जिन जलों से रस का संचार हो,
एसी
औषधियों के प्रयोग से हम अपने अन्दर व बाहर के मालिन्य को नष्ट कर अति क्रियाशील व
मधुर बनें। यजुर्वेद के प्रथम अध्याय का यह इक्कीसवां मन्त्र इस तथ्य पर प्रकाश डालते
हुए इस प्रकार उपदेश करता है -
देवस्य त्वा सवितुरू प्रसवेऽश्विनोर्बाहुभ्यां पूष्णो हस्ताभ्याम्। सं
वपामि समापऽओषधीभिरू समोषधयो रसेन। सं रेवतीर्जगतीभिरू पृच्यन्तारू सं
मधुमतीर्मधुमतीभिरू पृच्यन्ताम्॥ यजुर्वेद १.२१ ॥
धान्य अर्थात् वनस्पतीय भोजन जीवन को सुन्दर बनाता है किन्तु इस का प्रयोग
कैसे किया जावे?, इस सम्बन्ध में प्रकाश डालते
हुए मन्त्र कहता है कि -
१. पौषण व प्राणार्थ वनस्पतियों का सेवन कर -
हे धान्य! मैं तेरा प्रयोग करता हूं। मैं तेरा प्रयोग उस प्रभु की आज्ञा से
करता हूं, जो प्रभु दिव्य गुणों का पुन्ज
है, जो प्रभु दिव्य गुणों का, उत्तम गुणों का भण्डार है।
मैं तेरा प्रयोग उस प्रभु की अनुज्ञा में, आदेश में कर रहा हूं। प्रभु की अनुज्ञा है , इसलिए मैं तेरा उपभोग कर रहा हूं किन्तु यह उपभोग न तो मैं अपनी आवश्यकता से कम करता हूं तथा न ही अधिक करता हूं अपितु मुझे जितनी आवश्यकता है, उसके अनुरूप मैं तेरा उपभोग यथायोग्य के आधार पर करता हूं।
इस से स्पष्ट होता है कि मानव को उतना ही खाना चाहिये जितना उसके पेट में
समा सके। यदि वह अधिक खाता है तो उस के स्वास्थ्य का नाश हो जाता है तथा अनेक
प्रकार की व्याधियों का कारण बनता है और यदि कम खाता है तो भी अवस्था कुछ वैसी ही
बन जाती है। एक अन्य मन्त्र, ष्ईशा वास्यं इदम सर्वं
यत्किन्चित जगत्याम जगत। तेन त्यक्तेन भुन्ज्थिा मा ग्रधा कस्य स्वीधनम्॥ में भी
इस बात को ही समझाते हुए कहा है कि हे मनुष्य! जिस प्रभु ने इस जगत् की रचना की है, उस प्रभु ने तेरे लिए बहुत सी वनस्पतियां भी बनाई हैं। तूं इन वनस्पतियों
का उपभोग उतना ही कर, जितना तेरे लिए आवश्यक है
द्य शेष अन्यों के लिए छोड दे , लालच मत कर , इन का संग्रह मत कर।
मन्त्र ने यह ही सन्देश दिया है कि हे जीव! तूं यथा योग्य आवश्यकता के
अनुसार इस का प्रयोग कर। इसे पूषा के द्वारा,
इसे
प्राणापानों के हाथों प्राप्त कर। अर्थात् तूं इन का प्रयोग संग्रह के लिए न कर, इसका प्रयोग जिह्वा के स्वाद के लिए न कर बल्कि इसका प्रयोग अपने पौषण के
लिए कर , अपने जीवन के लिए कर , अपने प्राण तथा अपान को नियमित संचालित करने के लिए कर।
२. हम मधुर व क्रियाशील बनें -
मन्त्र इस बात को आगे बढाते हुए इस के दूसरे बिन्दु पर प्रकाश डालते हुए
कहता है कि हे प्राणी! जिन ऒषधियों का,
जिन
वनस्पतियों का तूं प्रयोग करता है ,
उन का
उत्तम तथा गुणवत्ता वाला होना आवश्यक होता है। इस लिए तूं इन का उत्पादन करते समय , इन्हें धरती में बोते समय ,
इन का
बीज उतम डालना , इस में उत्तम उर्वरकों तथा
उत्तम जलों का प्रयोग करना। जो ओषधियां वर्षा के जल से सिंचित होती है, उनकी गुणवत्ता दूसरे से अधिक होती है क्योंकि इन की गुणवता उत्तम जल के
कारण उत्तम हो जाती है। इन में सात्विकता कहीं अधिक होती है। जिन में गन्दा जल
डाला जाता है, वह ओषध तामसी बन जाती हैं
तथा इन के प्रयोग से तामसी गुणों का जन्म होता है।
मन्त्र आगे बताता है कि उत्तम जलों से सिंचित इन औषध में सुन्दर रसों की
प्रचुरता होती है। यह संगत रसों से भरी होती हैं। इस प्रकार की ओषधियां शक्ति -
वर्धक गुणों से भरी होती हैं , यह इस कारण धनवान् मानी जाती
हैं। इस प्रकार यह गतिशील प्राणी के साथ मिल जाती हैं तथा उसे और भी अधिक गतिशील
बना देती हैं। इन औषध का सेवन करने वाला प्राणी स्वस्थ हो कर अत्यधिक पुरुषार्थी
हो जाता है , अत्यधिक मेहनत करने लगता है।
इन औषधियों में जिस मधुर रस का संचार हो रहा होता है, इनके सेवन से वह मधुर रस इसे सेवन करने वाले व्यक्ति के अन्दर प्रवेश कर
जाता है। इस से वह प्राणी भी मधुर व्यवहार वाले बन जाते हैं। ऐसे मधुर बने प्राणी
के सम्पर्क में जो भी आता है , वह भी मधुर बनता चला जाता
है।
इस प्रकार इस मन्त्र के आधार पर हम कह सकते हैं कि जिस वनस्पति का हम ने
सेवन करना है , उसका रोपण उत्तम बीज से हो , उत्तम प्रकार की उर्वरक इस में डालें ,
इसमें
उत्तम तथा शुद्ध जल का ही प्रयोग किया जावे । इस विधी से पैदा किये गये अन्न का
उपभोग करने से सात्विक रस की उत्पति होने से ताम्सिक वृति नहीं आने पावेगी । इस
प्रकार की बुद्धि से बचते हुए हम सात्विक बुद्धि वाले बन कर पुरुषार्थी तथा मधुर
स्वभाव वाले बनेंगे ।
डा अशोक आर्य
व्यसनों को दूर कर मधुर और क्रियाशील बनें
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