम अपने जीवन
को पवित्र स्वस्थ्य रखना चाहते हैं तो हमें अन्य मतों व पन्थों को छोड़कर वैदिक
धर्म अपनाना चाहिए, जिससे
हम अपने परिवार, समाज, राष्ट्र व केवल मानव मात्र ही नहीं बल्कि
प्राणी मात्र के प्रति अपने कर्तव्य का पालन करते हुए अपने जीवन को सफलता की
ऊंचाईयों को छूते हुए मोक्ष के अधिकारी बने। इससे उत्तम अन्य कोई मार्ग नहीं है।
लेखक
विवेक प्रिय आर्य
No comments:
Post a Comment