हमारी बुद्धि सदा पर्वती हो- अर्थात् हमारी
बुद्धि सदा हमारी मनोकमनाओं को पूर्ण करने वाली हो। बुद्धि मानव को विनाश से बचाती है। इसलिए यह
बुद्धि हमें विनाश के मार्ग से बचाने वाली हो। इस बात का विचार यजुर्वेद के प्रथम
अध्याय का यह उन्नीसवां मन्त्र हमें इस प्रकार उपदेश कर रहा है-
शर्मास्यवधूतं
रक्षोऽवधूताऽअरातयोऽदित्यास्त्वगसि प्रति त्वादितिर्वेतु। धिषणासि पर्वती प्रति
त्वादित्यास्त्वग्वेत्तु दिवरू स्कम्भनीरसि धिषणासि पार्वतेयी प्रति त्वा पर्वती
वेत्तु ॥ लंरनंअंव-क 1.19 ||
मानव अपने जीवन में ज्ञान, इस के साथ ही साथ अपने जीवन में बल तथा
यज्ञ को अपनाता है। अर्थात् मानव
बुद्धिजीवी प्राणी होने के नाते सदा ज्ञान का संचय करने का यत्न करता है। इस मानव
की यह भी आकांशा होती है कि वह इतना बलवान् हो कि कोई भी उसके समकक्ष सामने न आ
पावे। इस के साथ ही साथ वह दूसरों में अपने आप को सम्मानित भी देखना चाहता है,
इसलिए वह अनेक प्रकार के यज्ञ (परोपकार
के कार्य) करता है। इस निमित्त उसकी कई
प्रकार की लालसाएं होती हैं, उसे
कई प्रकार के उपाय करनीय होते हैं यथा १.
सदा आनन्दित रह-
हे प्राणी तुं राक्षसी आदतों से रहित होने
के कारण, बुरी आदतों से रहित होने के कारण तेरा
जीवन आनन्द से भरा हुआ है, तूं आनन्द मयी वातावरण में रह रहा है।
तूं ने जीवन प्रयन्त एसे कार्य करे हैं कि जिस से राक्षसी प्रव्रतियां भयभीत हों,
तेरे यत्नों से भयभीत हुई बुरी आदतें तेरे से दूर भाग गयी हैं। इससे
तेरे अन्दर जो दूसरे को कुछ न देने की भावना थी, वह दूर
हो गयी हैं। अब तूं दुसरों की सहायता करने वाला, दूसरे
के लिए सेवा भावना वाला बन गया है। इन भावनाओं में बुराई कभी रह ही नहीं सकती। अत:
दूसरों का सहायक बन कर तूं आनन्द में रहने वाला बन गया है।
२. दिव्य गुणों
का स्वामी बन हम अभय बनें-
दिव्य गुण वह है जिनके होने से अदिति देवी
हमारे निकट आती है। एसे गुण हमारे अन्दर पैदा हों, इसके लिए
उपाय करने की प्रेरणा देते हुए मन्त्र आगे कह रहा है कि हम सदा अदिती के सम्पर्क
में रहें। अदिति हमारे सम्पर्क में हो। हम सदा अदिती के सम्पर्क में रहें। भाव यह
है कि हम सदा अदीनता के वातावरण में निवास करें। कभी किसी से कुछ लेने की इच्छा न
करें, सदा ही दूसरे को देने की भावना ही हमारे अन्दर हो। हमारे अन्दर सदा
दिव्य गुणों को ही स्थान मिले। हम दिव्य गुणों के स्वामी रहें। हम कभी असभ्य बन कर
किसी दूसरे को तंग न करें, परेशान न करें किन्तु एसा भी न हो कि
हमें किसी दूसरे के सामने हाथ पसारना पडे, दूसरे के आगे
गिडगिडाना पडे। इस से बचने के लिए हमने यत्न पूर्वक दिव्य गुणों को अपने अन्दर
विकसित करना है। यह दिव्य गुण रूपी देवीय सम्पति हमें अभय से ही प्राप्त होती है।
इस लिए हमने अभय बनना है।
जब मानव अभय बनने का प्रयास करता है तो इस
अभय बनने के लिए मानव को बुद्धि की आवश्यकता होती है। प्रत्येक उन्नति के कार्य
में जीव को बुद्धि सदा सहायिका के रुप में प्राप्त होती है। बुद्धि की सहायता से
ही उत्तमता, अभयता प्राप्त की जा सकती है। कहा भी है कि यदि
आत्मा रथी है तो बुद्धि इस रथ के लिए सारथी होती है। बिना सारथी के रथ एक कदम भी
