मानवीय शरीर में सत्वगुण का विशेष
महत्व होता है. यह सत्वगुण ही है जिससे मानवीय शरीर , मानवीय,
मन तथा मानवीय मस्तिष्क आदि सब कुछ स्वस्थ रहता है. इस लिए मानवीय
शरीर के लिए सत्वगुण एक महत्वपूर्ण तथा आवश्यक तत्व है. इस बात की और संकेत करते
हुए ऋग्वेद अध्याय एक सूक्त ५२ का मन्त्र
संख्या १२ इस प्रकार उपदेश कर रहा है.
त्वमस्य पारे रजसो व्योमनरू सवभूत्योजा
अवसे ध्रिषन्मन-
चकृषे भूमिं प्रतिमानमोजसोैपरू स्वरू
परिभूरेध्या दिवम् ऋग्वेद १.५२.१२
१. हम ध्रिषन्मनरू हों
मन्त्र कहता है कि जब मानव की
इन्द्रियाँ मानवीय शरीर को पालन करने की दृष्टि मात्र से ही विषयों को ग्रहण करने
वाली बन जाती हैं तो मानव “ध्रिषन्मनरू” बन जाता
है
२ हम आत्मिक एश्वर्य (ओज) को धारण करें
मानव की इन्द्रियाँ शरीर को पालन की
दृष्टि से विषयों को ग्रहण करने लगती है अथवा जब हम अपनी वासनाओं का धर्षण करने
वाले मन के स्वामी हो जाते हैं या यूँ कहें कि हम अपने मन को एसा बना लेते हैं कि
हमारा मन वासनाओं का गुलाम न बन कर उससे ऊपर उठ जाता है तथा वासनाएं उस का दास बन
जाती हैं. उस समय हम स्वभूत्योजा बन जाते हैं अर्थात् हम आत्मिक एश्वर्य को धारण
करते हैं , आत्मिक धन के स्वामी बन जाते हैं द्य इस प्रकार
हम ओज को धारण करते हैं.
ओज को धारण करने वाले बनकर हम रजोगुण
से, उस रजोगुण से ऊपर उठते हैं , जो विषयों की
रूचिवाला होता है अर्थात् हम विषय विकारों से ऊपर उठ जाते हैं. इस प्रकार सब तरह
के विकारों से ऊपर उठकर हम सत्वगुण में स्थापित होते हैं अर्थात् सत्वगुण के
स्वामी होते हैं , सत्वगुण में अवस्थित होते हैं. इसलिए ही मन्त्र
में ध्रिषन्मनरू का प्रयोग हुआ है.
२ काम, क्रोध के धर्शक
बनें
यह ध्रिषन्मनरू क्या है ? इस से अभिप्राय: है कि हम काम, क्रोध
आदि बुराइयों के धर्शक बन जाते हैं अर्थात् इन बुराइयों को हम धारण नहीं करते. इन बुराइयों से हम ऊँचे उठ जाते हैं. हम काम , क्रोध के
धर्शक मन वाले जीव बन जाते हैं.
४. आत्मिक
उन्नति
इस से ही हम स्वभुती ओजारू बन जाते हैं
अर्थात् हम में आत्मिक उन्नति की शक्ति का प्रवाह होता है. हम आत्मिक उन्नति के प्रशस्त मार्ग पर चलने
वाले बन जाते हैं. आत्मिक उन्नति रूपी धन
के हम स्वामी बन जाते हैं. इस प्रकार आत्मिक उन्नति के कारण हम ओज से भर जाते हैं.
आत्मिक उन्नति रूपी ओज जो है उस धन के हम अधिकारी हो जाते हैं द्य इस प्रकार की ओजस्विता वाला मानव त्वमस्य रजसो
व्योमनरू पारे अर्थात् तूं इस रजोगुण से युक्त ,रजोगुण
से भरपूर आकाश से पार हो जाता है. अब
रजोगुण का तेरे लिए कुछ भी महत्व नहीं होता.
विषय वासनाओं का तेरे लिए कुछ भी महत्व नहीं होता. इस सब को त्याग कर , इस सब से
ऊपर उठकर तूं सत्वगुण में अवस्थित हो जाता है द्य सत्वगुण ही अब तेरे लिए धन बन
जाता है.
५. सबल शरीर
हे मानव ! इस प्रकार सत्वगुण रूपी धन
एश्वर्य का स्वामी बन कर तूं भूमिम इस निवास स्थान रूपी शरीर को ,उस
शरीर को जो तेरा घर है , तेरा निवास है ( वह स्थान जिसमें
मनुष्य निवास करता है ) को ओजसरू प्रतिमानं चकृषे अर्थात् बल का प्रतिनिधि करता है
द्य इस प्रकार तेरा यह शरीर बल का
प्रतिनिधि बनकर तूं अपने इस शरीर को बलवान् बना लेता है. इस प्रकार शरीर को सबल बनाता है. सबल शरीर से
ही सब कार्य संभव होते हैं. यदि शरीर बलवान् नहीं है तो इसे सदा रोग - शौक आदि
घेरे रहते है. इसलिए शरीर का सबल होना
आवश्यक होता है तथा इस मन्त्र के अनुसार जब विषय वासनाओं से ऊपर उठ जाते हैं तो
शरीर स्वयमेव ही ओज से सबल बन जाता है,.
बल का प्रतिनिधित्व करने लगता है.
६. ज्ञान का
प्रकाश
शरीर सबल होने पर अपरू, स्वरू,
दिवं, परिभूत हो आता है अर्थात् जब शरीर सबल होता है
तो तूं इसके कारण अपने ह्रदय रूपी अंतरिक्ष को प्रकाशमय करता है. हम जानते हैं कि
प्रकाश को खाली स्थान की आवश्यकता होती है.
जहाँ खाली स्थान अर्थात् आकाश होता है, वहां ही
प्रकाश होता है जिससे हम प्रकाशित होते है तब ही हम कुछ देख पाते हैं. इस प्रकार
ही हमारे हृदय को भी आकाश माना जाता है. इस आकाश रूपी हृदय में जब ज्ञान का प्रकाश
होता है तब ही हम बुद्धियों के स्वामी बनते हैं. अत: अपने हृदय में बुद्धि रूपी ,
ज्ञान रूपी प्रतिमा को स्थापित करने के लिए हमारे पास ओज का एश्वर्य
होता हो तब ही हमारे हृदय में ज्ञान रूपी प्रतिमा स्थापित होती है, ज्ञान
का प्रकाश होता है. इस प्रकार ज्ञान के
प्रकाश से प्रकाशित होते हुए हमारा मस्तिष्क रूपी दुलोक चारों और से अर्थात् सब और
से कुछ न कुछ ग्रहण करने वाला, प्राप्त करने वाला होता है. इस प्रकार से सब और से ग्रहण करने के योग्य
होता हुआ यह मस्तिष्क सम्पूर्ण ज्ञान विज्ञान को, सब
प्रकार के ज्ञान को प्राप्त करता हुआ प्रभु के समीप जाता है द्य उस पिता की निकटता
को पा लेता है.
७. सत्वगुण
सत्वगुण को अपना निवास बनाने वाले,
इसे अपने हृदय में बसाने वाले लोगों को तीन प्रकार के परिणाम प्राप्त
होते हैं. यथा शरीर सबल
हमारा शरीर स्वस्थ बन जाता है. इसमें सब
प्रकार के बल निवास करने लगते हैं. इस प्रकार यह शरीर सबल बन जाता है.
प्रकाशमान् शरीर
सत्वगुण की शक्ति से युक्त शरीर हृदय की
वासनाओं रूपी मल से रहित हो जाता है. वासना - रहित यह शरीर प्रकाशमान् हो जाता है. इस में सब और से ज्ञान रूपी प्रकाश प्रवेश करता
है. तथा
ग) यश और कीर्ति
इस प्रकार के शरीर में अवस्थित मस्तिष्क सब
प्रकार के ज्ञान. विज्ञान रूपी ज्योति से जगमगाने लगता है तथा इस का यश और कीर्ति
दूर दूर तक चली जाती है.
डा. अशोक आर्य
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