आगे नहीं बढ सकता। इस प्रकार ही बुद्धि के बिना मानव उन्नति पथ पर एक कदम भी नहीं
बटा सकता। मानवीय आत्मा को इस शरीर पर शासन करने वाला राजा मान लें तो हम कह सकते
हैं कि इस राज्य के लिए मन्त्री का कार्य बुद्धि ही करती है। यदि हम परिवार में
इसकी कल्पना करना चाहें तो हम कह सकते हैं इसमें पति को आत्मा मानें तो पत्नि इस
परिवार के लिए बुद्धि रुप में प्राप्त होती है। इतना ही नहीं यदि हम इस की स्पर्धा
देवों में करें तो हम कह सकते हैं कि आत्मा महादेव है तो महादेव की पत्नि पार्वति
का कार्य यह बुद्दि ही करती है।
इसलिए ही यह मन्त्र उपदेश कर रहा है कि
हे मानव! तेरे पास धारण करने वाली बुद्धि है। तूं पार्वती के समान पूर्ण करने वाली
बुद्धि का भी स्वामी है। इतना ही नहीं सब प्रकार की न्यूनताओं को, सब
प्रकार की कमियों को पूर्ण करने वाली बुद्धि का स्वामी है। इस लिए तुझे सदा अदिती
का आशीर्वाद, अदिती का सम्पर्क, अदिती का
सहयोग मिलता रहे। इस की सहायता से तेरे मार्ग की सब बाधाएं दूर हों।
३. पूर्णता की
शक्ति का रक्षक बन-
बुद्धि क्या
होती है? बुद्धि वह होती है जो प्रकाश की धारणा
दे। भाव यह है कि बुद्धि मानवीय प्रकाश का साधन है, बुद्धि
मानव को ठीक मार्ग पर, प्रकाश की ओर ले जाने वाली होती है। हम जानते
हैं कि एक भवन को खडा करने के लिए उसके नीचे कई प्रकार के ख्म्बे लगाए जाते हैं।
आज तो बीस से भी अधिक मन्जल के भवन बन रहे हैं। इतने ऊंचे भवन साधारण नींव पर तो
खडे नहीं हो सकते। इन भवनों को प्रतिक्षण सहारे की आवश्यकता होती है। इस सहारे के
रूप में हम बडे बडे मजबूत, लोहे की छ्डों से युक्त सीमेन्ट के
खम्बे खडे करते हैं। हम आज बडे बडे पुल बनाते हैं तथा मैट्रो के भागने के लिए जो
लाईन बिछाते हैं उन की पटडियों को भी बडे बडे खम्बों का सहारा देते हैं। इन सहारों
के बिना यह भारी भरकम भवन खडे ही नहीं हो सकते। किसी भी समय गिर सकते हैं। इस
प्रकार ही मानवीय जीवन में हमारी यह बुद्धि भी इन खम्बों का ही काम करती है।
हमारे सारे के सारे ग्यान रुपी प्रकाश का साधन
हमारी यह बुद्धि ही होती है। जब तक यह बुद्धि ठीक मार्ग पर चल रही है, तब
तक ही हम उन्नति पथ पर आगे बटते हैं, ज्यों ही यह विकृत हो जाती है, त्यों
ही हमारा मार्ग भी बदल जाता है। इसकी विक्रति के साथ ही हमारा मार्ग अन्धकार की ओर
मुड जाता है। अब हमारे अन्दर का प्रकाश नष्ट हो जाता है तथा इसका स्थान अन्धेरा ले
लेता है। इसलिए मन्त्र कहता है कि हे मानव! तूं सदा एसा पुरुषार्थ कर, एस
प्रयास कर कि तेरी यह बुद्धि, तुझे सदा पूर्ण बनाने वाली ही बनी रहे।
इस प्रकार हम यह पूर्ण करने की जो क्रिया है, उसे हम
पूर्ण रूप में जान लेवें। इसका भाव यह है कि हमारी इस बुद्धि में हमारे अन्दर की
कमियों को दूर करने की क्षमता सदा पूर्ववत ही बनी रहे। हमारी यह बुद्धि कभी भी
उल्टे पथ की ओर बढकर हमारे विनाश का कारण न बने। इसलिए हम सदा परमपिता से यह
प्रार्थना करें कि वह प्रभु हमें सदा इतनी शक्ति दे, सामर्थ्य
दे कि हम अपनी इस बुद्धि को पूर्णता के लिए ही बनाए रखें।
डा अशोक आर्य
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